Wednesday, February 21, 2024

आज बने सखि नंद कुमार.. ,, "

आज बने सखि नंदकुमार।
वाम भाग वृषभान नंदिनी ललितादिक गावे सिंहद्वार।।
कंचन थार लियेजु कमल कर मुक्ता फल फूलन के हार।
रोरी को सिर तिलक विराजत करत आरती हरस अपार।।
यह जोरी अविचल श्रीवृन्दावन असीस देत सकल व्रजनार।
कुँजमहल में राजत दोऊ परमानन्द दास बलिहार।।

Tuesday, February 6, 2024

नयन नशीले

नयन नशीले कान्हां के,
नयनों से जादू करता है .।

इक बार जो नज़र मिला ले,
वो कान्हा कान्हा करता है ..।।

🙏राधे राधे जय श्री कृष्णा🙏

Monday, February 5, 2024

मानसी सेवा का फल

(((( मानसी-सेवा का अद्भुत फल ))))
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बहुत पुरानी बात है, वृन्दावन में एक सन्त रहते थे। 
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उनके पास बालकृष्ण की एक मूर्ति थी जिसे वह अपना पुत्र मानते थे और स्वयं को नंदबाबा समझकर श्रीकृष्ण की मानसिक सेवा किया करते थे। 
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श्रीकृष्ण का चरित्र ही इतना अद्भुत है कि उनसे आप अपना कोई भी नाता (पिता, पुत्र, स्वामी, पति, सखा, दास आदि) जो भी आपको अच्छा लगे, जोड़ सकते हैं...
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तोहि मोहि नाते अनेक मानिये जो भावै।
ज्यों-त्यों तुलसी कृपालु चरन-सरन पावै।। 
(विनय-पत्रिका ७९)
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संत बाबा ब्राह्ममुहुर्त से लेकर रात्रि में शयन करने तक कन्हैया की मानसिक सेवा करते और मन से ही उन्हें सभी वस्तु अर्पण करते थे। 
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प्रात:काल ही लाला (व्रज में लड्डूगोपाल को लाला कहते हैं) को भूख लगी होगी-ऐसा सोचकर कन्हैया के लिए दूध, मलाई, मिश्री का मानसिक रूप से प्रबन्ध करते। 
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दोपहर में लाला से पूछते 'क्या खायेगा ?', वही तैयार करते। शाम को ब्यारु (रात्रि भोजन) कराते और रात को सोते समय दूध पिलाते।
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गीता (९।२६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं..
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पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।
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अर्थात्-पत्र, पुष्प, फल, जल जो मुझे भक्ति से अर्पण करता है, उसे मैं सगुणरूप में प्रकट होकर प्रेमपूर्वक स्वाद के साथ खाता हूँ।
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लाला के प्रति बाबा का वात्सल्यभाव इतना प्रगाढ़ हो गया था कि वे हर समय उन्हीं के ध्यान में मग्न रहते, उसे लाड़ लड़ाते रहते थे। 
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रात्रि में लाला के बिस्तर के साथ अपना बिस्तर लगाते और उठकर देखते कि कहीं लाला ने मल-मूत्र तो नहीं कर दिया और मानसिक रूप से ही बिछौना खराब होने की आशंका से उसे बदलते थे।
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कभी भावना करते कि आज कन्हैया फल मांग रहा है। 
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बाबा बाजार जाते और फल वाले के पास, हलवाई के पास और खिलौने वाले के पास जाकर नेत्र बंद करके खड़े हो जाते और हाथ जोड़ कर लाला को मन-ही-मन वस्तु अर्पण करके मन में संतुष्ट हो जाते कि मेरा लाला सभी चीजें पाकर प्रसन्न होकर खेल रहा है। 
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कभी उन्हें लगता कि नटखट कन्हैया मेरी दाढ़ी खींच रहा है और वे उसकी चुटकी लेकर अपनी दाढ़ी छुड़ाते।
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संत बाबा यमुना-स्नान को जाते तो लाला को स्नान के लिए साथ ले जाते। 
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एक बार बाबा के कपड़ों में उलझकर लाला यमुना में गिर गया तो वे अपने को धिक्कार कर रोने लगे और कहने लगे.. 'अब मान जा, और बता दे कि तू कहां पर है ?' 
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तब उन्हें पानी में एक जगह लाला का आभास हुआ तो वे यमुना में कूद कर उसे बाहर लाए। 
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लाला को पौंछकर पुचकारते हुए नये वस्त्र पहनाये और रोने लगे। उन्हें लगा लाला उन्हें पुचकार रहा है। अब वे बड़ी सावधानी से लाला को किनारे पर बिठाकर लोटे से स्नान कराते थे।
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एक बार बाबा के एक शिष्य ने उन्हें काशी आने का संदेश भेजा। 
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बाबा जाने को तैयार हुए तो उन्हें लगा कि उनका कन्हैया उन्हें जाने से रोक रहा है और कह रहा है.. 'मुझे छोड़ कर काशी न जाना, मुझे तुम्हारे साथ यहां बहुत अच्छा लगता है।' 
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बाबा कहते मेरा लाला अभी छोटा है, बड़ा भोला है, मुझे कन्हैया को छोड़कर कहीं नहीं जाना है।
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धीरे-धीरे समय की गति के साथ बाबा का शरीर जीर्ण हो गया और उन्हें जरावस्था ने घेर लिया, पर उनका कन्हैया छोटा-सा लाला ही बना रहा। 
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एक दिन लाला की मानसी-सेवा करते-करते बाबा के जीर्ण शरीर से प्राण निकल कर पंचतत्त्व में विलीन हो गये। 
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लाला बाबा के बगल में बैठा रह गया और बाबा उसके धाम को चले गए। 
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शिष्यों को जब बाबा के महाप्रयाण का पता लगा तो वे उनके शरीर को लेकर श्मशान आ गये और अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे।
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तभी वहां एक सात-आठ साल का सुन्दर, सलौना बालक घोती पहने व कंधे पर गमछा रखे पहुंचा। 
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उसने कंधे पर एक मिट्टी का घड़ा रखा था जिसके ढक्कन पर अंतिम क्रिया की सामग्री रखी हुई थी।
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आगन्तुक बालक ने शिष्यों से कहा.. 'ये मेरे पिता हैं, मैं इनका मानस पुत्र हूँ, इसलिए इनका अंतिम संस्कार करने का मेरा अधिकार है। 
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पिता की अंतिम इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है। मेरे पिता की बहुत दिनों से गंगास्नान करने की इच्छा थी, परन्तु मेरे छोटे होने के कारण वे मुझे छोड़कर कहीं नहीं गये, इसलिए मैं यह गंगाजल का घड़ा लेकर आया हूँ।
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सभी उपस्थितजन उसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गये। उस बालक ने बाबा के शरीर को स्नान करा कर चन्दन लगाया, फूलमाला आदि पहना कर उनका पूजन-वंदन किया फिर परिक्रमा कर अंतिम क्रिया की। 
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सभी लोग देखते रह गये, किसी की भी उसे रोकने-टोकने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ ही देर बाद वह बालक अदृश्य हो गया।
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तब जाकर शिष्यों को याद आया कि बाबा के तो कोई पुत्र था ही नहीं, हां, बालकृष्ण को ही वे अपना पुत्र मानते थे। कन्हैया ही पुत्र बनकर आया और पुत्र धर्म का निर्वाह कर चला गया।
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गीता (१२।७) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है..
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तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।
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अर्थात्.. 'हे अर्जुन ! जो मेरी सेवा करता है, मुझमें चित्त लगाता है, उसे मैं मृत्यु रूप संसार-सागर से पार कर देता हूँ अर्थात् वह शीघ्र ही मुझे प्राप्त हो जाता है।'
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भगवान ने गीता के अपने वचन 'योगक्षेम वहाम्यहम्' के अनुसार संत बाबा को सायुज्य-मुक्ति प्रदान कर दी । 
✍️श्रीजी मंजरीदास 
  (( जय जय श्री राधे ))

कुंज की अक्ष क्रीड़ा लीला भाव 9

अक्षक्रीड़ा लीला

श्रीप्रिया - प्रियतम कटहल - वृक्ष से बने हुए अत्यन्त सुन्दर निकुञ्ज में विराजमान हैं। चार अत्यन्त सुन्दर कटहल के वृक्ष आठ - आठ गज की दूरी से चारों कोनों में स्थित हैं। उनकी मोटी - मोटी शाखाएँ आपस में जुड़कर गुम्बद के आकार की बन गयी हैं। कटहल - वृक्षों को चारों ओर से घेरकर अंगूर की लताएँ फैली हैं, जिनमें गुच्छे - के - गुच्छे अंगूर के फल लटक रहे हैं। चारों कटहल के वृक्ष भी फल से भरे हैं। छोटे - बड़े सब आकार के पनस - फल ( कटहल के फल ) वृक्षों से लटक रहे हैं। कुछ पके हुए भी हैं तथा उनसे अत्यन्त मीठी सुगन्धि निकल - निकलकर सम्पूर्ण वातावरण को सुवासित कर रही है।

चारों दिशाओं में चार दरवाजे हैं। दरवाजों के पास अंगूर की बेलें फैली हुई हैं। इन बेलों में अंगूर लटक रहे हैं। अंगूर सहित फैली हुई बेलों की शोभा ऐसी है मानो झालर टँग रही हो। छोटे - छोटे पक्षी बेलों एवं वृक्षों पर इधर से उधर, उधर से इधर फुदक रहे हैं। ये पक्षी इतनी मीठी ध्वनि से बोल रहे हैं कि समस्त निकुञ्ज एक अनिर्वचनीय मधुर धीमी स्वर - लहरी से गुञ्जित हो रहा है।

निकुञ्ज के सहन के किनारे - किनारे एक विचित्र जाति के छोटे - छोटे तीन - तीन अंगुल ऊँचे नीले रंग के पौधे उगे हुए है तथा वे पौधे आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि केवल उनकी छोटी - छोटी पत्तियाँ ही दीख रही हैं, जड़ बिलकुल नहीं दीखती। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो तीन हाथ चौड़ी मखमली कालीन निकुञ्ज के किनारे - किनारे बिछ रही हो। निकुञ्ज का शेष अंश ठीक उसी प्रकार के नीले रंग के किसी तेजस पत्थर से पटा हुआ है। फर्श इतना चिकना है कि झुकते ही उस पर अपने मुख का नीला - नीला प्रतिबिम्ब दीखने लगता है।

