Saturday, February 3, 2024

कुंज की स्नान लीला 2

मानसिक लीला चिंतन 2

स्नान लीला

निकुञ्ज से लौटकर श्रीप्रिया अपने महल के कमरे में सुन्दर पलंग पर लेटी हुई हैं। श्रीप्रिया का सिर दक्षिण की तरफ है एवं पैर उत्तर की ओर। आँखें बंद हैं। हलकी नीली चादर से श्रीप्रिया की गर्दन के नीचे के अङ्ग ढके हुए हैं। देखने से प्रतीत हो रहा है कि श्रीप्रियाजी सो रही हैं; पर वस्तुतः प्रिया जगी हुई हैं। एक मञ्जरी श्रीप्रिया के तलुए के पास पलंग पर बैठी है। मञ्जरी के पैर नीचे की ओर लटक रहे हैं, मञ्जरी की दृष्टि श्रीप्रियाजी की ओर लगी हुई है। मञ्जरियाँ एवं सखियाँ विभिन्न कार्यों में व्यस्त हैं। कोई उबटन तैयार कर रही है, कोई चन्दन घिस रही है, कोई झारियों में जल भर रही है, कोई छोटी – छोटी कटोरियों में विभिन्न तेल – फुलेल डाल रही हैं, कोई दन्तमञ्जन निकाल कर छोटी – सी कटोरी में रख रही है, कोई श्रीप्रिया के पहनने के वस्त्रों को निकाल – निकालकर सजा रही है, कोई स्नान करने जा रही है और कोई स्नान करके लौट रही है। तथा इस प्रक्रिया में रानी के महल से लेकर यमुना के घाट तक आने – जाने का ताँता लग रहा है। कोई सुन्दर चमचम करती हुई अलगनी पर कपड़े फैला रही है, कोई अपने केशों में कंघी कर रही है, कोई शीघ्रता से केशों को गूँथ रही है, कोई आँखों में अञ्जन लगा रही है। कुछ मञ्जरियाँ बिलोये हुए दुध में से अभी – अभी निकले मक्खन को सुन्दर – सुन्दर बड़े – बड़े बर्तनों में सजा रही हैं, कोई दूध के बर्तनों को चूल्हे पर गर्म करने के लिये चढ़ा रही है, कोई भिन्न – भिन्न चीजों को यथास्थान सजा – सजाकर रख रही है। दो – तीन मञ्जरियाँ प्रिया के पहनने के लिये पुष्पमाला शीघ्रता से तैयार करने में लगी हैं, कोई प्रिया के तुलसी पूजन की सामग्री इकट्ठी कर रही है। इस तरह सम्पूर्ण महल में चहल – पहल – सी है। अवश्य ही सारे कार्य अतिशय शान्ति के साथ हो रहे हैं। सभी इस चेष्टा में हैं कि शब्द न हो, नहीं तो यदि प्रिया की आँखें कदाचित् लगी भी हों तो खुल जायेंगी। बीच – बीच में कलशों के ठन्-ठन् शब्द एवं सखियों – मञ्जरियों के कङ्कण – करधनी के झन् – झन् शब्द सुन पड़ते हैं। नूपुर का रुनझुन रुनझुन शब्द भी रह – रहकर सुन पड़ता है। सखियों को – मञ्जरियों को स्वयं अपना ही रुनझुन – रुनझुन शब्द भ्रम में डालने लगता है कि कहीं प्यारे श्यामसुन्दर तो नहीं आ रहे हैं।

श्रीप्रिया जिस कमरे में लेट रहीं हैं, उसी कमरे में उत्तर के हिस्से में खड़ी होकर ललिता शीघ्रता से अपना श्रृंगार कर रही हैं। एक मञ्जरी चाहती है कि मैं सहायता करूँ, पर मुस्कुराती हुई वे धीरे – से हाथ के इशारे से कहती हैं – तू ठहर जा ! मैं शीघ्र ही अपना श्रृंगार स्वयं कर ले रही हूँ।

शीघ्रता से ललिता अपने हाथों से ही अपने केशों को गूँथ लेती हैं तथा सिर पर अञ्चल डाल लेती हैं। मञ्जरी थाल में श्रृंगार का बहुत – सा सामान लिये खड़ी है। ललिता उसमें से किसी भी वस्तु को नहीं लेतीं। हाँ, केवल घिसी हुई कस्तूरी की छोटी कटोरी में अपने दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली डाल देती हैं तथा अपने ललाट पर सुन्दर गोल बिंदी लगा लेती हैं। बिंदी लगाकर मुस्कुरा पड़ती हैं। फिर उसी अँगुली से उस मञ्जरी के ललाट पर भी वैसी ही बिंदी बना देती हैं। ललिता उसी मञ्जरी के कान में कुछ धीरे से कहती हैं। मञ्जरी परात को वहीं दीवाल के सहारे एक किनारे रख कर शीघ्रता से कमरे के बाहर चली जाती है तथा ललिता, जिस पलंग पर रानी लेटी हुई हैं, उसके पास जा पहुँचती हैं।

ललिता धीरे से रानी के कंधे के पास बैठ जाती हैं तथा उनके मुखारविन्द की ओर देखने लग जाती हैं। कुछ क्षण देखती रहकर अतिशय प्यार से रानी के ललाट को सहलाने लगती हैं। रानी आँखें खोल देती हैं। ललिता अतिशय प्यार से रानी के मुँह के पास झुक जाती हैं तथा धीरे से कहती हैं – नींद आयी थी कि नहीं, ठीक- ठीक बता !

