आज के विचार
( "श्रीराधाचरितामृतम्" की भूमिका )
25, 4, 2020
कल कल करती हुयी कालिन्दी बह रही थीं ........घना कुञ्ज था ...फूल खिले थे , उसमें से निकलती मादक सुगन्ध सम्पूर्ण वन प्रदेश को अपनें आगोश में ले रही थी......चन्द्रमा की किरणें छिटक रहीं थीं ....यमुना की बालुका ऐसी लग रही - जैसे रजत को पीस कर बिखेर दिया गया हो......हाँ बीच बीच में पवन देव भी चल देते थे .....कभी कभी तो तेज हो जाते......तब यमुना के बालू का कण जब आँखों में जाता, तो ऐसा लगता जैसे ये बालुका न हो कपूर को पीस कर बिखेर दिया गया हो ।
कमल खिले हैं .............कुमुदनी प्रसन्न है .......उसमें भौरों का झुण्ड ऐसे गुनगुना रहा है..........जैसे अपनें प्रियतम के लिये ये भी गीत गा रहे हों.......बेला, मोगरा , गुलाब इनकी तो भरमार ही थी .....।
ऐसी दिव्य प्रेमस्थली में, मैं कैसे पहुँचा था मुझे पता नही ।
मेरी आँखें बन्द हो गयीं ..........जब खुलीं तब मेरे सामनें एक महात्मा थे ......बड़े प्रसन्न मुखमण्डल वाले महात्मा ।
मैने उठते ही उनके चरणों में प्रणाम किया ।
उनके रोम रोम से श्रीराधा .....श्रीराधा ...श्री राधा ये प्रकट हो रहा था ।
उनकी आँखें चढ़ी हुयी थीं .......जैसे कोई पीकर मत्त हो .........हाँ ये मत्त ही तो थे .........तभी तो कदम्ब और तमाल वृक्ष से लिपट कर रोये जा रहे थे .......रोनें में दुःख या विषाद नही था .......आल्हाद था ....आनन्द था ।
मैने उनकी गुप्त बातें सुननी चाहीं ...........मैं अपनें ध्यानासन से उठा .........और उनकी बातों में अपनें कान लगानें शुरू किये ।
विचित्र बात बोल रहे थे ये महात्मा जी तो ।
कह रहे थे .........नही, मुझे तुम्हारा मिलन नही चाहिये .....प्यारे ! मुझे ये बताओ कि तुम्हारे वियोग का दर्द कब मिलेगा ।
तुम्हारे मिलन में कहाँ सुख है ...........सुख तो तेरे लिए रोने में है .....तेरे लिए तड़फनें में है ..........तू मत मिल अब ............तू जा ! मैं तेरे लिये अब रोना चाहता हूँ ..........मैं तेरे विरह की टीस अपनें सीने में सहेजना चाहता हूँ ......तू जा ! जा तू ।
ये क्या ! महात्मा जी के इतना कहते ही ....................
तू गया ? तू गया ? कहाँ गया ? हे प्यारे ! कहाँ ?
वो महात्मा दहाड़ मार कर धड़ाम से गिर गए उस भूमि पर ..........
मैं गया .......मैने देखा ...............उनके पसीनें निकल रहे थे ........पर उन पसीनों से भी गुलाब की सुगन्ध आरही थी ।
मैं उन्हें देखता रहा ...............फिर जल्दी गया ........अपनें चादर को गीला किया यमुना जल से .............उस चादर से महात्मा जी के मुखारविन्द को पोंछा ........."श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा"........यही नाम उनके रोम रोम से फिर प्रकट होनें लगा था ।
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वत्स ! साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं ..............और ये अनादिकाल से चली आरही धाराएं हैं ................
वो उठकर बैठ गए थे ........उन्हें मैं ही ले आया था देह भाव में ....।
उठते ही उन्होंने इधर उधर देखा ........फिर मेरी ओर उनकी कृपा दृष्टि पड़ी .........मैं हाथ जोड़े खड़ा था ।
वो मुस्कुराये.....उनका कण्ठ सूख गया था......मैं तुरन्त दौड़ा ....यमुना जी गया .......एक बड़ा सा कमल खिला था, उसके ही पत्ते में मैने जमुना जल भरा और ला कर उन महात्मा जी को पिला दिया ।
वो जानें लगे ........तो मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया ।
तुम कहाँ आरहे हो वत्स !
उनकी वाणी अत्यन्त ओजपूर्ण, पर प्रेम से पगी हुयी थी ।
मुझे कुछ तो प्रसाद मिले !
मैनें अपनी झोली फैला दी ।
वो हँसे ............मैं पढ़ा लिखा तो हूँ नही ?
न पण्डित हूँ ........न शास्त्र का ज्ञाता ............मैं क्या प्रसाद दूँ ?
उनकी वाणी कितनी आत्मीयता से भरी थी ।
आप नें जो पाया है....उसे ही बता दीजिये ........मैने प्रार्थना की ।
उन्होंने लम्बी साँस ली ..........फिर कुछ देर शून्य में तांकते रहे ।
वत्स ! साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं .............
एक धारा है ........अहम् की ......यानि "मैं" की .....और दूसरी धारा है .......उस "मैं" को समर्पित करनें की ................
