ये चकोरी सखियाँ - “आजु तौ जुवति तेरौ” )
22, 5, 2023
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गतांक से आगे -
ये निकुँज की सखियाँ हैं .......
विशुद्ध प्रेम ही इनमें भरा है .....जी ! शुद्ध प्रेम को “रति” भी कहते हैं ....जिसमें कोई उपाधि नही है ...ये समस्त उपाधियों से मुक्त हैं - रति , जो प्रेम का एक विशुद्ध रूप है ....ये शुद्ध माधुर्य पर आधारित है....और प्रेम , शुद्ध माधुर्य पर ही आधारित हो तो उसका रूप निखर कर आता है ।
माधुर्य का अर्थ समझ लीजिए ...सामान्य नर के समान जो लीला करे वो माधुर्य और ईश्वर के समान जो लीला करे ..वो ऐश्वर्य । आप का प्रियतम आपके जितने करीब होगा ...उसके प्रति रस उतना ही बढ़ेगा ....और ईश्वर की भावना आपके अन्दर आगयी तो फिर आप विशेष करीब नही हो पायेंगे ...वहाँ कुछ तो दूरी रहेगी रहेगी ...और दूरी बनी रही तो फिर अपनत्व आ नही पायेगा ..अपनत्व के बिना शुद्ध प्रेम सम्भव ही नही है ।
माधुर्य माधुर्य ही बना रहे ....उसमें किंचित भी “ईश्वर” भावना से आप भावित हो गये ...तो वो प्रेम “भक्ति” कहलायेगी ....जिसमें आपके प्रियतम भगवान के रूप में विराजे होंगे ....मैं एक ही बात को बार बार न दोहराऊँ कि.......विशुद्ध प्रेम में विशुद्ध माधुर्य ही चाहिए ...वहाँ किंचित भी “ऐश्वर्य” आगया तो वो शुद्ध रति नही होगी ।
फिर भक्ति में भक्त के स्वभाव अनुसार उपाधियाँ जुड़ती चली जाती हैं ....जैसे - किसी की भक्ति शान्त है ...तो वो “शान्ता रति” और किसी की भक्ति मधुर है तो “मधुरा रति”....वात्सल्य रस है तो “वात्सल्यारति”....आदि आदि । यशोदा जी की वात्सल्यारति है ...उनकी मधुर रति नही हो सकती ....हनुमान जी की दास्यारति है ...वो दास भाव से भावित हैं ...किन्तु हनुमान जी की वात्सल्यारति नही हो सकती । सखा हैं कृष्ण के मनसुख श्रीदामा आदि .....उनमें सख्यारति है ....सखा भाव है....किन्तु वो मधुर रस को नही पा सकते ।
अब सुनो , इन समस्त उपाधियों से मुक्त है ये “विशुद्ध प्रेम” ....क्यों की सखी वो तत्व है ...जिनमें स्त्री भाव और पुंभाव का पूर्ण अभाव है ....इनको जो जब जिस भाव की आवश्यकता पड़ती है ये वही भाव ओढ़ लेती हैं ...जैसे - श्री जी और श्याम सुन्दर विहार करते हुए जब थक जाते हैं ....तो ये सखियाँ तुरन्त वात्सल्य भाव ओढ़ कर इनके पास चली आती हैं और सुन्दर सुन्दर पकवान इन्हें पवाती हैं माता की तरह...कभी रात्रि में सुरत केलि मचाया हो युगल ने तब ये सख्य भाव ओढ़ लेती हैं ...और खूब छेड़ती हैं ....श्रीजी को छेड़ती हुए कुछ भी कहती हैं ....मित्र हैं उस समय ....कोई डर नही है ...अपनी सहेली से काहे का डर ? जब रास में नाचते हुए थक जाते हैं तो चरण दबाने की सेवा करते हुए ये दास्य भाव को ओढ़ लेती हैं ...और एक अद्भुत बात बताऊँ ! जब रात्रि की वेला - निभृत निकुँज में ये युगल सरकार मिलते मिलते एक हो जाते हैं तब ये सखियाँ भी अपनी सारी उपाधियों को त्याग कर युगल में ही लीन हो जाती हैं । तब अद्वैत घट जाता है ...आहा ! उस समय न श्याम न श्यामा न सखियाँ ...बस प्रेम ..विशुद्ध प्रेम तत्व।
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..पक्षियों ने चहकना प्रारम्भ कर दिया है ...उन के चहकने से वातावरण संगीतमय सा लग रहा है ..ये पक्षी भी विचित्र हैं शयन कुँज के आस पास ही इन्हें मंडराना है ..वहीं कलरव कर रहे हैं ।
श्रीश्याम सुन्दर और प्रिया जी जाग गयीं हैं ....सखियों ने दर्शन किये ....प्रिया जी अपने आपको सम्भालती हुई शैया से नीचे उतरती हैं .....हित सजनी आगे बढ़ी और श्रीजी को जब सम्भालने लगीं ..तब श्रीजी वहीं खड़ी हो गयीं, उनकी आँखें मत्त हैं ...वो सखी को देखकर मुस्कुराती हैं ..और संकेत में कहती हैं ....तू रहने दे ..मैं आगे आगे चलूँगी । और श्रीजी आगे आगे चल पड़ती हैं .....किन्तु उनकी चाल ! ...हित सजनी प्रिया जी को ऐसे मत्तता से चलते हुये जब देखती हैं ..तो पीछे ललितादि को देखकर मुस्कुरा जाती हैं ।
प्रिया जी चली जा रही हैं ....उनके चरण की महावर छूट गयी है ....उनके कण्ठ का हार टूटा हुआ है ...उनकी अलकावलियाँ उलझी हुई हैं.....पर ये कहीं खोई हुयी हैं ...और चली जा रही हैं श्रीवृन्दावन की अवनी पर ....इनके पीछे सखियों का दल है ...वो सब भी परमआनंदित हैं ....आगे चल रही हित सजनी सबको संकेत करती है ....तो सब हंस पड़ती हैं ...हंसने की आवाज प्रिया जी ने सुन ली है ...वो रुक जाती हैं ....और पूछती हैं ...क्या हुआ ? मन्द मुस्कुराते हुए सखी सिर हिलाकर कहती है ....नही, कुछ नही हुआ । नही कोई तो बात है ....प्रिया जी सब को देखती हैं ...समस्त सखियाँ पीछे हैं ...तब हित सखी कहती है ....ये आपके कपोल में चिन्ह !
ये सुनते ही प्रिया जी शरमा जाती हैं और कपोल को अपनी चुनरी से छुपा लेती हैं ...प्रिया जू ! क्या क्या छुपाओगी ? चाल , ढाल , अंग में लगे सुरत सुख के चिन्ह ...सब गवाही दे रहे हैं ......
है....लो , गले की माला भी मसली हुई है .....और मैं आगे की बात बताऊँ ? तभी श्रीजी सखी की ओर बढ़ती हैं और हित सजनी के मुख पर अपनी उँगली रख कर कहती हैं ...”मत बोल” । तब हित सजनी संकेत में कहती है ...प्रिया जी ! ये सारे प्रमाण हैं कि रात में आप प्रीतम के साथ लता भवन में सोईं हैं ..हैं ना ? श्रीजी शरमा जाती हैं और दौड़कर हित सखी को अपने हृदय से लगा लेती हैं ।
पागल बाबा इसके बाद मौन हो जाते हैं ....वो इस लीला चिन्तन में देहातीत हो गये हैं ।
“आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ..........”
अन्तिम में फिर चौरासी जी के चौथे पद का गायन किया जाता है ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍️श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
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