रानी के मुख पर गम्भीर मुस्कान छा जाती है। वे कुछ नहीं बोलतीं, केवल एक क्षण के लिये पुनः आँखें मूँद लेती हैं। फिर आँखे खोल कर ललिता के बायें कंधे को अपने दाहिने हाथ से पकड़ लेती हैं। ललिता फिर पूछती हैं – क्यों ! नहीं बतायेगी?

रानी कुछ गम्भीरता की मुद्रा में कहती हैं – नींद नहीं आती तो क्या करूँ?

रानी की बात सुन कर ललिता की आँखें प्रेम से भर जाती हैं, पर अपनी इस दशा को छिपाती हुई वे कहती हैं – सूर्योदय हो गया है। कुन्द या धनिष्ठा शीघ्र आ पहुँचेगी। तू तैयार हो जा।

यह सुनते ही रानी शीघ्रता से कपड़ा समेटती हुई तथा बायें हाथ से ललिता के कंधे का सहारा लेकर उठ कर पलंग पर बैठ जाती हैं। उठ कर बैठते ही श्यामसुन्दर की वह मोहिनी सूरत आँखों के सामने नाचने लगती है मानो सचमुच श्यामसुन्दर प्रत्यक्ष खड़े हों। कल से रानी की दशा विचित्र सी हो गयी है। वे श्यामसुन्दर के प्रति रह – रहकर जोर से सम्बोधन करने लग जाती हैं। ललिता कई प्रकार की युक्तियाँ रच – रचकर रानी की यह दशा बड़ी कठिनाई से रानी के गुरुजनों से छिपाती रही हैं। अवश्य ही बीच – बीच में रानी को यह होश भी आ जाता है कि मैं अनाप – शनाप बक जाती हूँ तथा उस समय ललिता की कठिनता – दिक्कतें समझ कर ललिता से चिपट कर रोने लग जाती हैं; पर फिर भूल जाती हैं। ललिता प्रातः काल से ही सावधान हैं कि श्यामसुन्दर के पास हम सब जब तक नहीं पहुँच जायें, तब तक जिस – किस प्रकार से भी यह बावली राधा शान्त बनी रहे; इसलिये ही रानी के पलंग पर बैठते ही ललिता शीघ्रता से उठ खड़ी होती हैं तथा धीरे से रानी के हाथ को पकड़ कर कहती हैं – तू हाथ – मुँह धोती रह और मैं तुझे एक बड़ा सुन्दर समाचार सुनाऊँगी।

रानी का मन उत्कण्ठा से भर जाता है तथा चित्तवृत्ति बँट जाती है। यद्यपि श्यामसुन्दर की ध्यान – छवि उन्हें दीख रही है, पर ललिता की बात सुनने की लालसा ने उन्हें तल्लीन होने नहीं दिया। रानी चटपट उठ खड़ी होती हैं। शीघ्रता से चलकर हाथ – मुँह धोने के लिये वे सुन्दर सजी हुई एक चौकी के पास जा पहुँचती हैं। उत्तर की ओर मुँह करके उस पाटे पर बैठ जाती हैं। एक मञ्जरी हाथों पर जल देने लग जाती है। श्रीप्रिया हाथों को धोकर कुल्ला करती हैं। फिर लाल रंग का अतिशय सुगन्धित मञ्जन अपने दाँतों पर लगाती हैं। श्रीप्रिया के निज मुख से ही इतनी दिव्य एवं इतनी मनोहर सुगन्धि निकल रही है कि मञ्जन की सुगन्धि उसके सामने फीकी पड़ गयी। पुनः कुल्ला करके श्रीप्रिया सुवर्ण – तार की चमकती हुई चिपटी – पतली जीभ से जीभ साफ करने चलती हैं; पर उसे हाथ में लेकर चुपचाप बैठ जाती हैं मानो बिलकुल यह बात भूल गयी हों कि मैं मुँह साफ करने बैठी थी।

ललिता कुछ मुस्कुराती हुई रानी के पास आकर खड़ी हो जाती हैं तथा झुक कर रानी के हाथ को हिलाकर कहती हैं – तो अब सुनाने जा रही हूँ। तू ध्यान से सुनना भला !

रानी कुछ अकचकायी – सी होकर कहती हैं – हाँ – हाँ, मैं तो भूल ही गयी थी, सुना। यह कह कर रानी शीघ्रता से जीभ साफ करके कुल्ला कर लेती हैं तथा अपने अञ्चल से हाथ पोंछती हुई कहती हैं – अब बता, क्या समाचार बताना चाहती है?

ललिता रानी का हाथ पकड़ कर उठा लेती हैं और पकड़े हुए उत्तर – पश्चिम की ओर कुछ दूर ले जाती हैं, जहाँ एक अतिशय सुन्दर लम्बी चौकी है। चौकी पर गद्दा है तथा गद्दे पर उजले रंग की झालरदार सुन्दर रेशमी चादर बिछी है। रानी को ललिता उसी पर बैठा देती हैं। रानी उत्तर की ओर मुँह करके बैठ जाती हैं तथा अपने दोनों पैर फैला देती हैं। ललिता राधारानी के शरीर से कञ्चुकी उतार देती हैं तथा चारों ओर से सखियाँ एवं मञ्जरियाँ यथास्थान बैठकर रानी के शरीर में उबटन एवं तेल लगाने लगती हैं। विशाखा रानी के केशों का बन्धन खोल कर उसकी प्रत्येक सुन्दर लट में तेल लगा रही हैं। ललिता रानी की ओर मुँह किये हुए बैठी हैं तथा बहुत धीमे स्वर में कहना प्रारम्भ करती हैं। आवाज इतनी धीमी है कि पास में बैठी मञ्जरियों को भी ध्यान देने से सुनायी पड़ रहा है। ललिता बोलीं – रात में चित्रा ने एक स्वप्न देखा है। बड़ा ही विचित्र स्वप्न है। उसे सुनकर तू खूब हँसेगी।

रानी की उत्कण्ठा बढ़ जाती है। वे बड़ी सरलता से भोली बालिका की तरह ललिता के मुख की ओर झुक पड़ती हैं एवं कहती हैं – शीघ्र सुना, कैसा स्वप्न था?

