श्रीप्रिया - प्रियतम कटहल - वृक्ष से बने हुए अत्यन्त सुन्दर निकुञ्ज में विराजमान हैं। चार अत्यन्त सुन्दर कटहल के वृक्ष आठ - आठ गज की दूरी से चारों कोनों में स्थित हैं। उनकी मोटी - मोटी शाखाएँ आपस में जुड़कर गुम्बद के आकार की बन गयी हैं। कटहल - वृक्षों को चारों ओर से घेरकर अंगूर की लताएँ फैली हैं, जिनमें गुच्छे - के - गुच्छे अंगूर के फल लटक रहे हैं। चारों कटहल के वृक्ष भी फल से भरे हैं। छोटे - बड़े सब आकार के पनस - फल ( कटहल के फल ) वृक्षों से लटक रहे हैं। कुछ पके हुए भी हैं तथा उनसे अत्यन्त मीठी सुगन्धि निकल - निकलकर सम्पूर्ण वातावरण को सुवासित कर रही है।
चारों दिशाओं में चार दरवाजे हैं। दरवाजों के पास अंगूर की बेलें फैली हुई हैं। इन बेलों में अंगूर लटक रहे हैं। अंगूर सहित फैली हुई बेलों की शोभा ऐसी है मानो झालर टँग रही हो। छोटे - छोटे पक्षी बेलों एवं वृक्षों पर इधर से उधर, उधर से इधर फुदक रहे हैं। ये पक्षी इतनी मीठी ध्वनि से बोल रहे हैं कि समस्त निकुञ्ज एक अनिर्वचनीय मधुर धीमी स्वर - लहरी से गुञ्जित हो रहा है।
निकुञ्ज के सहन के किनारे - किनारे एक विचित्र जाति के छोटे - छोटे तीन - तीन अंगुल ऊँचे नीले रंग के पौधे उगे हुए है तथा वे पौधे आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि केवल उनकी छोटी - छोटी पत्तियाँ ही दीख रही हैं, जड़ बिलकुल नहीं दीखती। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो तीन हाथ चौड़ी मखमली कालीन निकुञ्ज के किनारे - किनारे बिछ रही हो। निकुञ्ज का शेष अंश ठीक उसी प्रकार के नीले रंग के किसी तेजस पत्थर से पटा हुआ है। फर्श इतना चिकना है कि झुकते ही उस पर अपने मुख का नीला - नीला प्रतिबिम्ब दीखने लगता है।
निकुञ्ज के बीच के स्थल में पीले रंग की चादर बिछी हुई है। इसी चादर पर श्रीप्रिया - प्रियतम एवं सखियाँ अक्षक्रीड़ा खेलने के लिये बैठी हुई हैं। श्रीप्रिया पूर्व की ओर मुख किये हुए तथा श्यामसुन्दर पश्चिम की ओर मुख किये हुए बैठे हैं। श्रीप्रिया की दाहिनी ओर ललिता बैठी हैं एवं बायीं ओर चित्रा ! श्रीश्यामसुन्दर की बायीं ओर विशाखा घुटना टेके बैठी हैं तथा दाहिनी ओर दक्षिण की ओर मुख किये हुए इन्दुलेखा बैठी हैं। चम्पकलता विशाखा की बायीं ओर अपने दाहिने हाथ से विशाखा के बायें कंधे को पकड़े हुए बैठी हैं। तुङ्गविद्या ललिता एवं श्रीप्रिया के बीच की जगह में कुछ पीछे हटकर बैठी हुई हैं। रङ्गदेवी श्रीप्रिया एवं चित्रा के बीच कुछ पीछे हटकर बैठी हैं। सुदेवी इन्दुलेखा एवं चित्रा के बीच की जगह में कुछ पीछे हटकर बैठी हैं। मञ्जरियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़ी हैं। खड़ी हुई मञ्जरियों की दृष्टि गड़ी हुई है श्रीप्रिया - प्रियतम एवं सखियों पर, जो अक्षक्रीड़ा आरम्भ करने वाली ही हैं। निम्न चित्र से स्पष्ट रूप से ज्ञात हो सकता है कि श्रीप्रिया - प्रियतम के साथ अन्य सखियाँ किस - किस दिशा में कहाँ - कहाँ बैठी हैं।
श्रीप्रिया - प्रियतम के बीच में एक हाथ लम्बा एवं एक हाथ चौड़ा कपड़े का टुकड़ा रखा हुआ है, जो अत्यन्त सुन्दर जरी की कारीगरी के कारण चमचम कर रहा है। अक्षक्रीड़ा के दाँव की सूचना देने के लिये यह इस प्रकार चिह्नित है-
श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह ! यह कैसे होगा? नियमानुसार जिसका नाम आयेगा, वह पहले चुनेगा।
श्यामसुन्दर की बात सुनकर श्रीप्रिया के मुखारविन्द पर विशुद्ध मुस्कान छा जाती है तथा वे कहती हैं - देखो, तुम प्रतिदिन कुछ - न - कुछ चालाकी अवश्य करते हो, नहीं तो प्रतिदिन पहले तुम्हारा ही दाँव कैसे आ जाता है? ना, आज वैसे नहीं, पहले मैं अपना दाँव चुन लूँगी, फिर कोई भी चुने।
रानी की बात सुनकर श्यामसुन्दर मुस्कुराते हुए कहते हैं - अच्छा, आज यदि पहले मेरा दाँव आया तो मैं वह दाँव तुम्हें दे दूँगा और तुम्हारा जो दाँव होगा, वह मैं ले लूँगा। क्यों, यह तो मंजूर है?
