प्रेम-तत्त्व
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or facebook ✍️श्रीजी मंजरीदास
राधा राधा राधा राधा राधा.........
१—प्रेम एक में ही होता है और वह भगवान् में ही होना सम्भव है। प्रेम का वास्तविक अर्थ ही है—भगवत्प्रेम।
२—वस्तुतः 'प्रेम' शब्द तभी सार्थक होता है, जब वह श्रीभगवान् में होता है।
३—विशुद्ध प्रेम, निःस्वार्थ प्रेम, उज्ज्वल प्रेम जब होगा, तब भगवान् में ही होगा और ऐसा होने पर सारा ममत्व सब ओर से सिमट कर एक भगवान् में ही लग जाता है।
४—जब भगवान् के प्रति प्रेम होने लगता है, तब दूसरी समस्त वस्तुओं से प्रेम हटने लगता है—यह नियम है और प्रेम हो जाने पर तो प्रेमी सब की सुधि ही भूल जाता है । वह तो प्रेम ही कहता है, प्रेम ही सुनता है, प्रेम ही देखता है और चारों ओर से प्रेम-ही-प्रेम का अनुभव करता है।
५—प्रेम की पूर्णता कभी होती ही नहीं। मुझे पूर्ण प्रेम प्राप्त हो गया, इस प्रकार का अनुभव प्रेमी कभी करता ही नहीं।
६—प्रेमी को अपने प्रेम में सदा कमी का अनुभव होता है।
७—प्रेम की कोई सीमा नहीं है।
८—प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है, निरन्तर बढ़ते रहना उसका स्वरूप है।
९—प्रेम कहीं भी रुकता नहीं।
१०—प्रेम में सब कुछ अर्पण हो जाता है, यहाँ तक कि प्रेमी स्वयं भी प्रेमास्पद के अर्पित हो जाता है। सम्पूर्ण त्याग या सम्पूर्ण समर्पण ही प्रेम का स्वभाव है।
११—जो प्रेम दूसरी-दूसरी वस्तुओं में बँटा हुआ है, वह प्रेम वस्तुतः प्रेम ही नहीं है।
१२—प्रेम वाणी का विषय नहीं है।
१३—प्रेम रहता है मन में और मन अपने वश में रहता नहीं, वह रहता है प्रेमास्पद के वश में। प्रेम का यह साधारण नियम है।
१४—प्रेमी के मन पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता। मन, बुद्धि, प्राण, आत्मा—सब पर अधिकार हो जाता है प्रेमास्पद श्री भगवान् का।
१५—प्रेम उत्पन्न हो जाने पर मन, बुद्धि अर्पण करने नहीं पड़ते; ये स्वतः अर्पण हो जाते हैं।
१६—प्रेम बड़ी दुर्लभ वस्तु है, यह सहज में नहीं मिलता और जिसे मिल जाता है, उसके समान भाग्यशाली कोई नहीं।
१७—प्रेम में वस्तुतः भगवान् का कभी वियोग नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन को छोड़कर एक पग भी बाहर नहीं जाते । श्री गोपीजनों को छोड़कर किसी समय भी कहीं नहीं जाते। श्री गोपीजनों ने उद्धव को दिखला दिया था कि श्रीकृष्ण गोपीजनों के पास ही निरन्तर रहते हैं, क्योंकि वे स्वयं प्रेमी बनकर श्री गोपीजनों को प्रेमास्पद समझते हैं।
१८—प्रेमास्पद प्रेमी का ही बन जाता है। श्रीकृष्ण भी गोपिकाओं के ही बन गये। उन्होंने कहा है—गोपिकाओ ! देवताओं की-जैसी आयु धारण करके भी मैं तुम्हारा यह प्रेम-ऋण चुका नहीं सकता।
१९—प्रेम का ऋण चुकाने के लिये भगवान् के पास कुछ भी नहीं रहता, पर प्रेमी उन्हें ऋणी नहीं बनाता ! उन्हें ऋणी मान कर उनसे कुछ चाहे, ऐसा प्रेमी कभी नहीं करता।
२०—जहाँ कुछ भी अपनी चाह है, वहाँ प्रेम नहीं है।
