गतांक से आगे -
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
उस दिव्य वृन्दावन में नायक कोई नही है.....न नायिका है.....कोई नही है ....फिर ये लीला कौन कर रहा है ? फिर ये श्रीकृष्ण कौन हैं ? फिर ये श्रीराधा रानी कौन हैं ? अरे भाई ! कल कह तो दिया था ....”रस” ही सब कर रहा है .....रस यानि प्रेम ....ये जो प्रेम देवता है ये सबसे बड़ा है ..इससे बड़ा और कोई नही है ...यही कृष्ण बन जाता है और यही श्रीराधा ..निकुँज यही बनता है सखियाँ बन कर यही प्रकट हो जाता है ...फिर लीला चलती है ...नव नव लीला ...श्याम सुन्दर नये नये ....हर क्षण नये ...श्रीराधा रानी नयी ...उनका रूप नया नया ...और हर क्षण नया ....सखियाँ नयी ...उनका रूप और सौन्दर्य उनकी चेष्टा नयी ...फिर कुँज नया ...कहने की आवश्यकता नही है ..क्षण क्षण में नवीनता ....लीला नयी ....श्रीवृन्दावन नया । उनके अन्दर से प्रकट नेह नयो ...राग रंग नयो ।
सब “रस” करवा रहा है .....सब कुछ रसमय है ।
पागल बाबा आनन्द से विराजे हैं ...राधा नाम उनके वक्ष में बृज रज से लिखा हुआ है .....तुलसी की माला कण्ठ में विराजमान है ...मस्तक में रज से तिलक किया है ...और एक सुन्दर सी बेला की प्रसादी माला धारण किए हुये हैं ...रस में डूबे हैं ....अभी अभी गौरांगी ने वीणा वादन से एक पद का गायन किया है । आज कुछ बरसाने के रसिक जन भी आगये हैं ....सब दूर दूर बैठे हैं ....सबने एक एक लता का आश्रय लिया है और नेत्र बन्दकर बाबा को सुनने की तैयारी में हैं ।
“श्रीराधा अद्भुत रस सिन्धु हैं ...जो लावण्य की विलक्षणता से परिपूर्ण हैं ....श्याम सुन्दर ....जो बड़े बड़े योगियों के ध्यान में नही आते वो श्रीराधा के बंक भृकुटी से ही मूर्छित हो जाते हैं ...तब श्रीराधा उनके पास जातीं हैं ....और अपनी केश राशि श्याम सुन्दर के ऊपर डाल देती हैं ...वो श्याम सुन्दर जिन्हें पाने के लिए बड़े बड़े योगिन्द़ लगे हैं किन्तु उनके ध्यान तक में ये नही आते ...वो यहाँ अपनी प्रिया के केश राशि में फंस गए हैं ....अरे ! देखो माई ! श्रीहित हरिवंश महाप्रभु इस झाँकी का दर्शन करते हुए आनंदित हो उठते हैं ....वो “श्रीहित चौरासी” जी के रचयिता हैं ....उन्होंने देखा है ...देखे बिना कोई इस तरह का रस काव्य लिख ही नही सकता ।
ये सहचरी हैं श्रीराधा जी की ...श्याम सुन्दर के अधरों में बजने वाली बाँसुरी हैं ...अजी , बाँसुरी के समान और कौन होगा प्रेमी ? बाँसुरी के समान और कौन होगा रसमय ? सारा का सारा रस तो बाँसुरी ही पी जाती है । प्रेमियों को धरा के अमृत से क्या प्रयोजन ? धरा का अमृत तो नाशवान है ....मिथ्या है ...अमृत तो अधरामृत में भरा हुआ है ...उसी अमृत को पी पी कर ये बाँसुरी मत्त हो गयी थी ...जब ये “रस मार्ग” भू पर प्रशस्त करने आयी ....तो रूप लिया “हित” का ।
हित , रस , नेह, .....ये सब “प्रेम” के पर्याय हैं ।
बाबा इतना बोलकर मत्त हो गये .....सब उसी रस में डूबे हुए हैं ।
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रसोपासना का केन्द्र श्रीवृन्दावन ही मूल है । यहाँ की आराध्या देवि श्रीराधारानी हैं ...बस श्रीराधारानी ....और आराधक सखियाँ ही मात्र नहीं हैं स्वयं श्याम सुन्दर भी हैं । अजी , ‘भी’ नही ....श्याम सुन्दर ‘ही’ हैं । “रसिक शेखर” .......श्याम सुन्दर को सखियों ने ये उपाधि दी है ...तो श्रीराधा अद्भुत रस तत्व हैं उनकी उपासना निरन्तर करने के कारण ही श्याम सुन्दर “रसिक शेखर” कहलाते हैं ...कहलाये ।