निकुञ्ज के बीच के स्थल में पीले रंग की चादर बिछी हुई है। इसी चादर पर श्रीप्रिया - प्रियतम एवं सखियाँ अक्षक्रीड़ा खेलने के लिये बैठी हुई हैं। श्रीप्रिया पूर्व की ओर मुख किये हुए तथा श्यामसुन्दर पश्चिम की ओर मुख किये हुए बैठे हैं। श्रीप्रिया की दाहिनी ओर ललिता बैठी हैं एवं बायीं ओर चित्रा ! श्रीश्यामसुन्दर की बायीं ओर विशाखा घुटना टेके बैठी हैं तथा दाहिनी ओर दक्षिण की ओर मुख किये हुए इन्दुलेखा बैठी हैं। चम्पकलता विशाखा की बायीं ओर अपने दाहिने हाथ से विशाखा के बायें कंधे को पकड़े हुए बैठी हैं। तुङ्गविद्या ललिता एवं श्रीप्रिया के बीच की जगह में कुछ पीछे हटकर बैठी हुई हैं। रङ्गदेवी श्रीप्रिया एवं चित्रा के बीच कुछ पीछे हटकर बैठी हैं। सुदेवी इन्दुलेखा एवं चित्रा के बीच की जगह में कुछ पीछे हटकर बैठी हैं। मञ्जरियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़ी हैं। खड़ी हुई मञ्जरियों की दृष्टि गड़ी हुई है श्रीप्रिया - प्रियतम एवं सखियों पर, जो अक्षक्रीड़ा आरम्भ करने वाली ही हैं। निम्न चित्र से स्पष्ट रूप से ज्ञात हो सकता है कि श्रीप्रिया - प्रियतम के साथ अन्य सखियाँ किस - किस दिशा में कहाँ - कहाँ बैठी हैं।
श्रीप्रिया - प्रियतम के बीच में एक हाथ लम्बा एवं एक हाथ चौड़ा कपड़े का टुकड़ा रखा हुआ है, जो अत्यन्त सुन्दर जरी की कारीगरी के कारण चमचम कर रहा है। अक्षक्रीड़ा के दाँव की सूचना देने के लिये यह इस प्रकार चिह्नित है-
अब अक्षक्रीड़ा आरम्भ होने के पूर्व श्रीप्रिया कहती हैं - ना, मैं आज अपना दाँव सबसे पहले चुन लूँगी।

श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह ! यह कैसे होगा? नियमानुसार जिसका नाम आयेगा, वह पहले चुनेगा।

श्यामसुन्दर की बात सुनकर श्रीप्रिया के मुखारविन्द पर विशुद्ध मुस्कान छा जाती है तथा वे कहती हैं - देखो, तुम प्रतिदिन कुछ - न - कुछ चालाकी अवश्य करते हो, नहीं तो प्रतिदिन पहले तुम्हारा ही दाँव कैसे आ जाता है? ना, आज वैसे नहीं, पहले मैं अपना दाँव चुन लूँगी, फिर कोई भी चुने।

रानी की बात सुनकर श्यामसुन्दर मुस्कुराते हुए कहते हैं - अच्छा, आज यदि पहले मेरा दाँव आया तो मैं वह दाँव तुम्हें दे दूँगा और तुम्हारा जो दाँव होगा, वह मैं ले लूँगा। क्यों, यह तो मंजूर है? 

रानी हँस कर कहती हैं - हाँ, यह मंजूर है। 

रानी के यह कहते ही अत्यन्त सुन्दर परात में गुलाब के अतिशय सुन्दर दस फूलों को लिये हुए वृन्दा दक्षिण की ओर से आकर खड़ी हो जाती हैं। गुलाब के फूल इस प्रकार रखे हुए हैं कि दल नीचे की ओर तथा डंटी ऊपर की ओर हैं। वृन्दा परात रख देती हैं तथा पूर्व - उत्तर की ओर मुख करके ललिता एवं चम्पकलता के बीच में जो जगह थी, वहीं बैठ जाती हैं। अपनी आँखें हाथों से मूँद लेती हैं तथा कहती हैं - तुम लोग अपनी इच्छानुसार स्थान परिवर्तन कर लो।

अब सबसे पहले ललिता परात में हाथ डालती हैं तथा फूलों का स्थान इधर - उधर कर देती हैं। उसके बाद श्यामसुन्दर फूलों का स्थान बदल देते हैं। 

फिर वृन्दा पूछती हैं - क्यों, हो गया?

श्यामसुन्दर कहते हैं - हाँ, आँखें खोलो !

वृन्दा आँखें खोलती हैं तथा अपनी एक दासी को बाहर से बुलवाती हैं। दासी आ जाती है। वृन्दा उसे इशारा करती हैं। वह पहले एक फूल रानी को देती है, इसके बाद एक फूल श्यामसुन्दर को, फिर ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, तुङ्गविद्या एवं सुदेवी - आठों को क्रमशः एक - एक फूल दे देती है। श्यामसुन्दर को जो फूल मिला, उस पर सात के अङ्क का चिह्न निकला।

रानी को जो फूल मिला, उस पर तीन का चिह्न मिला। ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, तुङ्गविद्या एवं सुदेवी के फूलों पर क्रमशः ५, ६, ८, ४, ९, २, १०, १ के चिह्न थे। अतः यह निर्णय हो गया कि सर्वप्रथम (१) सुदेवी को दाँव चुन लेने का अधिकार है। इसके बाद क्रमशः (२) रङ्गदेवी, (३) राधारानी, (४) इन्दुलेखा, (५) ललिता, (६) विशाखा, (७) श्यामसुन्दर, (८) चित्रा, (९) चम्पकलता एवं (१०) तुङ्गविद्या दाँव चुनेंगी। 

श्यामसुन्दर कहते हैं - हाँ, सुदेवी ! तू कौन - सा चुनती है? 

सुदेवी मुस्कुराकर ललिता की ओर देखती हैं। फिर सोच कर कहती हैं - मैं तीन नम्बर के कोष्ठ को अपना दाँव स्वीकार कर रही हूँ।

अब रङ्गदेवी की बारी आती है। वे छः नम्बर का कोष्ठ स्वीकार करती हैं।

रानी कुछ सोच कर कहती हैं - मैं नवम कोष्ठ ले रही हूँ। 

इसके बाद इन्दुलेखा आठवाँ, ललिता दूसरा, विशाखा चौदहवाँ कोष्ठ ले लेती हैं। अब श्यामसुन्दर की बारी आती है। श्यामसुन्दर एक तीक्ष्ण दृष्टि सभी कोष्ठों पर डाल कर धीरे से कहते हैं - मैं बारहवाँ कोष्ठ स्वीकार करता हूँ।

श्यामसुन्दर के बाद चित्रा ग्यारहवाँ कोष्ठ, चम्पकलता चौथा एवं तुङ्गविद्या पाँचवाँ कोष्ठ स्वीकार कर लेती हैं।

अब वृन्दा बहुत सुन्दर नीले मखमल की बनी हुई एक छोटी पोटली अपनी कञ्चुकी से निकालती हैं और उस पोटली को खोलती हैं। पोटली में अत्यन्त सुन्दर किसी पीले रंग की तेजस धातु की बनी हुई सोलह कौड़ियाँ हैं। कौड़ियाँ इतनी सुन्दर हैं एवं इतनी चिकनी हैं कि देखते ही चकित हो जाना पड़ता है। प्रत्येक कौड़ी पर गलबाँही डाले प्रिया - प्रियतम की अतिशय सुन्दर छवि अङ्कित है। छवि इतनी कारीगरी से बनायी हुई है कि बिलकुल सजीव - सी प्रतीत हो रही है। कौड़ियों पर प्रिया - प्रियतम की छवि देख कर सबका मन खिल उठता है।

अब वृन्दादेवी खेल प्रारम्भ होने की आज्ञा देती हैं। वृन्दादेवी कहती हैं - आज के खेल में यह स्थिर कर रही हूँ कि 
(१) जिस - जिस ने जो दाँव चुन लिया है, उसे अपनी बारी आने पर १६ कौड़ियों को उछालकर, दाँव की जो संख्या है, उतनी कौड़ियाँ चित्त गिराने की चेष्टा करनी चाहिये। यदि उतनी चित्त नहीं गिरीं तो वह दाँव हारी हुई समझी जायेगी तथा उस संख्या के दाँव - कोष्ठ पर जिस अङ्ग का नाम अङ्कित है, उस पर, सखी हारेगी तो सखी के उस अङ्ग पर श्यामसुन्दर का एवं श्यामसुदर हारेंगे तो श्यामसुन्दर के उस अङ्ग पर सखी का अधिकार समझा जायेगा।

(२) यदि उतनी कौड़ियाँ उसने चित्त गिरा दीं तो दाँव की जीत समझी जायेगी तथा उस कोष्ठ पर जिस श्रीअङ्ग का नाम अङ्कित है, उसी अङ्ग पर (यदि सखी जीतेगी तो श्यामसुन्दर के उस अङ्ग पर सखी का और श्यामसुन्दर जीतेंगे तो सखी के उस अङ्ग पर श्यामसुन्दर का) अधिकार समझा जायेगा।

(३) प्रत्येक सखी एवं श्यामसुन्दर का दाँव अलग - अलग समझा जायेगा, अर्थात् एक सखी एवं श्यामसुन्दर, फिर एक सखी एवं श्यामसुन्दर, इस प्रकार दो - दो का दाँव रहेगा।

(४) प्रत्येक हारी हुई सखी के बाद श्यामसुन्दर को दाँव फेंकने का अधिकार रहेगा।

(५) यदि किसी ने सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरायीं तो उसके दाँव की जीत तो हो ही गयी, साथ ही कोष्ठ - संख्या एक में जो अङ्ग है, प्रतिद्वन्द्वी के उस अङ्ग पर भी उसका अधिकार हो जायेगा तथा तुरंत ही पुनः दाँव फेंकने का (कौड़ियाँ उछालने का) भी अधिकार होगा।

(६) लगातार कई बार सोलह कौड़ियाँ चित्त गिराने वाले का यथायोग्य अधिकार प्रतिद्वन्द्वी के किन - किन अंगों पर (अर्थात् कोष्ठ - संख्या एक - दो - तीन आदि में निर्दिष्ट अङ्गों पर किस क्रम से) होगा, यह मैं उसी समय घोषित करूंगी।

अब खेल प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम सुदेवी कौड़ियों को उछालती हैं। सुदेवी का दाँव तीन संख्या का था, पर कौड़ियां दो चित्त गिरीं एवं चौदह पट। श्यामसुन्दर खिल खिलाकर हँस पड़ते हैं। वृन्दा कहती हैं - यह पहला दाँव था, पर सुदेवी हार गयी हैं। हाँ, पहला दाँव होने के कारण मैं निर्णय - कर्त्री के विशेष अधिकार से यह सुविधा सुदेवी को दे रही हूँ कि श्यामसुन्दर भी अब इस बार दाँव फेंकते समय यदि हार गये तो सुदेवी की हार भी रद्द समझी जायेगी; पर कहीं जीत गये तो सुदेवी की हार तो कायम ही रही, साथ ही कोष्ठ - संख्या एक पर जो अङ्ग है, उस पर भी बिना दूसरी बार दाँव जीते ही श्यामसुन्दर का अधिकार समझा जायेगा। क्यों सुदेवी ! स्वीकार है या नहीं?

वृन्दा की बात सुन कर सुदेवी विचार में पड़ जाती हैं। यद्यपि हृदय तो, हार हो या जीत हो, दोनों अवस्थाओं में ही प्रेम से थिरक - थिरककर नाच रहा है, पर बाहर गम्भीर - सी मुद्रा में वे कहती हैं- ललिते ! क्या करूँ?

