आज के विचार
!! परम वियोगिनी श्रीविष्णुप्रिया !!
( भूमिका )
21, 3, 2023
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“ये काठ के टुकड़े किस काम के तुम्हारे” ? श्रीगौरांग ने अपनी पत्नी विष्णु प्रिया से पूछा ।
“तारक , तुम्हारे पद चिन्ह बने इनमें , पोत बन पार कर देंगे यही मुझको“ ।
श्रीगौरांग के द्वारा प्रदत्त पादुका सिर में रख लिया श्रीविष्णुप्रिया ने ......नवद्वीप की प्रजा रो उठी .......पर जय घोष आज श्रीगौरांग का नही श्रीविष्णु प्रिया का हो रहा था ....त्याग श्रीगौरांग ने किया ? सन्यास श्रीगौरांग ने लिया ? नही .....सच्ची तपश्विनी तो श्रीविष्णु प्रिया है .....वो चल पड़ी थी अपने घर ......सिर में अपने प्राण सर्वस्व श्रीगौरांग की चरण पादुका रखे ।
“भूल हुई विष्णुप्रिये! मुझे माफ़ करो”.......पीछे से श्रीगौरांग बोले थे ।
नही प्रभु ! आप से भूल ? प्रभु से भूल कहाँ !
“तुम श्रीकृष्ण जपो” .......श्रीगौरांग बोले ।
हिलकियाँ फूट पड़ीं श्रीविष्णुप्रिया की .....नेत्रों से गंगा की धारा बह चली ....इतनी कृपणता अच्छी नही प्रभु ! श्रीकृष्ण ही क्यों ? आपको न जपूँ ? आपका नाम न जपूँ ? क्या ये अधिकार भी छीन लोगे ? बोलो - श्रीविष्णु प्रिया की ..जय जय जय ...सारे नवद्वीप के लोग बोल उठे थे । श्रीगौरांग कुछ न बोल पाये । क्या बोलते ....पर श्रीविष्णु प्रिया चल दीं .....क्या करतीं । श्रीगौरांग ने तो सब कुछ त्याग ही दिया है ...अपना आधा अंग भी .....ये आधा अंग ही तो थीं ।
घर आकर श्रीविष्णु प्रिया ने एक चौकी सजाई ....उसमें उन पादुका को पूर्ण श्रद्धा से रखा ...रेशमी धोती जो श्रीगौरांग धारण करते थे उसी से पादुका को ढँक दिया ....और नेत्र बन्दकर के ध्यानस्थ हो गयीं .....ये हैं श्रीविष्णुप्रिया । श्रीगौरांग महाप्रभु की अर्धांगिनी ।
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आप ही हैं “श्रीराधाचरितामृतम्” के लेखक ?
मैं दो महीने पूर्व ही श्रीनीलांचल धाम गया था ....वहाँ विशेष मैं “गंभीरा” गया ...जहां श्रीगौरांग महाप्रभु रहे थे ....अठारह वर्ष तक रहे ...यानि अन्तिम लीला यहीं की श्रीगौरांग महाप्रभु ने......
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मैं वहाँ जाकर बैठा ....आँखें बन्द हो गयीं ...भाव हृदय में हिलोरें लेने लगा । आहा ! यहीं मेरे श्रीगौरांग महाप्रभु रहे थे .....यहीं ! यहाँ की भूमि भी उनके अश्रुओं से सिंचित होगी !
तभी .....मुझ से एक साधु ने प्रश्न किया ......मैंने आँखें खोलीं ....उन्हें प्रणाम किया वो साधु युवा थे और बंग प्रदेश के थे । मैंने कहा ...हाँ ...पर आप ने कहा पढ़ी श्रीराधाचरितामृतम्? मैंने पूछा ...तो उन्होंने कहा ...मैं बरसाने के श्रीविनोद बाबा जी का शिष्य हूँ ....वो अभी यहाँ आये भी थे ....उनके एक शिष्य के पास श्रीराधाचरितामृतम् ग्रन्थ था .....आदि आदि । मैंने उन्हें प्रणाम किया ....वो मेरे विषय में कुछ ज़्यादा प्रशंसा कर रहे थे .....मैंने उनसे पूछा ....यहाँ के बारे में कुछ बताइये ! गंभीरा तो दिव्य भूमि है ....यहाँ महाप्रभु जी रहे थे ....अठारह वर्ष तक अन्तिम उनकी यहीं लीला थी ....माता श्रीशचि देवि और श्रीविष्णु प्रिया जी के साथ यहीं अन्तिम मिलन हुआ था । श्री विष्णु प्रिया जी ? मुझे रोमांच हुआ । वो बाबा मुझे बोले ....आप श्रीविष्णु प्रिया जी के ऊपर कुछ लिखिये ! मैं कुछ कहता उससे पहले ही उन्होंने मुझे श्रीमैथिली शरण गुप्त जी के द्वारा लिखित “विष्णुप्रिया” नामकी एक लघुपुस्तिका दे दी ....मुझे आनन्द आया ...ओह ! परम श्रीराम भक्त मैथिली शरण गुप्त जी ने श्रीविष्णु प्रिया जी पर लिखा है ? मैं पन्ने पलटने लगा ...मुझे ग्रन्थ आदि का व्यसन है ....फिर भक्ति ग्रन्थ तो मेरे प्राण ही हैं । मैं बिना पढ़े रह नही सकता ।
वहीं मैंने गुप्त जी के द्वारा लिखित “विष्णुप्रिया” को पढ़ डाला .....मेरे नेत्र बरस रहे थे ......मैंने उन महात्मा जी को प्रणाम किया और भाव के अश्रु नेत्रों में भरकर श्रीजगन्नाथ भगवान के सन्मुख उपस्थित हो गया था ।
पर श्रीविष्णुप्रिया जी ....ओह ! उनका त्याग ! उनका विरह !
हरि जी ! आधुनिक लेखकों ने सिद्धार्थ पत्नी श्रीयशोधरा पर खूब लिखा .....सबने अपनी लेखनी तोड़ी कि कितना त्याग , कितना बलिदान .....पर श्रीविष्णुप्रिया ?
गौरांगी से बात हुई तो वो भी यही बोली .....हरि जी ! लिखा गया है ...बंगाली विद्वानों-सन्तों ने लिखा है ....पर आप लिखिये ....मैंने हंसते हुये कहा - मैं लिखूँगा ? हाँ , वो श्रीचैतन्य की आद्याशक्ति श्रीविष्णुप्रिया लिखावें तो लिख लेंगे । गौरांगी को यही उत्तर दिया था मैंने । शाश्वत भी बोलने लगा ....कि श्रीविष्णुप्रिया जी पर लिखो ।
साधकों ! कल दिल्ली से भागवत कथा करके आया ....तो वहाँ के साधक बड़े याद आये ....स्थिति अच्छी थी उन सबकी ....अत्यन्त भावुक थे .....श्रीधाम आया तो वहाँ की भावुकता मेरे हृदय में थी ही .....सोचा ....क्या लिखूँ ? तो तुरन्त श्रीविष्णुप्रिया जी स्मरण में आईं । चित्त में टटोला तो श्रीविष्णु प्रिया जी हीं .....बस नेत्र बह चले .....ओह !
तो अब कल से श्रीविष्णुप्रिया जी के चरित्र का गान होगा .......
शेष कल -
✍️हरि शरण जी महाराज
🙏श्री जी मंजरी दास ( श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी- श्रीविष्णुप्रिया !!
( प्रथमोध्याय: )
22, 3, 2023
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इन दिनों माँ शचि देवि गंगा किनारे आकर बैठी रहती हैं ....उनका प्यारा लाला, नवद्वीप का दुलारा पण्डित निमाई , निमाई के लिये एक वधू चाहिये । गंगा किनारे बालिकाएँ आती हैं यहीं शायद कोई निमाई के लिए मिल जाये .....माता तो जन्म से ही बहू के स्वप्न देखती रहती है ...स्वप्न तो माता शचि देवि ने भी देखे थे ....”लक्ष्मी” नामक सुन्दर कन्या से निमाई का विवाह भी हुआ था ....पर वो असमय ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं ।
बहन ! निमाई की इच्छा है या नही ये तो मुझे पता नही ...पर वो मेरी बात नही टालेगा....और ये मेरा कर्तव्य है कि मैं उसका दूसरा विवाह करवाऊँ । गंगा घाट में अन्य माताएँ भी जल भरने आती हैं ...उन्हीं को अपने हृदय की बात कह देती हैं माता शचि । मैं नही चाहती कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र विश्वरूप की तरह ये भी सन्यासी हो जाये । ना , मैं नही होने दूँगी निमाई को सन्यासी ।
पर तुम्हारी बहु लक्ष्मी भी बहुत अच्छी थी ....हुआ क्या था ? लक्ष्मी की मृत्यु कैसे हुई? अन्य महिलायें माता शचिदेवि से पूछती हैं । “सर्प दंश” ...माता शचि ने ये कहते हुये साड़ी के पल्लू से अपने अश्रु पोंछे । अब देखो ना , सुन्दर है निमाई ..विद्वान भी है ...और उसमें वाक्चातुरी भी है ...मुझे तो डर लगता है कहीं कोई बाबा जी इसे मूँड़ ना दे । संस्कार सन्यासी के ही हैं ना ! जब इसने होश सम्भाला तभी देखा कि इसके बडे भाई विश्वरूप ने सन्यास ले लिया है ....उसके बाद ही तो निमाई के पिता जी भी स्वर्ग सिधार गये थे । ये सब इसने देखा है ....मुझे कल ही कह रहा था - माँ ! तुम बेकार में परेशान हो रही हो .....मैं सन्यास ले लूँगा ....मैं रोने लगी ...फिर मेरा ख़्याल कौन रखेगा ? तो कहने लगा अच्छा तू रो मत ....देख ले ...तुझे जो लड़की पसन्द आये बोल देना ....पर रो मत ....इतना कहकर मुझे गले लगाता हुआ चला गया ।
अरी शचि देवि ! ये लड़की कैसी है ? देख तो !
शचि देवि ने अपनी सहेलियों द्वारा कहने पर जब देखा .....तो देखती रह गयीं ।
अरी ! ये लड़की मुझे क्यों याद नही रही । कपोल में हाथ रखकर शचि देवि उस बालिका को देखती रहीं .....सुन्दर , अत्यन्त सुन्दर । गौर वर्णी ....मुखारविंद में मुस्कुराहट .....अंग की छटा अद्भुत ...है तो अभी ग्यारह वर्ष की ही ...पर देह में से सौन्दर्य राशि बिखर रही है ...अनुपम ।
गंगा स्नान का इसे बहुत व्यसन है .....अरी व्यसन तो अपने निमाई को भी है । ये घण्टों गंगा स्नान करती रहती है .....अपना निमाई भी तो घण्टों गंगा नहाता रहता है । नहा ली है वो , कपड़े भी धो लिये हैं ....साड़ी कितनी सुन्दर ढंग से बाँध ली है उसने .....सीढ़ियों से चढ़कर .....शचिदेवि के पास आयी ....और पैर छूए ।
शचिदेवि गदगद हो गयीं ...”अच्छा दूल्हा मिले” ...सिर में हाथ रख कर बोल दिया । शरमा गयी वो कन्या । पर बगल में आकर खड़ी रही .....शचिदेवि उसके गालों को छूती हैं .....सिर में हाथ फेरती हैं ।
क्या नाम है तुम्हारा ? बड़े प्यार से पूछा था ।
विष्णुप्रिया । कन्या ने सिर झुका कर ही उत्तर दिया ।
तुम किसकी पुत्री हो ? श्रीसनातन मिश्र जी की ...बालिका ने उत्तर दिया था ।
तभी ...”शचि देवि ! ये आपकी ही पुत्री है” ....पीछे से आवाज आयी । मुड़कर देखा तो महामाया मिश्र पीछे आरही थीं । ये मेरी माँ हैं ...विष्णुप्रिया ने संकेत से बताया । अरी महामाया ! इतनी सुन्दर तेरी पुत्री है ....बड़ी प्यारी है ....आज मैंने देखा तो पूछ बैठी । शचिदेवि ने विष्णुप्रिया की माता जी से और भी बातें कीं ।
और सनातन मिश्र जी स्वस्थ हैं ?
