Wednesday, June 18, 2025

घन श्याम मोहन और श्याम घन मोहन मानसिक रूप-लीला चिंतन 32

घनश्याम और श्याम घन

राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा.....

सावन मास की लुभावनी रात। अभी मध्य रात्रि में पर्याप्त देर है । निकुञ्ज-भवन के बरामदे में मखमली बिछावन बिछा हुआ है। बरामदे के सामने प्रकृति का उन्मुक्त प्रांगण है। मखमली बिछावन पर श्रीप्रिया-प्रियतम विराज रहे हैं। अपने प्रियतम को रिझाने के लिये श्रीप्रियाजी आलाप कर रही हैं। आस पास बैठी हुई सखियाँ-मञ्जरियाँ-सहचरियाँ भी श्रीप्रियाजी की आलापचारी को उत्कण्ठापूर्वक सुन-सुनकर विभोर हो रही हैं। अमावास्या की तिथि होने से सर्वत्र अँधेरा है। इस अँधेरे का भी एक आकर्षण हैं। इसके कजरारेपन में भी एक सलोनापन है। श्रीप्रियाजी हैं ही श्याम-प्रेमिका। श्रीप्रियाजी की रुचि को देखकर ही अति मन्द प्रकाश का विकास करने वाले मणि-दीपक प्रज्वलित किये गये हैं।

आकाश में श्याम मेघ छाये हुए हैं। बस, वे छाये हैं, परन्तु बरस नहीं रहे हैं। सावन मास की अँधेरी रात के समय कजरारे बादलों को देखकर श्रीप्रियाजी ने मल्हार राग की रागिनी छेड़ दी। समीपस्थ श्रीललिताजी वीणा पर स्वर दे रही हैं। श्रीप्रियतम भी सुर में सुर मिलाते हुए वंशी-वादन कर रहे हैं।

सारे वातावरण में राग-रंग छाया हुआ है। राग की रागिनी से सभी का मन तरंगित है। श्रीप्रियतम का मन भी तरंगित है, परन्तु इस तरंग के साथ ही उनके मन में एक कसक भी है। श्रीप्रियतम के मन में घनी कसक है कि श्रीप्रियाजी की मुखछवि का दर्शन नहीं हो पा रहा है। एक तो सावन की अमावास्या वाली अँधियारी और फिर मणि दीपक का प्रकाश भी अति मन्द।

सभी आनन्द में निमग्न हैं, विभोर हैं। श्रीप्रियाजी उमंग में भरकर गायें और फिर आनन्द उमड़ न पड़े, यह भला कैसे हो सकता है? आनन्द का सागर उमड़ रहा है, उफन रहा है और उस सागर की लहरों पर सभी लहरा रहे हैं। बस, थोड़ी-सी कसर है। वह कसर है कसक के रूप में, जो व्याप्त हो रही है प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर के अन्तर में।

इन घनश्याम के अन्तर की चुभती कसक संक्रमित हो गयी उन नभचारी श्यामघन के अन्तर में और तभी घने श्यामल मेघों के मध्य बिजली कौंधी। विद्युल्लता के चमकते ही प्रकाश में चमक उठी भावलतिका श्रीप्रियाजी की मुख-कान्ति। इसी मुख-शोभा के ही तो प्यासे थे श्रीश्यामसुन्दर के कजरारे नयन। श्रीप्रियतम के नयनों में छा गयी उल्लाससनी आनन्द की रेखाएँ। उल्लसित-आनन्दित श्रीश्यामल प्रियतम के अन्तर का आह्लाद भी संक्रमित हो उठा उन नभचारी बादलों के अन्तर में और आहलादातिरेक में वे भी मन्द मन्द गर्जन करने लगे। मन्द मन्द गर्जन भी सोद्देश्य है। तीव्र गर्जन से तो श्रीप्रियाजी की राग-रागिनी के उल्लास में व्यवधान उपस्थित हो जाता। इस मन्द गर्जन ने भी उद्दीपन का ही कार्य किया। पावस ऋतु के इस लुभावने-सुहावने रंगभरे वातावरण ने श्रीप्रियाजी के अन्तर में अधिकाधिक उमंग उद्दीप्त कर दी। निकुञ्ज के बरामदे में अद्भुत समाँ बँध गया।