२१—प्रेमी का सुख इसी में है कि उसका प्रेमास्पद सुखी रहे — 'तत्सुखसुखित्वम्'।
२२—हमारे दुःख से यदि प्रेमास्पद सुखी होता हो तो वह दुःख हमारे लिये सुख है—यह प्रेमी का हार्दिक भाव होता है। ऐसे दुःख को, ऐसी विपत्ति को वह परम सुख—परम सम्पत्ति मानता है। मानता ही नहीं, सर्वथा ऐसा ही अनुभव करता है।
२३—प्रेम का स्वभाव विचित्र है, इसमें त्याग-ही-त्याग—देना-ही-देना है।
२४—प्रेमी प्रेमास्पद को अखण्ड सुखी देखना चाहता है, उनको सुखी देखकर ही वह सुखी होता है। प्रेमी के सुख का आधार है—प्रेमास्पद का सुख। इसी भाव का जितना विकास इस जगत् में जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ उतना ही पवित्र भाव होता है।
२५—भगवान् जिसे अपना प्रेम देते हैं, उसका सब कुछ हर लेते हैं। किसी भी वस्तु में उसकी ममता नहीं रह जाती, समस्त ममता भगवान् में जुड़ जाती है और इसे लेकर वह एक ही बात चाहता है—कैसे मेरे प्रेमास्पद सुखी हों।
२६—भगवान् जब अपने-आपको किसी के हाथ बेच देना स्वीकार कर लेते हैं, तभी किसी को अपना प्रेम देते हैं।
२७—भगवान् प्रेम के साथ ही अपने आपको भी दे डालते हैं। यह सौदा महँगा नहीं, बड़ा ही सस्ता है। हमारा सब कुछ जाय और बदले में भगवान् मिल जायँ, इसके समान कोई लाभ नहीं—यह परम लाभ है।
२८—बुद्धिमान् जन प्रेम के लिये मोक्ष को भी भगवत् चरणों में समर्पित कर देते हैं।
२९—भगवान् मोक्ष देना चाहते हैं, पर प्रेमीजन उसे स्वीकार ही नहीं करते।
३०—जिसे प्रेम प्राप्त हो जाता है, उसके ऊपर और कोई बन्धन तो रहता ही नहीं। रहता है केवल एकमात्र प्रेम का बन्धन। भला, प्रेमी प्रेम के बन्धन से कभी छूटना चाह सकता है? यह बन्धन तो उसके परम सुख का आधार है। जो इस बन्धन से मुक्त होना चाहता है, वह तो प्रेमी ही नहीं है।
३१—इस प्रेम के बन्धन में जो आनन्द है, उसकी तुलना लाख मुक्तियों से भी नहीं हो सकती। प्रेमानन्द बड़ा ही विलक्षण आनन्द है। इसका एक कण प्राप्त करके ही मनुष्य निहाल हो जाता है।
३२—प्रेम का विकास और तुच्छ स्वार्थ बुद्धि का नाश—दोनों साथ-साथ होते हैं।
३३—जब तक स्वार्थ का त्याग नहीं है, तब तक भगवान् में प्रेम नहीं है।
३४—भगवान् में प्रेम त्याग से होता है, त्याग से पवित्रता आती है।
३५—जितना-जितना भोगों से प्रेम हटता जायगा, उतनी-उतनी पवित्रता आती जायगी।
३६—भगवत्प्रेम का प्रादुर्भाव होने पर प्रेम की बाहरी दशा दो में से एक होती है—या तो जगत् से सर्वथा निवृत्ति हो जाती है या जगत् में प्रवृत्ति हो जाती है। पहली अवस्था में वह उन्मत्त की तरह प्रतीत होने लगता है, दूसरी में सम्पूर्ण जगत् का भगवान् के रूप में दर्शन करता हुआ सब की सेवा करता है, सबकी पूजा करता है। दोनों ही अवस्थाओं में जगत् के पहले वाले रूप से तो उसकी निवृत्ति ही रहती है, जगत् के पहले वाले रूप को तो वह भूल ही जाता है।
३७—जहाँ देखता है, वहीं श्याम—एक तो यह अवस्था होती है। दूसरे प्रकार की अवस्था यह है कि श्याम के सिवा और कुछ सुहाता ही नहीं। दोनों ही अवस्थाएँ पवित्रतम हैं, पर बाहरी लीला में भेद होता है।