चल ना , मेरे घर चल । महामाया मिश्र को आग्रह करने लगीं शचि देवि ....महामाया मिश्र भी मान गयीं ....और विष्णुप्रिया को साथ में लेकर वो चल दीं । मेरा घर पास में ही है ....हाँ , एक बार हम आये हैं .....आपके पुत्र निमाई के विवाह में । महामाया मिश्र ने जब ये कहा तब शचि देवि का मुख कुम्हला गया । आपकी बहू तो ...हाँ , निर्दयी काल ने हमसे छीन लिया । सजल नेत्रों से शचि देवि ने कहा ।
तभी -
अत्यन्त सुन्दर , स्वरूपवान , गौरवर्ण , धोती पहने ...लांगदार धोती ...उसका छोर गले में लपेटे हुये ......माँ ! मैंने भात खा लिया है ...मैं जा रहा हूँ । पर कहाँ जा रहा है ? माता शचि ने निमाई से पूछा । और देख पुत्र , ये हैं श्रीसनातन मिश्र जी की धर्मपत्नी ....महामाया देवि । निमाई ने तुरन्त प्रणाम किया । और ये इनकी पुत्री विष्णुप्रिया । निमाई ने विष्णुप्रिया को देखा ...फिर बोले ...ये तो हमें गंगा घाट पर नित्य मिलती हैं । हैं ना ? बालिका विष्णुप्रिया ने जब ये सुना तो शरमाकर वो धरती में गढ़ी जा रही थीं । अच्छा माँ ! मैं गया ....और निमाई आँधी की तरह चले गये ।
शचि देवि ! क्या सोचा है निमाई के विषय में ! क्या सोचना , कोई सुन्दर कन्या मिल जाये तो विवाह करा दूँगी । कोई तुम्हारे नज़र में हो तो बताना शचि देवि ने ये भी कह दिया । क्यों की “विष्णुप्रिया दो” ये कहने की हिम्मत नही हुई । ग्यारह वर्ष की विष्णुप्रिया और बीस वर्ष के निमाई । फिर दूसरा विवाह और है ....प्रथम भी नही । भूजा आदि खिलाकर शचि देवि ने दोनों को विदा किया ......फिर आने की बात कहकर महामाया देवि ने भी अपनी पुत्री के साथ शचि देवि के घर से विदाई ली ।
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श्री सनातन मिश्र , नवद्वीप निवासी थे ...वैसे इनके पूर्वज मिथिला से यहाँ आकर बसे थे ...परम विद्वान ...परम नैयायिक ...श्रीसनातन मिश्र जी के विद्वत्ता के कारण सब इनको राजगुरु कहते थे ।
इनके एक छोटे भाई थे ...कालिदास । जिन्हें ये पुत्रवत स्नेह करते थे ...इनका विवाह भी श्रीसनातन जी ने बड़े उत्साह के साथ करवाया था ....पर भगवान की इच्छा के आगे जीव की क्या चले ! कालिदास विवाह के उपरान्त ही स्वर्गवासी हो गये । इनकी पत्नी की आयु बहुत कम थी विधुमुखी नाम था उनका ...श्रीसनातन मिश्र जी की पत्नी ने इन्हें बड़े लाड़ प्यार से पाला ।
श्रीसनातन मिश्र जी की धर्मपत्नी महामाया देवि अत्यन्त उदार थीं ....अतिथि कोई भी आता उनका आदर करना इनका स्वभाव था । श्रीसनातन मिश्र जी भगवान श्रीविष्णु के परम उपासक थे ...सदैव - नारायण , नारायण नारायण .....यही उनके मुख से निकलता रहता । भगवान नारायण की भक्ति करते हुये इन्हें वर्षों हो गये थे ....निष्काम भक्ति थी इनकी ....एक बार स्वप्न में भगवान नारायण ने प्रकट होकर इनसे पूछा था ...हे विप्र श्रेष्ठ ! कोई कामना हो तो बोलो ...मैं आपकी हर इच्छा को पूर्ण करूँगा । इन्होंने गदगद कण्ठ से कहा था ....जैसे भक्तराज श्रीप्रह्लाद ने नरसिंह प्रभु से माँगा कि - मेरी कामना को ही नष्ट कर दो ...तो नाथ ! मुझे भी निष्काम बना दो । श्रीसनातन मिश्र जी के मुख से ये सुनकर भगवान नारायण प्रसन्नतापूर्वक बोले ...फिर तो मेरी आद्यशक्ति लक्ष्मी ही पुत्री बनकर तुम्हारे यहाँ जायेंगी । क्यों की पुत्र वाले सकाम होते हैं ..पर पुत्री वाले निष्काम होते हैं ....हे सनातन मिश्र जी ! आपके यहाँ मेरी आल्हादिनी लक्ष्मी ही आपकी पुत्री बनकर प्रकट होने वाली हैं ।
ये स्वप्न था श्रीसनातन मिश्र जी का । उठे तो विचार करने लगे ....ब्रह्ममुहूर्त का स्वप्न है ...गणना की तो समझ गये कि ये स्वप्न मिथ्या तो नही है । फिर भगवान श्रीनारायण कहाँ हैं ?
क्यों की लक्ष्मी आयेंगी तो भगवान नारायण का भी तो अवतार हो गया होगा ।
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हरि बोल ! कदम्ब वृक्ष से कूदा है निमाई ।
अरे , ये क्या किया तूने , सारे कपड़े भिंगो दिये । गंगा घाट में स्नान कर रहीं सारी महिलायें क्रोध से भर गयी थीं । तेरी माता शचि से कहना पड़ेगा तभी तू मानेगा । इतनी सुबह ही कैसे जाग जाता है तू ? अब मत कूदना । नही तो श्रीसनातन मिश्र जी तुझे मारेंगे ।
सनातन मिश्र जी आगये थे गंगा स्नान करने । निमाई दूसरी बार चढ़ा है कदम्ब में ...पर कूद नही रहा ...सीधे श्रीसनातन मिश्र जी के ऊपर है .....महिलायें बोल रही हैं - मिश्र जी ! सावधान ! कहीं तुम्हारे ऊपर न गिर जाये ये निमाई । श्रीसनातन मिश्र जी ने हंसते हुये जैसे ही ऊपर देखा ......सात वर्ष के निमाई ...अपने छोटे छोटे चरणों को हिला रहे हैं ....और श्रीसनातन मिश्र जी की ओर देख रहे हैं । श्रीमिश्र जी ने ऊपर देखा फिर गंगा में जैसे ही प्रवेश करने लगे .....चौंक गये ...उन्होंने कुछ देख लिया था ...फिर जब ऊपर दृष्टि की ....जो चरण निमाई ने लटकाये थे ....उनके चरण चिन्हों में ......चक्र शंख गदा कमल मीन यव त्रिकोण आदि ...भावुक होकर मिश्र जी दर्शन कर ही रहे थे कि ...निमाई गंगा में कूदा ।
मिश्र जी को रोमांच हुआ ...भगवान नारायण ने जो स्वप्न में कहा था वो स्मरण हो आया ...उन्होंने सोचा ये चरणचिन्ह तो मात्र नारायण भगवान के ही होते हैं ....पर ...अपना ही मतिभ्रम समझ कर इस बात को ये भूल गये ....क्यों की किनारे अपने मित्रों से लड़ पड़ा था निमाई ।
समय बीतता गया - आठ मास बाद ही ....महामाया देवि ने एक बालिका को जन्म दिया ।कहते हैं जब इस कन्या ने जन्म लिया था तब नवद्वीप में चारों ओर मंगल वर्षा बरसी थी । उत्सव नही महामहोत्सव मनाया गया था श्रीसनातन मिश्र जी के आँगन में । जो प्रकृति निमाई के जन्म पर आह्लादित थी आज भी वैसी ही प्रसन्नता प्रकृति में सब अनुभव कर रहे थे ।
शेष कल -
✍️हरि शरण जी महाराज
🙏श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
भाग ३
आज के विचार
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!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्वितीयोध्याय: )
23, 3, 2023
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गतांक से आगे -
आठ वर्ष के निमाई अपनी चंचलता से पूरे नवद्वीप का मन मोह रहे थे ....लोग इनके ऊधम से क्षुब्ध भी हो जाते पर इनका रूप लावण्य और मधुरता लोगों को आनन्द प्रदान कर जाता था ।
अरे ! ये “हरि हरि” की ध्वनि कहाँ से आरही है ? अपने साथियों से निमाई ने पूछा ।
निमाई ! क्या तुम्हें पता नही है श्रीसनातन मिश्र जी के यहाँ एक बालिका हुई है ।
आठ वर्ष के निमाई तुरन्त गंगा स्नान को छोड़कर सनातन मिश्र जी के यहाँ चल दिये ।
“हरि हरि कृष्ण , कृष्ण मुरारी “। सब लोग संकीर्तन कर रहे थे ,संकीर्तन मण्डली आयी हुई थी ।
निमाई ! तू यहाँ ? माता शचि देवि भी आयीं थीं सनातन मिश्र जी के यहाँ ....निमन्त्रण दिया था लाली हुई है इसलिये माता शचि देवि भी आगयीं थीं । पर यहाँ से जब निकलने लगीं तो सामने अपने ऊधमी मित्रों के साथ ....अपने पुत्र निमाई को देख लिया ।
निमाई ! इधर आ पुत्र ! अपने पास बुलाया ....माता के मिलने से निमाई दुखी हो गये थे .....वो बेमन से अपने मित्रों को वहीं खड़ा करके पास में गये । माँ ! मैं गंगा नहा रहा था तभी मैंने तुझे देख लिया तो इधर आगया । निमाई को यही बहाना ठीक लगा , बोल दिया ।
महामाया देवि ! ये है मेरा पुत्र निमाई ......माता शचि ने परिचय कराया ....हाथ जोड़कर प्रणाम किया निमाई ने ......दोनों माताओं के बातों की शृंखला फिर प्रारम्भ हो गयी ....तो निमाई खिसक लिये ....भीतर चले गये .....इनके मन में था - उस कन्या को देखना है ....जिसके जन्म पर इतना बड़ा उत्सव मनाया जा रहा है । बालक को रोक टोक का कोई मतलब नही होता ....कौन रोकेगा ! निमाई इधर उधर देखते हुये चले गये बालिका के पास । पालना है जिसमें ये झूल रही थीं । पास में गये ....सोने को तपाया गया हो ऐसा वर्ण था .....निमाई देखते रह गये ....फिर धीरे से उस बालिका के कान में बोले - विष्णुप्रिया ! आँखें उठाकर निमाई की ओर देखा उस नवजात ने .....फिर अपने नन्हे नन्हे हाथों को फेंका ....किलकारियाँ भरीं ....निमाई ये सब देखकर आनंदित होते रहे ....फिर धीरे से बालिका के कान में कहा - “हरि बोल ! हरि बोल” ।
मानों अपनी अनादि प्रिया को अपने आने की बात बता दी थी निमाई ने ।
वो नवजात प्रसन्नता से इतनी किलकारी भर रही थी कि माता महामाया देवि और शचि देवि दोनों दौड़ीं .....और शिशु के उन्मुक्त इस तरह किलकारी से माता डर रहीं थीं ....गोद में उठा लिया महामाया देवि ने और पुचकारने लगीं, पर निमाई अपनी शचि माता के पास चले गये थे ...किन्तु मुड़ मुड़कर वो नवजात निमाई को ही देख रही थी ...उसका देखना निमाई को आनन्द प्रदान कर रहा था ।