ललिता कहती हैं – चित्रा ने मुझसे कहा कि बहिन ! ठीक प्रातः काल के समय मैं स्वप्न देखने लगी। देखा कि मैं किसी सर्वथा अपरिचित देश में आ गयी हूँ। अवश्य ही वह देश यमुना के किनारे पर ही बसा है। मैं सोचने लगी कि यहाँ मुझे कौन लाया? प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ है? सखियाँ कहाँ हैं? सोचते – सोचते मैं अधीर हो उठी। पास ही यमुना प्रवाहित हो रही थी। मैं वहाँ से चल कर उसके किनारे जा पहुँची। आश्चर्य तो यह था कि वहाँ सुन्दर – सुन्दर महल थे, रमणीय उद्यान थे; पर मुझे कोई भी मनुष्य नहीं दीखता था। मैं इसी उधेड़बुन में पड़ी हुई विकल होकर सोचने लगी कि किससे पूछूं? मुझे यहाँ कौन लाया है? ऐसा कौन है, जो मुझे प्यारे श्यामसुन्दर का पता बता सके?

उसी समय मन में आया कि पृथ्वी तो व्यापक तत्त्व है। यदि यह बोलती होती तो बता सकती थी कि मेरे प्रियतम कहाँ हैं? हाँ, जल भी बता सकता है; क्योंकि सुना है, यह भी सर्वत्र है; पर यह भी नहीं बोलता। हाय ! मेरे प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम्हारा पता कहाँ पाऊँ ?……..अच्छा ठीक ! ठीक !! तेज – तत्त्व अतिशय निर्मल है। यह अवश्य ही यहीं रह कर मेरे प्यारे श्यामसुन्दर को देख रहा होगा; पर हाय रे दुर्भाग्य ! यह भी बोलना नहीं जानता।••••••तो क्या मैं यों ही तड़प-तड़प कर मर जाऊँगी? प्यारे श्यामसुन्दर के पास मेरा संदेश भी नहीं पहुँचेगा?

इसी समय पत्ते के खड़ – खड़ करने की आवाज मेरे कान में आयी। मैं सोचने लगी कि निश्चय ही मेरे प्यारे श्यामसुन्दर मुझे ढूँढते हुए आ पहुँचे हैं। उत्कण्ठावश उधर देखने लगी, पर कोई नहीं दीखा। फिर विचारने लगी कि कोई तो नहीं आया; पर जिसने यह खड़खड़ाहट मेरे कानों में पहुँचा दी, वह भी तो नहीं दीखा। अयँ ! यह खड़खड़ाहट मेरे कानों में जैसे आ पहुँची, वैसे ही मेरा संदेश भी तो प्यारे श्यामसुन्दर के कानों में पहुँच सकता है। अवश्य – अवश्य पहुँच सकता है।…… किसने यह आवाज मेरे पास पहुँचायी? पवन ने ! बस, बस, पवन बोल नहीं सकता; पर इसने करुणावश इशारा कर दिया कि मैं मूक सेवा कर सकता हूँ, तुम्हारा संदेश प्रियतम के पास पहुँचा सकता हूँ। तो यही सही। पर ना, यह तो उचित नहीं। क्या पता, प्यारे श्यामसुन्दर ने मुझे अलग रखना चाहा हो, इसीलिये मुझे कहीं दूर भेज दिया हो। फिर मेरा संदेश पाकर तो वे निश्चय ही व्याकुल हो जायेंगे; मुझे बुला ही लेंगे या स्वयं पवन के साथ उड़ कर मेरे पास आ जायेंगे। ना, ना, यह मैं नहीं सह सकती कि अपने सुख के लिये उनके सुख में बाधा हो। पर आह ! यह निर्णय कैसे हो कि वास्तव में मैं क्यों अलग हुई? यदि मैं प्यारे श्यामसुन्दर के हृदय की इच्छा जान जाती, यदि मैं जान पाती कि वे मेरे लिये व्याकुल हैं तो पवन के द्वारा संदेश भेज देती।

अहा! एक उपाय तो है। यह आकाश शब्दात्मक है। यह बोल सकता है, सर्वत्र है भी ठीक ! ठीक !!……. अरे आकाश ! बता, मेरे प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ हैं? मेरी सखियाँ कहाँ हैं? इस प्रकार बार – बार मैं स्वप्न में ही पुकारने लगी – अरे आकाश ! मेरे प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ है? जल्दी बता!

कुछ ही क्षण बाद देखती हूँ कि यमुना के घाट पर पाँच देवता प्रकट हुए। वे पाँचों मेरे पास आये। दूर से ही पाँचों ने सिर टेककर मुझे प्रणाम किया। मैं सकुचा गयी। मेरी – जैसी साधारण गोप – बालिका को ये देवता प्रणाम क्यों कर रहे हैं? मैं कुछ बोली नहीं। इसी समय उनमें से एक ने कहा – देवि ! हम पाँचों तत्त्व (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के अधिष्ठातृ देवता आपके सम्मुख उपस्थित हैं। आप आज्ञा करें, आपकी कौन – सी सेवा करके हम अपना जीवन कृतार्थ करें।

