आज के विचार
!! उद्धव प्रसंग !!
{ ऊधो मोहि बृज बिसरत नाहीं - एक प्रेम प्रसंग }
भाग-1
यथा ब्रज गोपिकानाम्...
(नारद भक्ति सूत्र)
मैं बरसाने में हूँ... उस बरसाने में जहाँ श्री राधा रहती हैं ।
वो राधा... जिसकी आराधना स्वयं श्री कृष्ण करते हैं ।
राधा की यादों में तड़फते हैं... वो चाहे कंस को मारकर आज मथुरा के मुकुटमणि बन गए... पर वो आज भी राधा के लिए तड़फते हैं ।
वो अपनी मैया यशोदा को याद करके अकेले में रोते हैं ।
गोपियों के प्यार को याद करके आहें भरते हैं ।
कुछ दिन ही तो हुए हैं वृन्दावन से मथुरा आये कृष्ण को... कंस को मारा... अपने जनक वसुदेव और जननी देवकी को कारागार से मुक्त किया ।
और... उन काले काले घुँघराले केशों को काट कर...विद्याध्यन करने उज्जैन चले गए ।
पर जाते जाते... मथुरा के मन्त्री मण्डल को गठित करके गए ।
उग्रसेन को तो... कृष्ण ने ही राजा बनाया है... नही तो मथुरा की प्रजा बोल रही थी... श्री कृष्ण ही हमारे राजा हैं ।
पर कृष्ण ने उग्रसेन को ही राजा बनाना स्वीकार किया ।
ये नीति संगत भी था ।
कुछ दिनों में ही पढ़कर आगये... उज्जैन से कृष्ण ।
काशी न जाकर... उज्जैन जाना... विद्याध्यन के लिए... इसमें भी कई राजनीतिक और कूटनीतिक सोच थी ।
आज कृष्ण आगये हैं... मथुरा, उज्जैन से ।
पता नही क्यों... बरसाने में कल जब मैं... आँखें बन्द करके बैठा तो मेरे सामने ये लीलाएं चल पड़ी थी ।
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"हम सबके मध्य में... मथुरा की प्रजा के लोकप्रिय नायक श्री कृष्ण चन्द्र अपने विद्याध्यन को सम्पूर्ण कर... मथुरा में लौट आये हैं"
ये बात मथुरा के राजा श्री उग्रसेन महाराज ने जब उन विशिष्ठ जनों... और मन्त्री परिषद के सम्मान्य लोगों के बीच कही... तो सबने करतल ध्वनि से स्वागत किया... ।
पर उस ताली बजाने में... अति उत्साहित थे... देवभाग के पुत्र और बृहस्पति के परम शिष्य... परम बुद्धिमान, मथुरा के ही क्यों... सम्पूर्ण भूमण्डल के । सीधे देवगुरु बृहस्पति का शिष्य होना... कोई साधारण बात तो नही है ।
हाँ... कृष्ण के चाचा लगते हैं श्री देवभाग... वसुदेव के चचेरे भाई ।
और इनके पुत्र हैं उद्धव... जो इस यदुवंश के महामन्त्री भी हैं...
इन सबसे बड़ी बात... ये कृष्ण के सखा हैं... प्रिय सखा ।
कृष्ण इन्हें प्यार करते हैं...और ये तो अपना प्राण सर्वस्व ही मानते हैं ।
आप स्वस्थ तो हैं .?...आप प्रसन्न तो हैं ?
उग्रसेन ने उसी सभा में कृष्ण से ये पूछ लिया था... पूछने का कारण भी था... कृष्ण का ध्यान आज नही है इस सभा में ।
कहीं वृन्दावन के दूध दही की याद तो नही आरही ?
ये विनोद महाराज उग्रसेन ने ही किया...और सारी सभा हँस पड़ी ।
कृष्ण उठे... गम्भीरता से उठे... महाराज उग्रसेन को प्रणाम किया... और चल पड़े थे अपने महल की ओर ।
आप को हमारी बातों का बुरा तो नही लगा ?
प्रार्थना के स्वर में उग्रसेन बोल रहे थे... ।
नही... थोड़े से हँस दिए बस कृष्ण...
और चलते रहे... ।
रुके सीधे अपने महल में जाकर... और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया ।
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वत्स ! कृष्ण !
महल का द्वार खटखटाया था देवकी ने... ।
कौन ? कृष्ण ने पूछा ।
मैं देवकी ! तुम्हारी माता... पुत्र द्वार खोलो ।
कुछ पता नही है इस जननी देवकी को कि आज ग्यारह वर्ष से ज्यादा का हो चुका अपना पुत्र... पर इसका स्वभाव... इसकी रूचि... देवकी को कुछ नही पता... पर आज अपने इस प्रिय पुत्र के पास आगयी थी ये माँ देवकी... ।
हाँ... कृष्ण ने दरवाजा खोला ।
और सामने जब देवकी को देखा... तुरन्त चरणों में प्रणिपात हुए ।
नही... तुम्हारा स्थान माँ के हृदय में है... माथे को चूम लिया था देवकी ने ।
माँ ! आप बैठें... बड़े मर्यादित ढंग से कृष्ण बोल रहे थे अपनी माँ से... ।
पुत्र ! देखो मैं तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ... देवकी ने कहा ।
क्या लाई हैं आप माँ !
