Friday, January 31, 2025

मानसिक लीला सखियो के चित्र

सखियों के चित्र
राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा.....

निकुञ्ज का एकान्त कक्ष। श्रीप्रियाजी मखमली सिंहासन पर अकेली बैठी हैं। उन्होंने धीरे से पुकारा- चित्रा!

अपना नाम सुनते ही श्रीचित्रा उपस्थित हो गयी। नयनों की भाषा में चित्रा पूछ रही थी कि क्या आदेश है? 

श्रीचित्रा पर दृष्टि जमाये श्रीप्रियाजी ने कहा- क्या तुम मेरा एक काम कर दोगी?

श्रीचित्रा ने विनम्र स्वर में कहा- मैंने कब किसी कार्य के लिये ना कहा है?

श्रीप्रियाजी- यह तो मैं जानती हूँ, पर आज जो कहूँगी, उसके लिये तुम आनाकानी तो नहीं करोगी?

श्रीचित्रा- तुम कहो तो सही। मैं न ना कहूँगी और न आनाकानी करूँगी।

श्रीचित्रा का कथन आदेश पालन की भावना से भरपूर था।श्रीप्रियाजी- मैं जो कहूँगी, उसके बीच में कोई प्रश्न मत करना और न इसकी चर्चा कहीं अन्यत्र करना। मैं जो कहूँ, वैसा कर देना। श्रीप्रियाजी ने जो कहा, उनके शब्द-शब्द से अपार प्यार झर रहा था। श्रीचित्रा की चित्तवृत्ति अत्युत्सुक थी कि श्रीप्रियाजी आज क्या अनोखी बात कहने वाली हैं। 

सुनने के लिये अति तत्परा चित्तवाली श्रीचित्रा से श्रीप्रियाजी ने कहा- तुम एक चित्र बना दो। सुन्दर चित्र, एक ललिता का, एक विशाखा का एक तुम अपना।

श्रीचित्राजी बीच में ही बोल पड़ीं- मेरा और मेरी बहिनों का चित्र क्यों बनवा रही हो?

श्रीप्रियाजी- देखो, देखो, तुम बीच में ही बोल पड़ी न? मैंने कहा था न कि बीच में कुछ प्रश्न मत करना।

श्रीचित्रा- ठीक है। उत्सुकतावशात् प्रमाद हो गया। अब मैं नहीं  पूछूंगी। श्रीचित्रा ने विश्वास दिलाया।

श्रीप्रियाजी- तुम ललिता, विशाखा, अपना, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी इन सभी का एक-एक सुन्दर चित्र बना दो।

श्रीचित्रा ने कहा- जैसी आज्ञा। श्रीचित्रा ने एक-दो दिन में आठों बहिनों के आठ चित्र बनाकर दे दिये। श्रीप्रियाजी ने उन आठों चित्रों को चन्दन की मञ्जूषा में सहेजकर और सँभाल कर रख लिया। श्रीचित्रा के मन में बड़ी जिज्ञासा थी कि इन चित्रों को बनवाने का प्रयोजन क्या है? पूछने पर श्रीप्रियाजी बतलायेंगी नहीं और प्रयोजन जानने की उत्सुकता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही थी।

एक रात श्रीचित्राजी के उकसाये जाने पर मैंने बात को टटोलने का प्रयास किया। प्रयास सफल भी हो गया। निकुञ्ज के छिद्र-रन्ध्र से चुपचाप झाँककर मैंने जो देखा, उसे देखकर अपार विस्मय हुआ।

श्रीप्रियाजी ने चन्दन की मञ्जूषा से श्रीललिताजी का चित्र निकाला। उस चित्र को श्रीप्रियाजी ने प्रणाम किया, उसे छाती से लगाया, कपोलों से चिपकाया और फिर उसे निहारते हुए वे कहने लगीं- ललिते! जैसी तेरी सेवापरायणता है, उसके कणांश का भी उद्भव मेरे जीवन में कभी होगा क्या? मेरी बहिनि! तुम कितनी महान् हो, जो हम दोनों के लिये सतत और सर्वथा सर्वार्पण किये रहती हो। मैं तेरे चित्र को प्रणाम करती हूँ। शायद इसी से तेरा यह महान् सद्गुण प्रियसुख-संवर्धनशीलता मेरे अन्तर में भी संक्रमित हो जाय।

जिस प्रकार श्रीललिताजी के चित्र के प्रति वन्दन-निवेदन आदि श्रीप्रियाजी ने किया, वैसा ही अन्य बहिनों के चित्रों के प्रति भी किया।

मैं मन-ही-मन पुकार उठी- इस भाव-गरिमा की जय हो! जय हो!! मैं बलि-बलि जाऊँ।
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विशाखा सखी

सखी बिसाखा अति ही प्यारी। कबहुँ न होत संगते न्यारी॥ बहु विधि रंग बसन जो भावै। हित सौं चुनि कै लै पहिरावै॥ ज्यौं छाया ऐसे संग रहही। हित की बा...