रानी हँस कर कहती हैं - हाँ, यह मंजूर है।
रानी के यह कहते ही अत्यन्त सुन्दर परात में गुलाब के अतिशय सुन्दर दस फूलों को लिये हुए वृन्दा दक्षिण की ओर से आकर खड़ी हो जाती हैं। गुलाब के फूल इस प्रकार रखे हुए हैं कि दल नीचे की ओर तथा डंटी ऊपर की ओर हैं। वृन्दा परात रख देती हैं तथा पूर्व - उत्तर की ओर मुख करके ललिता एवं चम्पकलता के बीच में जो जगह थी, वहीं बैठ जाती हैं। अपनी आँखें हाथों से मूँद लेती हैं तथा कहती हैं - तुम लोग अपनी इच्छानुसार स्थान परिवर्तन कर लो।
अब सबसे पहले ललिता परात में हाथ डालती हैं तथा फूलों का स्थान इधर - उधर कर देती हैं। उसके बाद श्यामसुन्दर फूलों का स्थान बदल देते हैं।
फिर वृन्दा पूछती हैं - क्यों, हो गया?
श्यामसुन्दर कहते हैं - हाँ, आँखें खोलो !
वृन्दा आँखें खोलती हैं तथा अपनी एक दासी को बाहर से बुलवाती हैं। दासी आ जाती है। वृन्दा उसे इशारा करती हैं। वह पहले एक फूल रानी को देती है, इसके बाद एक फूल श्यामसुन्दर को, फिर ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, तुङ्गविद्या एवं सुदेवी - आठों को क्रमशः एक - एक फूल दे देती है। श्यामसुन्दर को जो फूल मिला, उस पर सात के अङ्क का चिह्न निकला।
रानी को जो फूल मिला, उस पर तीन का चिह्न मिला। ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, तुङ्गविद्या एवं सुदेवी के फूलों पर क्रमशः ५, ६, ८, ४, ९, २, १०, १ के चिह्न थे। अतः यह निर्णय हो गया कि सर्वप्रथम (१) सुदेवी को दाँव चुन लेने का अधिकार है। इसके बाद क्रमशः (२) रङ्गदेवी, (३) राधारानी, (४) इन्दुलेखा, (५) ललिता, (६) विशाखा, (७) श्यामसुन्दर, (८) चित्रा, (९) चम्पकलता एवं (१०) तुङ्गविद्या दाँव चुनेंगी।
श्यामसुन्दर कहते हैं - हाँ, सुदेवी ! तू कौन - सा चुनती है?