३८—कहीं तो श्यामसुन्दर नहीं दीखते और उनके लिये अभिसार होता है तथा कहीं यह भाव होता है—यहाँ भी वही, वहाँ भी वही — 'जित देखूँ तित स्याम मई' है। ये दोनों भाव वस्तुतः दो नहीं—एक ही भगवत्प्रेम की दो अवस्थाएँ हैं।
३९—भगवत्प्रेम में एक बात तो निश्चय ही होगी कि प्रेमास्पद भगवान् और प्रेमी के बीच में किसी दूसरे के लिये स्थान नहीं रहेगा।
४०—प्रेम दो में नहीं होता वह एक में ही होता है और एक ही प्रेमास्पद सब जगह से प्रेमी की दृष्टि को छा लेता है। एक ही प्रेमास्पद सर्वत्र फैल जाता है।
४१—प्रेम का विकास होने पर सर्वत्र भगवान् दीखते हैं।
४२—प्रेमास्पद भगवान् का रूप अनन्त होने से प्रेमी की प्रेममयी अवस्था भी अनन्त है। प्रेमियों की न जाने क्या-क्या अवस्थाएँ होती हैं।
४३—प्रेम अखण्ड होता है।
४४—भगवान् प्रेम हैं और प्रेम ही भगवान् है।
४५—प्रेम भगवत्स्वरूप है, मन-वाणी का विषय नहीं। इसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती। यह तो अनुभव की वस्तु है।
४६—जहाँ से स्वार्थ का त्याग होता है, वहीं से भगवत्प्रेम का आरम्भ होता है। स्वार्थ और प्रेम—दोनों एक साथ रह ही नहीं सकते।
४७—सांसारिक प्रेम में भी यह निश्चित है कि जहाँ त्याग नहीं है, वहाँ प्रेम नहीं है। जहाँ प्रेम है, वहाँ त्याग होगा ही।
४८—जैसे-जैसे भगवान् के प्रति प्रेम बढ़ता जायगा, वैसे-वैसे स्वार्थ का त्याग होता चला जायगा।
४९—जहाँ अपनी चाह है, परवाह है, त्याग की तैयारी नहीं है, वहाँ प्रेम कहाँ ?
५०—साधारण किसी मनुष्य से प्रेम कीजिये; उस में भी त्याग की आवश्यकता होगी।
५१—माँ का अपने बच्चे के लिये प्रेम रहता है। देखिये, वह बच्चे के लिये कितना त्याग करती है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य, पति-पत्नी—जहाँ कहीं भी प्रेम का सम्बन्ध है, वहाँ त्याग है ही।
५२—प्रेम हुए बिना वास्तविक त्याग नहीं होता और त्याग के बिना प्रेम नहीं होता।
५३—सब प्रकार का सहन ( तितिक्षा ) प्रेम में होता है। प्रेम करना आरम्भ कर दें, फिर तितिक्षा तो अपने-आप आ जायगी। माँ बीमार है, पर बच्चा परदेश से आ गया; माँ उठ खड़ी होगी, उस बीमारी की अवस्था में ही बच्चे के लिये भोजन बनाने लगेगी। यह तितिक्षा प्रेम की ही उत्पन्न की हुई है।
५४—यह सत्य है कि प्रेम का वास्तविक और पूर्ण विकास भगवत्प्रेम में ही होता है; पर जहाँ कहीं भी इसका आंशिक विकास देखा जाता है, वहाँ-वहाँ ही त्याग साथ रहता है। गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों में धर्म का प्रेम था, उन्होंने उसके लिये हँसते-हँसते प्राणों की बलि चढ़ा दी। सतीत्व में प्रेम होने के कारण अनेक आर्य-रमणियों ने प्राणों की आहुति दे दी।
५५—प्रेम होने पर त्याग करना नहीं पड़ता, अपने-आप हो जाता है और उसी में आनन्द की उपलब्धि होती है।
५६—प्रेम में पवित्रता भी अपने-आप आ जाती है; क्योंकि छल, कपट, बेईमानी आदि स्वार्थ में ही रहते हैं और प्रेम में स्वार्थ रहता नहीं।
