आज के विचार भाव:- श्रीजी मंजरीदास भाव हित सो चलिये
( राधे ! चलो अवतार लें ... )
!! श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 2 !!
दिवस 2
04, 6, 2020
"जय हो जगत्पावन प्रेम कि .....जय हो उस अनिर्वचनीय प्रेम कि .....
उस प्रेम कि जय हो, जिसे पाकर कुछ पानें कि कामना नही रह जाती ।
उस 'चाह" कि जय हो .........जिस "प्रेम चाह" से कामनारूपी पिशाचिनी का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है .......।
और अंत में हे यादवकुल के वंश धर वज्रनाभ ! तुम जैसे प्रेमी कि भी जय हो ........जय हो ।
महर्षि शाण्डिल्य से "श्रीराधाचरित्र" सुननें कि इच्छा प्रकट करनें पर ......महर्षि के आनन्द का ठिकाना नही रहा ...वो उस प्रेम सिन्धु में डूबनें और उबरनें लगे थे ।
हे द्वारकेश के प्रपौत्र ! मैं क्या कह पाउँगा श्रीराधा चरित्र को ?
जिन श्रीराधा का नाम लेते हुए श्रीशुकदेव जैसे परमहंस को समाधि लग जाती है ...........वो कुछ बोल नही पाते हैं ।
हाँ ......प्रेम अनुभूति का विषय है वज्रनाभ ! ये वाणी का विषय नही है .........कुछ देर मौन होकर फिर हँसते हुए बोलना प्रारम्भ करते हैं महर्षि शाण्डिल्य ............हा हा हा हा.........गूँगे के स्वाद कि तरह है ये प्रेम ...........गूँगे को गुड़ खिलाओ ....और पूछो - बता कैसा है ?
क्या वो कुछ बोल कर बता पायेगा ? हाँ वो नाच कर बता सकता है ......वो उछल कूद करके ........पर बोले क्या ?
ऐसे ही वत्स ! तुमनें ये मुझ से क्या जानना चाहा !
तुम कहो तो मैं वेद का सम्पूर्ण वर्णन करके तुम्हे बता सकता हूँ .......तुम कहो तो पुराण इतिहास या वेदान्त गूढ़ प्रतिपादित तत्व का वर्णन करना मुझ शाण्डिल्य को असक्य नही हैं ........पर प्रेम पर मैं क्या बोलूँ ?
प्रेम कि परिभाषा क्या है ? परिभाषा तो अनन्त हैं प्रेम कि .......अनेक कही गयी हैं ........अनेकानेक कवियों नें इस पर कुछ न कुछ लिखा है कहा है .........पर सब अधूरा है ............क्यों कि प्रेम कि पूरी परिभाषा आज तक कोई लिख न सका ...........।
पूरी परिभाषा मिल ही नही सकती ...........क्यों कि प्रेम, वाणी का विषय ही नही है ......ये शब्दातीत है .............इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य फिर मौन हो गए थे ।
हे महर्षियों में श्रेष्ठ शाण्डिल्य ! आपनें "प्रेम" के लिए जो कुछ कहा .....वो तो ब्रह्म के लिए कहा जाता है ...........तो क्या प्रेम और ब्रह्म एक ही हैं ? अंतर नही है दोनों में ?