सुदेवी मुस्कुराकर ललिता की ओर देखती हैं। फिर सोच कर कहती हैं - मैं तीन नम्बर के कोष्ठ को अपना दाँव स्वीकार कर रही हूँ।
अब रङ्गदेवी की बारी आती है। वे छः नम्बर का कोष्ठ स्वीकार करती हैं।
रानी कुछ सोच कर कहती हैं - मैं नवम कोष्ठ ले रही हूँ।
इसके बाद इन्दुलेखा आठवाँ, ललिता दूसरा, विशाखा चौदहवाँ कोष्ठ ले लेती हैं। अब श्यामसुन्दर की बारी आती है। श्यामसुन्दर एक तीक्ष्ण दृष्टि सभी कोष्ठों पर डाल कर धीरे से कहते हैं - मैं बारहवाँ कोष्ठ स्वीकार करता हूँ।
श्यामसुन्दर के बाद चित्रा ग्यारहवाँ कोष्ठ, चम्पकलता चौथा एवं तुङ्गविद्या पाँचवाँ कोष्ठ स्वीकार कर लेती हैं।
अब वृन्दा बहुत सुन्दर नीले मखमल की बनी हुई एक छोटी पोटली अपनी कञ्चुकी से निकालती हैं और उस पोटली को खोलती हैं। पोटली में अत्यन्त सुन्दर किसी पीले रंग की तेजस धातु की बनी हुई सोलह कौड़ियाँ हैं। कौड़ियाँ इतनी सुन्दर हैं एवं इतनी चिकनी हैं कि देखते ही चकित हो जाना पड़ता है। प्रत्येक कौड़ी पर गलबाँही डाले प्रिया - प्रियतम की अतिशय सुन्दर छवि अङ्कित है। छवि इतनी कारीगरी से बनायी हुई है कि बिलकुल सजीव - सी प्रतीत हो रही है। कौड़ियों पर प्रिया - प्रियतम की छवि देख कर सबका मन खिल उठता है।
अब वृन्दादेवी खेल प्रारम्भ होने की आज्ञा देती हैं। वृन्दादेवी कहती हैं - आज के खेल में यह स्थिर कर रही हूँ कि
(१) जिस - जिस ने जो दाँव चुन लिया है, उसे अपनी बारी आने पर १६ कौड़ियों को उछालकर, दाँव की जो संख्या है, उतनी कौड़ियाँ चित्त गिराने की चेष्टा करनी चाहिये। यदि उतनी चित्त नहीं गिरीं तो वह दाँव हारी हुई समझी जायेगी तथा उस संख्या के दाँव - कोष्ठ पर जिस अङ्ग का नाम अङ्कित है, उस पर, सखी हारेगी तो सखी के उस अङ्ग पर श्यामसुन्दर का एवं श्यामसुदर हारेंगे तो श्यामसुन्दर के उस अङ्ग पर सखी का अधिकार समझा जायेगा।
(२) यदि उतनी कौड़ियाँ उसने चित्त गिरा दीं तो दाँव की जीत समझी जायेगी तथा उस कोष्ठ पर जिस श्रीअङ्ग का नाम अङ्कित है, उसी अङ्ग पर (यदि सखी जीतेगी तो श्यामसुन्दर के उस अङ्ग पर सखी का और श्यामसुन्दर जीतेंगे तो सखी के उस अङ्ग पर श्यामसुन्दर का) अधिकार समझा जायेगा।
(३) प्रत्येक सखी एवं श्यामसुन्दर का दाँव अलग - अलग समझा जायेगा, अर्थात् एक सखी एवं श्यामसुन्दर, फिर एक सखी एवं श्यामसुन्दर, इस प्रकार दो - दो का दाँव रहेगा।
(४) प्रत्येक हारी हुई सखी के बाद श्यामसुन्दर को दाँव फेंकने का अधिकार रहेगा।
(५) यदि किसी ने सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरायीं तो उसके दाँव की जीत तो हो ही गयी, साथ ही कोष्ठ - संख्या एक में जो अङ्ग है, प्रतिद्वन्द्वी के उस अङ्ग पर भी उसका अधिकार हो जायेगा तथा तुरंत ही पुनः दाँव फेंकने का (कौड़ियाँ उछालने का) भी अधिकार होगा।
(६) लगातार कई बार सोलह कौड़ियाँ चित्त गिराने वाले का यथायोग्य अधिकार प्रतिद्वन्द्वी के किन - किन अंगों पर (अर्थात् कोष्ठ - संख्या एक - दो - तीन आदि में निर्दिष्ट अङ्गों पर किस क्रम से) होगा, यह मैं उसी समय घोषित करूंगी।
अब खेल प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम सुदेवी कौड़ियों को उछालती हैं। सुदेवी का दाँव तीन संख्या का था, पर कौड़ियां दो चित्त गिरीं एवं चौदह पट। श्यामसुन्दर खिल खिलाकर हँस पड़ते हैं। वृन्दा कहती हैं - यह पहला दाँव था, पर सुदेवी हार गयी हैं। हाँ, पहला दाँव होने के कारण मैं निर्णय - कर्त्री के विशेष अधिकार से यह सुविधा सुदेवी को दे रही हूँ कि श्यामसुन्दर भी अब इस बार दाँव फेंकते समय यदि हार गये तो सुदेवी की हार भी रद्द समझी जायेगी; पर कहीं जीत गये तो सुदेवी की हार तो कायम ही रही, साथ ही कोष्ठ - संख्या एक पर जो अङ्ग है, उस पर भी बिना दूसरी बार दाँव जीते ही श्यामसुन्दर का अधिकार समझा जायेगा। क्यों सुदेवी ! स्वीकार है या नहीं?