५७—जहाँ विशुद्ध प्रेम है, वहाँ मन विशुद्ध है ही।
५८—भगवान् के प्रति प्रेम बढ़ाइये, अपने-आप अन्तःकरण शुद्ध होगा।
५९—सच्चे प्रेम में पाप नहीं रह सकता। पाप होते हैं कामना के कारण और प्रेम में कामना रहती नहीं। जब कामना ही नहीं, तब पाप कैसे रहें।
६०—प्रेम परम तप रूप है।
६१—जो दे नहीं सकता, वह प्रेमी नहीं। उत्सर्ग प्रेम में स्वभाव से ही रहता है।
६२—भगवत्प्रेम अन्तिम—चरम और परम पुरुषार्थ है।
६३—विषयों का प्रेम प्रेम नहीं है।
६४—मोक्ष का परित्याग विषय कामी भी करता है और भगवत्प्रेमी भी; परंतु दोनों के त्याग में महान् अन्तर है।
६५—विषय कामी को मोक्ष मिलता नहीं, पर भगवत्प्रेमी को त्याग देने पर भी मोक्ष नित्य प्राप्त रहता है। वह जगत् के बन्धन से नित्य मुक्त रहता है।
६६—भगवत्प्रेम अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी सहज ही प्राप्त हो सकता है, यदि कोई अनन्य उत्कण्ठा के साथ इसके लिये भगवान् पर निर्भर हो जाय।
६७—प्रेम प्राप्त करने के लिये त्याग आवश्यक है। बिना त्याग के प्रेम नहीं मिलता।
६८—यदि हम सचमुच चाहें तो भगवान् कृपा करके अपने-आप त्याग करवा देते हैं। पर सच्ची बात यह है कि हम त्याग ( जागतिक विषयों के प्रेम का त्याग ) करना नहीं चाहते।
६९—हम चाहते हैं हमें प्रेम मिल जाय, पर विषय छोड़ना चाहते नहीं। विषयों में सुख की भ्रान्ति ही इसका कारण है।
७०—विषयासक्ति प्रेम में बड़ी बाधक है।
७१—वास्तविक रूप में देखें तो समस्त वस्तुएँ भगवान् की हैं, इन पर उन्हीं का अधिकार है। हम को तो मिथ्या ममत्व त्यागना है। वस्तुएँ भगवान् की हो कर हमारे पास ही रहेंगी।
७२—जो विषय, जो पदार्थ अभी जलाते हैं, वे ही भगवान् के बना दिये जाने पर, उनमें से आसक्ति निकल जाने पर सुख देने वाले हो जायँगे। उनमें ममता और आसक्ति ही हमें जलाती हैं।
७३—भगवत्प्रेम प्राप्त होने पर मनुष्य जहाँ भी रहे, सुखी ही रहता है।
७४—प्रेमी का अपना कुछ रहता नहीं, सब भगवान् का हो जाता है। पुत्र, धन, प्रतिष्ठा ज्यों-के-त्यों रहते हैं, कहीं चले नहीं जाते; पर ममता का स्थान बदल जाता है। समस्त जगत् से ममता निकल कर एक स्थान में—केवल भगवान् में जाकर ठहर जाती है।
७५—प्रेमी की दृष्टि में सब कुछ प्रेमास्पद ही हो जाता है, उसकी दृष्टि जहाँ जाती है, उसे प्रेमास्पद ही दीखते हैं।
७६—प्रेमी के लिये सदा-सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है।
७७—जहाँ 'स्व' भगवान् में जाकर मिला कि प्रेमी बन गये।
७८—यह नियम है—जहाँ प्रेम रहता है, वहाँ सुख है ही तथा जहाँ द्वेष है, वहाँ दुःख रहेगा ही।
७९—प्रेमी के लिये वैर का स्थान, वैर का कोई पात्र रहता ही नहीं।
अब हौं कासों बैर करौं।
कहत, पुकारत प्रभु निज मुख ते, हौं घट-घट बिहरौं॥
उसके मन की ऐसी दशा हो जाती है।
८०—प्रेम का उत्तरोत्तर विकास होना ही मनुष्य की वास्तविक उन्नति है।