मैं अधिकारी हूँ कि नही ...........हे महर्षि ! मैं प्रेम तत्व को नही जानता ........आप कि कृपा हो तो मैं जानना चाहता हूँ......यानि अनुभव करना चाहता हूँ .........आप कृपा करें ।
हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ नें महर्षि शाण्डिल्य से कहा ।
हाँ, ब्रह्म और प्रेम में कोई अंतर नही है ...............फिर कुछ देर कालिन्दी यमुना को देखते हुए मौन हो गए थे महर्षि ।
नही नही ...........ब्रह्म से भी बड़ा है प्रेम ...........मुस्कुराते हुए फिर बोले महर्षि शाण्डिल्य ।
तभी तो वह ब्रह्म अवतार लेकर आता है .........केवल प्रेम के लिए ।
प्रेम" उस ब्रह्म को भी नचानें कि हिम्मत रखता है ............क्या नही नचाया ? क्या इसी बृज भूमि में गोपियों नें ........उन अहीर कि कन्याओं नें ........माखन खिलानें के बहानें से .........उस ब्रह्म को अपनी बाहों में भर कर ......उस सुख को लूटा है .........जिस सुख कि कल्पना भी ब्रह्मा रूद्र इत्यादि नही कर सकते ।
उन गोपियों के आगे वो ब्रह्म नाचता है ..........आहा ! ये है प्रेम देवता का प्रभाव .........नेत्रों से झर झर अश्रु बहनें लग जाते हैं महर्षि के ये सब कहते हुए ।
कृष्ण कौन हैं ? शान्त भाव से पूछा था वज्रनाभ नें ये प्रश्न ।
चन्द्र हैं कृष्ण ...........महर्षि आनन्द में डूबे हुए हैं .........।
कहाँ के चन्द्र ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
श्रीराधा रानी के हृदय में जो प्रेम का सागर उमड़ता रहता है ..........उस प्रेम सागर में से प्रकटा हुआ चन्द्र है - ये कृष्ण ।
महर्षि नें उत्तर दिया ।
श्रीराधा रानी क्या हैं फिर ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
वो भी चन्द्र हैं , पूर्ण चन्द्र ! महर्षि का उत्तर ।
कहाँ कि चन्द्र ? वज्रनाभ आनन्दित हैं , पूछते हुए ।
वत्स वज्रनाभ ! श्रीकृष्ण के हृदय समुद्र में जो संयोग वियोग कि लहरें चलती और उतरती रहती हैं ........उसी समुद्र में से प्रकटा चन्द्र है ये श्रीराधा .....।
तो फिर ये दोनों श्रीराधा कृष्ण कौन हैं ?
दोनों चकोर हैं और दोनों ही चन्द्रमा हैं ...........कौन क्या है कुछ नही कहा जा सकता .........इसे इस तरह से माना जाए ........ राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है .............क्या वज्रनाभ ! प्रेम कि उस उच्चावस्था में अद्वैत नही घटता ? वहाँ कौन पुरुष और कौन स्त्री ?
उसी प्रेम कि उच्च भूमि में विराजमान हैं ये दोनों अनादि काल से ... ........इसलिये राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ........ये दो लगते हैं ........पर हैं नही ?
हे वज्रनाभ ! जो इस प्रेम रहस्य को समझ जाता है ......वह योगियों को भी दुर्लभ "प्रेमाभक्ति" को प्राप्त करता है ।
इतना कहकर भावसमाधि में डूब गए थे महर्षि शांडिल्य ।
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हे राधे ! जय राधे ! जय श्री कृष्ण जय राधे !
"ये आवाज काफी देर से आरही है ......देखो तो कौन हैं ?
विशाखा सखी नें ललिता सखी से कहा ।
कहो ना ! ज्यादा शोर न मचाएं ...........वैसे भी हमारे "प्यारे" आज उदास हैं ..........उनका कहीं मन भी नही लग रहा ।
पर ऐसा क्या हुआ ? ललिता सखी नें विशाखा सखी से पूछा ।
प्यारे अपनी प्राण "श्रीजी" को चन्द्रमा दिखा रहे थे ..........और दिखाते हुये बोले ........."तिहारो मुख तो चन्द्रमा कि तरह है मेरी प्यारी !
बस ....रूठ गयीं हमारी राधा प्यारी ! विशाखा सखी नें कहा ।
पर इसमें रूठनें कि बात क्या ? ललिता सखी फूलों कि सेज लगा रही थी ...........और पूछती भी जा रही थी ।
जब प्यारे नें अपनी प्राण श्रीराधिका से .....उनके चिबुक में हाथ रखकर, उनके कपोल को छूते कहा ....."चन्द्र कि तरह मुख है तुम्हारो"......
ओह ! तो क्या मेरे मुख में कलंक है ? मेरे मुख में काला धब्बा है !
बस श्रीराधा प्यारी रूठ गयीं ।
ओह ! ललिता सखी भी दुःखी हो गयी............पर श्याम सुन्दर को ये सब कहनें कि जरूरत क्या थी ? ।
पर श्रीराधा रानी को भी बात बात में मान नही करना चाहिए ना !
विशाखा सखी नें कहा ।
प्रेम बढ़ता है.........प्रेम के उतार चढाव में ही तो प्रेम का आनन्द है ।
यही तो प्रेम का रहस्य है ........रूठना ..........फिर मनाना .........।
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श्रीराधे ! जय जय राधे ! जय श्री कृष्ण जय जय राधे !