“विष्णुप्रिया”.....पण्डितों ने बड़े प्रेम से नामकरण संस्कार किया । सब लोगों ने इस नाम का उच्चारण किया ...और बोले - कितना सुन्दर नाम है .....वास्तव में ये विष्णु की प्रिया ही हैं ...इनके देह से कमल की सुगन्ध प्रकट हो रही है । शचिदेवि अब जब जाने लगीं .....तो जाते हुये निमाई ने ज़ोर से आवाज़ लगाई ......विष्णुप्रिया । ये आवाज़ सुनते ही नवजात शिशु ने फिर जोर से किलकारी भरी .....तभी महामाया देवि को भी ऐसा लगा कि निमाई की आवाज़ से ही ये इतनी प्रसन्न हो रही है ।
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विष्णु प्रिया धीरे धीरे बड़ी होने लगीं थीं ....पड़ोसियों के लिए प्राणस्वरूप बन गयीं थीं ये ।
सुन्दर बहुत थीं ....पड़ोसी विष्णुप्रिया को ना देखें तो इनका मन ही नही लगता था ....चार वर्ष की हुईं विष्णुप्रिया ...समय बीतने में क्या देरी लगती है ....काल भगवान तो किसी के लिए आज तक रुके नही । विष्णुप्रिया बड़ी हो गयीं ....इनकी माता जी गंगा स्नान को जातीं तो ये भी पीछे पीछे चली जातीं ....गंगा घाट इन्हें बड़ा प्रिय था ....ये स्नान करतीं ...गंगा में खूब खेलतीं ....इनकी सखियाँ बन गयीं थीं अब इनको माता जी के साथ जाने की भी आवश्यकता नही थी ...अपनी सखियों के साथ ये गंगा में चली जातीं। पर क्यों जातीं ? इसका रहस्य किसी को पता नही था । इनकी आँखें गंगा घाट में निमाई को खोजतीं ...जब निमाई इन्हें मिल जाते तब तो इनकी प्रसन्नता कोटि गुना बढ़ जाती थी ।
आज भगवान शंकर बनकर बैठे हैं निमाई ......ये कोई इनका ध्यान-योग नही है ....चंचलता की पराकाष्ठा है .....छोटी छोटी कन्यायें गंगा नहाकर पास के शिवालय में जाती हैं और लड्डू का भोग लगातीं ....आज निमाई ने लड्डू खाने की इच्छा प्रकट की ....साथियों ने कहा ...लड्डू कहाँ से मिलेगा ? निमाई ने कहा ...लड़कियाँ लेकर आती तो हैं । वो तो भगवान शंकर को चढ़ाने के लिए है । तो हम ही भगवान शंकर बनकर बैठ जायेंगे ....निमाई की बात सुनकर सब हंसे ....तब तो तुम्हारे सिर पर गंगा जल भी चढ़ेगा । हाँ तो क्या हुआ ? निमाई ने सबके सामने अपना कुर्ता उतार दिया ....और गंगा की रेत को अपने मस्तक में लगाते हुये त्रिपुण्ड बना लिया ...पूरे देह में गंगा की रेत लगा ली । सामने कदम्ब वृक्ष के कोटर पर एक सर्प रहता था ...सब डरते थे ..पर निमाई को तो डर नामकी कोई चीज लगती ही नही थी ....कोटर के भीतर हाथ डालकर सर्प निकालना ये सहज था निमाई के लिये ....इसको लेकर कई बार माता शचि देवी से ये पिटाई भी खा चुके हैं .....पर पिटाई के चलते ये अपना ऊधम कैसे छोड़ दें । सर्प भी निमाई की सुनता है ...निमाई कुछ आवाज़ ही ऐसी निकालता है कि सर्प भी अपना कोटर छोड़ देता है ।
पकड़ लिया सर्प को निमाई ने और अपने घुंघराले बंधे केशों में बाँध लिया .....नहाकर कन्यायें बाहर निकलीं ....हे बालिकाओं ! इधर देखो ....निमाई ने ध्यान की मुद्रा में बैठे बैठे ही कहा ....उन कन्याओं ने देखा ...तो कोई डर के मारे चीखी ...तो कोई भागी .....बस रह गयी अन्तिम में विष्णुप्रिया । तू रुक । निमाई ने उसे रोका । विष्णु प्रिया रुक गयी ...इधर आ ...निमाई बोले .....ये तो यन्त्रवत हो गयी है ...निमाई जो कहें इसे मानना ही है ।
आ , अपने लोटे के जल को भगवान शंकर के ऊपर चढ़ा .....पर भगवान शंकर कहाँ हैं ? विष्णुप्रिया ने धीमी आवाज में पूछा । तुम्हारे सामने बैठा तो है .....कर्पूरगौरं....निमाई की ओर देखकर विष्णुप्रिया मुसकुराईं ......हंसी मत उड़ाओ ....जल चढ़ाओ और जो प्रसाद लाई हो वो भगवान शंकर को भोग लगाओ । मुझे क्या मिलेगा ? विष्णुप्रिया ने धीरे से पूछा । तुम जैसा दूल्हा चाहोगी वैसा ही तुमको प्राप्त होगा । निमाई की बात सुनकर विष्णुप्रिया शरमा गयीं ....पर आनन्द हृदय में हिलोरें ले रहा था .....हंसी भी आरही थी विष्णुप्रिया को ....अपनी हंसी छुपाते ...अपने हृदय के आनन्द को लुकाते हुए विष्णुप्रिया ने एक लोटा जल अपने निमाई के ऊपर चढ़ा दिया । वो गौरांग , गौर अंग ....केश घुंघराले ...विष्णुप्रिया मन ही मन बोलीं ...हे नाथ ! मुझे केवल तुम चाहिये । आँखें बन्द करो ....और हाथ जोड़ो ....निमाई ने विष्णुप्रिया को कहा ...विष्णुप्रिया ने जल चढ़ा दिया था लोटा नीचे रखा और हाथ जोड़कर ....आँखें बन्द कीं ....”मुझे पति के रूप में आप ही मिलो” .....उस भोली कन्या ने निमाई को वर लिया था ।
अब निमाई उठे ....और विष्णुप्रिया के सिर में हाथ रखते हुये बोले ....जो माँगा है वही तुम्हें वर रूप में मिलेगा । शरमा गयीं विष्णुप्रिया .....निमाई बोले ....अब भोग तो लगाओ .....लड्डू निकाल कर दिये निमाई को ......निमाई लड्डू खाने लगा ....किसने बनाये लड्डू ? तुम्हारी माता जी ने ? लड्डू खाते हुए निमाई पूछ रहा है .....तभी - निमाई ! तू यहाँ क्या कर रहा है ? अद्वैताचार्य जी के यहाँ का भोग तुमने खा लिया ? वो मुझे कह रहे थे ...वो कह रहे थे भगवान को लगाया भोग खाकर निमाई भाग गया है ? रुक तू , पूरे नवद्वीप को परेशान कर रखा है । माता शचि देवि पीछे भागीं ....तो निमाई सर्प को फेंककर कुर्ता पहन भागे ....शचि देवि हाथ में छड़ी लेकर इधर उधर दौड़ रही हैं । विष्णु प्रिया अपनी साड़ी में मुँह छुपाये खूब हंस रही हैं .....उन्हें बहुत आनन्द आरहा है , फिर इधर उधर देखकर निमाई की चरण धूल अपने माथे में लगा लिया । आज से आप ही हो मेरे पति । आँखें बन्दकर के विष्णुप्रिया बोलीं थीं ।
इस समय विष्णुप्रिया की आयु चार वर्ष की ....और निमाई की ग्यारह वर्ष की थी ।
शेष कल -
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( तृतीयोध्याय: )
24, 3, 2023
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गतांक से आगे -
“माँ , माँ , मेरे लिये आज दस लड्डू देना” ।
माता महामाया देवि से विष्णुप्रिया आज दस लड्डू माँग रही थीं ।
हाँ हाँ , दे दूँगी ...पर प्रिया ! तू दस लड्डू का करेगी क्या ? माँ ! मेरी सखियाँ भी तो हैं ...उन्हें भी दूँगी प्रसाद । फिर कोई और हाथ पसारे प्रसाद के लिये तो मना करना अच्छा तो नही होगा ना ।
सखियाँ तो समझ में आईँ ....पर ये “कोई ओर” कौन है ? पाँच वर्ष की हो गयी है विष्णुप्रिया .....पर छुपाना ,शरमाना , इतराना ये सब आगया है अब विष्णुप्रिया को ।
माँ , तुम भी ना ! गोद में बैठते हुये अपनी माँ के गाल में चपत लगा दी प्रिया ने । अच्छा मुझे मत मार, ले अपने लड्डू ....और हाँ , भगवान शंकर और गणपति को ही चढ़ाना .....हंसते हुये बोली थीं महामाया देवि .....माँ ! विष्णुप्रिया गुस्सा हो रही थी ...अच्छा अच्छा गुस्सा मत हो ...जा , पर गंगा में ज़्यादा मत नहाना ...काली हो जायेगी । फिर काली विष्णु प्रिया के साथ विवाह कौन करेगा !
माँ !
पैर पटकते हुये रोनी सी सूरत बना ली ......तभी पिता सनातन मिश्र जी आगये ....मेरी प्रिया को कौन परेशान कर रहा है .......बाबा ! माँ कुछ भी बोलती है । गोद में ले लिया सनातन मिश्र जी ने अपनी लाली को । ख़बरदार जो मेरी लाली को कुछ कहा तो । मैं तो कुछ नही कह रही ...बस इतना ही बोली थी कि गंगा जी में ज़्यादा मत नहाया कर ...काली हो जायेगी । बाबा ! माँ फिर कह रही है मैं काली हो जाऊँगी ! नही होगी ...और मेरे प्रिया को भी कोई गौरांग ही मिलेगा । विष्णुप्रिया गोद से उतरी ....गौरांग .....कल निमाई के साथी उसे गौरांग भी पुकार रहे थे ।
गौर वर्णी मेरी लाली और गौरांग पति .....कितनी अच्छी जोड़ी होगी दोनों की ....सनातन मिश्र जी बोले जा रहे थे अपनी बेटी की खुशी के लिये ....पर विष्णुप्रिया शरमा गयीं ....और वो लड्डू लेकर भागी बाहर .....अरी , आराम से चल ...कहीं गिर मत जाना । माता महामाया देवि बोलती रहीं पर विष्णुप्रिया तो भाग गयी थी गंगा घाट पर ।
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आज से “कर” देना पड़ेगा ।
लो जी - लड़कों के साथ आगया नवद्वीप का छैला ....निमाई ।
किसका “कर” ? कैसा “कर” ?
गंगा घाट पर कपड़े धोती और नहाती लड़कियों ने निमाई से पूछा ।
गंगा का “कर” ...अपने घुंघराले केशों को ऊपर की ओर झटकते हुये निमाई बोला ।
अजी लो , कर लो बात ....ये शचि देवि का पुत्र हमसे गंगा घाट का कर लेगा !
क्यों नही लेंगे ! गंगा घाट में सफाई आदि का काम भी तो देखना पड़ता है ....तुम लोग तो गन्दगी फैलाकर चली जाती हो ...सफाई कौन करेगा ? निमाई आज एक छोटी सी लाठी भी लाया था ...उसे ही नचाते हुये ये बारह वर्ष का निमाई मुस्कुरा रहा था ।
विष्णुप्रिया अपनी सखियों के साथ नहा रही थी....निमाई के आते ही वो सब भूल गयी और उसी को देख सुन रही थी ।
अजी , देख लो ये है ब्राह्मण का पुत्र ....और कर्म शूद्र के .....अब घाट की सफाई ये करेगा .....ये ब्राह्मण बालक के लक्षण अच्छे नही हैं ....निमाई ! संभल जा , नही तो माता शचि देवि से तुझे पिटवायेंगी ।
सफाई में ब्राह्मण और शूद्र कहाँ से आये ? गन्दगी ब्राह्मण नही करता क्या ? फिर उसकी अपनी ही सफाई ब्राह्मण करे तो दोष क्या है ?