ललिता कहती हैं - तू मान ले, देखा जायेगा।

सुदेवी हाँमी भर लेती हैं। अब श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं तथा इस चतुराई से उछालते हैं कि सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। यह देख कर श्यामसुन्दर तो प्रसन्नता से भर उठते हैं। सुदेवी कुछ शर्मा जाती हैं। 

श्यामसुन्दर कहते हैं - वृन्दे ! पहले से स्पष्ट घोषणा करती चली जा, नहीं तो क्या पता, ये सब पीछे से बेईमानी करेंगी। 

वृन्दा प्यार में भर कर कुछ देर सोच कर कहती हैं - श्यामसुन्दर का सुदेवी के बायें कपोल पर, बायें नेत्र पर, बायें हाथ पर एवं दाहिने नेत्र पर भी अधिकार हो गया तथा नियम के अनुसार श्यामसुन्दर को फिर से दाँव फेंकने का अधिकार है।

वृन्दा की बात सुन कर श्यामसुन्दर फिर दाँव फेंकते हैं तथा इस बार तेरह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। श्यामसुन्दर कुछ लजा - से जाते हैं। सुदेवी प्रसन्न हो जाती हैं। वृन्दा कहती हैं - इस बार दाँव श्यामसुन्दर हार गये हैं, इसलिये श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर सुदेवी का अधिकार हो गया। इसके बाद रङ्गदेवी दाँव फेंकेंगी।

वृन्दा की बात सुन कर रङ्गदेवी कौड़ियाँ उछालती हैं तथा छः कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - रङ्गदेवी दाँव जीत गयी हैं, इसलिये श्यामसुन्दर के ललाट पर रङ्गदेवी का अधिकार हो गया है। अब मेरी प्यारी रानी दाँव फेकेंगी।

अब रानी की बारी आते ही श्यामसुन्दर एवं सभी सखियों - मञ्जरियों का मन उत्कण्ठा से भर जाता है। रानी अतिशय उत्कण्ठा से कौड़ियों को हाथ में ले लेती हैं। प्यारे श्यामसुन्दर के मुखारविन्द की ओर ताकती हुई कौड़ियाँ उछाल देती हैं। इस बार ८ कौड़ियाँ चित्त तथा शेष ८ कौड़ियों में एक कौड़ी दूसरी दो कौड़ियों पर चढ़ी हुई आधी चित्त गिरी। ललिता तुरंत बोल उठती हैं - यह आधी कौड़ी भी पूरी समझी जायेगी, इसलिये मेरी प्यारी सखी की ही जीत हुई है।

श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह ! क्या मनमानी कहने से बात बन जायेगी? कौड़ियाँ ८ चित्त गिरी हैं, तुम्हारी सखी हार गयी हैं।

श्यामसुन्दर एवं अन्य सखियों में बात होने लगती है। सखियाँ कहती हैं - नहीं, मेरी प्यारी राधा की जीत हुई है। 

श्यामसुन्दर रानी से कहते हैं - नहीं, तू हार गयी है।

वृन्दा पर निर्णय का भार था ही। अतः सब सखियाँ एवं श्यामसुन्दर वृन्दा की ओर देखने लगते हैं। वृन्दा कुछ सोच कर कहती हैं - जीत तो रानी की हुई प्रतीत होती है, पर प्यारे श्यामसुन्दर का संदेह मिटाने के लिये मैं यह आज्ञा दे रही हूँ कि रानी उन तीनों कौड़ियों को फिर से उछाल दें। यदि तीनों में से दो कौड़ियाँ रानी चित्त गिरा सकीं तो उसकी जीत समझी जायेगी। यदि तीनों चित्त गिरेंगी तो बिना दूसरा दाँव फेंके रानी का श्यामसुन्दर के दाहिने हाथ पर भी अधिकार हो जायेगा; पर कहीं एक चित्त गिरी तो किसी की हार - जीत नहीं मानी जाकर रानी को फिर से दाँव फेंकना पड़ेगा। क्यों श्यामसुन्दर, मंजूर है? 

श्यामसुन्दर कुछ मुस्कुराते हुए श्रीप्रिया की ओर देख कर धीरे से कहते हैं - ठीक है, यही सही। 

रानी कौड़ियाँ उछालती हैं। तीनों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सखियों में हँसी का प्रवाह बह जाता है। श्यामसुन्दर भी हँसने लगते हैं। 

वृन्दा भी कहती हैं - श्यामसुन्दर के दोनों हाथों पर रानी का अधिकार हो गया। 

अब क्रमशः सखियाँ दाँव फेंकती हैं। इन्दुलेखा के द्वारा दाँव फेंके जाने पर दस कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - इन्दुलेखा दाँव हार गयीं, इसलिये इन्दुलेखा के ओष्ठ पर श्यामसुन्दर का अधिकार हो गया। श्यामसुन्दर ! तुम दाँव फेंको। श्यामसुन्दर दाँव फेंकते हैं। बारह कौड़ियाँ चित्त गरती हैं। वृन्दा कहती हैं - इन्दुलेखा के बायें हाथ पर श्यामसुन्दर का अधिकार।

अब ललिता की बारी आती है। इस बार सभी कौड़ियाँ उठा कर श्यामसुन्दर ललिता के हाथ में दे देते हैं। ललिता हँसती हुईं कौड़ियों को पकड़ लेती हैं तथा कहती हैं - तुम्हारी स्पर्श की हुई कौड़ी है। पता नहीं, तुमने जादू - टोना किया होगा। देवी रक्षा करें। कात्यायनी मेरी सहायता करें, देवी का स्मरण करके ललिता कौड़ियाँ उछाल देती हैं। सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सभी हँसने लगती हैं। कौड़ियाँ उठा कर पुनः ललिता उछाल देती हैं। इस बार भी सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। सखियों में हँसी का मानो तूफान - सा उठने लगा। रानी प्यार में भरकर ललिता को अपने दाहिने हाथ से खींच कर शरीर से सटा लेती हैं। ललिता पुनः कौड़ियों को उछालती हैं। इस बार तीन चित्त गिरती हैं। श्यामसुन्दर हँस पड़ते हैं। वृन्दा कहती हैं - दो दाँव के अनुसार श्यामसुन्दर के दोनों नेत्रों पर, दोनों कपोलों पर ललिता का अधिकार हुआ। तीसरा दाँव ललिता हार गयीं; इसलिये ललिता के अधर पर श्यामसुन्दर का अधिकार है।

ललिता बहुत शीघ्रतासे कहती हैं - वाह वृन्दे ! वाह, तुम्हें नियम भी याद नहीं है। मेरे स्वयं का दाँव तो मेरा दाहिना नेत्र है।

वृन्दा कहती हैं - ठीक ! ठीक !! भूल गयी, अधर के बदले तुम्हारे दाहिने नेत्र पर श्यामसुन्दर का अधिकार रहा।

वृन्दा की बात सुन कर सभी हँसने लगती हैं। अब पुनः श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं। बारह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - ललिता के बायें हाथ पर श्यामसुन्दर का अधिकार।

अब विशाखा दाँव फेंकती हैं। पन्द्रह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - विशाखा के बायें चरण पर श्यामसुन्दर का अधिकार।

श्यामसुन्दर पुनः कौड़ियाँ फेंकते हैं। चौदह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा घोषणा करती हैं - श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर विशाखा का अधिकार।

चित्रा का दाँव आता है। इस बार ठीक ग्यारह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं; पर श्यामसुन्दर जल्दी से गिनने का बहाना करके एक कौड़ी और भी चित्त कर देते हैं तथा कहते हैं - ना, बारह, कौड़ियाँ चित्त गिरी हैं, यह तो दाँव हार गयी।

ठीक इसी समय वृन्दा की एक दासी वृन्दा के कान में कुछ धीरे से कहने लग गयी थी, इसमें वृन्दा का ध्यान उधर बँट गया। श्यामसुन्दर की इस चतुराई को देख नहीं सकीं। अब तो प्रेम का कलह होने लग गया। ललिता - चित्रा आदि कहतीं - वाह ! तुमने एक कौड़ी और चित्त कर दी है, दाँव चित्रा ने जीता है।

श्यामसुन्दर कहते हैं - वाह, जब मैंने सबसे बेईमानी नहीं की तो चित्रा से हमारा कोई बैर है कि बेईमानी करूँगा?

वृन्दा कुछ शर्मा - सी गयीं; क्योंकि भूल उनकी थी। उन्होंने ठीक से देखा नहीं। दूसरी बात में लग गयीं। वृन्दा ने कहा - दूसरी बार दाँव फेंको।

इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए चित्रा कहने लगीं - मैं अपना जीता हुआ दाँव छोड़ कर जोखिम क्यों उठाऊँ?

श्यामसुन्दर कहते हैं - यह अवश्य ही हार गयी।

वृन्दा प्रार्थना की मुद्रा में रानी की ओर देखती हुई कहती हैं - मेरी रानी, किसी प्रकार चित्रा मान ले। यह मेरी भूल थी कि मैं ठीक से नहीं देख सकी।

रानी विचारने लगती हैं तथा कहती हैं - अच्छा, देख चित्रे ! वृन्दा की भूल के कारण यह गड़बड़ी हो गयी है, इसलिये फिर से दाँव लगा। यदि तू जीत गयी तो फिर तो कोई प्रश्न ही नहीं है, पर यदि हार गयी तो मैं वह दाँव ले लूँगी, (अर्थात् तुम्हें कुछ नहीं कह कर श्यामसुन्दर वह दाँव मुझसे वसूल करेंगे) तथा इसके पश्चात् जब श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालेंगे तो उन्हें इस बार ग्यारहवीं संख्या का दाँव लगाना पड़ेगा। यदि श्यामसुन्दर हार गये, तब तो तुम्हारा दाँव आ ही जायेगा, पर कहीं जीत गये तो उतनी जोखिम फिर तू उठा ले। और तो क्या हो सकता है?

रानी की बात सुन कर सभी एक स्वर से सम्मति दे देती हैं। चित्रा मुस्कुराती हुई कौड़ियाँ पुनः उछालती हैं; पर इस बार दस कौड़ियाँ चित्त आती हैं। श्यामसुन्दर हँस पड़ते हैं। वृन्दा भी कुछ मुस्कुराकर कहती हैं - क्या बताऊँ?

श्यामसुन्दर हँसते हुए कौड़ियाँ उठा लेते हैं तथा कहते हैं - अब देख, तेरा एक - एक अङ्ग जीत लेता हूँ। वृन्दे, तू अभी से मेरी जीत की साफ - साफ घोषणा भले कर दे।

श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं। सोलहों कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। फिर उछालते हैं। फिर सोलहों चित्त गिरती हैं। फिर उछालते हैं, फिर सोलहों चित्त गिरती हैं। इसके बाद तीन बार और उछालते हैं और तीनों बार ही सोलहों चित्त गिरती हैं। चित्रा तो लजा - सी जाती हैं। रानी इस बार कौड़ियों को श्यामसुन्दर के हाथ से हँसती हुई छीन लेती हैं। श्यामसुन्दर हँसते हुए कहते हैं - वाह, वाह ! अभी मेरा दाँव है।

श्यामसुन्दर कौड़ियों के लिये छीना - झपटी करते हैं। रानी कौड़ियों को दोनों मुट्ठियों में कसकर पकड़ लेती हैं। श्यामसुन्दर कौड़ी लेना चाहते हैं। रानी छोड़ना नहीं चाहतीं। श्यामसुन्दर वृन्दा से कहते हैं - देख वृन्दे ! तू चुपचाप बैठी रहेगी? क्यों?