वृन्दा की बात सुन कर सुदेवी विचार में पड़ जाती हैं। यद्यपि हृदय तो, हार हो या जीत हो, दोनों अवस्थाओं में ही प्रेम से थिरक - थिरककर नाच रहा है, पर बाहर गम्भीर - सी मुद्रा में वे कहती हैं- ललिते ! क्या करूँ?
ललिता कहती हैं - तू मान ले, देखा जायेगा।
सुदेवी हाँमी भर लेती हैं। अब श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं तथा इस चतुराई से उछालते हैं कि सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। यह देख कर श्यामसुन्दर तो प्रसन्नता से भर उठते हैं। सुदेवी कुछ शर्मा जाती हैं।
श्यामसुन्दर कहते हैं - वृन्दे ! पहले से स्पष्ट घोषणा करती चली जा, नहीं तो क्या पता, ये सब पीछे से बेईमानी करेंगी।
वृन्दा प्यार में भर कर कुछ देर सोच कर कहती हैं - श्यामसुन्दर का सुदेवी के बायें कपोल पर, बायें नेत्र पर, बायें हाथ पर एवं दाहिने नेत्र पर भी अधिकार हो गया तथा नियम के अनुसार श्यामसुन्दर को फिर से दाँव फेंकने का अधिकार है।
वृन्दा की बात सुन कर श्यामसुन्दर फिर दाँव फेंकते हैं तथा इस बार तेरह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। श्यामसुन्दर कुछ लजा - से जाते हैं। सुदेवी प्रसन्न हो जाती हैं। वृन्दा कहती हैं - इस बार दाँव श्यामसुन्दर हार गये हैं, इसलिये श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर सुदेवी का अधिकार हो गया। इसके बाद रङ्गदेवी दाँव फेंकेंगी।
वृन्दा की बात सुन कर रङ्गदेवी कौड़ियाँ उछालती हैं तथा छः कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - रङ्गदेवी दाँव जीत गयी हैं, इसलिये श्यामसुन्दर के ललाट पर रङ्गदेवी का अधिकार हो गया है। अब मेरी प्यारी रानी दाँव फेकेंगी।
अब रानी की बारी आते ही श्यामसुन्दर एवं सभी सखियों - मञ्जरियों का मन उत्कण्ठा से भर जाता है। रानी अतिशय उत्कण्ठा से कौड़ियों को हाथ में ले लेती हैं। प्यारे श्यामसुन्दर के मुखारविन्द की ओर ताकती हुई कौड़ियाँ उछाल देती हैं। इस बार ८ कौड़ियाँ चित्त तथा शेष ८ कौड़ियों में एक कौड़ी दूसरी दो कौड़ियों पर चढ़ी हुई आधी चित्त गिरी। ललिता तुरंत बोल उठती हैं - यह आधी कौड़ी भी पूरी समझी जायेगी, इसलिये मेरी प्यारी सखी की ही जीत हुई है।
श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह ! क्या मनमानी कहने से बात बन जायेगी? कौड़ियाँ ८ चित्त गिरी हैं, तुम्हारी सखी हार गयी हैं।
श्यामसुन्दर एवं अन्य सखियों में बात होने लगती है। सखियाँ कहती हैं - नहीं, मेरी प्यारी राधा की जीत हुई है।
श्यामसुन्दर रानी से कहते हैं - नहीं, तू हार गयी है।
वृन्दा पर निर्णय का भार था ही। अतः सब सखियाँ एवं श्यामसुन्दर वृन्दा की ओर देखने लगते हैं। वृन्दा कुछ सोच कर कहती हैं - जीत तो रानी की हुई प्रतीत होती है, पर प्यारे श्यामसुन्दर का संदेह मिटाने के लिये मैं यह आज्ञा दे रही हूँ कि रानी उन तीनों कौड़ियों को फिर से उछाल दें। यदि तीनों में से दो कौड़ियाँ रानी चित्त गिरा सकीं तो उसकी जीत समझी जायेगी। यदि तीनों चित्त गिरेंगी तो बिना दूसरा दाँव फेंके रानी का श्यामसुन्दर के दाहिने हाथ पर भी अधिकार हो जायेगा; पर कहीं एक चित्त गिरी तो किसी की हार - जीत नहीं मानी जाकर रानी को फिर से दाँव फेंकना पड़ेगा। क्यों श्यामसुन्दर, मंजूर है?