अच्छा अच्छा , निमाई पण्डित जी , तुम बहस में जीते और हम हारे । महिलाओं ने हंसते हुये अपने हाथ जोड़ दिये ....ये देखकर गंगा में खड़ी विष्णुप्रिया भाव विभोर हो गयीं और ताली बजाने लगीं । निमाई ने गंगा में देखा तो वही सुन्दर सी कन्या ।
अब तुम आओ ....तुम सबसे भी “कर” लिया जायेगा । निमाई ने अब कन्याओं की ओर देखा ।
हमसे काहे का “कर” ?
गंगा नहाने का “कर” । निमाई मुस्कुराते हुये अब विष्णुप्रिया को देख रहे थे ।
विष्णुप्रिया शरमाकर नीचे देख रही थीं ......निकलो बाहर .....निमाई सबको बोले ।
लड़कियाँ निकलने लगीं ...चलो , जो जो लड्डू प्रसाद लाया है अपने थैले से निकालो और हमें दो । निमाई ने सबको चेतावनी दी ...और अगर किसी ने नही दिया तो कल से गंगा स्नान बन्द ।
लड़कियाँ बाहर आकर अपने अपने थैले से लड्डू निकालकर निमाई को देने लगीं .....लड्डू लेकर निमाई खाने लगे .....ये भगवान का भोग था ....एक लड़की ने कहा । तो ये निमाई भी भगवान है ...देखो ....और जब सबने देखा तो निमाई के पीछे से दो हाथ और निकल आये थे ....चार हाथ हो गये थे निमाई के .....तभी एक महिला ने विष्णुप्रिया को संकेत किया ....प्रिया ने पीछे देखा तो एक लड़का निमाई के पीछे छुपा हुआ था उसी ने दो हाथ अपने लगा दिये थे । विष्णुप्रिया खूब हंसने लगीं ......सारी लड़कियाँ भाग गयीं ....पर विष्णुप्रिया को रोक लिया निमाई ने । तुम लड्डू नही दोगी ? विष्णुप्रिया का मुख लाल हो गया था ....वो बहुत संकोच कर रही थीं ....लड्डू नही है ? पास जाकर निमाई ने धीरे से पूछा था । है , धीरे से ही प्रिया बोली । तो दो ना , विष्णुप्रिया लड्डू लाई .....अपने थैले से । मुझे खिलाओ ....निमाई ने किसी को नही कहा था खिलाने के लिये विष्णुप्रिया को ही कहा । विष्णुप्रिया पहले तो शरमाई ....फिर इधर उधर देखा सब घाट से जा चुके थे ....धूप भी तेज हो गयी थी ....निमाई के मित्र भी अब वहाँ नही थे । विष्णुप्रिया ने लड्डू हाथ में लेकर जैसे ही खिलाना चाहा ....निमाई हंस पड़े ....हंसे जोर से थे । ये देखकर प्रिया को अच्छा नही लगा ....इन्हें लगा कि निमाई मेरी हंसी उड़ा रहे हैं ...आँखों में आँसू भर गये ....और विष्णुप्रिया फूट कर रो पड़ीं । अरे ! तुम तो रोती हो ....रोना नही ....निमाई प्रिया के कपोल में ढुरक रहे अश्रुओं को पोंछने लगे .....तुम मत रो ....तुम रोती हुई अच्छी नही लगतीं । विष्णुप्रिया ने स्वयं ही अपने आँसू पूरी तरह से पोंछ लिये थे फिर निमाई की ओर देखकर मुसकुराईं । हाँ , अब मैं तुम्हें लड्डू खिलाऊँगा ....निमाई ने लड्डू लेकर जैसे ही प्रिया की ओर किया ....नही , पहले आप ....प्रिया ने निमाई के मुख में लड्डू देना चाहा.....नही , मैंने तुम्हारा हृदय दुखाया है ...इसलिये अब तुम लड्डू खाओगी । निमाई की हर बात पसन्द है प्रिया को ....वो अब कैसे मना कर दे । निमाई खिलाते गये लड्डू , विष्णुप्रिया खाती रहीं .....उस दोपहरी में इन लीलाओं की साक्षी गंगा मैया ही थीं ।
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आज फिर दोपहरी हो गयी .....सूर्य भी चढ़ आये हैं ....चलो अब तो घर ।
आज विष्णुप्रिया और उसकी सखियाँ खूब गंगा स्नान करती रहीं थीं ....तो एक सखी बोल उठी ।
पर विष्णुप्रिया ऐसे कैसे चली जाये ...अपने प्राण निमाई से बिना मिले ! ये उन्हीं के लिए तो आती है गंगा । अब चलो भी ...मेरी मैया तो मुझे मारेगी । एक सखी गंगा जल से बाहर निकल गयी ।
प्रिया देख रही है घाट में ....निमाई आज नही आये ...ओह ! उनके बिना ये गंगा घाट भी कितना सूना लग रहा है ....मन ही मन सोचती हैं । प्रिया ! वो ऊधमी निमाई और उसकी मण्डली आज नही आई ? प्रिया कुछ नही बोलीं ...तो एक सखी और गंगा जल से बाहर निकल गयी और ये कहते हुये निकली ...कुछ भी कहो ...निमाई नवद्वीप की रौनक है ....वो आज गंगा में नही आया ....तो देख लो आनन्द ही नही आया । विष्णुप्रिया सबकी बातों को सुन रही है । बारी बारी से सब बाहर आगईं .....पर विष्णुप्रिया अभी भी गंगा में ही है । क्या हुआ ? तू नही आयेगी बाहर ? विष्णुप्रिया बोलीं ....मेरी माँ आने वाली है ...मैं उन्हीं के साथ जाऊँगी घर ...तुम सब चली जाओ ।
सखियाँ सब चली गयीं ......बेचारी विष्णुप्रिया निमाई को याद करते हुये ....गंगा में ही खेल रही है ....कभी हाथों से पानी में मारती है ...कभी ....तैरने लगती है ....पर आज मन नही लग रहा ...निमाई नही आया ना । तभी ...विष्णुप्रिया जोर से चिल्लाई और उछली ...ये तो अच्छा हुआ किसी ने सुना नही ....”मैं हूँ कच्छप भगवान”.....ताली बजाते हुए निमाई जल से बाहर आये ....प्रिया के पैर इन्होंने ही पकड़े थे , पर आपने मेरे पैर क्यों पकड़े ? प्रिया को निमाई का पैर पकड़ना अच्छा नही लगा ....स्त्री का पैर पुरुष नही पकड़ते ...धीमी और मधुर आवाज में प्रिया बोल रही थी ।
निमाई खूब हंसे ......विष्णुप्रिया उस कंदर्प समान निमाई की सुन्दरता पर मुग्ध थीं .....और विष्णुप्रिया की सुन्दरता पर निमाई । क्यों ..श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के पैर नही दबाते ? ये सुनते ही ....हंसते हुये प्रिया जल से निकल कर बाहर भागी ......अरे , रुको तो , निमाई चिल्लाते रहे ...पर विष्णुप्रिया तो अपने प्रियतम के स्पर्श से आनन्द विभोर थीं ....हाँ , एक बार ठहर अपने निमाई को अवश्य देखा - तो घुंघराले केश , गंगा में भींगे केश ...जिनसे जल टपक रहा था ...गौर वदन ....मुस्कुराहट ...आहा ! विष्णुप्रिया इस छवि को अपने हृदय में बसाये ....भागी अपने घर की ओर ।
शेष कल -
✍️श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
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आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( चतुर्थोध्याय: )
25, 3, 2023
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गतांक से आगे -
निमाई , निमाई , निमाई , “ तेरे बड़े भाई विश्वरूप घर से भाग गये “।
एक छोटा बालक जो निमाई घर के पास ही रहता था ....वही भागते हुये आया और निमाई को गंगा घाट में आकर सूचना दे दिया । गंगा घाट में जितनी महिलायें थीं और छोटी छोटी बच्चियाँ थीं ...सब दुखी हो निमाई की ओर देखने लगी थीं । विष्णुप्रिया को सबसे ज़्यादा दुःख हुआ था ....क्यों की उसका निमाई दुःख से कातर हो उठा था ।
कितना सुन्दर , कितना ज्ञानी बालक था विश्वरूप .....तुमने तो देखा ही होगा ....हाँ हाँ , पण्डित जगन्नाथ जी के साथ चलता तो था ....लम्बा , गौर वर्ण ....किसी से ज़्यादा बोलता भी नही था ....विष्णुप्रिया निमाई के ही बगल में आकर खड़ी हो गयी थी ....निमाई के सजल नेत्र इसने कभी देखे नही थे ....बस ऊधम और चंचलता ही विष्णुप्रिया ने देखी थी.....पर “बड़े भाई विश्वरूप घर से भाग गये “? अब अश्रु टपकने वाले थे निमाई के ....कि विष्णुप्रिया ने निमाई के हाथ को पकड़ लिया ....मानों वो कहना चाह रही थी ....मैं तुम्हारे दुःख में साथ हूँ । तभी विष्णुप्रिया की माता गंगा घाट पर आगयीं ....विष्णुप्रिया ने निमाई का हाथ छोड़ दिया ......माता ने विष्णुप्रिया को कहा ...अब चलो , ब्राह्मण की कन्या हो कुछ पढ़ोगी या नही ? या दिन भर गंगा में ही खेलते रहना है .....चलो , हाथ पकड़कर खींचते हुये प्रिया को उनकी माता ले गयीं थीं ....निमाई को वो देखती गयी थी .....निमाई को देखते हुये उसको रोना आरहा था ....निमाई दुखी है ये बात भी सह्य नही थी विष्णुप्रिया को । वो एक बार चिल्लाकर बोली ....”कल गंगा घाट में आऊँगी” .....माता ने पूछा ...किसको कह रही हो ...उस निमाई को ? प्रिया ने कहा ...नही ...अपनी सखी को । निमाई अब वहाँ से घर की ओर चल दिया था ।
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अद्वैताचार्य जी की पाठशाला में होनहार बालक था ये विश्वरूप ....पण्डित जगन्नाथ जी के पुत्र और निमाई के अग्रज ...बड़े भाई ...विश्वरूप । घर में निमाई पहुँचे ...सब रो रहे हैं घर में ।
दादा , दादा , दादा .....
कहते थकता नही था निमाई ....और विश्वरूप भी तो अपने अनुज निमाई को कितना प्रेम करते थे ....कल की ही तो बात है ....माता शचि देवि ने निमाई से कहा था ...जा अपने दादा विश्वरूप को बुला ला ...ये सुबह जाता है और रात्रि होने तक पढ़ता ही रहता है ....कह ...भात तैयार है ...आजाए । छोटा सा निमाई गया था अपने दादा विश्वरूप को बुलाने ....पर अद्वैताचार्य जी ने जब निमाई को देखा ....उन्हें तो साक्षात् श्रीकृष्ण ही दिखाई दिये ...नटखट कृष्ण । विश्वरूप ! ये कौन हैं ? निमाई को देखकर विश्वरूप ने उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया था ....ये मेरा छोटा भाई है ...निमाई नाम है इसका । फिर अपने अनुज को चूमते हुये विश्वरूप बोले थे ....आप ये मत सोचना कि ....ये गम्भीर बालक है ...शान्त है ...ना , गुरुदेव ! ये इतना ऊधमी है आपकी कल्पना से परे है । दादा ! माँ ने बुलाया है ... भात तैयार है ...खाने चलो । निमाई ने अपने बड़े भाई के कान में धीरे से कहा । अच्छा गुरुदेव ! मैं चलता हूँ ....माँ बुला रही है । ठीक है अभी जाओ ...पर कल विश्वरूप ! भर्तृहरि के इस श्लोक की व्याख्या लिखकर लाना ....और हाँ , मुझे पता है तुम सबसे अच्छी व्याख्या लिखोगे । जी गुरुदेव ! विश्वरूप अपने छोटे भाई निमाई को लेकर निकल गये थे ।
घर जाकर दोनों ने भात खाया था .....पर रात्रि में ऐसा क्या हुआ ?