८१—आज जगत् में 'स्व' इतना संकुचित हो गया है कि प्रायः 'परिवार' का अर्थ किया जाता है हम और हमारी स्त्री। इससे ठीक विपरीत, भारत वर्ष के ऋषियों का सिद्धान्त तो अत्यन्त विशाल है — 'वसुधैव कुटुम्बकम्।' स्वयं भगवान् 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' इस प्रकार का अनुभव करने की प्रेरणा करते हैं।
८२—भगवत्प्रेम के लिये साधना करनी चाहिये—जैसे भी हो, इसकी उपलब्धि करनी चाहिये।
८३—जिस दिन मनुष्य सब भूतों में भगवान् को तथा सब भूतों को भगवान् में स्थित देख लेता है, फिर भय-संकोच सब नष्ट हो जाते हैं। उसके लिये केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है।
८४—प्रेम की महिमा अद्भुत है। इतने बड़े भगवान् इतने छोटे हो जाते हैं कि बच्चों में आकर बच्चे बन कर खेलते हैं। एक बार खेल हो रहा था; खेल की यह शर्त थी कि जो हारे, वह घोड़ा बने। भगवान् हारे तथा घोड़ा बने—
उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः।
वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम्॥
( श्रीमद्भा० १० । १८ । २४ )
८५—भगवान् प्रेम के वश हो कर क्या नहीं करते—सब कुछ करते हैं।
८६—विश्वम्भर हो कर भगवान् माँ से कहते हैं कि 'हमें भूख लगी है, दूध पिलाओ!' यह है प्रेम की महिमा।
८७—जिस प्रेम में भगवान् मित्र, पुत्र, पति बनकर खेलने लग जाते हैं, उस प्रेम के सामने मोक्ष क्या वस्तु है?
८८—भगवत्प्रेम बहुत ऊँची वस्तु है, पर कम-से-कम इसकी प्राप्ति की इच्छा तो होनी चाहिये। इच्छा होगी तो इसके लिये प्रयत्न भी होगा।
८९—भगवत्प्रेम की बात सुन कर मनुष्य डरने लगता है कि कहीं सब कुछ चला न जाय। होता भी यही है, अपना प्रेम दान करने के पहले भगवान् और सबसे प्रेम हटा देना चाहते हैं; इसीलिये लोग डर जाते हैं। एक गुजराती कवि ने कहा है—
प्रेम पंथ पावकनी ज्वाळा भाळी पाछा भागे जोने।
माँहि पड़्या ते महारस माणे देखनारा दाझे जोने॥
—प्रेम का मार्ग धधकती हुई आग की ज्वाला है, इसे देख कर ही लोग वापस भाग जाते हैं; परंतु जो उस में कूद पड़ते हैं, वे महान् आनन्द का उपभोग करते हैं। देखने वाले जलते हैं।
९०—वह प्रेम प्रेम नहीं है, जिसका आधार किसी इन्द्रिय का विषय है।
९१—नियमों के सारे बन्धनों का अनायास आप-से-आप टूट जाना ही प्रेम का एकमात्र नियम है।
९२—जब तक नियम जान-बूझ कर तोड़े जाते हैं, तब तक प्रेम नहीं है, कोई-न-कोई आसक्ति हम से वैसा करवा रही है । प्रेम में नियम तोड़ने नहीं पड़ते, परंतु उनका बन्धन आप-से-आप टूट जाता है।
९३—प्रेम में एक विलक्षण मत्तता होती है, जो नियमों की ओर देखना नहीं जानती।
९४—प्रेम में भी सुख की खोज होती है; परंतु उस में विशेषता यही है कि वहाँ प्रेमास्पद का सुख ही अपना सुख माना जाता है।
९५—प्रेमास्पद के सुखी होने में यदि प्रेमी को भयानक नरक यन्त्रणा भोगनी पड़े तो उसमें भी उसे सुख ही मिलता है; क्योंकि वह अपने अस्तित्व को प्रेमास्पद के अस्तित्व में विलीन कर चुका है।
९६—अपना सुख चाहने वाली तो वेश्या हुआ करती है, जिसके प्रेम का कोई मूल्य नहीं। पतिव्रता तो अपना सर्वस्व दे कर भी पति के सुख में ही सुखी रहती है; क्योंकि वह वास्तव में एक पति के सिवा अन्य किसी पदार्थ को 'अपना' नहीं जानती।