उनकी बात सुन कर मैं और भी शर्मा गयी; पर प्यारे श्यामसुन्दर का संदेश पाने की उत्कण्ठा से मैंने हाथ जोड़ कर कहा – देवताओं! मैं प्यारे श्यामसुन्दर के विषय में जानना चाहती हूँ कि वे इस समय कहाँ हैं? मैं उनकी दासी हूँ।

मेरी बात सुन कर मुझे ऐसा अनुमान हुआ कि पाँचों ही उदास हो गये। कुछ क्षण तक वे सभी चुप रहे। मैं कुछ घबरा कर बोली – क्यों; आप जानते हों तो बता देने की कृपा करें।

देवताओं ने कहा – देवि ! आपकी यह सेवा हमारी सामर्थ्य के बाहर है। श्यामसुन्दर के विषय में हम लोग कुछ भी नहीं जानते। आपने हम पाँचों का संकल्प किया, इसी कारण हम पाँचों में यह योग्यता आ गयी कि हम सब आपके प्रत्यक्ष दर्शन के अधिकारी हुए; नहीं तो आप जैसी बड़भागिनी गोपसुन्दरियों की छाया के दर्शन भी हम लोगों के लिये असम्भव है।

उन देवताओं की बात सुन कर मैं विचार में पड़ गयी। कुछ देर बाद बोली – देव ! आप लोग जायें। मुझे और किसी प्रकार की सेवा नहीं चाहिये।

देवताओं ने कुछ सोच कर कहा – देवि ! एक उपाय हो सकता है।

मैं – क्या उपाय है?

देवता – यदि आप अपने चरणों की धूलि हमें प्रदान करें तो हम पाँचों उस पवित्रतम धूलि को अपनी आँखों में आँज लें, फिर हम लोग देख सकते हैं कि प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ हैं?

देवताओं की बात सुन कर मैं तो विस्मय में पड़ गयी और बोली – आप लोग तो बहुत आश्चर्य की बात कह रहे हैं। भला, मैं तो प्यारे श्यामसुन्दर को नहीं देख रही हूँ और मेरी धूलि आँख में आँजने पर आप प्यारे श्यामसुन्दर को देखने लगेंगे? यह तो अजब – सी बात है।

देवताओं ने पुनः घुटने टेक दिये और बोले – हाँ, देवि ! सर्वथा यही बात है।

अब मैं कुछ विचार में पड़ गयी। अन्यमनस्का – सी होकर जहाँ खड़ी थी, वहाँ से कुछ दूर हट कर खड़ी हो गयी। मैंने देखा कि पाँचों देवता, जहाँ मैं पहले खड़ी थी, वहाँ लोटने लगे तथा वहाँ की धूलि उठा – उठाकर अपनी आँखों में मलने लगे। मैं जोर से बोल उठी – कृष्ण ! कृष्ण !! क्या कर रहे हैं? आप लोग पागल तो नहीं हो गये हैं, जो इस प्रकार धूलि में लोट रहे हैं?

कुछ देर के बाद देवता खड़े होकर बोलने लगे – जय हो देवि ! तुम्हारी जय हो !! प्यारे श्यामसुन्दर यहाँ आने ही वाले हैं। अब हम लोगों को आज्ञा हो। यह कहते – कहते वे पाँचों अन्तर्धान हो गये। फिर मैं देखती हूँ कि मन्द – मन्द मुस्कुकराते हुए प्यारे श्यामसुन्दर चले आ रहे हैं। मैं शीघ्रता से उनकी ओर बढ़ गयी। उनके हाथों को पकड़ कर बोली – मैं यहाँ कैसे आ गयी? तुम कहाँ चले गये थे?

श्यामसुन्दर ने मुस्कुकराते हुए कहा•••••, यह कहते – कहते ललिता हठात् चुप हो गयीं।

ललिता चित्रा के स्वप्र की बात सुना रही थीं तथा रानी अतिशय शान्त मुद्रा में सुनती जा रही थीं। तभी एक मञ्जरी ने ललिता को कुछ इशारा किया, इससे ललिता चुप हो गयीं। इसी समय एक मञ्जरी पूर्व एवं दक्षिण के कोने की तरफ से आती है तथा ललिता को दूर से ही पुकार कर कहती है – ललिता रानी ! तुम्हें माँ बुला रही हैं। मञ्जरी की बात सुनकर ललिता चित्रा के कान में धीरे से कहती हैं – शेष तू सुना दे, मैं जा रही हूँ। यह कहती हुई वे पूर्व एवं दक्षिण के कोने की तरफ चली जाती हैं तथा उसी मञ्जरी के पीछे दक्षिण की तरफ दालान की ओर बढ़ती हुई आँखों से ओझल हो जाती हैं।

अब चित्रा स्वप्न का शेष अंश स्वयं सुनाती हैं। चित्रा बोलीं – हाँ, तब श्यामसुन्दर आये और मैंने उनसे पूछा कि मैं यहाँ कैसे आ गयी? तुम कहाँ चले गये थे?

प्यारे श्यामसुन्दर ने मुस्कुराकर कहा – मैं तो देवी की पूजा करने गया था।

मैं – किस देवी की पूजा?

श्यामसुन्दर – भगवती त्रिपुरसुन्दरी की।

मैं – क्यों?

श्यामसुन्दर – यों ही।

मैं – नहीं, ठीक बताओ। पूजा करने क्यों गये थे?

श्यामसुन्दर – भगवती से शक्ति माँगने गया था।

मैं – किसलिये?

श्यामसुन्दर – तू जानकर क्या करेगी?