वृन्दा कहती हैं - रानी ! दाँव श्यामसुन्दर का है, कौड़ियाँ उन्हें दे दो।

ललिता कहती हैं - तुमने ही तो सब गड़बड़ मचायी है। अब श्यामसुन्दर का पक्ष करने चली है।

वृन्दा हँसने लगती हैं। रानी कौड़ियाँ पकड़े हुए उठ पड़ती हैं। श्यामसुन्दर भी चटपट उठ पड़ते हैं। श्यामसुन्दर एक चतुराई कर बैठते हैं। वे रानी का अञ्चल पकड़ लेते हैं। अञ्चल पकड़ते ही कौड़ियों को छोड़ कर रानी उसे सँभालने लग जाती हैं। कौड़ियाँ झर - झर करती हुई जमीन पर गिर पड़ती हैं। श्यामसुन्दर हँसते हुए बैठ जाते हैं, कौड़ियाँ उठा लेते हैं। रानी भी हँसती हुई पुनः आसन पर पूर्ववत् बैठ जाती हैं। श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उछालते हैं, पर इस बार पन्द्रह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कुछ क्षण कोष्ठ को देख कर तथा अंगुली पर दाँव गिन कर कहती हैं - चित्रा के दाँव को रानी ने लिया था। चित्रा दाँव हारी, इसलिये रानी के हृदय पर श्यामसुन्दर का अधिकार। इसके बाद श्यामसुन्दर ने लगातार छः दाँव जीते हैं, इसलिये चित्रा के हृदय, दोनों नेत्र, दोनों कपोल, अधर, ललाट, ठोढ़ी, ओष्ठ, दोनों हाथ एवं नासिका पर श्यामसुन्दर का अधिकार। अन्तिम दाँव श्यामसुन्दर हार गये, इसलिये श्यामसुन्दर के हृदय पर चित्रा का अधिकार हुआ। इस समय सभी हँस रहे हैं। अब चम्पकलता कौड़ियाँ उछालती हैं। चार कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - श्यामसुन्दर के दाहिने कपोल पर चम्पकलता का अधिकार।

इसके बाद तुङ्गविद्या कौड़ियाँ उछालती हैं; पर चार कौड़ियाँ इस बार भी चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - तुङ्गविद्या के अधर पर श्यामसुन्दर का अधिकार।

अब सबसे अन्त में पुनः श्यामसुन्दर कौड़ियाँ उठाते हैं; पर इस बार तेरह कौड़ियाँ चित्त गिरती हैं। वृन्दा कहती हैं - श्यामसुन्दर के बायें हाथ पर तुङ्गविद्या का अधिकार।

वृन्दा के यह कहते ही चित्रा कोष्ठ वाले कपड़े को उलट देती हैं तथा उठकर भागने लगती हैं। और - और सखियाँ भी चटपट उठने लगती हैं। श्यामसुन्दर पहले दौड़ कर चित्रा को पकड़ लेते हैं। चित्रा हँसने लगती है। श्यामसुन्दर चित्रा को लाकर वहीं पुनः बैठा देते हैं।

इसी समय उड़ता हुआ एक तोता निकुञ्ज में प्रवेश करता है तथा दरवाजे की एक डाली पर बैठ कर आँखों को कोयों में घुमाकर कहता है - जय हो प्रिया - प्रियतम की ! आज्ञा हो तो कुछ निवेदन करूँ। 

तोते की बात सुन कर शीघ्रता से वृन्दा कहती हैं - हाँ, हाँ, जल्दी से बोल। 

तोता कहता है - मेरे प्यारे श्यामसुन्दर ! मेरी प्यारी रानी !! मैं वृन्दादेवी की आज्ञा से मोहन घाट पर स्थित कदम्ब के पेड़ पर बैठा हुआ पहरा दे रहा था। अभी कुछ क्षण पहले तुम्हारे (राधारानी के) महल मे एक सुन्दर ब्राह्मणकुमार एवं एक वृद्धा स्त्री निकली। दोनों आपस में बातें कर रहे थे। वृद्धा कहती थी कि ब्राह्मणकुमार ! मुझे पूर्ण आशा है कि आप मेरी प्रार्थना अवश्य - अवश्य मान लेंगे। जिस - किसी उपाय से भी आप मुझ पर कृपा करके मेरी लालसा अवश्य पूर्ण करेंगे। ब्राह्मणकुमार कहता था कि मैंने सारी परिस्थिति तुम से बतला ही दी है। पूरी चेष्टा करूँगा, पर सफलता तो विधाता के हाथ में हैं। आज - आज का तो मैं वचन देता हूँ, उसे अवश्य भेज दूँगा। मैं भी आने की चेष्टा करूँगा तथा उसे राजी करने की भी हार्दिक चेष्टा तुम्हारे सामने भी करूँगा। आगे हरि - इच्छा। फिर ब्राह्मणकुमार एवं वह वृद्धा, दोनों दक्षिण की तरफ बढ़ने लगे। प्रथम राजपथ पर आते ही वह ब्राह्मणकुमार तो पूर्व की ओर चला गया तथा वृद्धा ने वह पगडंडी पकड़ी, जो गिरिवर - स्रोत की ओर जाती है। वृन्दादेवीका यह आदेश था कि रानी के महल से किसी वृद्धा को इस तरफ आती देख कर तुरंत उसी क्षण मुझे खबर दे देना। इसलिये मैं पूरी शक्ति लगा कर वहाँ से उड़ा और यहाँ आकर आपको यह सूचना दे रहा हूँ। मैं इतनी तेजी से उड़ा हूँ कि वह वृद्धा अभी तक तीन - सौ गज भी आगे नहीं बढ़ सकी होगी।

तोते की बात सुन कर रानी का मुख बिलकुल उदास हो जाता है। श्यामसुन्दर भी गम्भीर बन जाते हैं; पर रानी की दशा देख कर अपनी गम्भीरता छिपाते हुए उठ पड़ते हैं। सखियाँ भी सब गम्भीर हो जाती हैं। प्यारे श्यामसुन्दर रानी को अपने हृदय से लगा लेते हैं।

रानी हृदय से लगाकर गम्भीर श्वास लेने लगती हैं। वृन्दा ललिता से कहती हैं - समय कम है, शीघ्रता करनी चाहिये। 

ललिता गंभीर मुद्रा में श्यामसुन्दर को कुछ इशारा करती हैं तथा रानी को पकड़ लेती हैं। अब धीरे - धीरे प्रिया - प्रियतम निकुञ्ज के पूर्वी फाटक से निकल कर रविश (छोटी सड़क) पर पूर्व की ओर चलने लगते हैं। श्यामसुन्दर श्रीप्रिया को सँभाले हुए चल रहे हैं। प्यारे श्यामसुन्दर से अब कुछ देर के लिये अलग होना पड़ेगा, इस विचार से प्रिया का प्राण छटपटाने लगा है। श्यामसुन्दर के प्राण भी छटपटा रहे हैं; पर वे अपनी व्याकुलता छिपाये हुए चल रहे हैं कि जिससे मेरी प्रिया कहीं मुझे व्याकुल देख कर और भी व्याकुल न हो जाये। लगातार कुछ देर पूर्व की ओर चल कर फिर वे दक्षिण की ओर मुड़ पड़ते हैं तथा उसी दिशा में कुछ देर चलते रहते हैं। चलते - चलते ललिता कुञ्ज की दक्षिणी सीमा की चहारदीवारी आ जाती है। यहाँ एक छोटा फाटक है, उससे निकल कर फिर पूर्व की ओर कुछ दूर चलते हैं। अब ललिता कुञ्ज एवं विशाखा कुञ्ज के बीच से उत्तर - दक्षिण की ओर जो सड़क जाती है, उस पर आ पहुँचते हैं। श्यामसुन्दर पुनः श्रीप्रिया को हृदय से लगा लेते हैं तथा कुछ क्षण वे उनके मुखारविन्द की ओर देखते हुए गम्भीर मुद्रा में प्रिया से कुछ दूर अलग हटकर खड़े हो जाते हैं। फिर उत्तर की ओर चलने लगते हैं। रानी एवं सखियाँ चुपचाप खड़ी रहकर निर्निमेष नयनों से उधर ही देखती रहती हैं। श्यामसुन्दर बार - बार गर्दन घुमा - घुमाकर रानी की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देखते जा रहे हैं। करीब एक फलाँग उत्तर की तरफ जाकर एक फाटक से विशाखा की कुञ्ज में प्रवेश करके आँखों से ओझल हो जाते हैं। रानी कुछ क्षण एकटक उसी दिशा की ओर देखती रहती हैं। फिर ललिता के कंधे को पकड़ कर दक्षिण की ओर सूर्य - मन्दिर में जाने के उद्देश्य से चल पड़ती हैं।

Saturday, February 3, 2024

कुंज की स्नान लीला 2

मानसिक लीला चिंतन 2

स्नान लीला

निकुञ्ज से लौटकर श्रीप्रिया अपने महल के कमरे में सुन्दर पलंग पर लेटी हुई हैं। श्रीप्रिया का सिर दक्षिण की तरफ है एवं पैर उत्तर की ओर। आँखें बंद हैं। हलकी नीली चादर से श्रीप्रिया की गर्दन के नीचे के अङ्ग ढके हुए हैं। देखने से प्रतीत हो रहा है कि श्रीप्रियाजी सो रही हैं; पर वस्तुतः प्रिया जगी हुई हैं। एक मञ्जरी श्रीप्रिया के तलुए के पास पलंग पर बैठी है। मञ्जरी के पैर नीचे की ओर लटक रहे हैं, मञ्जरी की दृष्टि श्रीप्रियाजी की ओर लगी हुई है। मञ्जरियाँ एवं सखियाँ विभिन्न कार्यों में व्यस्त हैं। कोई उबटन तैयार कर रही है, कोई चन्दन घिस रही है, कोई झारियों में जल भर रही है, कोई छोटी – छोटी कटोरियों में विभिन्न तेल – फुलेल डाल रही हैं, कोई दन्तमञ्जन निकाल कर छोटी – सी कटोरी में रख रही है, कोई श्रीप्रिया के पहनने के वस्त्रों को निकाल – निकालकर सजा रही है, कोई स्नान करने जा रही है और कोई स्नान करके लौट रही है। तथा इस प्रक्रिया में रानी के महल से लेकर यमुना के घाट तक आने – जाने का ताँता लग रहा है। कोई सुन्दर चमचम करती हुई अलगनी पर कपड़े फैला रही है, कोई अपने केशों में कंघी कर रही है, कोई शीघ्रता से केशों को गूँथ रही है, कोई आँखों में अञ्जन लगा रही है। कुछ मञ्जरियाँ बिलोये हुए दुध में से अभी – अभी निकले मक्खन को सुन्दर – सुन्दर बड़े – बड़े बर्तनों में सजा रही हैं, कोई दूध के बर्तनों को चूल्हे पर गर्म करने के लिये चढ़ा रही है, कोई भिन्न – भिन्न चीजों को यथास्थान सजा – सजाकर रख रही है। दो – तीन मञ्जरियाँ प्रिया के पहनने के लिये पुष्पमाला शीघ्रता से तैयार करने में लगी हैं, कोई प्रिया के तुलसी पूजन की सामग्री इकट्ठी कर रही है। इस तरह सम्पूर्ण महल में चहल – पहल – सी है। अवश्य ही सारे कार्य अतिशय शान्ति के साथ हो रहे हैं। सभी इस चेष्टा में हैं कि शब्द न हो, नहीं तो यदि प्रिया की आँखें कदाचित् लगी भी हों तो खुल जायेंगी। बीच – बीच में कलशों के ठन्-ठन् शब्द एवं सखियों – मञ्जरियों के कङ्कण – करधनी के झन् – झन् शब्द सुन पड़ते हैं। नूपुर का रुनझुन रुनझुन शब्द भी रह – रहकर सुन पड़ता है। सखियों को – मञ्जरियों को स्वयं अपना ही रुनझुन – रुनझुन शब्द भ्रम में डालने लगता है कि कहीं प्यारे श्यामसुन्दर तो नहीं आ रहे हैं।