अरी अब तू जा ! और देख ये कौन आवाज लगा रहा है ........कह दे हमारे श्याम सुन्दर अभी उदास हैं ......क्यों कि उनकी आत्मा रूठ गयीं हैं ......अब वो मनावेंगे ।........जा ललिते ! जा कह दे ।
ललिता सखी बाहर आयी ...........कौन हैं आप ? और क्यों ऐसे पुकार रहे हैं .........क्या आपको पता नही है ये निकुञ्ज है ........श्याम सुन्दर अपनी आल्हादिनी के साथ विहार में रहते हैं ।
हमें पता है सखी ! हमें सब पता है .......पर एक प्रार्थना करनें आये हैं हम लोग ..........उन तीनों देवताओं नें हाथ जोड़कर प्रार्थना कि ललिता सखी से ।
पर .........कुछ सोचती हुई ललिता सखी बोली .....आप लोग हैं कौन ?
हम तीनों देव हैं ..........ब्रह्मा विष्णु और ये महेश ।
अच्छा ! आप लोग सृष्टि कर्ता , पालन कर्ता और संहार कर्ता हैं ?
ललिता सखी को देर न लगी समझनें में .........फिर कुछ देर बाद बोली .....पर आप किस ब्रह्माण्ड के विष्णु , ब्रह्मा और शंकर हैं ?
क्या ? ब्रह्मा चकित थे........क्या ब्रह्माण्ड भी अनेक हैं ?
ललिता सखी हँसी.............अनन्त ब्रह्माण्ड हैं हे ब्रह्मा जी ! और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अलग अलग विष्णु होते हैं ....अलग ब्रह्मा होते हैं और अलग अलग शंकर होते हैं ।
अब आप ये बताइये कि किस ब्रह्माण्ड के आप लोग ब्रह्मा विष्णु महेश हैं ?
कोई उत्तर नही दे सका .......तो आगे आये भगवान विष्णु ............हे सखी ललिते ! हम उस ब्रह्माण्ड के तीनों देव हैं .......जहाँ का ब्रह्माण्ड वामन भगवान के पद की चोट से फूट गया था ।
ओह ! अच्छा बताइये ........यहाँ क्यों आये ? ललिता नें पूछा ।
पृथ्वी में हाहाकार मचा है ...........कंस जरासन्ध जैसे राक्षसों का अत्याचार चरम पर पहुँच गया है ..........वैसे हम लोग चाहते तो एक एक अवतार लेकर उनका उद्धार कर सकते थे ..........पर !
ब्रह्मा चुप हो गए ..........तब भगवान शंकर आगे आये .............बोले -
हम श्रीश्याम सुन्दर के अवतार कि कामना लेकर आये हैं ......सखी ! .उनका अवतार हो .....और हम सबको प्रेम का स्वाद चखनें को मिले ।
भगवान शंकर नें प्रार्थना कि ..............।
और हम लोगों के साथ साथ अनन्त योगी जन हैं अनन्त ज्ञानी जन हैं.........अनन्त भक्तों कि ये इच्छा है की ........ श्री श्याम सुन्दर की दिव्य लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में हो .....भगवान विष्णु नें ये बात कही ।
ठीक है आप लोग जाइए ....मैं आपकी प्रार्थना श्याम सुन्दर तक पहुँचा दूंगी ......इतना कहकर ललिता सखी निकुञ्ज में चली गयीं ........।
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प्यारी मान जाओ ना ! देखो ! मैं हूँ तुम्हारा अपराधी .......हाँ .....मुझे दण्ड दो राधे ! मुझे दण्डित करो .........इस अपराधी को अपने बाहु पाश से बांध कर .... ...हृदय में कैद करो ।
हे वज्रनाभ ! उस नित्य निकुञ्ज में आज रूठ गयी हैं श्रीराधा रानी .........और बड़े अनुनय विनय कर रहे हैं श्याम सुन्दर .........पर आज राधा मान नही रहीं ।
इन पायल को बजनें दो ना ! ये करधनी कितनी कस रही है तुम्हारी क्षीण कटि में ............इसे ढीला करो ना !
हे राधे ! तुम्हारी वेणी के फूल मुरझा रहे हैं ............नए लगा दूँ .....नए सजा दूँ ।
युगल सरकार की जय हो !
ललिता सखी नें उस कुञ्ज में प्रवेश किया ।
हाँ क्या बात है ललिते !