मैं श्यामसुन्दर से इस बार चिढ़ी – सी होकर बोली – ठीक है, जाओ ! मत बताओ !! —यह कहती हुई मैं वही मुँह फेरकर बैठ गयी। प्यारे श्यामसुन्दर हँसने लगे।

फिर कुछ क्षण के बाद बोले – अच्छा, देख ! बता देता हूँ; पर तू किसी से बताना मत। —यह कहकर प्यारे श्यामसुन्दर मेरे सामने चले आये एवं बैठ गये। मैंने टेढ़ी चितवन से प्यारे की ओर देखा; पर देखते ही मेरी रुखाई दूर हो गयी और मैं हँस पड़ी। प्यारे श्यामसुन्दर भी पुनः हँसने लगे। मैं प्यारे के कंधे पर हाथ रखकर बोली – बताओ !

श्यामसुन्दर ने कहा – चित्रे ! जिस समय मैं प्रिया को देखता हूँ, उस समय नेत्र स्थिर हो जाते हैं। कल तुम सब मेरे आने के पहले प्रिया को माला पहना रही थीं। मैं छिपकर देख रहा था और सोचने लगा कि ओह ! मेरी प्रिया के अङ्ग कितने सुकोमल हैं। हाय, पुष्पों के भार को प्रिया किस प्रकार सहती होंगी ! पुष्पों की पँखुड़ी प्रिया के कोमल हृदय को बींधती तो नहीं होगी ! यह सोचते – सोचते मेरी आँखें बंद हो गयीं। अब तो विचारों का ताँता लग गया – आह ! अञ्जन

मेरी प्रिया की आँखों को अवश्य कष्ट देता होगा। हाय ! हाय !! आभूषण
तो बड़े ही कठोर हैं; ये मेरी प्रिया के अङ्ग में गड़ जाते होंगे। यह साड़ी भी बहुत रूखरी है, प्रिया के अङ्ग में निश्चय ही चुभती होगी। ओह ! प्रिया तो मेरे कारण अपने आप को भूल गयी हैं, पर मुझसे यह सहा नहीं जाता। नहीं, नहीं, मैं मना कर दूँगा कि मेरी हृदयेश्वरि ! तू माला मत पहन, अञ्जन लगाना छोड़ दे, आभूषण मत धारण कर। फिर मेरी प्रिया कभी भी इन्हें स्पर्श तक नहीं करेगी ! मैं ठीक जानता हूँ, उसके हृदय को जानता हूँ। वह पुष्प माला मेरे लिये पहनती है, आभूषण से अपने आपको मेरे लिये ही सजाती है, अञ्जन आँखों में मेरे लिये ही आँजती है। उसका सारा साज – श्रृंगार इसीलिये है कि मैं चाहता हूँ कि मेरी प्रिया अपने अङ्गों को सजाये। आह ! वह
तो मेरे प्रेम में विवेक खो बैठी है और सोचती है कि अञ्जन, आभूषण, मालाएँ उसे सुन्दर बना देंगी और प्यारे श्यामसुन्दर उसे देखकर और भी प्रसन्न होंगे; पर सच्ची बात कुछ और ही है। अञ्जन प्रिया की आँखों को सुन्दर नहीं बनाता, बल्कि प्रिया की आँखों में पड़कर यह अञ्जन सुन्दर बन जाता है; आभूषणों से प्रिया के शरीर की सुन्दरता नहीं बढ़ती, बलिक प्रिया के अङ्गों से जुड़ कर ये आभूषण अनन्त गुना सुन्दर बन जाते हैं; पुष्पमाला से प्रिया के वक्षःस्थल की शोभा नहीं बढ़ती, बल्कि, प्रिया के सुन्दर वक्षःस्थल पर झूलकर पुष्पमाला की शोभा अनन्त – असीम हो जाती है। मैं प्रिया को इन्हें इसीलिये धारण करने देता हूँ कि इनका सृजन सफल हो जाये। प्रिया के अङ्ग का स्पर्श पाकर ये कृतार्थ हो जायें, निहाल हो जायें; पर अब सहा नहीं जाता। बस, बस, बहुत हो गया। आज मना कर दूँगा कि मेरी प्राणेश्वरि ! तू श्रृंगार करना छोड़ दे। इतनी ही बात से सब ठीक हो जायेगा। पर साड़ी का क्या करूँ? हाय ! मेरी प्रिया तो मेरे इशारे मात्र से साड़ी तक फेंक देगी। उसे लोक, वेद, कुल, धर्म, देह, लज्जा आदि किसी की भी रत्ती मात्र परवाह ही नहीं है। वह जानती है केवल एक बात; उसे केवल इतनी स्मृति है कि प्यारे श्यामसुन्दर के सुख के लिये सब कुछ हँसते हुए स्वाहा कर देना। इसलिये उसके मन में तो इस विचार की छाया भी नहीं पहुँच सकेगी कि मैं विवस्त्र रहकर कैसे जीवन बिताऊँगी। वह तो तत्क्षण मेरी इच्छा के साँचे में ढल जायेगी; पर लोग तो उसे बावली विक्षिप्त समझने लगेंगे। उसे घर में बंद कर देंगे तथा वह मेरे विरह में तड़प – तड़पकर प्राण दे देगी। ओह ! कठिन उलझन है, इसे कैसे सुलझाऊँ? – चित्रे ! मैं कल दिन – रात यही सोचता रहा। फिर भगवती की कृपा का स्मरण करने लगा। प्रात:काल कुञ्ज से लौटते ही भगवती के मन्दिर में गया। देवी के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना करने लगा। देवी ने प्रसन्न होकर कहा- प्यारे श्यामसुन्दर ! बोलो, क्या चाहते हो?

मैंने कहा – देवि ! यह बताओ, समस्त विश्व में सबसे सुकोमल वस्तु क्या है?

देवी ने हँस कर कहा—सच्ची बात बता दूँ?