श्यामसुन्दर कुछ मुस्कुराते हुए श्रीप्रिया की ओर देख कर धीरे से कहते हैं - ठीक है, यही सही।
रानी कौड़ियाँ उछालती हैं। तीनों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सखियों में हँसी का प्रवाह बह जाता है। श्यामसुन्दर भी हँसने लगते हैं।
वृन्दा भी कहती हैं - श्यामसुन्दर के दोनों हाथों पर रानी का अधिकार हो गया।
अब क्रमशः सखियाँ दाँव फेंकती हैं। इन्दुलेखा के द्वारा दाँव फेंके जाने पर दस कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - इन्दुलेखा दाँव हार गयीं, इसलिये इन्दुलेखा के ओष्ठ पर श्यामसुन्दर का अधिकार हो गया। श्यामसुन्दर ! तुम दाँव फेंको। श्यामसुन्दर दाँव फेंकते हैं। बारह कौड़ियाँ चित्त गरती हैं। वृन्दा कहती हैं - इन्दुलेखा के बायें हाथ पर श्यामसुन्दर का अधिकार।
अब ललिता की बारी आती है। इस बार सभी कौड़ियाँ उठा कर श्यामसुन्दर ललिता के हाथ में दे देते हैं। ललिता हँसती हुईं कौड़ियों को पकड़ लेती हैं तथा कहती हैं - तुम्हारी स्पर्श की हुई कौड़ी है। पता नहीं, तुमने जादू - टोना किया होगा। देवी रक्षा करें। कात्यायनी मेरी सहायता करें, देवी का स्मरण करके ललिता कौड़ियाँ उछाल देती हैं। सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सभी हँसने लगती हैं। कौड़ियाँ उठा कर पुनः ललिता उछाल देती हैं। इस बार भी सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सखियों में हँसी का मानो तूफान - सा उठने लगा। रानी प्यार में भरकर ललिता को अपने दाहिने हाथ से खींच कर शरीर से सटा लेती हैं। ललिता पुनः कौड़ियों को उछालती हैं। इस बार तीन चित्त गिरती हैं। श्यामसुन्दर हँस पड़ते हैं। वृन्दा कहती हैं - दो दाँव के अनुसार श्यामसुन्दर के दोनों नेत्रों पर, दोनों कपोलों पर ललिता का अधिकार हुआ। तीसरा दाँव ललिता हार गयीं; इसलिये ललिता के अधर पर श्यामसुन्दर का अधिकार है।
ललिता बहुत शीघ्रतासे कहती हैं - वाह वृन्दे ! वाह, तुम्हें नियम भी याद नहीं है। मेरे स्वयं का दाँव तो मेरा दाहिना नेत्र है।
वृन्दा कहती हैं - ठीक ! ठीक !! भूल गयी, अधर के बदले तुम्हारे दाहिने नेत्र पर श्यामसुन्दर का अधिकार रहा।
वृन्दा की बात सुन कर सभी हँसने लगती हैं। अब पुनः श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं। बारह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - ललिता के बायें हाथ पर श्यामसुन्दर का अधिकार।
अब विशाखा दाँव फेंकती हैं। पन्द्रह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - विशाखा के बायें चरण पर श्यामसुन्दर का अधिकार।
श्यामसुन्दर पुनः कौड़ियाँ फेंकते हैं। चौदह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा घोषणा करती हैं - श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर विशाखा का अधिकार।
चित्रा का दाँव आता है। इस बार ठीक ग्यारह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं; पर श्यामसुन्दर जल्दी से गिनने का बहाना करके एक कौड़ी और भी चित्त कर देते हैं तथा कहते हैं - ना, बारह, कौड़ियाँ चित्त गिरी हैं, यह तो दाँव हार गयी।
ठीक इसी समय वृन्दा की एक दासी वृन्दा के कान में कुछ धीरे से कहने लग गयी थी, इसमें वृन्दा का ध्यान उधर बँट गया। श्यामसुन्दर की इस चतुराई को देख नहीं सकीं। अब तो प्रेम का कलह होने लग गया। ललिता - चित्रा आदि कहतीं - वाह ! तुमने एक कौड़ी और चित्त कर दी है, दाँव चित्रा ने जीता है।
श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह, जब मैंने सबसे बेईमानी नहीं की तो चित्रा से हमारा कोई बैर है कि बेईमानी करूँगा?