९७—प्रेमास्पद यदि प्रेमी के सामने ही उसकी सर्वथा अवज्ञा कर के किसी नवीन आगन्तुक से प्रेमालाप करे तो इस से प्रेमी को क्षोभ नहीं होता, उसे तो सुख ही होता है; क्योंकि उस समय उसके प्रेमास्पद को सुख हो रहा है।
९८—जो वियोग-वेदना, अपमान-अत्याचार और भय-भर्त्सना आदि सब को सहन करने पर भी सुखी रह सकता है, वही प्रेम के पाठ का अधिकारी है।
९९—प्रेम वाणी का विषय नहीं; जहाँ लोक-परलोक के अर्पण की तैयारी होती है, वहीं प्रेम का दर्शन हो सकता है।
१००—प्रेम के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं; सारा जीवन केवल प्रतीक्षा में बिताना पड़े, तब भी क्षोभ करने का अधिकार नहीं।
१०१—प्रेम खिलौना नहीं है, परंतु धधकती हुई आग है। जो सब कुछ भुला कर उसमें कूद पड़ता है, वही उसे पा कर कृतार्थ होता है।
१०२—प्रेम का आकार असीम है; जहाँ संकोच या सीमा है, वहाँ प्रेम को स्थान नहीं।
१०३—प्रेम प्रेम के लिये ही किया जाता है और इसकी साधना में बिना विराम के नित्य नया उत्साह बढ़ता है।
१०४—प्रेम अनिर्वचनीय है, प्रेम का स्वरूप केवल प्रेमियों की हृदय गुफाओं में ही छिपा रहता है। जो बाहर आता है, वह तो उसका कृत्रिम स्वरूप होता है।
१०५—जिस प्रेम में भोग-सुख की इच्छा है, संयम का अभाव है, कर्तव्य विमुख हो कर केवल पास रहने या देखते रहने की ही चेष्टा है, थोड़ा भी मानसिक विकार है, स्वार्थ-साधन का प्रयास है और परस्पर पवित्रता बढ़ाने की जगह इन्द्रिय-तृप्ति की सुविधा खोजी जा रही है, वह प्रेम कदापि पवित्र नहीं हो सकता। प्रेम का प्रधान स्वरूप है—निज-सुख की इच्छा का सर्वथा त्याग। भोग प्रधान पाशविक इन्द्रिय-सुख का प्रयास तो पवित्र प्रेम के नाम को कलंकित करने वाला पाप है। प्रेम सदा देता ही रहता है, तनिक भी बदला नहीं चाहता। वस्तुतः जिस प्रेम के आधार भगवान् नहीं हैं, वह यथार्थ प्रेम नहीं है। प्रेम सदा स्वार्थशून्य है, इन्द्रिय विकार रहित पवित्र है, भोगेच्छा के लिये उस में स्थान नहीं। आज के मनुष्य ने तो मोह को ही प्रेम का नाम दे रखा है और इसी का फल है महान् मानसिक अशान्ति और दारुण दुःख भोग।
१०६—बाहरी ज्ञान बना रहने की स्थिति में प्रेमी भक्त अपने प्रियतम के प्रति अनन्यभाव रखता हुआ उसके प्रतिकूल कार्यों से सर्वथा उदासीन रहता है। प्रेमी भक्त के द्वारा होने वाली प्रत्येक चेष्टा अपने प्रियतम के अनुकूल होती है और अनन्य भाव से उसी की सेवा के लिये होती है। प्रतिकूल चेष्टा तो उसके द्वारा वैसे ही नहीं होती, जैसे सूर्य के द्वारा कहीं अँधेरा नहीं होता या अमृत के द्वारा मृत्यु नहीं हो सकती।
१०७—प्रेम के मार्ग में क्रिया का विरोध नहीं है, अपितु उस में क्रिया और भी सुन्दर ढंग से होती है। हमारी क्रिया से प्रेमास्पद को सुख पहुँचता है—इस भाव से तो क्रिया में और भी रस, माधुर्य, सौन्दर्य, उत्साह और भाव बढ़ जाता है।