श्रीप्रिया जिस कमरे में लेट रहीं हैं, उसी कमरे में उत्तर के हिस्से में खड़ी होकर ललिता शीघ्रता से अपना श्रृंगार कर रही हैं। एक मञ्जरी चाहती है कि मैं सहायता करूँ, पर मुस्कुराती हुई वे धीरे – से हाथ के इशारे से कहती हैं – तू ठहर जा ! मैं शीघ्र ही अपना श्रृंगार स्वयं कर ले रही हूँ।

शीघ्रता से ललिता अपने हाथों से ही अपने केशों को गूँथ लेती हैं तथा सिर पर अञ्चल डाल लेती हैं। मञ्जरी थाल में श्रृंगार का बहुत – सा सामान लिये खड़ी है। ललिता उसमें से किसी भी वस्तु को नहीं लेतीं। हाँ, केवल घिसी हुई कस्तूरी की छोटी कटोरी में अपने दाहिने हाथ की अनामिका अँगुली डाल देती हैं तथा अपने ललाट पर सुन्दर गोल बिंदी लगा लेती हैं। बिंदी लगाकर मुस्कुरा पड़ती हैं। फिर उसी अँगुली से उस मञ्जरी के ललाट पर भी वैसी ही बिंदी बना देती हैं। ललिता उसी मञ्जरी के कान में कुछ धीरे से कहती हैं। मञ्जरी परात को वहीं दीवाल के सहारे एक किनारे रख कर शीघ्रता से कमरे के बाहर चली जाती है तथा ललिता, जिस पलंग पर रानी लेटी हुई हैं, उसके पास जा पहुँचती हैं।

ललिता धीरे से रानी के कंधे के पास बैठ जाती हैं तथा उनके मुखारविन्द की ओर देखने लग जाती हैं। कुछ क्षण देखती रहकर अतिशय प्यार से रानी के ललाट को सहलाने लगती हैं। रानी आँखें खोल देती हैं। ललिता अतिशय प्यार से रानी के मुँह के पास झुक जाती हैं तथा धीरे से कहती हैं – नींद आयी थी कि नहीं, ठीक- ठीक बता !

रानी के मुख पर गम्भीर मुस्कान छा जाती है। वे कुछ नहीं बोलतीं, केवल एक क्षण के लिये पुनः आँखें मूँद लेती हैं। फिर आँखे खोल कर ललिता के बायें कंधे को अपने दाहिने हाथ से पकड़ लेती हैं। ललिता फिर पूछती हैं – क्यों ! नहीं बतायेगी?

रानी कुछ गम्भीरता की मुद्रा में कहती हैं – नींद नहीं आती तो क्या करूँ?

रानी की बात सुन कर ललिता की आँखें प्रेम से भर जाती हैं, पर अपनी इस दशा को छिपाती हुई वे कहती हैं – सूर्योदय हो गया है। कुन्द या धनिष्ठा शीघ्र आ पहुँचेगी। तू तैयार हो जा।

यह सुनते ही रानी शीघ्रता से कपड़ा समेटती हुई तथा बायें हाथ से ललिता के कंधे का सहारा लेकर उठ कर पलंग पर बैठ जाती हैं। उठ कर बैठते ही श्यामसुन्दर की वह मोहिनी सूरत आँखों के सामने नाचने लगती है मानो सचमुच श्यामसुन्दर प्रत्यक्ष खड़े हों। कल से रानी की दशा विचित्र सी हो गयी है। वे श्यामसुन्दर के प्रति रह – रहकर जोर से सम्बोधन करने लग जाती हैं। ललिता कई प्रकार की युक्तियाँ रच – रचकर रानी की यह दशा बड़ी कठिनाई से रानी के गुरुजनों से छिपाती रही हैं। अवश्य ही बीच – बीच में रानी को यह होश भी आ जाता है कि मैं अनाप – शनाप बक जाती हूँ तथा उस समय ललिता की कठिनता – दिक्कतें समझ कर ललिता से चिपट कर रोने लग जाती हैं; पर फिर भूल जाती हैं। ललिता प्रातः काल से ही सावधान हैं कि श्यामसुन्दर के पास हम सब जब तक नहीं पहुँच जायें, तब तक जिस – किस प्रकार से भी यह बावली राधा शान्त बनी रहे; इसलिये ही रानी के पलंग पर बैठते ही ललिता शीघ्रता से उठ खड़ी होती हैं तथा धीरे से रानी के हाथ को पकड़ कर कहती हैं – तू हाथ – मुँह धोती रह और मैं तुझे एक बड़ा सुन्दर समाचार सुनाऊँगी।

रानी का मन उत्कण्ठा से भर जाता है तथा चित्तवृत्ति बँट जाती है। यद्यपि श्यामसुन्दर की ध्यान – छवि उन्हें दीख रही है, पर ललिता की बात सुनने की लालसा ने उन्हें तल्लीन होने नहीं दिया। रानी चटपट उठ खड़ी होती हैं। शीघ्रता से चलकर हाथ – मुँह धोने के लिये वे सुन्दर सजी हुई एक चौकी के पास जा पहुँचती हैं। उत्तर की ओर मुँह करके उस पाटे पर बैठ जाती हैं। एक मञ्जरी हाथों पर जल देने लग जाती है। श्रीप्रिया हाथों को धोकर कुल्ला करती हैं। फिर लाल रंग का अतिशय सुगन्धित मञ्जन अपने दाँतों पर लगाती हैं। श्रीप्रिया के निज मुख से ही इतनी दिव्य एवं इतनी मनोहर सुगन्धि निकल रही है कि मञ्जन की सुगन्धि उसके सामने फीकी पड़ गयी। पुनः कुल्ला करके श्रीप्रिया सुवर्ण – तार की चमकती हुई चिपटी – पतली जीभ से जीभ साफ करने चलती हैं; पर उसे हाथ में लेकर चुपचाप बैठ जाती हैं मानो बिलकुल यह बात भूल गयी हों कि मैं मुँह साफ करने बैठी थी।

ललिता कुछ मुस्कुराती हुई रानी के पास आकर खड़ी हो जाती हैं तथा झुक कर रानी के हाथ को हिलाकर कहती हैं – तो अब सुनाने जा रही हूँ। तू ध्यान से सुनना भला !

रानी कुछ अकचकायी – सी होकर कहती हैं – हाँ – हाँ, मैं तो भूल ही गयी थी, सुना। यह कह कर रानी शीघ्रता से जीभ साफ करके कुल्ला कर लेती हैं तथा अपने अञ्चल से हाथ पोंछती हुई कहती हैं – अब बता, क्या समाचार बताना चाहती है?

ललिता रानी का हाथ पकड़ कर उठा लेती हैं और पकड़े हुए उत्तर – पश्चिम की ओर कुछ दूर ले जाती हैं, जहाँ एक अतिशय सुन्दर लम्बी चौकी है। चौकी पर गद्दा है तथा गद्दे पर उजले रंग की झालरदार सुन्दर रेशमी चादर बिछी है। रानी को ललिता उसी पर बैठा देती हैं। रानी उत्तर की ओर मुँह करके बैठ जाती हैं तथा अपने दोनों पैर फैला देती हैं। ललिता राधारानी के शरीर से कञ्चुकी उतार देती हैं तथा चारों ओर से सखियाँ एवं मञ्जरियाँ यथास्थान बैठकर रानी के शरीर में उबटन एवं तेल लगाने लगती हैं। विशाखा रानी के केशों का बन्धन खोल कर उसकी प्रत्येक सुन्दर लट में तेल लगा रही हैं। ललिता रानी की ओर मुँह किये हुए बैठी हैं तथा बहुत धीमे स्वर में कहना प्रारम्भ करती हैं। आवाज इतनी धीमी है कि पास में बैठी मञ्जरियों को भी ध्यान देने से सुनायी पड़ रहा है। ललिता बोलीं – रात में चित्रा ने एक स्वप्न देखा है। बड़ा ही विचित्र स्वप्न है। उसे सुनकर तू खूब हँसेगी।

रानी की उत्कण्ठा बढ़ जाती है। वे बड़ी सरलता से भोली बालिका की तरह ललिता के मुख की ओर झुक पड़ती हैं एवं कहती हैं – शीघ्र सुना, कैसा स्वप्न था?

ललिता कहती हैं – चित्रा ने मुझसे कहा कि बहिन ! ठीक प्रातः काल के समय मैं स्वप्न देखने लगी। देखा कि मैं किसी सर्वथा अपरिचित देश में आ गयी हूँ। अवश्य ही वह देश यमुना के किनारे पर ही बसा है। मैं सोचने लगी कि यहाँ मुझे कौन लाया? प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ है? सखियाँ कहाँ हैं? सोचते – सोचते मैं अधीर हो उठी। पास ही यमुना प्रवाहित हो रही थी। मैं वहाँ से चल कर उसके किनारे जा पहुँची। आश्चर्य तो यह था कि वहाँ सुन्दर – सुन्दर महल थे, रमणीय उद्यान थे; पर मुझे कोई भी मनुष्य नहीं दीखता था। मैं इसी उधेड़बुन में पड़ी हुई विकल होकर सोचने लगी कि किससे पूछूं? मुझे यहाँ कौन लाया है? ऐसा कौन है, जो मुझे प्यारे श्यामसुन्दर का पता बता सके?

उसी समय मन में आया कि पृथ्वी तो व्यापक तत्त्व है। यदि यह बोलती होती तो बता सकती थी कि मेरे प्रियतम कहाँ हैं? हाँ, जल भी बता सकता है; क्योंकि सुना है, यह भी सर्वत्र है; पर यह भी नहीं बोलता। हाय ! मेरे प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम्हारा पता कहाँ पाऊँ ?……..अच्छा ठीक ! ठीक !! तेज – तत्त्व अतिशय निर्मल है। यह अवश्य ही यहीं रह कर मेरे प्यारे श्यामसुन्दर को देख रहा होगा; पर हाय रे दुर्भाग्य ! यह भी बोलना नहीं जानता।••••••तो क्या मैं यों ही तड़प-तड़प कर मर जाऊँगी? प्यारे श्यामसुन्दर के पास मेरा संदेश भी नहीं पहुँचेगा?