वृन्दा कुछ शर्मा - सी गयीं; क्योंकि भूल उनकी थी। उन्होंने ठीक से देखा नहीं। दूसरी बात में लग गयीं। वृन्दा ने कहा - दूसरी बार दाँव फेंको।
इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए चित्रा कहने लगीं - मैं अपना जीता हुआ दाँव छोड़ कर जोखिम क्यों उठाऊँ?
श्यामसुन्दर कहते हैं - यह अवश्य ही हार गयी।
वृन्दा प्रार्थना की मुद्रा में रानी की ओर देखती हुई कहती हैं - मेरी रानी, किसी प्रकार चित्रा मान ले। यह मेरी भूल थी कि मैं ठीक से नहीं देख सकी।
रानी विचारने लगती हैं तथा कहती हैं - अच्छा, देख चित्रे ! वृन्दा की भूल के कारण यह गड़बड़ी हो गयी है, इसलिये फिर से दाँव लगा। यदि तू जीत गयी तो फिर तो कोई प्रश्न ही नहीं है, पर यदि हार गयी तो मैं वह दाँव ले लूँगी, (अर्थात् तुम्हें कुछ नहीं कह कर श्यामसुन्दर वह दाँव मुझसे वसूल करेंगे) तथा इसके पश्चात् जब श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालेंगे तो उन्हें इस बार ग्यारहवीं संख्या का दाँव लगाना पड़ेगा। यदि श्यामसुन्दर हार गये, तब तो तुम्हारा दाँव आ ही जायेगा, पर कहीं जीत गये तो उतनी जोखिम फिर तू उठा ले। और तो क्या हो सकता है?
रानी की बात सुन कर सभी एक स्वर से सम्मति दे देती हैं। चित्रा मुस्कुराती हुई कौड़ियाँ पुनः उछालती हैं; पर इस बार दस कौड़ियाँ चित्त आती हैं। श्यामसुन्दर हँस पड़ते हैं। वृन्दा भी कुछ मुस्कुराकर कहती हैं - क्या बताऊँ?
श्यामसुन्दर हँसते हुए कौड़ियाँ उठा लेते हैं तथा कहते हैं - अब देख, तेरा एक - एक अङ्ग जीत लेता हूँ। वृन्दे, तू अभी से मेरी जीत की साफ - साफ घोषणा भले कर दे।
श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं। सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। फिर उछालते हैं। फिर सोलहों चित्त गिरती हैं। फिर उछालते हैं, फिर सोलहों चित्त गिरती हैं। इसके बाद तीन बार और उछालते हैं और तीनों बार ही सोलहों चित्त गिरती हैं। चित्रा तो लजा - सी जाती हैं। रानी इस बार कौड़ियों को श्यामसुन्दर के हाथ से हँसती हुई छीन लेती हैं। श्यामसुन्दर हँसते हुए कहते हैं - वाह, वाह ! अभी मेरा दाँव है।
श्यामसुन्दर कौड़ियों के लिये छीना - झपटी करते हैं। रानी कौड़ियों को दोनों मुट्ठियों में कसकर पकड़ लेती हैं। श्यामसुन्दर कौड़ी लेना चाहते हैं। रानी छोड़ना नहीं चाहतीं। श्यामसुन्दर वृन्दा से कहते हैं - देख वृन्दे ! तू चुपचाप बैठी रहेगी? क्यों?