१०८—अलग-अलग भावों से और अलग-अलग प्रयोजनों से हम बहुतों-से प्रेम करते हैं; किंतु अपने प्रति जो प्रेम होता है, उस में प्रयोजन का अन्तर नहीं, भाव का अन्तर नहीं। श्रीकृष्ण आत्मा-के-आत्मा हैं। अतः उन में जो प्रेम होता है, उस में न तो स्वतन्त्र भाव है, न तो स्वतन्त्र प्रयोजन।
१०९—जो श्रीकृष्ण से प्रेम करते हैं, उनका जो जगत् से प्रेम होता है, वह श्रीकृष्ण को लेकर ही। यह नियम है—आत्म सम्बन्ध शून्य प्रेम कहीं नहीं होता। श्रीकृष्ण आत्मा-के-आत्मा हैं। अतएव जो श्रीकृष्ण के प्रेमी हैं, वे यदि दूसरों से प्रेम करते हैं तो श्रीकृष्ण को लेकर ही।
११०—जगत् में जितना प्रेम है, वह न चिरस्थायी है, न एक समान है और न एक में है, पर भगवान् का प्रेम चिरस्थायी, एक समान तथा एक में है। श्रीकृष्ण में जिस का एक बार प्रेम हो गया, वह एक में हो गया, स्थायी हो गया तथा एक-सा हो गया। फिर वह श्रीकृष्ण को छोड़ कर अथवा अलग किसी प्रयोजन से किसी से प्रेम नहीं करता।
१११—भगवान् को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है—तीव्र व्याकुलता। उनके लिये हमारे प्राण जितना ही अधिक करुण-क्रन्दन करेंगे, उतना ही वे हमारे समीप आयेंगे।
११२—हमारा काम है, एकमात्र कर्तव्य है—व्याकुल हृदय से नित्य उनका स्मरण करना, उन्हें पुकारना।
११३—सच मुच जिनका मन श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्यग्र हो जाता है, जो श्रीकृष्ण को पाने के लिये पागल हो जाते हैं और उनकी ओर दौड़ पड़ते हैं, जिनमें श्रीकृष्ण प्राप्ति की लालसा आत्यन्तिक रूप से जाग्रत् हो जाती है, वे पथ-अपथ क्या देखते हैं? वे कब हिसाब लगाते हैं कि इस रास्ते में कितना क्लेश है? उनको कौन रोक सकता है? उनकी उद्दामगति में कौन बाधक हो सकता है? उनको कोई दुःख रोक नहीं सकता। दुःख उनके ध्यान में आता ही नहीं; स्त्री-पुत्र, धन-मान, कीर्ति आदि की लालसा उनको मोहित नहीं कर सकती। हजारों, लाखों दुःखों को भी वे दुःख नहीं मानते।
११४—प्रेम होना चाहिये; जिस वस्तु में प्रेम होता है, उसके सेवन में नींद नहीं आती, जी नहीं ऊबता। ××× भगवान् की सेवा का समय उपस्थित होने पर प्रेमी के सामने जितने भी प्रतिबन्ध हों, वे अपने-आप हट जाते हैं।
११५—अन्यान्य साधनों द्वारा भगवान् अन्यान्य रूपों में प्राप्त होते हैं, परंतु प्रेम के द्वारा तो वे 'प्रियतम' रूप में मिलते हैं। यह प्रेम ही चरम या पञ्चम पुरुषार्थ है, जिसमें मोक्ष का भी संन्यास हो जाता है। यही जीवन का परम फल है।
११६—माधुर्य-भाव के उपासक को लौकिक विषय-सुख और सुविधाओं से परम विरक्त हो कर ही प्रिया-प्रियतम के चरणों में परम अनुरक्त होना चाहिये। उनके विरह में रोना, उन्हीं को आर्तभाव से पुकारना उनकी प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है। अपना जीवन, अपना सर्वस्व उन पर निछावर कर के उन्हीं का हो कर रहना और उन्हीं के लिये जीवन धारण करना चाहिये।
✍🏻 श्रीजी मंजरीदास
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