उत्सुकता दिखा रहे हैं कृष्ण देवकी की बातों में ।
माखन !... देखो ! तुम्हें प्रिय हैं ना ?
हाँ... मुझे पता है... मुझे रोहिणी जीजी ने बता दिया है ।
और हाँ... मुझे ये माँ… माँ... मत कहो... कृष्ण ! मुझे मैया कहो ।
रोहिणी कहती हैं… तुम्हारे मुख से "मैया" सुनना… दिव्य लगता है..।
क्या हुआ ? कृष्ण ! तुम उधर मुँह फेर कर क्यों बैठ गए ?
जब देखा देवकी ने कृष्ण ने उस तरफ मुख कर लिया...
ओह ! तुम रो रहे हो ?
कृष्ण मुँह फेरकर रो रहे थे ।
देवकी घबड़ा गयीं... क्या हुआ ? मुझसे गलती हो गयी ?
देवकी तो कृष्ण को रोता हुआ देखकर काँप गयीं ।
नही... माँ !... बस आज के बाद मेरी थाली में माखन को मत रखना ।
कृष्ण जबरदस्ती सहज बनने का प्रयास करते रहे...।
पर क्यों ?
मैं इतना अधिकार तो रखती हूँ... कि मैं तुमसे पूछ सकूँ... क्यों ?
मुझे मेरी मैया यशोदा की याद आती है... कृष्ण स्पष्ट बोले ।
मेरे इन्तजार में होगी... माखन लेकर खड़ी रहती थी... कैसे रहती होगी आज मेरे बिना वो मेरी यशोदा मैया !
और वो वृन्दावन के लोग !... कैसे जीते होंगे ।
कृष्ण की आँखों में प्रेम के विरह का ज्वार उतर आया था ।
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देख देख ! उधर से कोई आ रहा है !
एक ग्वाले ने क्या कह दिया... उस मथुरा के मार्ग की ओर सभी ग्वाल बालों ने देखना शुरु कर दिया था... ग्वाल बाल ही क्यों सभी गायें... सभी बन्दर... सभी मोर... ।
हाँ... देखा ! वो जा रहा है... अरे ! वो कोई अपना कृष्ण थोड़े ही है... वो व्यापारी है मथुरा का... आया है अपने काम से ।
पर कृष्ण के बारे में कुछ तो बताएगा ।
पर वो तो इतने लोगों को अपनी ओर आते देखकर भाग गया ।
धत् ! आज भी नही आया कृष्ण… शाम होने को आगयी ।
सब उदास हो गए... ग्वाले ही नही... गाय भी... बछड़े भी... बन्दर और मोर भी... और वृन्दावन भी ।
पर कल आएगा कृष्ण... देखना कल आएगा ।
हाँ... शर्त लगा ले... अपना कन्हैया कल आएगा ।
मनसुखा पूरे ताकत से बोल रहा है... ।
हट्ट ! तू तो आज दस दिन से ऐसे ही बोले जा रहा है ।
पर देखना कल वो जरूर आएगा ।
क्या करें... सब ग्वाल बाल घर लौट रहे हैं... उदास... हताश ।
सब गोपियाँ अपने अपने घर से निकल कर पूछती हैं... नही आया ?
ओह !...हृदय बैठ जाता है... उन गोपियों का... आज भी नही आया ?
मैया ! ओ मैया ! ग्वालों ने आवाज दी थी मैया यशोदा को ।
हाँ... कन्हैया आया क्या ? बदहवास सी दौड़ी मैया ।
नही आया... आज भी तेरा निष्ठुर नही आया ।
ओह !... फिर एक उदासी... आज भी नही आया... यशोदा मैया आँसू पोंछते हुये... फिर चली गयी अपने भवन में ।
ये रोज की बात है... इस वृन्दावन की ।
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देवकी ! ओ देवकी !
वसुदेव ने देखा कृष्ण के कक्ष से रोती हुयी देवकी निकली है ।
हाँ... आर्यपुत्र ! देवकी रुकीं... और अपने साड़ी के पल्लू से अपने आँसू पोंछे ।
क्या बात है... तुम रो क्यों रही हो ? कृष्ण से कोई बात हुयी क्या ?
आर्यपुत्र !
रोते हुए गले लग गयी थीं देवकी ..वसुदेव के ।
क्या कृष्ण मेरा पुत्र नही है...? क्या कृष्ण को मैंने जन्म नही दिया है ?
फिर क्यों कृष्ण को मैं कुछ खिला नही सकती ।
आर्यपुत्र ! मैं आज माखन लेकर गयी थी... तो रोने लगा कहने लगा यशोदा की याद आती है उसे... माखन देखकर... ।
देवकी ! शान्त रहो...उसके स्वभाव को अभी हम जानते नही हैं ।
क्या हुआ तात !