वृन्दा कहती हैं - रानी ! दाँव श्यामसुन्दर का है, कौड़ियाँ उन्हें दे दो।
ललिता कहती हैं - तुमने ही तो सब गड़बड़ मचायी है। अब श्यामसुन्दर का पक्ष करने चली है।
वृन्दा हँसने लगती हैं। रानी कौड़ियाँ पकड़े हुए उठ पड़ती हैं। श्यामसुन्दर भी चटपट उठ पड़ते हैं। श्यामसुन्दर एक चतुराई कर बैठते हैं। वे रानी का अञ्चल पकड़ लेते हैं। अञ्चल पकड़ते ही कौड़ियों को छोड़ कर रानी उसे सँभालने लग जाती हैं। कौड़ियाँ झर - झर करती हुई जमीन पर गिर पड़ती हैं। श्यामसुन्दर हँसते हुए बैठ जाते हैं, कौड़ियाँ उठा लेते हैं। रानी भी हँसती हुई पुनः आसन पर पूर्ववत् बैठ जाती हैं। श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं, पर इस बार पन्द्रह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कुछ क्षण कोष्ठ को देख कर तथा अंगुली पर दाँव गिन कर कहती हैं - चित्रा के दाँव को रानी ने लिया था। चित्रा दाँव हारी, इसलिये रानी के हृदय पर श्यामसुन्दर का अधिकार। इसके बाद श्यामसुन्दर ने लगातार छः दाँव जीते हैं, इसलिये चित्रा के हृदय, दोनों नेत्र, दोनों कपोल, अधर, ललाट, ठोढ़ी, ओष्ठ, दोनों हाथ एवं नासिका पर श्यामसुन्दर का अधिकार। अन्तिम दाँव श्यामसुन्दर हार गये, इसलिये श्यामसुन्दर के हृदय पर चित्रा का अधिकार हुआ। इस समय सभी हँस रहे हैं। अब चम्पकलता कौड़ियाँ उछालती हैं। चार कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - श्यामसुन्दर के दाहिने कपोल पर चम्पकलता का अधिकार।
इसके बाद तुङ्गविद्या कौड़ियाँ उछालती हैं; पर चार कौड़ियाँ इस बार भी चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - तुङ्गविद्या के अधर पर श्यामसुन्दर का अधिकार।
अब सबसे अन्त में पुनः श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उठाते हैं; पर इस बार तेरह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर तुङ्गविद्या का अधिकार।
वृन्दा के यह कहते ही चित्रा कोष्ठ वाले कपड़े को उलट देती हैं तथा उठकर भागने लगती हैं। और - और सखियाँ भी चटपट उठने लगती हैं। श्यामसुन्दर पहले दौड़ कर चित्रा को पकड़ लेते हैं। चित्रा हँसने लगती है। श्यामसुन्दर चित्रा को लाकर वहीं पुनः बैठा देते हैं।
इसी समय उड़ता हुआ एक तोता निकुञ्ज में प्रवेश करता है तथा दरवाजे की एक डाली पर बैठ कर आँखों को कोयों में घुमाकर कहता है - जय हो प्रिया - प्रियतम की ! आज्ञा हो तो कुछ निवेदन करूँ।
तोते की बात सुन कर शीघ्रता से वृन्दा कहती हैं - हाँ, हाँ, जल्दी से बोल।
तोता कहता है - मेरे प्यारे श्यामसुन्दर ! मेरी प्यारी रानी !! मैं वृन्दादेवी की आज्ञा से मोहन घाट पर स्थित कदम्ब के पेड़ पर बैठा हुआ पहरा दे रहा था। अभी कुछ क्षण पहले तुम्हारे (राधारानी के) महल मे एक सुन्दर ब्राह्मणकुमार एवं एक वृद्धा स्त्री निकली। दोनों आपस में बातें कर रहे थे। वृद्धा कहती थी कि ब्राह्मणकुमार ! मुझे पूर्ण आशा है कि आप मेरी प्रार्थना अवश्य - अवश्य मान लेंगे। जिस - किसी उपाय से भी आप मुझ पर कृपा करके मेरी लालसा अवश्य पूर्ण करेंगे। ब्राह्मणकुमार