इसी समय पत्ते के खड़ – खड़ करने की आवाज मेरे कान में आयी। मैं सोचने लगी कि निश्चय ही मेरे प्यारे श्यामसुन्दर मुझे ढूँढते हुए आ पहुँचे हैं। उत्कण्ठावश उधर देखने लगी, पर कोई नहीं दीखा। फिर विचारने लगी कि कोई तो नहीं आया; पर जिसने यह खड़खड़ाहट मेरे कानों में पहुँचा दी, वह भी तो नहीं दीखा। अयँ ! यह खड़खड़ाहट मेरे कानों में जैसे आ पहुँची, वैसे ही मेरा संदेश भी तो प्यारे श्यामसुन्दर के कानों में पहुँच सकता है। अवश्य – अवश्य पहुँच सकता है।…… किसने यह आवाज मेरे पास पहुँचायी? पवन ने ! बस, बस, पवन बोल नहीं सकता; पर इसने करुणावश इशारा कर दिया कि मैं मूक सेवा कर सकता हूँ, तुम्हारा संदेश प्रियतम के पास पहुँचा सकता हूँ। तो यही सही। पर ना, यह तो उचित नहीं। क्या पता, प्यारे श्यामसुन्दर ने मुझे अलग रखना चाहा हो, इसीलिये मुझे कहीं दूर भेज दिया हो। फिर मेरा संदेश पाकर तो वे निश्चय ही व्याकुल हो जायेंगे; मुझे बुला ही लेंगे या स्वयं पवन के साथ उड़ कर मेरे पास आ जायेंगे। ना, ना, यह मैं नहीं सह सकती कि अपने सुख के लिये उनके सुख में बाधा हो। पर आह ! यह निर्णय कैसे हो कि वास्तव में मैं क्यों अलग हुई? यदि मैं प्यारे श्यामसुन्दर के हृदय की इच्छा जान जाती, यदि मैं जान पाती कि वे मेरे लिये व्याकुल हैं तो पवन के द्वारा संदेश भेज देती।

अहा! एक उपाय तो है। यह आकाश शब्दात्मक है। यह बोल सकता है, सर्वत्र है भी ठीक ! ठीक !!……. अरे आकाश ! बता, मेरे प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ हैं? मेरी सखियाँ कहाँ हैं? इस प्रकार बार – बार मैं स्वप्न में ही पुकारने लगी – अरे आकाश ! मेरे प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ है? जल्दी बता!

कुछ ही क्षण बाद देखती हूँ कि यमुना के घाट पर पाँच देवता प्रकट हुए। वे पाँचों मेरे पास आये। दूर से ही पाँचों ने सिर टेककर मुझे प्रणाम किया। मैं सकुचा गयी। मेरी – जैसी साधारण गोप – बालिका को ये देवता प्रणाम क्यों कर रहे हैं? मैं कुछ बोली नहीं। इसी समय उनमें से एक ने कहा – देवि ! हम पाँचों तत्त्व (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के अधिष्ठातृ देवता आपके सम्मुख उपस्थित हैं। आप आज्ञा करें, आपकी कौन – सी सेवा करके हम अपना जीवन कृतार्थ करें।

उनकी बात सुन कर मैं और भी शर्मा गयी; पर प्यारे श्यामसुन्दर का संदेश पाने की उत्कण्ठा से मैंने हाथ जोड़ कर कहा – देवताओं! मैं प्यारे श्यामसुन्दर के विषय में जानना चाहती हूँ कि वे इस समय कहाँ हैं? मैं उनकी दासी हूँ।

मेरी बात सुन कर मुझे ऐसा अनुमान हुआ कि पाँचों ही उदास हो गये। कुछ क्षण तक वे सभी चुप रहे। मैं कुछ घबरा कर बोली – क्यों; आप जानते हों तो बता देने की कृपा करें।

देवताओं ने कहा – देवि ! आपकी यह सेवा हमारी सामर्थ्य के बाहर है। श्यामसुन्दर के विषय में हम लोग कुछ भी नहीं जानते। आपने हम पाँचों का संकल्प किया, इसी कारण हम पाँचों में यह योग्यता आ गयी कि हम सब आपके प्रत्यक्ष दर्शन के अधिकारी हुए; नहीं तो आप जैसी बड़भागिनी गोपसुन्दरियों की छाया के दर्शन भी हम लोगों के लिये असम्भव है।

उन देवताओं की बात सुन कर मैं विचार में पड़ गयी। कुछ देर बाद बोली – देव ! आप लोग जायें। मुझे और किसी प्रकार की सेवा नहीं चाहिये।

देवताओं ने कुछ सोच कर कहा – देवि ! एक उपाय हो सकता है।

मैं – क्या उपाय है?

देवता – यदि आप अपने चरणों की धूलि हमें प्रदान करें तो हम पाँचों उस पवित्रतम धूलि को अपनी आँखों में आँज लें, फिर हम लोग देख सकते हैं कि प्यारे श्यामसुन्दर कहाँ हैं?

देवताओं की बात सुन कर मैं तो विस्मय में पड़ गयी और बोली – आप लोग तो बहुत आश्चर्य की बात कह रहे हैं। भला, मैं तो प्यारे श्यामसुन्दर को नहीं देख रही हूँ और मेरी धूलि आँख में आँजने पर आप प्यारे श्यामसुन्दर को देखने लगेंगे? यह तो अजब – सी बात है।

देवताओं ने पुनः घुटने टेक दिये और बोले – हाँ, देवि ! सर्वथा यही बात है।

अब मैं कुछ विचार में पड़ गयी। अन्यमनस्का – सी होकर जहाँ खड़ी थी, वहाँ से कुछ दूर हट कर खड़ी हो गयी। मैंने देखा कि पाँचों देवता, जहाँ मैं पहले खड़ी थी, वहाँ लोटने लगे तथा वहाँ की धूलि उठा – उठाकर अपनी आँखों में मलने लगे। मैं जोर से बोल उठी – कृष्ण ! कृष्ण !! क्या कर रहे हैं? आप लोग पागल तो नहीं हो गये हैं, जो इस प्रकार धूलि में लोट रहे हैं?

कुछ देर के बाद देवता खड़े होकर बोलने लगे – जय हो देवि ! तुम्हारी जय हो !! प्यारे श्यामसुन्दर यहाँ आने ही वाले हैं। अब हम लोगों को आज्ञा हो। यह कहते – कहते वे पाँचों अन्तर्धान हो गये। फिर मैं देखती हूँ कि मन्द – मन्द मुस्कुकराते हुए प्यारे श्यामसुन्दर चले आ रहे हैं। मैं शीघ्रता से उनकी ओर बढ़ गयी। उनके हाथों को पकड़ कर बोली – मैं यहाँ कैसे आ गयी? तुम कहाँ चले गये थे?

श्यामसुन्दर ने मुस्कुकराते हुए कहा•••••, यह कहते – कहते ललिता हठात् चुप हो गयीं।

ललिता चित्रा के स्वप्र की बात सुना रही थीं तथा रानी अतिशय शान्त मुद्रा में सुनती जा रही थीं। तभी एक मञ्जरी ने ललिता को कुछ इशारा किया, इससे ललिता चुप हो गयीं। इसी समय एक मञ्जरी पूर्व एवं दक्षिण के कोने की तरफ से आती है तथा ललिता को दूर से ही पुकार कर कहती है – ललिता रानी ! तुम्हें माँ बुला रही हैं। मञ्जरी की बात सुनकर ललिता चित्रा के कान में धीरे से कहती हैं – शेष तू सुना दे, मैं जा रही हूँ। यह कहती हुई वे पूर्व एवं दक्षिण के कोने की तरफ चली जाती हैं तथा उसी मञ्जरी के पीछे दक्षिण की तरफ दालान की ओर बढ़ती हुई आँखों से ओझल हो जाती हैं।

अब चित्रा स्वप्न का शेष अंश स्वयं सुनाती हैं। चित्रा बोलीं – हाँ, तब श्यामसुन्दर आये और मैंने उनसे पूछा कि मैं यहाँ कैसे आ गयी? तुम कहाँ चले गये थे?

प्यारे श्यामसुन्दर ने मुस्कुराकर कहा – मैं तो देवी की पूजा करने गया था।

मैं – किस देवी की पूजा?

श्यामसुन्दर – भगवती त्रिपुरसुन्दरी की।

मैं – क्यों?

श्यामसुन्दर – यों ही।

मैं – नहीं, ठीक बताओ। पूजा करने क्यों गये थे?

श्यामसुन्दर – भगवती से शक्ति माँगने गया था।

मैं – किसलिये?

श्यामसुन्दर – तू जानकर क्या करेगी?

मैं श्यामसुन्दर से इस बार चिढ़ी – सी होकर बोली – ठीक है, जाओ ! मत बताओ !! —यह कहती हुई मैं वही मुँह फेरकर बैठ गयी। प्यारे श्यामसुन्दर हँसने लगे।

फिर कुछ क्षण के बाद बोले – अच्छा, देख ! बता देता हूँ; पर तू किसी से बताना मत। —यह कहकर प्यारे श्यामसुन्दर मेरे सामने चले आये एवं बैठ गये। मैंने टेढ़ी चितवन से प्यारे की ओर देखा; पर देखते ही मेरी रुखाई दूर हो गयी और मैं हँस पड़ी। प्यारे श्यामसुन्दर भी पुनः हँसने लगे। मैं प्यारे के कंधे पर हाथ रखकर बोली – बताओ !

श्यामसुन्दर ने कहा – चित्रे ! जिस समय मैं प्रिया को देखता हूँ, उस समय नेत्र स्थिर हो जाते हैं। कल तुम सब मेरे आने के पहले प्रिया को माला पहना रही थीं। मैं छिपकर देख रहा था और सोचने लगा कि ओह ! मेरी प्रिया के अङ्ग कितने सुकोमल हैं। हाय, पुष्पों के भार को प्रिया किस प्रकार सहती होंगी ! पुष्पों की पँखुड़ी प्रिया के कोमल हृदय को बींधती तो नहीं होगी ! यह सोचते – सोचते मेरी आँखें बंद हो गयीं। अब तो विचारों का ताँता लग गया – आह ! अञ्जन