मैंने कहा – हाँ, देवि ! सर्वथा सच्ची बात बताओ।

देवी – प्यारे श्यामसुन्दर ! सबसे सुकोमल तुम्हारी प्रिया एवं तुम हो। तुम दोनों से अधिक सुकोमल वस्तु न पहले कभी थी, न है और न होगी।

चित्रे ! मैं देवी की बात सुन कर कुछ आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा कि मेरी प्रिया की सुकोमलतमता तो प्रत्यक्ष है; पर मैं सुकोमलतम की गणना में कैसे आ गया? मुझे तो यह भान नहीं होता; पर देवी तो झूठ नहीं कहेंगी। इनके वचन त्रिकाल सत्य हैं। भले ही मुझे अनुभव न हो कि मैं सुकोमलतम हूँ; पर जब देवी कहती हैं तो फिर एक काम करूँ। अब देवी से एक भिक्षा माँग लूँ।

मुझे सोचते देखकर देवी ने पुनः हँस कर कहा – हाँ, प्यारे श्यामसुन्दर ! जो चाहिये, वह मुझे निःसंकोच बता दो, मैं अवश्य दूँगी। देवी की बात सुन कर मैं प्रसन्न हो गया और बोला – देवि ! तुम जो अन्तर्हृदयकी बात जानती हो, इसलिये तुम से निःसंकोच एक भिक्षा माँग रहा हूँ। तुम कृपा करके मुझ में ऐसी सामर्थ्य दे दो कि मैं जहाँ चाहूँ, वहीं समा जाऊँ। मुझमें ऐसी शक्ति आ जाय कि मेरी प्रिया जिस अञ्जन से अपनी आँखें आँजती हैं, उस अञ्जन में समा जाऊँ। प्रिया जिस कुंकुम से तिलक लगाती हैं, उस कुंकुम में समा जाऊँ। जिस मृगमद से प्रिया अपने वक्षःस्थल का श्रृंगार करती हैं, उस मृगमद में समा जाऊँ। सखियाँ जो अङ्गराग मेरी प्रिया के शरीर पर लगाती हैं, उस अङ्गराग में समा जाऊँ। मेरी प्रिया के कपोल पर जिस चन्दन – पङ्क से चित्र बनता है, उस चन्दनपङ्क में समा जाऊँ। प्रिया के चरणों में जिस महावर (आलता) का रंग लगता है, उस रंग में समा जाऊँ। प्रिया जिन आभूषणों को धारण करती हैं, उन आभूषणों में समा जाऊँ। प्रिया जो साड़ी पहनती हैं, जो कञ्चुकी बाँधती हैं, उसके अणु – अणु में समा जाऊँ। प्रिया जिस ताम्बूल के बीड़े को अपने मुख में रखें, उस ताम्बूल – पत्र में उसके चूने में, उसकी सुपारी के कण – कण में मैं समा जा सकूँ। जिन फूलों से प्रिया की माला बनती है, जिन फूलों को प्रिया अपनी वेणी में खाँसती हैं, उन फूलों में समा जाऊँ। प्रिया जिस दर्पण में अपना मुख देखती हैं, उस दर्पण में समा जाऊँ, जिस कंघी से केश सँवारती हैं, उस कंघी में ; जिस रूमाल से मुख पोंछती हैं, उस रूमाल में ; जिस पीकदान में पीक फेंकती हैं, उस पीकदानी के अणु – अणु में मैं समा जाऊँ। जिस पलंग पर, जिस सोड़ पर, जिस चादर पर, जिस तकिये पर प्रिया विश्राम करती हैं, उसके अणु – अणु में समा जाऊँ। जिस जल से, जिस जल – पात्र से मेरी प्रिया स्नान करती हैं, उस जल में उस पात्र में मैं समा जाऊँ। मेरी प्रिया भोजन करने के लिये जिस आसन पर बैठती हैं, उसके लिये जिस परात में भोजन परोसा जाता है और परात में जो – जो भोज्य पदार्थ हैं, उस आसन, उस परात एवं उस भोज्य पदार्थ के अणु – अणु में मैं प्रवेश कर जा सकूँ। जिस गिलास से प्रिया जल पीती हैं और जिस जल का पान करती हैं, उस गिलास एवं उस जल के अणु – अणु में समा जाऊँ। जिस पंखे से सखियाँ प्रिया को हवा करती हैं, उस पंखे तथा हवा के अणु – अणु में मैं प्रवेश कर जाऊँ। जिस आकाश में प्रिया के अङ्ग हिलते हैं, उस आकाश के अणु – अणु में मैं समा जाऊँ। जिस पृथ्वी – तल से प्रिया के चरणों का स्पर्श होता है, उस पृथ्वी के कण – कण में समा जाऊँ। घर की ओर अथवा वन की ओर चलती हुई प्रिया जिस पथ पर पैर रखती हैं, उस पथ की धूलि के कण – कण में मैं समा जाऊँ। देवि ! अधिक कहाँ तक गिनाऊँ, मैं जिस – जिस वस्तु में चाहूँ, उसी के अणु – अणु में समा जाऊँ, ऐसी शक्ति मुझे देने की कृपा करो। देवि ! मेरा हृदय कल से अत्यन्त दुःखी था। अपनी प्रिया के सुकोमल अङ्गों को कष्ट पहुँचते देखकर मेरा मन अतिशय उद्विग्न हो गया। रातभर सोचता रहा कि किसी प्रकार से सब से सुकोमलतम वस्तु को प्राप्त करूँ तथा देवी की कृपा से उस वस्तु में यह शक्ति उत्पन्न करवा लूँ कि मेरी प्रिया की समस्त वस्तुओं में वह प्रवेश कर जा सके। यह इसलिये कि जिस समय प्रिया के अङ्गों को कठोर वस्तु स्पर्श करे, उस समय वह उस आघात को अपने हृदय पर सहकर मेरी प्रिया की रक्षा करे। तुमने सबसे सुकोमल वस्तु मुझे बतलाया, अतः मेरे अंदर ही यह शक्ति उत्पन्न कर दो।

चित्रा ने इतना कहा ही था कि ललिता पुनः वहाँ आकर बैठ जाती हैं। कुछ क्षण चित्रा चुप रहती हैं, पर रानी इतनी उत्कण्ठित हो गयी हैं कि तीन बार कह चुकीं – हाँ, हाँ फिर क्या बात हुई, बता !