निमाई घर पहुँचा .....सब रो रहे हैं .....माता शचिदेवि का रो रो कर बुरा हाल है । पिता जगन्नाथ भी अश्रु पोंछ रहे हैं । पर पण्डित जी ये सब हुआ कैसे ? विश्वरूप ने सन्यास लेने की क्या पहले ही सोची थी ? पता नही ....पर वो गम्भीर पूर्व से ही था ....”वैराग्यशतक” उसको बड़ा प्रिय था ....हर समय वैराग्य की बातें ही करता रहता था .....पण्डित जगन्नाथ जी अपने लोगों को बता रहे थे । ये श्लोक रात में उसने लिखा था ...और इस श्लोक की व्याख्या ....पढ़ो श्लोक ...वही भर्तृहरि का श्लोक है ........
“अरे ओ युवकों ! जब तक ये कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है , जब तक वृद्धावस्था तुमसे दूर है ....जब तक इंद्रियों की शक्ति कम नही हुई है ....तब तक आत्मकल्याण का प्रयत्न कर लो ...इसी में तुम्हारी बुद्धिमानी है ....नही तो घर में आग लगने पर कोई कुआँ खोदने की सोचे तो , क्या ये मूर्खता नही है ?”
पण्डित जगन्नाथ रो रहे हैं ...मेरा बेटा सन्यास लेने की बात करता था ....मैंने उसे एक दो बार समझाया भी ...पर वो आज घर छोड़कर चला गया ।
निमाई दूर खड़ा है ....वो सब देख सुन रहा है ...निमाई को देखते ही माँ शचि दौड़ी और निमाई को अपने हृदय से लगा लिया ...निमाई कुछ नही बोल रहा ...वो शान्त है आज परम शान्त ।
बोल तू , अपने दादा की तरह सन्यास नही लेगा न ! बोल तू , अपने बड़े भाई की तरह हमको छोड़कर नही जायेगा ना ! बोल निमाई बोल ! माता शचि झकझोर रही हैं निमाई को ....निमाई अब रोने लगा ....तो माता ने उसे अपने हृदय से चिपका लिया था ।
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किसे देख रही है ....दो घण्टे होगये .....ज़्यादा नहाना उचित नही है ...और वैसे भी अब ऋतु में परिवर्तन दिखाई दे रहा है ....चल विष्णुप्रिया ! चल ।
हाँ तो तुम लोग जाओ ....मैं आजाऊँगी । पर अब वो नही आयेगा ? एक सखी ने कहा । कौन ? कौन नही आयेगा ? विष्णुप्रिया को रोष आगया है ....वही तेरा निमाई ...नही आयेगा ? तुझे बड़ा पता है ....ज्योतिषी है तू ....जो कह रही है नही आयेगा । विष्णुप्रिया ! उसके बडे भाई विश्वरूप ने सन्यास ले लिया है । विष्णुप्रिया सोचने लगीं , फिर बोलीं - पर कुछ दिन बाद तो आयेगा ना ? दुखी स्वर में पूछा । अब तो सुना है निमाई का यज्ञोपवीत संस्कार होने जा रहा है । फिर वो पढ़ाई में मन लगायेगा । अब कहाँ आयेगा वो निमाई । विष्णुप्रिया दुखी होकर गंगा जल से बाहर निकल आईं । और गीली साड़ी में ही कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठ गयीं ....कपोल में अपने हाथ रखकर ।
विष्णुप्रिया ! विष्णुप्रिया !
माता महामाया देवि अपनी पुत्री को खोजतीं हुईं गंगाघाट पर आगयीं थीं ।
हाँ , माँ ! विष्णुप्रिया उठी ......चलो अब घर ....तुम्हारी बहुत शिकायत आरही है ...दिन भर गंगा में खेलते रहना ....चलो घर । कल से तुम्हारी पढ़ाई शुरू होगी । मेरी पढ़ाई ? विष्णुप्रिया ने पूछा ...हाँ तुम्हारी पढ़ाई । विष्णुप्रिया कुछ सोचने लगीं फिर बोलीं ....माँ ! निमाई आज नही आया ! हाँ तो क्यों आयेगा ...कल उसका यज्ञोपवीत है ....फिर पढ़ाई करेगा । विष्णुप्रिया ने पूछा ..आप जाओगी निमाई के यज्ञोपवीत में ? हाँ , बुलाया है तो भिक्षा देने तो जाना ही पड़ेगा ।
मैं भी जाऊँगी....विष्णुप्रिया तुरन्त बोली । कोई आवश्यकता नही है यज्ञोपवीत में जाने की .....अब घर बैठो और ब्राह्मण कन्या की तरह चुपचाप पढ़ाई करो ...समझीं ! माँ आज विष्णुप्रिया की कोई बात नही मान रहीं थीं । अब इधर विष्णुप्रिया की घर में ही पढ़ाई शुरू हो गयी .....और उधर यज्ञोपवीत संस्कार निमाई का सम्पन्न हो गया ।
सुन्दर लग रहा था निमाई ...छोटा सा ...सिर मुड़ाकर ...हाथ में भिक्षा पात्र ...सुन्दर तो है निमाई ।
माँ महामाया देवि अपने पति सनातन मिश्र को रात्रि में उधर की बात बता रही थीं ......सनातन मिश्र जी तो सो गये थे ....पर विष्णुप्रिया सारी बातें प्रसन्नतापूर्वक सुनती जा रही थी ।
शेष कल -
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
अगला भाग ६
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( पंचमोध्याय:)
26, 3, 2023
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गतांक से आगे -
विद्याव्यसनी हो गये निमाई .....चंचलता मानों इनसे रूठ ही गयी ....भाई विश्वरूप ने जब से सन्यास लिया तब से निमाई गम्भीर बन गये थे ।
पाठशाला से आज जब निमाई घर आये तब उन्होंने देखा कि उनके पिता पण्डित जगन्नाथ लेटे हुये हैं ....निमाई ने जाकर उनके पैर जब छूए तो ....पिता जी ! आपको ज्वर है । पर पण्डित जगन्नाथ ने इसका कोई उत्तर नही दिया .....पुत्र ! सुन मेरी बात ! पिता जगन्नाथ हाँफ रहे थे ....मेरे लिये एक बहु ला दे । हाथों को छूआ निमाई ने ....तो वह भी गरम है ....बोल ना ! निमाई ! तू कहीं विश्वरूप की तरह सन्यासी तो नही बनेगा ना ! वचन दे मुझे । निमाई कुछ समझ नही पा रहे थे ....कि पिता जी ये आज कैसी भाषा बोल रहे हैं ....ये कैसी जिद्द है । पिता जी ! आप स्वस्थ तो हो जाइये । निमाई ने अपनी माता की ओर देखा वो कोने में खड़ी होकर सुबक रही थीं । माँ ! तुम तो कुछ बोलो ! निमाई , वचन दे दे, माँ ने कहा । ठीक है पिता जी ! आप कहते हैं तो मैं विवाह कर लूँगा । पण्डित जगन्नाथ जी ने अब लम्बी साँस ली थी ।
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विष्णुप्रिया ! चलो हो गयी आज की तुम्हारी पढ़ाई । अब तुम जा सकती हो ।
राजगुरु की बेटी है ....तो पढ़ाने के लिए घर में ही अध्यापक आजाते हैं । पर विष्णुप्रिया का पढ़ाई में मन कहाँ है ! इसे तो जल्दी जाना है गंगा घाट में । नहाने नही ...इसका निमाई आने वाला है वहाँ ....निमाई को बिना देखे इस प्रिया को चैन कहाँ पड़ता है ।
समय देखा विष्णुप्रिया ने ....दोपहर के दो बज रहे हैं ....तुरन्त भागी बाहर ...गंगा घाट पर ।
“अरे ! भात तो खा ले “......माता बोलती रहीं पर इसका ध्यान तो निमाई ले जा चुका था ।
“आज भी नही आयेगा शायद निमाई ! “
गंगा जी में कंकड़ फेंकते हुये प्रतीक्षा कर रही थी विष्णुप्रिया पर दो घण्टे हो गये निमाई नही आया । तो इसकी सखी ने कहा ।
“तुझे बड़ा पता है , जब भी देखो कुछ न कुछ अशुभ ही बोलती है”....अपनी सखी के प्रति भी रोष आ गया था विष्णुप्रिया को ।
तभी एक वृद्धा महिला उधर से आई ......और गंगा जी में जल भरने लगी ....दूसरी आई और विष्णुप्रिया से पूछने लगी ....निमाई नही आया ? शरमा कर ...सिर हिला दिया विष्णुप्रिया ने ।
वो यहाँ क्यों आने लगा ....उसके तो पिता पण्डित जगन्नाथ जी बहुत अस्वस्थ हैं ।
क्यों , क्या हुआ निमाई के पिता जी को ?
विष्णुप्रिया उठकर खड़ी हो गयी और घबडाकर पूछ रही थी ।
ज्वर आया उन्हें ...सुना है पाँच दिन से ज्वर में ही पड़े हैं ...उतर ही नही रहा ।
वो देखो , वो वैद्य जी निमाई के घर से ही आरहे हैं । वो वृद्धा महिला उन परिचित वैद्य जी से पूछती है ...वैद्य जी ! पण्डित जगन्नाथ जी का स्वास्थ्य अब कैसा है ? वैद्य जी रुक गये ...कुछ नही बोले ।
ठीक तो हो जायेंगे ना ! छोटी विष्णुप्रिया पूछती है ।
कुछ कह नही सकते .....राजवैद्य को बुलावें तो कुछ हो भी .....पर राजवैद्य को बुलाने के लिए धन चाहिये .....हम जैसों से तो अब मुश्किल ही है । विष्णुप्रिया उन वैद्य जी की बात सुनकर उदास हो गयी थी । क्या कहे । फिर गंगा जी की ओर बैठकर कंकड़ फेंकने लगी ।
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पिता जी ! पिता जी ! बोलिये ना , कुछ तो बोलिये !
तुलसी पौध के पास उतार कर लिटा दिया था पण्डित जगन्नाथ जी को ....चारों ओर हरिनाम संकीर्तन चल रहा था .....माता शचि सुबक रही थीं .....पण्डित जगन्नाथ ने ही कहा था कि ...अब मेरी मृत्यु निकट आगयी है .....शचि ! मुझे तुलसी के पास लिटा दो । लिटा दिया था ....हरिनाम सुनाने के लिए अड़ोस पड़ोस के लोग भी आगये थे ....सब आपस में पण्डित जी के अच्छाई का गुणगान कर रहे थे ...तभी निमाई उधर से आगया ....वो पाठशाला से आया था ...पर उसे पता नही कि घर में उसके पिता जी अब उसे सदा सदा के लिए छोड़कर जाने वाले थे ।
पिता जी ! पिता जी ! बोलिये ना , कुछ तो बोलिये ।
वो अपने पिता जी के सामने बिलख रहा था ... चीख रहा था ....
वत्स निमाई !
अब नेत्र खोले थे पण्डितजी ने । पिता जी ! आप स्वस्थ हो जायेंगे ..आप शीघ्र ठीक हो जायेंगे । मैं आपको स्वस्थ करने में अपने प्राण लगा दूँगा ....पर पिता जी ! आप हमें छोड़कर मत जाइये । निमाई का रुदन सुनकर सब रो पड़े थे .....वो रोते हुये बातें कर रहा था अपने पिता जी से ।
निमाई ! मेरी बात सुनो ....जिसका जन्म है मृत्यु उसको आनी ही है ....इसलिये इस तरह से रुदन करना तुमको उचित नही है ....देखो , मेरी बात ध्यान से सुनो ....निमाई ! तुम्हारे बड़े भाई भी नही हैं ....माता अब तुम्हारे आधार पर ही जीवित रहेंगी.....इसलिये तुम्हें विवाह करना ही होगा । निमाई रो रहा है ...इस समय निमाई की आयु बारह वर्ष ही तो है । तुम अब अपनी माता को सम्भालना ....उसे बहु लाकर देना ....ये तुम्हारा कर्तव्य है निमाई ।
पर हमें किसके आधार पर छोड़कर जा रहे हो पिता जी !