मेरी प्रिया की आँखों को अवश्य कष्ट देता होगा। हाय ! हाय !! आभूषण
तो बड़े ही कठोर हैं; ये मेरी प्रिया के अङ्ग में गड़ जाते होंगे। यह साड़ी भी बहुत रूखरी है, प्रिया के अङ्ग में निश्चय ही चुभती होगी। ओह ! प्रिया तो मेरे कारण अपने आप को भूल गयी हैं, पर मुझसे यह सहा नहीं जाता। नहीं, नहीं, मैं मना कर दूँगा कि मेरी हृदयेश्वरि ! तू माला मत पहन, अञ्जन लगाना छोड़ दे, आभूषण मत धारण कर। फिर मेरी प्रिया कभी भी इन्हें स्पर्श तक नहीं करेगी ! मैं ठीक जानता हूँ, उसके हृदय को जानता हूँ। वह पुष्प माला मेरे लिये पहनती है, आभूषण से अपने आपको मेरे लिये ही सजाती है, अञ्जन आँखों में मेरे लिये ही आँजती है। उसका सारा साज – श्रृंगार इसीलिये है कि मैं चाहता हूँ कि मेरी प्रिया अपने अङ्गों को सजाये। आह ! वह
तो मेरे प्रेम में विवेक खो बैठी है और सोचती है कि अञ्जन, आभूषण, मालाएँ उसे सुन्दर बना देंगी और प्यारे श्यामसुन्दर उसे देखकर और भी प्रसन्न होंगे; पर सच्ची बात कुछ और ही है। अञ्जन प्रिया की आँखों को सुन्दर नहीं बनाता, बल्कि प्रिया की आँखों में पड़कर यह अञ्जन सुन्दर बन जाता है; आभूषणों से प्रिया के शरीर की सुन्दरता नहीं बढ़ती, बलिक प्रिया के अङ्गों से जुड़ कर ये आभूषण अनन्त गुना सुन्दर बन जाते हैं; पुष्पमाला से प्रिया के वक्षःस्थल की शोभा नहीं बढ़ती, बल्कि, प्रिया के सुन्दर वक्षःस्थल पर झूलकर पुष्पमाला की शोभा अनन्त – असीम हो जाती है। मैं प्रिया को इन्हें इसीलिये धारण करने देता हूँ कि इनका सृजन सफल हो जाये। प्रिया के अङ्ग का स्पर्श पाकर ये कृतार्थ हो जायें, निहाल हो जायें; पर अब सहा नहीं जाता। बस, बस, बहुत हो गया। आज मना कर दूँगा कि मेरी प्राणेश्वरि ! तू श्रृंगार करना छोड़ दे। इतनी ही बात से सब ठीक हो जायेगा। पर साड़ी का क्या करूँ? हाय ! मेरी प्रिया तो मेरे इशारे मात्र से साड़ी तक फेंक देगी। उसे लोक, वेद, कुल, धर्म, देह, लज्जा आदि किसी की भी रत्ती मात्र परवाह ही नहीं है। वह जानती है केवल एक बात; उसे केवल इतनी स्मृति है कि प्यारे श्यामसुन्दर के सुख के लिये सब कुछ हँसते हुए स्वाहा कर देना। इसलिये उसके मन में तो इस विचार की छाया भी नहीं पहुँच सकेगी कि मैं विवस्त्र रहकर कैसे जीवन बिताऊँगी। वह तो तत्क्षण मेरी इच्छा के साँचे में ढल जायेगी; पर लोग तो उसे बावली विक्षिप्त समझने लगेंगे। उसे घर में बंद कर देंगे तथा वह मेरे विरह में तड़प – तड़पकर प्राण दे देगी। ओह ! कठिन उलझन है, इसे कैसे सुलझाऊँ? – चित्रे ! मैं कल दिन – रात यही सोचता रहा। फिर भगवती की कृपा का स्मरण करने लगा। प्रात:काल कुञ्ज से लौटते ही भगवती के मन्दिर में गया। देवी के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना करने लगा। देवी ने प्रसन्न होकर कहा- प्यारे श्यामसुन्दर ! बोलो, क्या चाहते हो?

मैंने कहा – देवि ! यह बताओ, समस्त विश्व में सबसे सुकोमल वस्तु क्या है?

देवी ने हँस कर कहा—सच्ची बात बता दूँ?

मैंने कहा – हाँ, देवि ! सर्वथा सच्ची बात बताओ।

देवी – प्यारे श्यामसुन्दर ! सबसे सुकोमल तुम्हारी प्रिया एवं तुम हो। तुम दोनों से अधिक सुकोमल वस्तु न पहले कभी थी, न है और न होगी।

चित्रे ! मैं देवी की बात सुन कर कुछ आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा कि मेरी प्रिया की सुकोमलतमता तो प्रत्यक्ष है; पर मैं सुकोमलतम की गणना में कैसे आ गया? मुझे तो यह भान नहीं होता; पर देवी तो झूठ नहीं कहेंगी। इनके वचन त्रिकाल सत्य हैं। भले ही मुझे अनुभव न हो कि मैं सुकोमलतम हूँ; पर जब देवी कहती हैं तो फिर एक काम करूँ। अब देवी से एक भिक्षा माँग लूँ।

मुझे सोचते देखकर देवी ने पुनः हँस कर कहा – हाँ, प्यारे श्यामसुन्दर ! जो चाहिये, वह मुझे निःसंकोच बता दो, मैं अवश्य दूँगी। देवी की बात सुन कर मैं प्रसन्न हो गया और बोला – देवि ! तुम जो अन्तर्हृदयकी बात जानती हो, इसलिये तुम से निःसंकोच एक भिक्षा माँग रहा हूँ। तुम कृपा करके मुझ में ऐसी सामर्थ्य दे दो कि मैं जहाँ चाहूँ, वहीं समा जाऊँ। मुझमें ऐसी शक्ति आ जाय कि मेरी प्रिया जिस अञ्जन से अपनी आँखें आँजती हैं, उस अञ्जन में समा जाऊँ। प्रिया जिस कुंकुम से तिलक लगाती हैं, उस कुंकुम में समा जाऊँ। जिस मृगमद से प्रिया अपने वक्षःस्थल का श्रृंगार करती हैं, उस मृगमद में समा जाऊँ। सखियाँ जो अङ्गराग मेरी प्रिया के शरीर पर लगाती हैं, उस अङ्गराग में समा जाऊँ। मेरी प्रिया के कपोल पर जिस चन्दन – पङ्क से चित्र बनता है, उस चन्दनपङ्क में समा जाऊँ। प्रिया के चरणों में जिस महावर (आलता) का रंग लगता है, उस रंग में समा जाऊँ। प्रिया जिन आभूषणों को धारण करती हैं, उन आभूषणों में समा जाऊँ। प्रिया जो साड़ी पहनती हैं, जो कञ्चुकी बाँधती हैं, उसके अणु – अणु में समा जाऊँ। प्रिया जिस ताम्बूल के बीड़े को अपने मुख में रखें, उस ताम्बूल – पत्र में उसके चूने में, उसकी सुपारी के कण – कण में मैं समा जा सकूँ। जिन फूलों से प्रिया की माला बनती है, जिन फूलों को प्रिया अपनी वेणी में खाँसती हैं, उन फूलों में समा जाऊँ। प्रिया जिस दर्पण में अपना मुख देखती हैं, उस दर्पण में समा जाऊँ, जिस कंघी से केश सँवारती हैं, उस कंघी में ; जिस रूमाल से मुख पोंछती हैं, उस रूमाल में ; जिस पीकदान में पीक फेंकती हैं, उस पीकदानी के अणु – अणु में मैं समा जाऊँ। जिस पलंग पर, जिस सोड़ पर, जिस चादर पर, जिस तकिये पर प्रिया विश्राम करती हैं, उसके अणु – अणु में समा जाऊँ। जिस जल से, जिस जल – पात्र से मेरी प्रिया स्नान करती हैं, उस जल में उस पात्र में मैं समा जाऊँ। मेरी प्रिया भोजन करने के लिये जिस आसन पर बैठती हैं, उसके लिये जिस परात में भोजन परोसा जाता है और परात में जो – जो भोज्य पदार्थ हैं, उस आसन, उस परात एवं उस भोज्य पदार्थ के अणु – अणु में मैं प्रवेश कर जा सकूँ। जिस गिलास से प्रिया जल पीती हैं और जिस जल का पान करती हैं, उस गिलास एवं उस जल के अणु – अणु में समा जाऊँ। जिस पंखे से सखियाँ प्रिया को हवा करती हैं, उस पंखे तथा हवा के अणु – अणु में मैं प्रवेश कर जाऊँ। जिस आकाश में प्रिया के अङ्ग हिलते हैं, उस आकाश के अणु – अणु में मैं समा जाऊँ। जिस पृथ्वी – तल से प्रिया के चरणों का स्पर्श होता है, उस पृथ्वी के कण – कण में समा जाऊँ। घर की ओर अथवा वन की ओर चलती हुई प्रिया जिस पथ पर पैर रखती हैं, उस पथ की धूलि के कण – कण में मैं समा जाऊँ। देवि ! अधिक कहाँ तक गिनाऊँ, मैं जिस – जिस वस्तु में चाहूँ, उसी के अणु – अणु में समा जाऊँ, ऐसी शक्ति मुझे देने की कृपा करो। देवि ! मेरा हृदय कल से अत्यन्त दुःखी था। अपनी प्रिया के सुकोमल अङ्गों को कष्ट पहुँचते देखकर मेरा मन अतिशय उद्विग्न हो गया। रातभर सोचता रहा कि किसी प्रकार से सब से सुकोमलतम वस्तु को प्राप्त करूँ तथा देवी की कृपा से उस वस्तु में यह शक्ति उत्पन्न करवा लूँ कि मेरी प्रिया की समस्त वस्तुओं में वह प्रवेश कर जा सके। यह इसलिये कि जिस समय प्रिया के अङ्गों को कठोर वस्तु स्पर्श करे, उस समय वह उस आघात को अपने हृदय पर सहकर मेरी प्रिया की रक्षा करे। तुमने सबसे सुकोमल वस्तु मुझे बतलाया, अतः मेरे अंदर ही यह शक्ति उत्पन्न कर दो।

चित्रा ने इतना कहा ही था कि ललिता पुनः वहाँ आकर बैठ जाती हैं। कुछ क्षण चित्रा चुप रहती हैं, पर रानी इतनी उत्कण्ठित हो गयी हैं कि तीन बार कह चुकीं – हाँ, हाँ फिर क्या बात हुई, बता !

चित्रा ने इतना कहा ही था कि ललिता पुनः वहाँ आकर बैठ जाती हैं। कुछ क्षण चित्रा चुप रहती हैं, पर रानी इतनी उत्कण्ठित हो गयी हैं कि तीन बार कह चुकीं – हाँ, हाँ फिर क्या बात हुई, बता !

चित्रा बोलती हैं – प्यारे श्यामसुन्दर की यह बात सुनकर मैं चटपट बोल उठी कि तुम्हारी बात सुन कर देवी ने क्या कहा?

श्यामसुन्दर अतिशय प्रसन्नता की मुद्रा में बोले – मेरी प्यारी चित्रे ! देवी ने अतिशय कृपा करके कह दिया – ‘एवमस्तु’।

श्यामसुन्दर की यह बात सुनकर मेरा हृदय बड़े जोर से उछलने लगा। मेरा कण्ठ भर आया और बड़ी कठिनता से मैं पूछ बैठी – सच बताओ, विनोद तो नहीं कर रहे हो? देवी ने ‘एवमस्तु’ कह दिया?

श्यामसुन्दर ने बड़ी दृढ़ता एवं सरलता के साथ कहा – हाँ चित्रे ! मैं सच कह रहा हूँ, देवी ने मुझे ऐसी शक्ति दे दी !

श्यामसुन्दर की इस बात से अब मैं आनन्द में इतनी अधीर हो उठी कि मेरा सारा शरीर थर – थर काँपने लगा। मन – ही – मन सोच रही थी कि मौका पाकर प्यारे श्यामसुन्दर से मैं एक बात कहूँगी – प्यारे ! मैं भी तुमसे एक वस्तु माँग रही हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम मेरी सखी राधा के साथ ही हम सबको भी प्राणों से अधिक प्यार करते हो। तुम्हारा हृदय अतिशय कोमल है ही। कदाचित् हम सब के प्रति भी तुम्हारा कोमल हृदय इसी भाव से भावित हो जाये और इसी प्रकार तुम हमारे आभूषण, अङ्गराग आदि में समा जाओ तो फिर एक बात की दया करना। हमें इशारा कर देना, जिससे हम सब उन आभूषण आदि को सावधानी से धीरे – धीरे धारण करें एवं निकालें। तुम्हारी बात सुनकर मन में एक भय हो गया है। सखी राधा की तो सारी सँभाल हम सब कर लेंगी पर यदि तुम कहीं हमारी पुष्पमाला में, हमारे अञ्जन में, हमारे दर्पण में आ बैठे और अनजान में हम सब ने फेंक – फाँक की तो तुम्हें कितनी चोट लगेगी? और फिर ‘तुम्हें चोट पहुँची है’ – यह बात कभी हमारे जानने में आयी तो हम सब का हृदय ही फट जायेगा। इसलिये जब कभी भी ऐसा करना तो बता देना।

मैं मन – ही – मन सोच रही थी और प्यारे श्यामसुन्दर मेरी ओर एकटक देख रहे थे। उन्हें इस प्रकार देखते हुए देख कर मैं हँसने लगी और बोली – क्या देख रहे हो? अब तुम्हें देखकर स्वस्थ हुई हूँ, नहीं तो घबरा कर प्राण निकले से जा रहे थे। यह कहकर मैंने पञ्च देवताओं की बात प्यारे श्यामसुन्दर को सुनायी। फिर प्यारे श्यामसुन्दर हँसने लगे। मैं बोली – सचमुच यह बताओ, यह कौन – सा देश है? मैं यहाँ कैसे आ गयी? मेरी प्यारी सखी राधा कहाँ हैं? हठात् तुम यहाँ कैसे आ गये? तुम्हें यहाँ मेरे होने की खबर कैसे लग गयी?