चित्रा ने इतना कहा ही था कि ललिता पुनः वहाँ आकर बैठ जाती हैं। कुछ क्षण चित्रा चुप रहती हैं, पर रानी इतनी उत्कण्ठित हो गयी हैं कि तीन बार कह चुकीं – हाँ, हाँ फिर क्या बात हुई, बता !

चित्रा बोलती हैं – प्यारे श्यामसुन्दर की यह बात सुनकर मैं चटपट बोल उठी कि तुम्हारी बात सुन कर देवी ने क्या कहा?

श्यामसुन्दर अतिशय प्रसन्नता की मुद्रा में बोले – मेरी प्यारी चित्रे ! देवी ने अतिशय कृपा करके कह दिया – ‘एवमस्तु’।

श्यामसुन्दर की यह बात सुनकर मेरा हृदय बड़े जोर से उछलने लगा। मेरा कण्ठ भर आया और बड़ी कठिनता से मैं पूछ बैठी – सच बताओ, विनोद तो नहीं कर रहे हो? देवी ने ‘एवमस्तु’ कह दिया?

श्यामसुन्दर ने बड़ी दृढ़ता एवं सरलता के साथ कहा – हाँ चित्रे ! मैं सच कह रहा हूँ, देवी ने मुझे ऐसी शक्ति दे दी !

श्यामसुन्दर की इस बात से अब मैं आनन्द में इतनी अधीर हो उठी कि मेरा सारा शरीर थर – थर काँपने लगा। मन – ही – मन सोच रही थी कि मौका पाकर प्यारे श्यामसुन्दर से मैं एक बात कहूँगी – प्यारे ! मैं भी तुमसे एक वस्तु माँग रही हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम मेरी सखी राधा के साथ ही हम सबको भी प्राणों से अधिक प्यार करते हो। तुम्हारा हृदय अतिशय कोमल है ही। कदाचित् हम सब के प्रति भी तुम्हारा कोमल हृदय इसी भाव से भावित हो जाये और इसी प्रकार तुम हमारे आभूषण, अङ्गराग आदि में समा जाओ तो फिर एक बात की दया करना। हमें इशारा कर देना, जिससे हम सब उन आभूषण आदि को सावधानी से धीरे – धीरे धारण करें एवं निकालें। तुम्हारी बात सुनकर मन में एक भय हो गया है। सखी राधा की तो सारी सँभाल हम सब कर लेंगी पर यदि तुम कहीं हमारी पुष्पमाला में, हमारे अञ्जन में, हमारे दर्पण में आ बैठे और अनजान में हम सब ने फेंक – फाँक की तो तुम्हें कितनी चोट लगेगी? और फिर ‘तुम्हें चोट पहुँची है’ – यह बात कभी हमारे जानने में आयी तो हम सब का हृदय ही फट जायेगा। इसलिये जब कभी भी ऐसा करना तो बता देना।

मैं मन – ही – मन सोच रही थी और प्यारे श्यामसुन्दर मेरी ओर एकटक देख रहे थे। उन्हें इस प्रकार देखते हुए देख कर मैं हँसने लगी और बोली – क्या देख रहे हो? अब तुम्हें देखकर स्वस्थ हुई हूँ, नहीं तो घबरा कर प्राण निकले से जा रहे थे। यह कहकर मैंने पञ्च देवताओं की बात प्यारे श्यामसुन्दर को सुनायी। फिर प्यारे श्यामसुन्दर हँसने लगे। मैं बोली – सचमुच यह बताओ, यह कौन – सा देश है? मैं यहाँ कैसे आ गयी? मेरी प्यारी सखी राधा कहाँ हैं? हठात् तुम यहाँ कैसे आ गये? तुम्हें यहाँ मेरे होने की खबर कैसे लग गयी?

मैं यह कह ही रही थी कि श्यामसुन्दर ने हँस कर मुझे हृदय से लगा लिया; हृदय से लगाते ही मेरी आँखें खुल गयीं। मैं देखती हूँ कि प्रभात होने जा रहा है। मैं तो आश्चर्य में डूब गयी और सोचने लगी कि विचित्र स्वप्न देख रही थी। मैंने मन – ही – मन भगवती त्रिपुरसुन्दरी को नमस्कार किया और उनसे प्रार्थना करने लगी – देवि ! मैं जानती नहीं, इस स्वप्न का क्या फल होगा? मेरा कुछ भी हो, पर मेरे प्यारे श्यामसुन्दर का अनन्त मङ्गल हो।