देखो ना ! "श्री जी" आज मान ही नही रहीं............असहाय से श्याम सुन्दर ललिता सखी से बोले ।
मुस्कुराते हुए ललिता नें अपनी बात कही ......हे श्याम सुन्दर ! बाहर आज तीन देव आये थे .....ब्रह्मा ,विष्णु , महेश ............
क्यों आये थे ? श्याम सुन्दर नें पूछा ।
"पृथ्वी में त्राहि त्राहि मची हुयी है ........कंसादि राक्षसों का आतंक"
.....ललिता आगे कुछ और कहनें जा रही थी .....पर श्याम सुन्दर नें रोक दिया .........बात ये नही है ......क्या राक्षसों का वध ये विष्णु या महेश से सम्भव नही है ?...........उठे श्याम सुन्दर .......तमाल के वृक्ष की डाली पकडकर त्रिभंगी भंगिमा से बोले ......."बात कुछ और है" ।
हाँ बात ये है ............कि वो लोग, और अन्य समस्त देवता ........समस्त ज्ञानीजन, योगी, भक्तजन .......आपकी इन प्रेममयी लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में करना चाहते हैं ............ताकि दुःखी मनुष्य ......आशा पाश में बंधा जीव .....महत्वाकांक्षा की आग में झुलसता जीव जब आपकी प्रेमपूर्ण लीलाओं को देखेगा .....सुनेगा गायेगा तो .........
क्या कहना चाहते थे वो तीन देव ?
श्याम सुन्दर नें ललिता की बात को बीच में ही रोककर .......स्पष्ट जानना चाहा ।
"आप अवतार लें ........पृथ्वी में आपका अवतार हो " ।
ललिता सखी नें हाथ जोड़कर कहा ।
ठीक है मैं अवतार लूंगा !
श्याम सुन्दर नें मुस्कुराते हुए अपनी प्रियतमा श्रीराधा रानी की ओर देखते हुए कहा ।
चौंक गयीं थी श्रीराधा रानी ..............मानों प्रश्न वाचक नजर से देखा था अपनें प्रियतम को ..........मानों कह रही हों ....."मेरे बिना आप अवतार लोगे ?
नही ..नही प्यारी ! आप तो मेरी हृदयेश्वरी हो.....आपको तो चलना ही पड़ेगा......श्याम सुन्दर नें फिर अनुनय विनय प्रारम्भ कर दिया था ।
नही .......प्यारे !
अपनें हाथों से श्याम सुन्दर के कपोल छूते हुए श्रीराधा नें कहा ।
पर क्यों ? क्यों ? राधे !
क्यों की जहाँ श्रीधाम वृन्दावन नहीं .....गिरी गोवर्धन नहीं .......और मेरी प्यारी ये यमुना नहीं ............इतना ही नहीं .....मेरी ये सखियाँ .........इनके बिना मेरा मन कहाँ लगेगा ?
तो इन सब को मैं पृथ्वी में ही स्थापित कर दूँ तो ?
आनन्दित हो उठी थीं........श्रीराधा रानी !
हाँ .....फिर मैं जाऊँगी ...................।
पर लीला है प्यारी !
याद रहे विरह , वियोग की पराकाष्ठा का दर्शन आपको कराना होगा इस जगत को ।
प्रेम क्या है ........प्रेम किसे कहते हैं इस बात को समझाना होगा इस जगत को..........श्याम सुन्दर नें कहा ।
हे वज्रनाभ ! नित्य निकुञ्ज में अवतार की भूमिका तैयार हो गयी थी ।
महर्षि शाण्डिल्य से ये सब निकुञ्ज का वर्णन सुनकर चकित भाव से .........यमुना जी की लहरों को ही देखते रहे थे वज्रनाभ ।
"हे राधे वृषभान भूप तनये .......हे पूर्ण चंद्रानने"
श्री राधे जय जय श्री राधे
आज के भाव कथा का आनंद ले
निज चरण दास श्री जी मंजरीदास
सेवा पुष्प स्वीकार हो
भक्ति ग्रुप से जुड़ने हेतु केवल व्हाट्सएप्प करे 9711592529 पर अपना नाम व शहर, राज्य बताए नित्य भजन कथा श्रवण करे नाम जप करते हुए प्रिया प्रियतम को लाड लड़ाए श्री राधावल्लभ लाल श्री राधेश्याम
शेष चरित्र कल ........
जय जय श्री राधे श्याम