प्रणाम करते हुए उद्धव ने पूछा वसुदेव जी से ।
ये उद्धव भी कृष्ण के महल में ही जा रहे थे ।
उद्धव ! तुम जाओ... तुम तो उसके मित्र हो ना... तो.. देखो कृष्ण को... अपने मित्र को ।
पता नही उसे क्या हो गया है ? कहीं खोया हुआ-सा लगता है ।
देवकी ने उद्धव से कहा ।
समझो तुम उसे... वह क्या यहाँ खुश नही है ?
उद्धव ! तुम समझदार हो... जाओ... और उसे क्या प्रिय है.. क्या अप्रिय है... उसके मन में क्या चल रहा है... उसे समझ कर हमें बताओ... उद्धव जाओ... देवकी ने उद्धव को कहा ।
हाँ... माँ ! मैं जाता हूँ ।
उद्धव कुछ सोचते हुए तेज़ चाल से चले थे कृष्ण के महल की ओर ।
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हे गोविन्द ! हे भगवन् !
आवाज लगाई थी उद्धव ने महल के द्वार पर जाकर ।
हाँ... कौन ?
पर द्वार खुला है उद्धव ! तुम आओ ।
कृष्ण बड़ी प्रसन्नता से आगे बढ़े... और उद्धव को गले से लगाया ।
उद्धव संकोच वश गले से लग तो गए... पर बाद में कृष्ण के चरणों को छू लिया था ।
माँ देवकी कुछ कह रही थीं... उद्धव ने बिना लाग लपेट के ही बोल दिया ।
छोड़ो... और बताओ ? कृष्ण को उस विषय में अब कोई बात करनी ही नही है ।
तुम कैसे हो ?
मथुरा का कार्य कैसा चल रहा है ?
प्रजा सब ठीक तो है ना ?
कृष्ण बस ऐसे ही बोलते चले गए ।
उद्धव ने कृष्ण की आँखों में देखा... मुझ से न छुपाओ नाथ !
मुझे तो बता दो... क्या बात है ?
कुछ बात नही है... उद्धव !
कुछ भी तो नही ?
कृष्ण कुछ असहज से हो गए थे ।
चरण पकड़ लिए उद्धव ने...
गोविन्द ! मुझ से न छुपाइये... बोल भी दीजिये अब क्या बात है ?
मैं इतना तो समझता हूँ कि मेरे प्रभु के मन में कोई तो बात है...
महाराज उग्रसेन के मुख से वृन्दावन का नाम सुनते ही आप कुछ विचलित से हो उठे थे... क्यों ?
अक्रूर जी कह रहे थे... कल आप यमुना के किनारे देर रात तक बैठे रहे... और... ।
और... क्या उद्धव ?
आप रोते रहे... ?
छोड़ो उद्धव... सब ठीक है... कोई बात नही है ।
कहीं यहाँ मथुरा में किसी वस्तु की कमी तो नही है ना ?
कृष्ण ने इतना सुना उद्धव के मुख से... कृष्ण का मुख मण्डल गम्भीर हो गया... ।
चरणों में गिर गए उद्धव... बता दो प्रभु !
तुरन्त उद्धव की ओर देखा कृष्ण ने... उसका हाथ खींचा... और अपने हृदय से लगाकर हिलकियों से रो पड़े थे कृष्ण ।
ऊधो मोहि बृज बिसरत नाहीं...
मुझे याद आती है उस वृन्दावन की... वहाँ के गौओं की... वहाँ के मित्रों की... गोपियों की... अपनी मैया यशोदा की... बाबा नन्द की... और तो और... उस वृषभान दुलारी की... ।
उद्धव ! मैं जब चला था ना वृन्दावन से... राधा ने मुझ से कुछ नही कहा... मैं ही बोलता रहा था... बड़ी बड़ी बातें करता रहा... उसे क्या लेना देना... मेरे "विनाशाय च दुष्कृताम्"..से ..।
मैंने उसे अपनी बाँसुरी दी थी... और कहा - राधे ! इसे बजा लेना… मैं तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा… पर वो इतना ही बोली... नही मेरे कारण तुम्हें कोई कष्ट हो मैं नही चाहती... तुम्हें स्वयं मेरी याद आये तो आ जाना ।
ओह !... उद्धव !... तुम जाओ ना... वृन्दावन ।
मेरे मित्र ! तुम जाओ ना ।
कृष्ण हिलकियों से रो रो कर उद्धव को कह रहे थे ।
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साधकों! बरसाने में कल ध्यान करने जब बैठा तो यही ध्यान में बारम्बार आता रहा... "उद्धव प्रसंग"
कृष्ण का प्रेम के लिए तड़फ़ उठना... ।
हाँ... प्रेम है ही ऐसा... जिसके लिए ईश्वर भी तड़फ़ उठे ।
उद्धव ! वो गोपियाँ मेरे लिए ही जिन्दा हैं... नही तो मर जातीं हँसते हँसते... पर जिन्दा हैं... मेरे विरह में घुट घुट के जिन्दा हैं... इसलिये कि वो मर गयीं तो मुझे बुरा लगेगा... ओह !... क्या सोच है ! यार उद्धव !
ऊधो मोहि बृज बिसरत नाहिं !
शेष चर्चा कल...