श्रीराधा रानी बस किंचित मुस्कुरा देती हैं ...तो श्याम सुन्दर सुख के अगाध सिन्धु में डूब जाते हैं ...और श्याम सुन्दर के सुख समुद्र में डूबते ही श्रीवन के मोर नृत्य करने लगते हैं कोकिल कुँहुँ की पुकार मचा देती हैं....शुक आदि पक्षी उन्मत्त हो जाते हैं ....लता पत्र झूम उठते हैं ।
और श्रीराधारानी जब थोडी भी रूठ जाती हैं तो श्यामसुन्दर दुःख के अपार सागर में डूब जाते हैं ...उनको इतना दुःख होता है जिसकी कोई सीमा नही ...और श्यामसुन्दर के दुखी होते ही मोर दुखी हो जाते हैं , कोकिल दुखी होकर मौन व्रत ले लेती हैं ...शुक आदि पक्षी और लता पत्र सब दुःख ही दुःख के सागर में डूबते चले जाते हैं ।
और ये दुःख सब क्षण में ही होता है ...और क्षण के लिए ही होता है । किन्तु वो क्षण भी युगों के समान लगते हैं ....ऐसा लगता है श्याम सुन्दर को कि - प्रलय आगया । वो रोते हैं ...वो मनाते हैं ....वो हा हा खाते हैं .....उस समय सब शान्त होकर देखते रहते हैं ...सखियाँ , मोर पक्षी लता पत्र आदि सब ....जब श्यामा जू नही मानतीं ...तब तो ....श्याम सुन्दर चले जाते हैं ...यमुना के किनारे , यमुना के किनारे जाकर बैठ जाते हैं ....नेत्रों को मूँद लेते हैं ....और अपनी श्रीराधा रानी का ध्यान करते हैं ...हृदय से ध्यान और मुख से उन्हीं के नाम का जाप ।
तब विलक्षण लीला घटती है ...श्रीराधा रानी के ही चरण नख से काम देव प्रकट होजाता है और ऐसे दुःख में डूबे श्याम सुन्दर को अपने बाणों से उनके हृदय को बेधता है । उफ़ !
देखो , हित सखी क्या कह रही हैं .....आह !
“जाही विरंचि उमापति नाये , तापैं तैं वन फूल बिनाये ।
जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ, ताकौं तैं अधर सुधा रस चाख्यौ ।
तेरो रूप कहत नहिं आवै, श्रीहित हरिवंश कछुक जस गावै ।।”
अद्भुत ! जिसके आगे ब्रह्मा और शिव नमत हैं ....उनसे ये अपने श्रृंगार के लिए फूल बिनवाती हैं .....जिस रस को वेद भी नेति नेति ...यानि हम नही जानते , हम नही जानते , कहते हैं उसके अधर सुधा का ये नित्य पान करती हैं ......ओह ! इसका क्या वर्णन करें ? हित सखी कहतीं हैं ....ब्रह्म जिनके पीछे मृग की तरह भाग रहा है ....उस रूप का क्या वर्णन किया जाए ?
पागल बाबा के नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं ....वो मुस्कुरा रहे हैं .....
तभी श्रीराधारानी अपनी ललितादि सखियों के साथ यमुना के निकट आईं ....वहाँ अपने प्यारे को देखा ...वो मूर्छित हो गये हैं ....बस उनकी साँसें चल रही हैं । तुरन्त उनके पास जाकर अपने अधर उनके अधरों में धर दिये ....और मरे हुए को जैसे कोई अमृत पिलाये ऐसे ही श्रीराधा रानी ने अपने प्रिय को अधरामृत का पान कराया । अजी ! वो उठ गये ..श्रीजी मुसकुराईं ....बस फिर क्या था श्याम सुन्दर सुख के सागर में डूब गए ...सखियाँ आनंदित हो उठीं ....मोर नाच उठे ..कोयल ने कुँहुं करना शुरू कर दिया ....शुक आदि पक्षी झूम उठे ....क्यों की दोनों युगल अब एक दूसरे में खो गये थे ।
ये सब क्या है ? अचंभित हैं सब रसिक ।
पागल बाबा कहते हैं ....यही तो .....
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
नायक नही हैं न वहाँ कोई नायिका हैं ...न कृष्ण हैं न श्रीराधा हैं ...बस “रस” ही सब करवा रहा है और “रस” ही सब कर रहा है । अहो !
अब कल से “श्रीहित चौरासी” जी का आनन्द लेंगे ।
बाबा ने अन्तिम में कहा ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍️श्री जी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
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