आपके जाने के बाद हमारा कौन होगा ? निमाई यही प्रश्न कर रहा था रोते हुये ।
“वो भगवान श्रीजगन्नाथ हैं ..जगत के नाथ हैं ..सबका पालन पोषण वही करते हैं ....निमाई ! उन्हीं का स्मरण करना , उन्हीं से कहना ...वो हैं तुम्हारे ...और तुम हो अब से सिर्फ उनके ....मैं तुम सबको उन्हीं के समर्थ हाथों में सौंप कर जा रहा हूँ” ...इतना कहकर पण्डित जी ने अन्तिम स्वाँस ली । माँ शचि मूर्छित हो गयीं ....निमाई एक तरफ पड़ा है । पण्डित जगन्नाथ जी के स्वर्गवास की सूचना से पूरा नवद्वीप ही शोक में डूब गया था ।
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“बेचारे पण्डित जगन्नाथ जी स्वर्ग सिधार गये” ।
सनातन मिश्र जी अपने घर जैसे ही आये ....उन्होंने अपनी पत्नी से कहा ।
क्या हुआ , क्या हुआ पिता जी ? विष्णुप्रिया दौड़ी दौड़ी आई ....पूछने लगी ।
कुछ नही , कुछ नही हुआ ....तुमने पढ़ाई की ? पिता अपनी पुत्री से पूछ रहे थे पर ....नही पिता जी ! कौन स्वर्ग सिधार गये , आप कह रहे थे ना ! हाँ , पुत्री ! एक बहुत अच्छे पण्डित जी थे ...उनका शरीर शान्त हो गया ...माता उधर से आईं ....और बोलीं ...ये सब जानती है ...निमाई के पिता जी का स्वर्गवास हो गया है । बेचारा निमाई ! माता ये कहती हुईं फिर रसोई में चली गयीं ।
कितना रो रहा होगा ना निमाई ! विष्णुप्रिया अकेले में बैठी बैठी रो रही है ।
मैं होती उसके पास तो उसे सम्भाल लेती पर ........
ये सोच सोच कर उस पूरी रात विष्णुप्रिया रोती ही रही थी ।
शेष कल -
श्री जी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
भाग ७
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( षष्ठोध्याय: )
27, 3, 2023
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गतांक से आगे -
दिन भर विद्याध्ययन में लगे रहना ...रात्रि में न्याय शास्त्र के ऊपर ग्रन्थ लिखना ....निमाई का यही व्यसन था ...जब से पिता श्रीजगन्नाथ जी ने अपना देह त्यागा है ...निमाई पूर्ण रूप से विद्याव्यसनी ही हो गये ...किसी से बातें नही करना ...करना भी तो जो काम की बात है ...बस वही । गंगा में जाना ...गंगा में घण्टों नहाते रहना ...ये सब अब भूतकाल की बात हो गयी थी ...अब तो निमाई को पण्डित बनना था ....इसका सपना था कि ये भी पाठशाला खोले । पर उसके लिए स्थान चाहिये और द्रव्य भी ....जो इसके पास था नही । पण्डित जगन्नाथ जी कौन सा ख़ज़ाना निमाई के लिए छोड़कर गये थे ....और घर भी तो छोटा ही था ....फिर भी निमाई लगा था कि कुछ तो होगा ही । बुद्धि तीव्र थी निमाई की .....निमाई के मेधा शक्ति का लोहा नवद्वीप वाले मान गये थे .....धन नही था तो क्या हुआ ब्राह्मण के पास विद्या आवश्यक है ...जो निमाई के पास थी ।
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निमाई जहां से होकर गुजरते लोग उसका आदर करते ...ब्राह्मण में ज्ञान देखा जाता है ....ज्ञान भरा था निमाई में ...आयु कम होने के बाद भी ...ये ज्ञान में बड़े थे ।
निमाई अब बडे होते जा रहे थे ...सोलह वर्ष के होने को आये निमाई ....पर इनका ध्यान सिर्फ सिर्फ विद्या अध्ययन में ही था ।
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माँ , माँ , तुम्हें क्या हुआ ? तुम ठीक तो हो ना ?
पाठशाला से जब निमाई घर आये तो उन्होंने देखा कि माता शचि बाहर लेटी हुई हैं उनके चारों ओर महिलायें हैं ....ये दृष्य देखते ही निमाई को अपने पिता जी के अन्तिम समय की याद आगई...और ये दौड़कर माता के पास गये ।
तुम ठीक तो हो ना माँ ! माँ , माँ , तुम्हें क्या हुआ ?
“अभी तो ठीक हैं पर आगे कुछ कह नही सकते”......एक महिला ने कहा ।
अब दिन भर काम करते रहना ...बूढ़ा शरीर है निमाई ! कब तक काम करेगा ये शरीर भी ....कभी तो अपनी माँ के बारे में सोचा कर । दूसरी महिला ने और कह दिया । माँ शचि उठने लगीं तो निमाई ने कहा ...नही , तुम सोती रहो ...भात निकाल कर मैं खा लूँगा ।
हाँ , स्वयं खा लेगा ...पर अपनी माता के विषय में नही सोचेगा ?
क्या सोचना , आप लोग क्या कहना चाहती हो , मैं समझ नही पा रहा ।
निमाई ने सीधे सीधे पूछा ।
माँ शचि उठ कर बैठ गयीं ...और निमाई को अपने पास बिठाकर बोलीं ...निमाई ! बेटा ! आचार्य बल्लभ की पुत्री लक्ष्मी , बहुत सुन्दर है बेटा ! उनके यहाँ से एक पण्डित जी आये थे ....वही सम्बन्ध की बात कर रहे थे ......निमाई ! हम लोग धनिक तो हैं नहीं ....अर्थाभाव बना ही रहता है ....ऐसे घर में भी कोई अपनी सुशील सुन्दर पुत्री देना चाहता है तो उसे मना नही करना चाहिये ।
माँ ! स्पष्ट कहो ....तुम कहना क्या चाहती हो ? निमाई ने स्पष्ट जानना चाहा ।
मेरे लिए तू बहु ला दे ....माँ शचि ने ये भी कहा .....लक्ष्मी मुझे पसन्द आई है ......वही मेरी बहु बनेगी ।
निमाई उठ गये ....मुझे अभी सोचने दे माँ ! इतने शीघ्र मैं कैसे तुझे “हाँ” बोल दूँ !
हाँ , तुझे तो अपनी माँ की चिन्ता ही नही है .....बस पढ़ना और पढ़ना ....माँ कैसे अकेले काम करती है ....उससे तुझे क्या ! तुझे तो अपनी पढ़ाई और भविष्य उज्ज्वल बनाना है ...बना ...पर इस बूढ़ी माता पर भी तो थोड़ी दया कर दे । माँ शचि बोलते हुए रोने लगीं ।
निमाई शान्त हो गये ......माता का रुदन प्रारम्भ हो चुका था .......
बोल , मैंने आचार्य बल्लभ को वचन दे दिया । उनकी बेटी ही मेरे घर की बहू बनेगी ।
ठीक है ....अब वचन दे दिया है तो मान लो उसे बहु ....निमाई घर के भीतर चले गये ...माँ शचि उठकर खड़ी हो गयीं ....निमाई ! निमाई ! तू सच कह रहा है ...लक्ष्मी से विवाह करेगा ना ! ना तो नही कहेगा ?
नही , तू ख़ुश है ना माँ ! माँ शचि ने अपने पुत्र निमाई का मस्तक चूम लिया ...हाँ निमाई! हाँ, मैं बहुत खुश हूँ .....मेरी बहु आयेगी ...लक्ष्मी मेरी बहु बनेगी ।
और शचि माता ने विवाह की पूरी तैयारियाँ कर लीं ....
और अल्प समय में ही विवाह भी सम्पन्न हो गया ।
लक्ष्मी निमाई की दुल्हन बनीं और निमाई सुन्दर दूल्हा ।
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ये मंगल पत्रिका आई है ....देखना जी , कहाँ से आई है ...और किसका विवाह है ?
महामाया देवि ने सनातन मिश्र जी को वो पत्रिका थमाई ...पत्रिका खोली तो ...अरे ! स्वर्गीय श्रीजगन्नाथ जी के पुत्र का विवाह है ....यानि निमाई का विवाह ? महामाया देवि चौंक गयीं ।
विष्णुप्रिया पढ़ रही थी......वो स्तब्ध ...पढ़ाई छोड़कर वो दौड़ पड़ी पिता के पास ....पिता जी ! किसका विवाह है ? महामाया हंसीं ....अरे ! निमाई का विवाह ...वही निमाई । पत्रिका लेकर विष्णुप्रिया भागी छत में ....भय और विषाद के साथ पूरी पत्रिका बाँच डाली ।
नेत्रों से गंगा बह चली .....विष्णुप्रिया के कुछ समझ में नही आरहा ...वो क्या करे ? कुलीन घर की कन्या है कर भी क्या सकती । तभी - “बेचारा निमाई क्या करता” ....बड़ा भाई विश्वरूप सन्यासी हो गया ...पिता जी स्वर्ग सिधार गये .....बची माँ ...अब उसको तो बहु चाहिए ना , वैसे सुना है महामाया ! मैं तो वहीं थी ...निमाई की इच्छा नही थी विवाह की ....पर माता शचि की जिद्द के आगे वो झुक गया । पड़ोस की महिलायें आगईँ थीं ...वो महामाया देवि को निमाई के घर की स्थिति बता रहीं थीं ।
विष्णुप्रिया सुन रही है ....”निमाई की इच्छा नही थी विवाह की “....इस बात ने विष्णु प्रिया के प्राण वापस ला दिये थे ....”क्या करे बेचारा निमाई भी”....विष्णुप्रिया बहुत रोई है आज ....उसका सपना टूट गया है .....निमाई को उसने सब कुछ मान लिया था ....पर ये क्या हो गया था ।
निमाई का विवाह हो गया .....और हाँ , विष्णुप्रिया नही लक्ष्मी देवि दुल्हन बनीं।
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निमाई ने अपने पाठशाला की स्थापना कर ली ....इनके विद्यार्थी योग्य निकलने लगे ...निमाई विद्यार्थियों के साथ शिष्यवत् व्यवहार नही करते थे ...मित्रवत् इनका व्यवहार था ....इसलिये विद्यार्थी इनको प्यार करते थे .....न्याय का मुख्य केन्द्र बन चुका था अब नवद्वीप ....बड़े बड़े विद्वान नवद्वीप को नैयायिकों का गढ़ मानने लगे थे । इसका मुख्य कारण था निमाई । निमाई ने अपनी विद्वत्ता के चलते ही अपने गाँव को विश्व पटल पर स्थापित किया था ।
“रघुनाथ” निमाई का मित्र था ...परम मित्र । विद्वत्ता रघुनाथ की भी प्रसिद्ध थी ....ये अपने आपको परम विद्वान स्थापित करना चाह रहा था ....इसलिये इसने न्याय के ऊपर ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया ...रघुनाथ दिन में पढ़ाई करता ...रात्रि में ग्रन्थ लिखता ...इसने जी जान लगा दिया था ...ये न्याय का सर्वश्रेष्ठ नैयायिक बनना चाह रहा था ......जिसमें ये सफल भी हो रहा था ......