मैं यह कह ही रही थी कि श्यामसुन्दर ने हँस कर मुझे हृदय से लगा लिया; हृदय से लगाते ही मेरी आँखें खुल गयीं। मैं देखती हूँ कि प्रभात होने जा रहा है। मैं तो आश्चर्य में डूब गयी और सोचने लगी कि विचित्र स्वप्न देख रही थी। मैंने मन – ही – मन भगवती त्रिपुरसुन्दरी को नमस्कार किया और उनसे प्रार्थना करने लगी – देवि ! मैं जानती नहीं, इस स्वप्न का क्या फल होगा? मेरा कुछ भी हो, पर मेरे प्यारे श्यामसुन्दर का अनन्त मङ्गल हो।

इसी विचार में मैं पड़ी हुई थी कि बहिन ललिता उठकर मेरे पास आ गयीं। उनसे मैंने स्वप्न सुना दिया। वे हँसने लगीं और बोलीं – बड़ा ही शुभ स्वप्न है; स्नान करते समय सखी को सुनाऊँगी। चित्रा के स्वप्न को रानी चुपचाप गम्भीर बैठी सुन रही थीं। स्वप्न सुनकर एक बार वे भी जोर से हँस पड़ती हैं, पर तुरंत ही अकचकाकर इधर – उधर देखने लगती हैं। बात यह हुई कि रानी का प्रेम बढ़कर ज्ञान – शक्ति को ढक देता है। रानी यह तथ्य तत्क्षण भूल जाती हैं कि चित्रा ने यह सब स्वप्न की बात कही है। वे समझती हैं कि प्यारे श्यामसुन्दर ने सचमुच देवी से यह वर माँगा है। वे मुझे प्राणों से बढ़कर प्यार करते हैं, मुझे सर्वथा अपने हृदय में छिपा कर रखने की युक्ति उन्होंने की है, – यह भावना आते ही रानी को अणु-अणु में श्यामसुन्दर दीखने लगते हैं; इसलिये ही रानी अकचकाकर इधर – उधर देखने लगती हैं। सामने रसोई – घर का दालान है। रानी को श्यामसुन्दर वहाँ खड़े दीखते हैं।

इधर इसी बीच में उबटन का कार्य समाप्त हो चुका है। ललिता रानी का हाथ पकड़ कर उन्हें स्नान – वेदी की ओर चलने के लिये कहती हैं। रानी अञ्चल सँभालती हुई उठ पड़ती हैं, पर सीधे रसोई – घर की ओर दौड़ पड़ती हैं। रानी ने इतनी जोर से झटका दिया कि ललिता के हाथ से रानी का हाथ छूट गया और रानी उधर दौड़ पड़ी। परंतु ललिता बड़ी शीघ्रता से पीछे दौड़कर पुनः रानी को पकड़ लेती हैं। तथा कुछ रूठी हुई मुद्रा बनाकर कड़ी आवाज में कहती हैं – जा अब मैं तुम्हें कोई बात नहीं सुनाऊँगी; तू इस प्रकार स्वप्न की बात सत्य मानकर बावली हो जाती है। इधर तेरी यह दशा है कि तूने स्नान तक नहीं किया है। और वह देख, धनिष्ठा आ गयी; मैया (यशोदा) तुम्हारी बाट देख रही हैं।

ललिता की आवाज से रानी का भाव – प्रवाह बहुत कुछ शिथिल हो जाता है। वे स्वप्न से जागी हुई की तरह ललिता का कण्ठ पकड़ कर धीरे – धीरे रोने लग जाती हैं तथा कहती हैं – मैं तुम्हें बहुत तंग करती हूँ; पर मेरी प्यारी ललिते ! मैं क्या करूँ, मैं होश में नहीं रहती।

ललिता ने देखा कि दवा काम कर गयी है। अब मेरे खीझने के भय से यह थोड़ी देर शान्त रह जायगी। अतः प्यार की मुद्रा में कहती हैं – देख बहिन ! अब बहुत देर हो गयी है। अब जल्दी से स्नान कर ले। रानी चटपट स्नान – वेदी की ओर चल पड़ती हैं तथा एक अबोध बालिका की तरह चौकी पर बैठकर कहती हैं – जल्दी से जल डाल दे।
रानी की यह मधुर सरल कण्ठ – ध्वनि सभी सखियों के हृदय में गूँज जाती है। सभी की आँखें प्रेम से भर जाती हैं। इन्दुलेखा जल से भरे कलसे को उठाकर रानी के सिर पर डालती हैं। विशाखा हाथों से रानी के केशों को बिखेरती जा रही हैं। जल की मोटी धारा रानी के सिर पर से होकर पीठ – कंधे पर गिर रही है। रानी के सुन्दरतम काले – काले केश जल के वेग से पीठ पर नाच रहे हैं। अब दोनों तरफ से रानी के कंधों पर रङ्गदेवी एवं सुदेवी दो झारियों से जल डालने लगती हैं। विशाखा पीठ, वक्षःस्थल एवं हाथ – पैर आदि पर अपने हाथ फेरती हुई रानी के शरीर को मल रही हैं। जल की सुवास से एवं रानी के अङ्ग की दिव्य सुगन्धि से समस्त आँगन अत्यधिक सुवासित हो उठता है। विशाखा जैसे – जैसे रानी के शरीर को मलती हैं, वैसे – वैसे प्रतीत होता है मानो कोई अतिशय सुगन्धित घनद्रव्य को घिस रहा हो और घिसने के फलस्वरूप उससे अधिकाधिक सुगन्धि निकल रही हो। इस प्रकार खूब अच्छी तरह स्नान करा कर रानी के अङ्ग को विशाखा चम्पई रंग की साड़ी से लपेटकर गीले वस्त्र को अलग कर देती हैं। उसी चम्पई वस्त्र से सिर के केशों को भी पोंछती हैं तथा अन्यान्य अङ्गों को भी। रानी उस वेदी से उठकर दो – तीन हाथ पश्चिम की ओर अलग हटकर खड़ी हो जाती हैं। फिर तुङ्गविद्या बड़ी ही सुन्दर नीली साड़ी रानी को अब पहनाने लगती हैं तथा चम्पई रंग वाली साड़ी को विशाखा उतारती जाती हैं। उसके उतर जाने पर विशाखा ठीक से नीली साड़ी की गाँठ लगा देती हैं एवं तुङ्गविद्या ऊपर अञ्चल ठीक कर देती है। रानी पश्चिम की तरफ चलकर श्रृंगार – भवन में जा पहुँचती हैं। वहाँ बड़ी सुन्दर सजी हुई नीले मखमल की गद्दी लगी हुई एक चौकी है, जो डेढ़ हाथ ऊँची है, उस चौकी पर रानी पूर्व की ओर मुख करके बैठ जाती हैं।

✍️श्रीजी मंजरीदास
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Thursday, February 1, 2024

पुरानी स्वेटर बांके बिहारी जी को भायी

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. भावग्राही भगवान् ने पुराना स्वेटर भी स्वीकारा एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहा करती थी। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उसका बड़ा प्रेम था। प्रत्येक महीने बाँकेबिहारीजी के दर्शन के लिये वृन्दावन जाने का उसका नियम था। एक बार की बात है, सर्दी का समय, जनवरी का महीना चल रहा था। एकाएक उसके मन में भाव आया कि बाँकेबिहारी को पहनाने के लिये एक स्वेटर तैयार करके ले चलूँ। भाव तो था, पर रुपये का अभाव भी था। गरीबी में भी भक्ति तो होती ही है। अब माई के अन्दर भाव तो हुआ, परंतु नया स्वेटर बनाने के लिये ऊन कैसे प्राप्त हो ? रुपया है नहीं। उसके मन में भाव आया अरे! नया ऊन नहीं तो पुराने स्वेटर के ऊन को निकालकर गाँठ दे देकर नया स्वेटर बनाया जा सकता है। उसने स्वेटर बना दिया। भगवान् तो भावग्राही हैं। जब वह वृन्दावन के लिये चली तो एक थैले में पुराने ऊन वाला स्वेटर भी ले लिया। वह वृद्धा रास्ते में सोचने लगी कि भगवान् तो दयालु हैं, पहन लेंगे, परंतु पुजारीजी स्वीकार करें कि न करें। मंदिर पहुँचकर उसने थैला पुजारीजी को पकड़ाया। पुजारीजी ने सोचा कि कोई नया शाल, चादर होगा। देखा तो पुराना स्वेटर लेकर वृद्धा आयी है। पण्डितजी मन में सोचने लगे–'ये माई पागल है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता से बड़े-बड़े सेठ-साहूकार बाँकेबिहारी के लिये शाल, स्वेटर लाते हैं। अब ठाकुरजी को पुराना स्वेटर कैसे पहनायें ?' पुजारी ने रात्रि में ठाकुरजी को जब शयन कराया तो ठाकुरजी सपने में कहने लगे–'पुजारीजी! सर्दी लग रही है।' पुजारीजी झट-पट उठे और कहने लगे–'अरे महाराज! ये शाल-स्वेटर तो मुम्बई वाले सेठजी लाये थे। आपको ठण्डी लग रही है। कोई बात नहीं। कोलकाता वाले सेठजी का लाया स्वेटर पहना देता हूँ। उनका शाल और स्वेटर दोनों ही कीमती और खूब गरम हैं।' थोड़ी देर बाद पुजारीजी से ठाकुरजी ने सपने में आकर फिर कहा–'पुजारीजी! सर्दी लग रही है।' पुजारीजी को थोड़ी झुंझलाहट हुई, बोले–'महाराजजी ! इतने कीमती शाल, स्वेटर से सर्दी नहीं जा रही है तो जो गाँव की बुढ़िया माई पुराने ऊन का स्वेटर लायी है, वही पहना देता हूँ। पुजारीजी ने जैसे ही बुढ़िया माई का पुराना स्वेटर पहनाया, ठाकुरजी को नींद भी आ गयी और सर्दी भी दूर हो गयी। वस्तु-पदार्थ से भगवान् राजी नहीं होते। भगवान् भीतर का भाव, नीयत देखते हैं। कल्याण (९६|०१) गीताप्रेस (गोरखपुर) ० ० ० "जय जय श्री राधे" गोविंद

सखि नामावली