नभ के श्यामल मेघ रह-रह करके श्रीप्रियाजी के उमंग की और श्रीप्रियतम के आह्लाद की जयकार मना रहे हैं और विद्युल्लता रह-रह करके बलिहार जा रही है इन युगल रसिकों के उमंग पर, आह्लाद पर।

राधे राधे 
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Monday, June 9, 2025

नेत्रहीन संत

*🌹🌹!! नेत्रहीन संत !!🌹🌹*

*एक बार एक राजा अपने सहचरों के साथ शिकार खेलने जंगल में गया था। वहाँ शिकार के चक्कर में एक दूसरे से बिछड़ गये और एक दूसरे को खोजते हुये राजा एक नेत्रहीन संत की कुटिया में पहुँच कर अपने बिछड़े हुये साथियों के बारे में पूछा।*

*नेत्र हीन संत ने कहा महाराज सबसे पहले आपके सिपाही गये हैं, बाद में आपके मंत्री गये, अब आप स्वयं पधारे हैं। इसी रास्ते से आप आगे जायें तो मुलाकात हो जायगी। संत के बताये हुये रास्ते में राजा ने घोड़ा दौड़ाया और जल्दी ही अपने सहयोगियों से जा मिला और नेत्रहीन संत के कथनानुसार ही एक दूसरे से आगे पीछे पहुंचे थे।*

*यह बात राजा के दिमाग में घर कर गयी कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला कि कौन किस ओहदे वाला जा रहा है। लौटते समय राजा अपने अनुचरों को साथ लेकर संत की कुटिया में पहुंच कर संत से प्रश्न किया कि आप नेत्रविहीन होते हुये कैसे जान गये कि कौन जा रहा है, कौन आ रहा है ?*

*राजा की बात सुन कर नेत्रहीन संत ने कहा महाराज आदमी की हैसियत का ज्ञान नेत्रों से नहीं उसकी बातचीत से होती है। सबसे पहले जब आपके सिपाही मेरे पास से गुजरे तब उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ अंधे इधर से किसी के जाते हुये की आहट सुनाई दी क्या ? तो मैं समझ गया कि यह संस्कार विहीन व्यक्ति छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे।*

*जब आपके मंत्री जी आये तब उन्होंने पूछा बाबा जी इधर से किसी को जाते हुये..... तो मैं समझ गया कि यह किसी उच्च ओहदे वाला है, क्योंकि बिना संस्कारित व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन नहीं होता। इसलिये मैंने आपसे कहा कि सिपाहियों के पीछे मंत्री जी गये हैं।*
*जब आप स्वयं आये तो आपने कहा सूरदास जी महाराज आपको इधर से निकल कर जाने वालों की आहट तो नहीं मिली तो मैं समझ गया कि आप राजा ही हो सकते हैं। क्योंकि आपकी वाणी में आदर सूचक शब्दों का समावेश था और दूसरे का आदर वही कर सकता है जिसे दूसरों से आदर प्राप्त होता है। क्योंकि जिसे कभी कोई चीज नहीं मिलती तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है!*

*दूसरी बात यह संसार एक वृक्ष स्वरूप है- जैसे वृक्ष में डालियाँ तो बहुत होती हैं पर जिस डाली में ज्यादा फल लगते हैं वही झुकती है। इसी अनुभव के आधार में मैं नेत्रहीन होते हुये भी सिपाहियों, मंत्री और आपके पद का पता बताया अगर गलती हुई हो महाराज तो क्षमा करें।*

*राजा संत के अनुभव से प्रसन्न हो कर संत की जीवन व्रत्ति का प्रबंन्ध राजकोष से करने का मंत्री जी को आदेशित कर वापस राजमहल आया।*

शिक्षा:-

*आजकल हमारा मध्यमवर्ग परिवार संस्कार विहीन होता जा रहा है। थोड़ा सा पद, पैसा व प्रतिष्ठा पाते ही दूसरे की उपेक्षा करते हैं, जो उचित नहीं है। मधुर भाषा बोलने में किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान नहीं होता है। अतः मीठा बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिये।*

🙏🙏

निकुंज लीला 1

निकुञ्ज का एकान्त कक्ष। श्रीप्रियाजी मखमली सिंहासन पर अकेली बैठी हैं। उन्होंने धीरे से पुकारा- चित्रा! अपना नाम सुनते ही श्रीचित...