इसी विचार में मैं पड़ी हुई थी कि बहिन ललिता उठकर मेरे पास आ गयीं। उनसे मैंने स्वप्न सुना दिया। वे हँसने लगीं और बोलीं – बड़ा ही शुभ स्वप्न है; स्नान करते समय सखी को सुनाऊँगी। चित्रा के स्वप्न को रानी चुपचाप गम्भीर बैठी सुन रही थीं। स्वप्न सुनकर एक बार वे भी जोर से हँस पड़ती हैं, पर तुरंत ही अकचकाकर इधर – उधर देखने लगती हैं। बात यह हुई कि रानी का प्रेम बढ़कर ज्ञान – शक्ति को ढक देता है। रानी यह तथ्य तत्क्षण भूल जाती हैं कि चित्रा ने यह सब स्वप्न की बात कही है। वे समझती हैं कि प्यारे श्यामसुन्दर ने सचमुच देवी से यह वर माँगा है। वे मुझे प्राणों से बढ़कर प्यार करते हैं, मुझे सर्वथा अपने हृदय में छिपा कर रखने की युक्ति उन्होंने की है, – यह भावना आते ही रानी को अणु-अणु में श्यामसुन्दर दीखने लगते हैं; इसलिये ही रानी अकचकाकर इधर – उधर देखने लगती हैं। सामने रसोई – घर का दालान है। रानी को श्यामसुन्दर वहाँ खड़े दीखते हैं।

इधर इसी बीच में उबटन का कार्य समाप्त हो चुका है। ललिता रानी का हाथ पकड़ कर उन्हें स्नान – वेदी की ओर चलने के लिये कहती हैं। रानी अञ्चल सँभालती हुई उठ पड़ती हैं, पर सीधे रसोई – घर की ओर दौड़ पड़ती हैं। रानी ने इतनी जोर से झटका दिया कि ललिता के हाथ से रानी का हाथ छूट गया और रानी उधर दौड़ पड़ी। परंतु ललिता बड़ी शीघ्रता से पीछे दौड़कर पुनः रानी को पकड़ लेती हैं। तथा कुछ रूठी हुई मुद्रा बनाकर कड़ी आवाज में कहती हैं – जा अब मैं तुम्हें कोई बात नहीं सुनाऊँगी; तू इस प्रकार स्वप्न की बात सत्य मानकर बावली हो जाती है। इधर तेरी यह दशा है कि तूने स्नान तक नहीं किया है। और वह देख, धनिष्ठा आ गयी; मैया (यशोदा) तुम्हारी बाट देख रही हैं।

ललिता की आवाज से रानी का भाव – प्रवाह बहुत कुछ शिथिल हो जाता है। वे स्वप्न से जागी हुई की तरह ललिता का कण्ठ पकड़ कर धीरे – धीरे रोने लग जाती हैं तथा कहती हैं – मैं तुम्हें बहुत तंग करती हूँ; पर मेरी प्यारी ललिते ! मैं क्या करूँ, मैं होश में नहीं रहती।

ललिता ने देखा कि दवा काम कर गयी है। अब मेरे खीझने के भय से यह थोड़ी देर शान्त रह जायगी। अतः प्यार की मुद्रा में कहती हैं – देख बहिन ! अब बहुत देर हो गयी है। अब जल्दी से स्नान कर ले। रानी चटपट स्नान – वेदी की ओर चल पड़ती हैं तथा एक अबोध बालिका की तरह चौकी पर बैठकर कहती हैं – जल्दी से जल डाल दे।
रानी की यह मधुर सरल कण्ठ – ध्वनि सभी सखियों के हृदय में गूँज जाती है। सभी की आँखें प्रेम से भर जाती हैं। इन्दुलेखा जल से भरे कलसे को उठाकर रानी के सिर पर डालती हैं। विशाखा हाथों से रानी के केशों को बिखेरती जा रही हैं। जल की मोटी धारा रानी के सिर पर से होकर पीठ – कंधे पर गिर रही है। रानी के सुन्दरतम काले – काले केश जल के वेग से पीठ पर नाच रहे हैं। अब दोनों तरफ से रानी के कंधों पर रङ्गदेवी एवं सुदेवी दो झारियों से जल डालने लगती हैं। विशाखा पीठ, वक्षःस्थल एवं हाथ – पैर आदि पर अपने हाथ फेरती हुई रानी के शरीर को मल रही हैं। जल की सुवास से एवं रानी के अङ्ग की दिव्य सुगन्धि से समस्त आँगन अत्यधिक सुवासित हो उठता है। विशाखा जैसे – जैसे रानी के शरीर को मलती हैं, वैसे – वैसे प्रतीत होता है मानो कोई अतिशय सुगन्धित घनद्रव्य को घिस रहा हो और घिसने के फलस्वरूप उससे अधिकाधिक सुगन्धि निकल रही हो। इस प्रकार खूब अच्छी तरह स्नान करा कर रानी के अङ्ग को विशाखा चम्पई रंग की साड़ी से लपेटकर गीले वस्त्र को अलग कर देती हैं। उसी चम्पई वस्त्र से सिर के केशों को भी पोंछती हैं तथा अन्यान्य अङ्गों को भी। रानी उस वेदी से उठकर दो – तीन हाथ पश्चिम की ओर अलग हटकर खड़ी हो जाती हैं। फिर तुङ्गविद्या बड़ी ही सुन्दर नीली साड़ी रानी को अब पहनाने लगती हैं तथा चम्पई रंग वाली साड़ी को विशाखा उतारती जाती हैं। उसके उतर जाने पर विशाखा ठीक से नीली साड़ी की गाँठ लगा देती हैं एवं तुङ्गविद्या ऊपर अञ्चल ठीक कर देती है। रानी पश्चिम की तरफ चलकर श्रृंगार – भवन में जा पहुँचती हैं। वहाँ बड़ी सुन्दर सजी हुई नीले मखमल की गद्दी लगी हुई एक चौकी है, जो डेढ़ हाथ ऊँची है, उस चौकी पर रानी पूर्व की ओर मुख करके बैठ जाती हैं।

✍️श्रीजी मंजरीदास
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