एक दिन रघुनाथ को पता चला कि निमाई ने भी न्याय के ऊपर ग्रन्थ लिखा है । तो रघुनाथ ने निमाई से आग्रह किया और उससे वो ग्रन्थ सुनाने की प्रार्थना की ....निमाई सहज थे ...वो घर जाकर अपना लिखित ग्रन्थ ले आये ....और निमाई रघुनाथ के साथ नौका में बैठकर गंगा में विहार लगे ।
निमाई ! सुनाओ अपना लिखित ग्रन्थ .......रघुनाथ ने आग्रह किया ।
निमाई हाथ में ग्रन्थ लेकर पढ़ने लगे .....पढ़ते हुये वो आनंदित हो रहे थे ....पर ये क्या ! रघुनाथ रो रहा है ....क्या हुआ ! तुम क्यों रो रहे हो ? रघुनाथ ! क्या हुआ भाई ! तुम्हारे रोने का कारण क्या है ? निमाई अपने मित्र के दुखी होने से स्वयं दुखी हो उठे थे ।
निमाई ! मैंने भी सपने देखे थे .....बड़े बड़े सपने देखे थे .....न्याय के ऊपर ग्रन्थ मैंने भी लिखा है ...पर इस भूल में मैं था कि विश्व में न्याय का ग्रन्थ मेरा ही सर्वश्रेष्ठ होगा ...पर तुमने जो लिखा है वो तो अद्भुत है ...निमाई ध्यान से अपने मित्र को देखते रहे ....फिर हंसते हुये बोले ...पागल हो क्या रघुनाथ ! तुम विद्वान हो ...मेरा क्या है ...मैंने तो ये खेल खेल में लिखा था । खेल खेल में लिखा था ! अगर तुम गम्भीर नही हो तो क्या इस अपने लिखे ग्रन्थ को गंगा जी में बहा सकते हो ! रघुनाथ ने निमाई को कहा । निमाई हंसा ...मेरे मित्र ! तुम्हारे लिए मैं अपने आपको गंगा में बहा दूँ ....ये ग्रन्थ क्या वस्तु है ! लो ..मैंने इसे बहा दिया ....ये कहते हुये निमाई ने अपने ग्रन्थ को गंगा जी में बहा दिया .....न्याय के वो पन्ने गंगा जी की लहरों में बह रहे थे ....वो बह ही नही रहे थे ...निमाई ने कितना बड़ा त्याग किया है अपने मित्र के लिए , ये भी बता रहे थे ।
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ओह ! ये पन्ने कौन लाया ?
इसमें तो न्याय के गूढ़ रहस्य भरे हैं ! कौन लाया है मुझे इसके सारे पन्ने चाहिये । सनातन मिश्र जी घर आये तो उन्होंने देखा कि कुछ लिखित न्याय ग्रन्थ के पन्ने उनके घर में हैं .....विद्वानों का व्यसन ही है पढ़ना ....फिर अच्छा लिखा हो तो .....दो पन्ने क्या पढ़े सनातन मिश्र जी ने आनंदित हो उठे ।
ये किसने लिखे हैं ? निमाई ने ....गंगा जी में बहा दिया था उसने ....मैं ले आई । विष्णुप्रिया ने उत्तर दिया ।
नौ वर्ष की हो गयी है विष्णुप्रिया ....पर हृदय में निमाई ही है ।
सनातन मिश्र जी गदगद हो गये .....फिर बोले ...कुछ भी कहो ...पण्डित जगन्नाथ जी का पुत्र नवद्वीप का नाम उजागर कर रहा है ....अब तो बड़े बड़े विद्वान उसके पास आते हैं ....उससे सलाह लेते हैं .....देखो , न्याय के ऊपर क्या अद्भुत लिखा है ....पर बहा दिया गंगा में ....हाँ विद्वान लोग मूडी होते हैं ....मूड में क्या आया होगा ! सनातन मिश्र जी ये सब बोलकर उन पन्नों को रख कर चले गये । विष्णुप्रिया आनंदित हो गयी थी , अपने निमाई की प्रशंसा सुनकर । निमाई अभी भी इसका था ...इसका ही ।
सुना है ....पूर्व बंगाल जा रहा है निमाई ...अपने मित्रों के साथ जा रहा है । पत्नी कहाँ है निमाई की ? पिता के घर ...विवाह के बाद वो लेने कहाँ गया है ...अब तो पूर्व बंगाल की यात्रा के बाद ही लेकर आएगा अपनी पत्नी को ।
विष्णु प्रिया अब पहले की तरह गंगा नहाने नही जाती ...बड़ी भी तो हो गयी है ....जाती है ...बस निमाई के बारे में सुनने के लिये ....बाल वृद्ध नर नारी मूर्ख विद्वान .... सबमें चर्चा का विषय केवल “निमाई” ही तो है ।
विष्णुप्रिया सुन लेती है ....वो आँखें बन्द करके बैठी रहती है ....महिलायें बोलती हैं - निमाई बहुत सुन्दर हो गया है ...लम्बा क़द ..गोरा ..घुंघराले बाल ..मुस्कुराता चंचल....विष्णुप्रिया यही सुनकर निमाई का ध्यान करती है ...फिर लौटकर अपने घर चली आती है ।
शेष कल -
✍️श्रीजीमंजरीदास (सूर श्याम प्रिया )
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तमोध्याय:)
28, 3, 2023
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गतांक से आगे -
अपनी धर्मपत्नी लक्ष्मी देवि को उनके पिता के घर में छोड़कर निमाई पूर्व बंगाल की यात्रा में चले गये थे । इनके साथ इनके विद्यार्थी भी थे ....जो बड़े उत्साहित थे । पूर्व बंगाल ( आधुनिक बांग्लादेश ) में भी निमाई के विद्वत्ता की चर्चा थी ...वहाँ के कई विद्वानों ने अपने यहाँ आने का निमन्त्रण भी दिया था ....निमाई इसलिये भी पूर्व बंगाल की यात्रा में चल दिये थे ।
गुरु जी ! गम्भीर रहना .....नौका में बैठे एक शिष्य ने निमाई से कह दिया था ।
“क्यों , मैं कोई पत्थर की मूर्ति हूँ”....उन्मुक्त हंसते हुये निमाई बोले थे ...उनके साथ अन्य शिष्य भी हंस पड़े थे । गंगा की एक धारा जो सागर में मिलती है और एक धारा पूर्व बंगाल में चली जाती है ....निमाई नौका में बैठे बैठे शीतल हवा का आनन्द ले रहे थे ...उनके गौरांग देह से चादर हट गयी थी ....देह चमक रहा था ...निमाई मुस्कुराते हुये गंगा की पवित्रतम हवा में झूम रहे थे ।
पूर्व बंगाल में निमाई का वहाँ के विद्वानों ने अभूतपूर्व स्वागत किया ....नवद्वीप से निमाई पण्डित आये हैं ....ये सुनते ही बड़े बड़े नैयायिक आकर उनसे चर्चा करने लगे ...न्याय के सम्बन्ध में बातें करने लगे ....कोई कोई शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देता तो ये सहज भाव से उसे स्वीकार कर लेते ...और देखते ही देखते वो निमाई के तर्क के आगे झुक जाता .....पर उस हारे विद्वान को निमाई अपमानित नही करते ...उसे भी आदर सम्मान के साथ विदा करते ।
पूर्व बंगाल की यात्रा में पण्डित निमाई के व्याख्यान भी हुये .....इनको सुनने के लिए बड़े बड़े विद्वान आते थे ...इनकी तार्किक क्षमता देखकर सब नतमस्तक हो जाते ।
एक दिन की बात - प्रातः की सुन्दर वेला थी .....निमाई स्नान करके अपना नित्य कर्म कर रहे थे ...तभी सामने से एक वयोवृद्ध पण्डित आये ....वो भावुक थे ...उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ...हाथ में लाठी लिये कांपते हुए वो आरहे थे ....निमाई उठकर खड़े हुये और जैसे ही उनसे कुछ पूछते ....उन वृद्ध पण्डित जी ने ही पूछा ...क्या श्रीमान पण्डित निमाई हैं ? निमाई ने जैसे ही , हाँ , कहा ...वो तो साष्टांग धरती में लेट गये ....उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाह तेज हो गये थे ....वो बिलख रहे थे ....निमाई के चरण छूने की उनकी जिद्द थी ....पर निमाई अपने चरण दे नही रहे थे ।
निमाई के शिष्यों ने देखा तो भीतर से वो सब भी आगये ....और प्रश्नवाचक दृष्टि से अपने गुरु निमाई को देखा ...निमाई ने भी संकेत में ही उत्तर दिया ....पता नही । कुछ देर बाद वो वृद्ध पण्डित शान्त हुये तो उन्हें अपने साथ आसन में बैठाया । पर वो निमाई के साथ कैसे बैठ सकते थे । क्यों ? आप मेरे पिता तुल्य हैं आपको तो मैं उच्च आसन में बैठाऊँ वही उचित होता पर मेरे पास इस समय यही है ...हे भगवन्! ये तो आपकी महिमा है ...आप भगवान होकर भी मुझ अधम को अपना बना रहे हैं ।
वो वृद्ध ब्राह्मण अब हाथ जोड़कर अपनी गाथा सुनाने लगे थे.....
मैंने बहुत साधना की ....मुझे कुछ नही चाहिये था सिर्फ भगवान को प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य था ...हे भगवन् ! मैंने शास्त्र अध्ययन किये मैंने उसमें पाया कि ब्रह्मचर्य की साधना से भगवान मिलते हैं ....उसके चलते मैंने ब्रह्मचर्य का पालन करना प्रारम्भ किया ..दस वर्षों तक साधना करता रहा ...पर कोई लाभ मुझे मिला नही ...अरे ! भगवान नही तो कमसे कम भगवत्साक्षात्कार से पूर्व की स्थिति तो बन जाती ...नही बनी ...तब मुझे किसी ने कहा ....अगर भगवान ब्रह्मचर्य से मिलता तो बड़े बड़े भक्त आदि तो ग्रहस्थ थे । मैंने इस साधना को त्याग दिया ....फिर मैंने तन्त्र की साधना की .....और वो साधना मैंने दस वर्षों तक लगातार किया ....बलि आदि भी मैंने भगवती को प्रदान किये ....पर कुछ नही हुआ । मैंने श्रीदुर्गासप्तशती की एक लक्ष आवृत्ति पूरी की.....पर भगवती के भी मुझे दर्शन नही हुए । तब मैं हताश निराश होकर बैठ गया ...सारे साधनों को तिलांजलि देने की मैं सोच ही रहा था कि मेरे सामने साक्षात् भगवती दुर्गा प्रकट हो गयीं । उन वृद्धब्राह्मण की बातों को सब लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे ।
हे प्रभु ! मुझे भगवती दुर्गा ने वर माँगने को कहा ...तो मैंने उनसे हाथ जोड़कर विनती की कि मुझे भगवत्साक्षात्कार करा दीजिये ...तब भगवती दुर्गा मुझे शान्त भाव से देखने लगीं ....फिर सहज बोलीं - साक्षात् नारायण स्वरूप पण्डित निमाई नवद्वीप से आरहे हैं ....आप उनके दर्शन करना और ये प्रश्न उन्हीं से करना ...वो सहज में समाधान कर देंगे । इतना कहकर भगवती मेरे सामने से अन्तर्ध्यान हो गयीं । ये बात है एक वर्ष पूर्व की ...तब से मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ ...कि आप यहाँ पधारें और मेरी चिन्ता को मिटायें । भगवती ने मुझे ये भी कहा था कि उन्हीं से तुम्हें साध्य की प्राप्ति होगी । वो परम साध्य तुम्हें किस साधना से प्राप्त होगा ये भी वही बतायेंगे । इतना कहकर वृद्ध मौन हो गये और चातक की तरह निमाई के मुख रूपी स्वाति बूँद के झरने की प्रतीक्षा करने लगे थे । निमाई के शिष्य भी बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे कि निमाई क्या कहेंगे ! आस पास के विद्वान भी वहाँ आगये ...वो भी निमाई को सुनना चाहते थे ।
पण्डित निमाई ने उन वृद्ध पण्डित की ओर देखा ....और बोले - हे ब्राह्मण देव ! सत्य ये है कि सतयुग में ध्यान की महिमा थी ...लोग अपने हृदय में ही भगवान विष्णु का ध्यान करते और उन्हें पा लेते .....उस युग के लिए ये सहज था ।
निमाई की मधुर बोली सबको मन्त्र मुग्ध कर रही थी .....निमाई के शिष्य सोच रहे थे कि निमाई वैष्णवता की खिल्ली उड़ाते रहते हैं .....तर्क से वैष्णव सिद्धान्त को काट देते हैं ....पर यहाँ ये क्या कहेंगे ?
