“चरन धरत प्यारी जहाँ , लाल धरत तहँ नैंन”
ये विलक्षणता और जगह नही मिलेगी ।
मेरी प्यारी को कंटक न चुभें इसलिये लाल जू अपने पलकों की बुहारी बनाकर उस कुँज को बुहार डालते हैं ।
( इसके बाद पागल बाबा मौन हो जाते हैं और “राधा राधा” की मधुर ध्वनि सुनाई देती है जो गौरांगी गा रही थी )
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ये सब लिखते हुए मन में डर भी लग रहा था कि ....इस उच्चतम प्रेम रस को मुझे लिखना चाहिए या नही ? मन में आया कि वैसे भी लोग आज कल रासलीला को ही नही पचा पाते ...फिर ये तो दिव्य श्रीवृन्दावन की नित्य लीला रस है ....इसको लोगों ने नही समझा और गलत अर्थ लगा लिया तो ? मन में ये भी आया ...मैं लिख दूँ ..कि “जो साधक नही हैं वो इसे न पढ़ें” फिर मन में आया कि साधक तो सभी अपने को मानते हैं ....तब मुझे श्रीहित चौरासी का ये पद स्मरण आया .........
( जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसित श्यामा , कीरति विसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर , विस्व दुरित दवनी ।
आहा ! श्री हित हरिवंश जू कहते हैं - मेरे द्वारा गाये हुए श्यामा जू की कीर्ति जो पवित्र है और इससे भी अत्यधिक है ...इसका जो गान करेगा जो सुनेगा उसे परम सुख की प्राप्ति होगी ..और जो इन ( चौरासी ) के पद को जन जन में फैलायेगा उससे विश्व का पाप ताप समाप्त हो जाएगा ।
ये स्मरण में आते ही मुझे आनन्द आगया था ....कि इससे मंगल ही होगा ...व्यक्तिगत सुख की प्राप्ति होगी और विश्व का पाप ताप कम होगा । है ना प्रेम में ताक़त ? तो मेरे साधकों ! ये मैंने “राधाबाग में-श्रीहित चौरासी” आज से प्रारम्भ किया है ....दो तीन दिन और भूमिका में समय लूँगा ....फिर श्रीहित चौरासी के एक एक पद और उसकी व्याख्या । बड़ा रस आयेगा ....आप अवश्य पढ़िएगा ....इससे आपका मंगल ही मंगल होगा ।
आगे की चर्चा अब कल -
✍️हरि शरण जी महाराज
हरि शरणम् गाछामि
🙏श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
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