कहता था कि मैंने सारी परिस्थिति तुम से बतला ही दी है। पूरी चेष्टा करूँगा, पर सफलता तो विधाता के हाथ में हैं। आज - आज का तो मैं वचन देता हूँ, उसे अवश्य भेज दूँगा। मैं भी आने की चेष्टा करूँगा तथा उसे राजी करने की भी हार्दिक चेष्टा तुम्हारे सामने भी करूँगा। आगे हरि - इच्छा। फिर ब्राह्मणकुमार एवं वह वृद्धा, दोनों दक्षिण की तरफ बढ़ने लगे। प्रथम राजपथ पर आते ही वह ब्राह्मणकुमार तो पूर्व की ओर चला गया तथा वृद्धा ने वह पगडंडी पकड़ी, जो गिरिवर - स्रोत की ओर जाती है। वृन्दादेवीका यह आदेश था कि रानी के महल से किसी वृद्धा को इस तरफ आती देख कर तुरंत उसी क्षण मुझे खबर दे देना। इसलिये मैं पूरी शक्ति लगा कर वहाँ से उड़ा और यहाँ आकर आपको यह सूचना दे रहा हूँ। मैं इतनी तेजी से उड़ा हूँ कि वह वृद्धा अभी तक तीन - सौ गज भी आगे नहीं बढ़ सकी होगी।
तोते की बात सुन कर रानी का मुख बिलकुल उदास हो जाता है। श्यामसुन्दर भी गम्भीर बन जाते हैं; पर रानी की दशा देख कर अपनी गम्भीरता छिपाते हुए उठ पड़ते हैं। सखियाँ भी सब गम्भीर हो जाती हैं। प्यारे श्यामसुन्दर रानी को अपने हृदय से लगा लेते हैं।
रानी हृदय से लगाकर गम्भीर श्वास लेने लगती हैं। वृन्दा ललिता से कहती हैं - समय कम है, शीघ्रता करनी चाहिये।
ललिता गंभीर मुद्रा में श्यामसुन्दर को कुछ इशारा करती हैं तथा रानी को पकड़ लेती हैं। अब धीरे - धीरे प्रिया - प्रियतम निकुञ्ज के पूर्वी फाटक से निकल कर रविश (छोटी सड़क) पर पूर्व की ओर चलने लगते हैं। श्यामसुन्दर श्रीप्रिया को सँभाले हुए चल रहे हैं। प्यारे श्यामसुन्दर से अब कुछ देर के लिये अलग होना पड़ेगा, इस विचार से प्रिया का प्राण छटपटाने लगा है। श्यामसुन्दर के प्राण भी छटपटा रहे हैं; पर वे अपनी व्याकुलता छिपाये हुए चल रहे हैं कि जिससे मेरी प्रिया कहीं मुझे व्याकुल देख कर और भी व्याकुल न हो जाये। लगातार कुछ देर पूर्व की ओर चल कर फिर वे दक्षिण की ओर मुड़ पड़ते हैं तथा उसी दिशा में कुछ देर चलते रहते हैं। चलते - चलते ललिता कुञ्ज की दक्षिणी सीमा की चहारदीवारी आ जाती है। यहाँ एक छोटा फाटक है, उससे निकल कर फिर पूर्व की ओर कुछ दूर चलते हैं। अब ललिता कुञ्ज एवं विशाखा कुञ्ज के बीच से उत्तर - दक्षिण की ओर जो सड़क जाती है, उस पर आ पहुँचते हैं। श्यामसुन्दर पुनः श्रीप्रिया को हृदय से लगा लेते हैं तथा कुछ क्षण वे उनके मुखारविन्द की ओर देखते हुए गम्भीर मुद्रा में प्रिया से कुछ दूर अलग हटकर खड़े हो जाते हैं। फिर उत्तर की ओर चलने लगते हैं। रानी एवं सखियाँ चुपचाप खड़ी रहकर निर्निमेष नयनों से उधर ही देखती रहती हैं। श्यामसुन्दर बार - बार गर्दन घुमा - घुमाकर रानी की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देखते जा रहे हैं। करीब एक फलाँग उत्तर की तरफ जाकर एक फाटक से विशाखा की कुञ्ज में प्रवेश करके आँखों से ओझल हो जाते हैं। रानी कुछ क्षण एकटक उसी दिशा की ओर देखती रहती हैं। फिर ललिता के कंधे को पकड़ कर दक्षिण की ओर सूर्य - मन्दिर में जाने के उद्देश्य से चल पड़ती हैं।