........मेरा मंगल हो ....मेरा कल्याण हो ...........मेरा शुभ हो .........इसी धारा में जो साधना चलती है ....वो अहंम को साधना है ।
पर एक दूसरी धारा है साधना की ...........वो बड़ी गुप्त है .......उसे सब लोग नही जान पाते .............
क्यों नही जान पाते महात्मन् ? मैने प्रश्न किया ।
क्यों की उसे जाननें के लिये अपना "अहम्" ही विसर्जित करना पड़ता है........."मैं" को समाप्त करना पड़ता है .......महाकाल भगवान शंकर ......जो विश्व् गुरु हैं.......जगद्गुरु हैं......वो भी इस रहस्य को नही जान पाये ........तो उन्हें भी सबसे पहले अपना "अहम्" ही विसर्जित करना पड़ा .........यानि वो गोपी बने........पुरुष का चोला उतार फेंका ......तब जाकर उस रहस्य को उन्होंने समझा ।
ये प्रेम की अद्भुत धारा है.......पर......वो महात्मा जी हँसे......ये ऐसी धारा है जो जहाँ से निकलती है उसी ओर ही बहनें लग जाती है ।
तभी तो इस धारा का नाम धारा न होकर ............राधा है ।
जहाँ पूर्ण अहम् का विसर्जन है .............जहाँ " मैं" नामक कोई वस्तु है ही नही ......है तो बस ....तू ही तू ।
त्याग, समर्पण , प्रेम करुणा की एक निरन्तर चिर बहनें वाली सनातन धारा का नाम है ......राधा ! राधा ! राधा ! राधा !
वो इससे आगे कुछ बोल नही पा रहे थे ।
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काहे टिटिया रहे हो ?
मैं चौंक गया ...............ये मुझे कह रहे हैं ।
हाँ हाँ .........सीधे सीधे "श्रीराधा रानी" पर कुछ क्यों नही लिखते ?
ये आज्ञा थी उनकी ...............मैने उनकी आँखों में देखा ।
मैं लिख लूंगा ? मेरे जैसा प्रेमशून्य व्यक्ति उन "आल्हादिनी श्रीराधा रानी" के ऊपर लिख लेगा ? जिनका नाम लेते ही भागवतकार श्रीशुकदेव जी की वाणी रुक जाती है...........ऐसी "श्रीकृष्णप्रेममयी श्रीराधा" पर मैं लिख लूंगा ? मैं कहाँ कामी, क्रोधी , कपटी लोभी क्या दुर्गुण नही हैं मुझ में ...........ऐसा व्यक्ति लिख लेगा उन "श्रीकृष्ण प्रिया श्रीराधा" के ऊपर ......?
वो महात्मा जी उठे .............मेरे पास में आये ...............
और बिना कुछ बोले ............मेरे नेत्रों के मध्य भाग को अपनें अंगूठे से छू दिया ..............ओह ! ये क्या !
दिव्य निकुञ्ज ..........दिव्याति दिव्य नित्य निकुञ्ज ......मेरे नेत्रों के सामनें प्रकट हो गया था ।
जहाँ चारों ओर सुख और आनन्द की वर्षा हो रही थी .......प्रेम निमग्ना सहस्त्र सखी संसेव्य श्रीराधा माधव उस दिव्य सिंहासन में विराजमान थे..........उन श्रीराधा रानी की चरण छटा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा था...........उनकी घुंघरू की आवाज से ऊँ प्रणव का प्राकट्य है .......वो पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण अपनी आल्हादिनी के रूप में राधा को अपनें वाम भाग में विराजमान करके प्रेम सिन्धु में अवगाहन कर रहे थे । ......................
मैने दर्शन किये नित्य निकुञ्ज के .......................
अब तुम लिखो .................."श्रीराधाचरितामृतम्".............
वो महात्मा जी खो गए थे उसी निकुञ्ज में ।
"यमुना जी जाना नही है '...............पाँच बज गए हैं ।
सुबह पाँच बजे मुझे उठा दिया मेरे घर वालों नें ।
ओह ! ये सब सपना था ?
मुझे आज्ञा मिली है.............कि मैं "श्रीराधाचरितामृतम्" लिखूँ .....मुझे ये नाम भी उन्हीं दिव्य महात्मा जी नें सपनें में ही दिया है ।
पर कैसे ? कैसे लिखूँ ? "श्रीराधारानी" के चरित्र पर लिखना साधारण कार्य नही है ...........मैनें अपना सिर पकड़ लिया ।
फिर एकाएक मन में विचार आया .............कन्हैया की इच्छा है .......वो अपनी प्रिया के बारें में सुनना चाहता है ..........
ओह ! तो मैं सुनाऊंगा .........प्रमाण मत माँगना ........क्यों की "श्रीराधा" पर लिखना ही अपनें आप में धन्यता है .......और लेखनी की सार्थकता भी इसी में है ...............।
प्रेम की साक्षात् मूर्ति श्री राधा रानी के चरणों में प्रणाम करते हुए ।
! ! कृष्ण प्रेममयी राधा, राधा प्रेममयो हरिः ! !
कल से "श्रीराधाचरितामृतम्" , आनंद आएगा साधकों !
जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏
दिवस 1
शेष क्रमांक अगले अंक में 6/6/2020