सतयुग में ध्यान की महिमा थी .....त्रेता युग में ...यज्ञ आदि से लोग भगवान को पा लेते थे ....द्वापर में पूजा आराधना आदि से भगवान की उपासना लोग करते थे ....पर कलियुग में ! पण्डित निमाई के नेत्र सजल हो गये ...उन्होंने ऊपर आकाश में देखा ...फिर लम्बी स्वाँस लेते हुये बोले ....हरि नाम । क्या ? क्या कहा आपने ? ये प्रश्न सबने पूछा था ....उन वृद्ध पण्डित जी ने तो पूछा ही ...निमाई के शिष्यों ने भी पूछा ।
आगे वाणी अवरुद्ध हो गयी निमाई की .....जल नेत्रों से बरसने लगे .....हरि नाम । हरिनाम के सिवाय और कोई उपाय इस कलियुग में नही है । भगवान वश में हो जाते उसके जो उसके नाम को पुकारता है ...भगवान उसके संग संग फिरते हैं जो उनके नाम का उच्च स्वर से गान करते हैं । भगवान उसका तो कभी पीछा छोड़ते ही नही ...जो रोते हुये ...नेत्रों से अश्रु बहाते हुये .....हरि बोल ...कहता है । उसका नाम लेता है ...निमाई रो पड़े थे ....उनके नेत्रों से अब अश्रुप्रवाह चल पड़े ...वो उठ कर दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर ...हरि बोल ...हरि बोल ...कहने लगे थे ।
निमाई की ये स्थिति शिष्यों के लिये नई थी .....इन्होंने तार्किक निमाई को देखा था....पर इस तरह भावना में बहने वाले निमाई से इनका कोई परिचय नही था । तर्क के माध्यम से बड़े बड़े विद्वानों की धज्जियाँ उड़ाने वाले ये पण्डित निमाई ही थे ? सब लोग चकित थे । मैं कह रहा हूँ ...मैं कह रहा हूँ ....मैं गायत्री सावित्री को साक्षी मानकर कह रहा हूँ .....हरि नाम से श्रेष्ठ साधना और कोई नही है .....भगवान व्यास देव ने स्वयं कहा है ...मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि हरि नाम के सिवा कलियुग में कोई दूसरी गति नही है ....नही है ......नही है । ये कहते हुये निमाई हिलकियों से रो रहे थे ...इनको रोता देख अन्य सब शिष्य भी रोने लगे ।
शिष्यों ने और उन वृद्ध पण्डित जी ने देखा कि निमाई के रोम रोम से हरि नाम फूट रहा था । पर अब ये क्या हुआ ! निमाई हाथ जोड़ने लगे थे ....मेरी बात मानों ....हरिनाम से बड़ा कुछ नही है ....इसलिये सब इसी का आश्रय लो ....निमाई का ये रूप देखकर सब चकित थे ।
फिर निमाई आगे बोले .......
ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का दिव्य महामन्त्र है .....इसका ही निरन्तर जाप करने से साध्य प्रकट हो जायेगा ......फिर निमाई हंसे ....साध्य क्या ? हरि नाम का जिह्वा में आना ही साध्य की प्राप्ति है । इतना कहकर भावावेश में निमाई मूर्छित हो गये थे । शिष्यों ने इन्हें सम्भाला ....निमाई भीतर से इतने प्रेमी है ! शिष्यों के मन में निमाई के प्रति और पूज्यभाव बढ़ गया था । पर वो वृद्ध ब्राह्मण ....वो तो नाचने लगा ....हरि बोल ...हरि बोल....महामन्त्र का उच्चारण करते हुये वो उन्मत्त हो रहा था । कुछ देर में निमाई ने अपने नेत्र खोले ...और अश्रु भरे नेत्रों से मुस्कुराते बोले - ब्राह्मण देवता ! काशी जाओ , मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा । वो वृद्ध ब्राह्मण उसी क्षण निमाई को प्रणाम करते हुये काशी चला गया था । निमाई ने अब पूर्व बंगाल की यात्रा यहीं स्थगित की और नवद्वीप के लिए निकल गये थे ।
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“आज निमाई नवद्वीप आ रहा है”। गंगा घाट में कोई महिला दूसरी को कह रही थी ।
विष्णुप्रिया सुन रही है ।
पता है पूर्व बंगाल में भी निमाई ने अपनी विद्वत्ता से सबको मोहित कर दिया ....पूरा पूर्व बंगाल पागल हो गया निमाई के पीछे । विष्णुप्रिया सुन रही है ....ये यही सुनने तो आती है ।
अरी सुना , तूने सुना , एक महिला आई और घाट में बैठी सभी को कहने लगी ...विष्णुप्रिया ने भी मुड़कर देखा उसकी ओर ....क्या हुआ ? शचि देवि की बहु लक्ष्मी को सर्प काट गया । ये सुनते ही विष्णुप्रिया को निमाई का मुखचन्द्र स्मरण हो आया , ओह ! लक्ष्मी को कुछ हो गया तो मेरे निमाई दुखी हो जायेंगे ! विष्णुप्रिया के नेत्रों से अश्रु बहने लगे .....तभी एक महिला और आई ....तुझे पता ही नही है ....वैद्य जी के पास ले गये लक्ष्मी को ...पर वैद्य जी ने कह दिया ...इसके तो प्राण निकल गये ।
निमाई की पत्नी लक्ष्मी मर गयीं ? ये सुनते ही विष्णुप्रिया रोते हुये अपने घर की ओर भागी ....माता महामाया ने पूछा क्या हुआ प्रिया ? पर अपने कक्ष में जाकर विष्णुप्रिया ने कपाट लगा दिया ....और रोने लगी ...हिलकियों से रोने लगी ....मेरे प्यारे निमाई को कष्ट ही कष्ट है । ओह ! निमाई आरहे हैं वो जब सुनेंगे उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया तब उनकी क्या स्थिति होगी ! माता शचि ने कितने कितने सपने सजाये थे ....विष्णुप्रिया यही सब सोचते हुये रोती रही ।
शेष कल -
*✍️श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
!! अष्टमोध्याय: !!
29, 3, 2023
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गतांक से आगे -
माँ ! माँ ! निमाई अपने घर आगये थे । और अपनी माँ को पुकार रहे थे ।
माँ शचि ने भी जब सुना मेरा निमाई आगया है ..तो वो भीतर से दौड़ पड़ीं ..मृत देह में मानों किसी ने अमृत बरसा दिया हो, ऐसा लगा । माँ शचि दौड़ीं और अपने पुत्र निमाई को हृदय से लगा लिया । रोने लगीं ....इतने दिनों का गुबार आँखों से बह गया था । निमाई ने चरण वन्दन करते हुये कहा ...माँ ! कुछ दिन की यात्रा में गया था पर समय ज़्यादा लग गया , तुम को कष्ट हुआ होगा ना ! मुझे क्षमा कर माँ ! निमाई के मुख से ये सुनते ही माता हिलकियों से रो पड़ीं ....मेरा क्या है निमाई ! पर बेचारी लक्ष्मी मेरी बहु ...अन्तिम क्षण तक तुझे ही पूछ रही थी ।
वो स्वस्थ तो है ना ? निमाई ने इतना ही पूछा था कि ....निमाई ! मेरी बहु लक्ष्मी को क्रूर काल ने अपना ग्रास बना लिया ....वो बेचारी तुझे ही पूछती रही ....वो बेचारी तुझे अन्तिम क्षणों में अपने पास देखना चाहती थी ....ये कहते हुये दहाड़ मारकर गिर पड़ीं माँ शचि ।
सिर चकराने लगा निमाई का ...उनके आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा ....क्या ! लक्ष्मी का स्वर्गवास हो गया ? निमाई के नेत्र सजल हो उठे थे ....पर उन्होंने घर की स्थिति देखी ...माँ को मूर्छित देखा तो निमाई ने अपने आपको सम्भाल लिया ।
जल का छींटा देकर जगाया ....फिर माता को समझाने लगे ....”काल के आगे किसकी चली है माँ ! जो लिखा जा चुका है उसे कौन मिटा सका है , कौन मिटा पाया है “ । इस तरह निमाई ने अपनी माँ को सान्त्वना दिया ....माँ ने भात बनाकर खिलाया फिर अपने निमाई के लिए बिस्तर लगा दिया ....निमाई थके थे ....कुछ ही देर में वो सो गये । माँ शचि ने आकर देखा ...निमाई गहरी नींद में सो रहा है ..वो सिरहाने बैठीं ....नेत्रों से अश्रु बह चले ...अभी तो इसकी युवावस्था भी पूर्णरूप से नही आई । हे विधाता ! मेरे पुत्र के भाग्य में ये क्या लिख दिया तुमने । अब कौन कन्या इसे मिलेगी । इस तरह प्रलाप करते हुये माँशचि ने पूरी रात बिता दी थी ।
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पूरा नवद्वीप आज दुखी है .....नवद्वीप का विद्वत्समाज आज विशेष असहज अनुभव कर रहा है ।
क्या हुआ ऐसा ? विष्णुप्रिया ने अपने पिता जी से पूछा ।
सनातन मिश्र जी ने कहा ...पुत्री ! एक दिग्विजयी पण्डित कश्मीर से आया है ....उसे किसी ने बताया होगा नवद्वीप का नाम ....क्यों की सम्पूर्ण भारत में विद्या के केन्द्र के रूप में नवद्वीप का नाम लोग जानने लगे हैं ....इसलिये ये दिग्विजयी पण्डित हम सबको पराजित करने के उद्देश्य से आया है ...बेटी ! हम पराजित हो जायें ....कोई बात नही ...पर नवद्वीप का नाम डूब जायेगा ...जो हमारे लिए अच्छा नही है ।
ये दिग्विजयी क्यों आया है ? विष्णुप्रिया मासूमियत से पूछती है। । शास्त्रार्थ करके हमें पराजित करने के लिये .....पिता जी ! इनको इससे क्या मिलता है ? पुत्री ! इनके पीछे बड़े बड़े राजा और धनिक लोगों की चाल छुपी होती है ...ये अपने क्षेत्र को ऊँचा करने के लिये दूसरे क्षेत्र को कमतर करने का प्रयास करते हैं जिसमें ये पाण्डित्य को अपने साथ रखते हैं । पाण्डित्य के कारण शास्त्रार्थ करवाकर दूसरे को पराजित करते हैं । पिता सनातन मिश्र से ये सुनकर विष्णुप्रिया कुछ सोचने लगीं । पिता जी ! क्या नवद्वीप में कोई ऐसा विद्वान नही हैं जो इस दिग्विजयी का सामना कर सके ? विष्णु प्रिया ने कुछ सोचकर पूछा । हैं , पर पुत्री ! विद्वत्ता ही पर्याप्त नही होती ...शास्त्रार्थ में वाक्चातुरी की भी आवश्यकता पड़ती है । तो पिता जी ! आपको क्या लगता है नवद्वीप में ऐसा कौन है जो इस दिग्विजयी से सामना कर सके । लम्बी साँस लेकर सनातन मिश्र बोले ...मुझे तो एक ही व्यक्ति लगता है ...कौन पिता जी ? निमाई । पण्डित निमाई । विष्णुप्रिया ने जैसे ही अपने पिता के मुख से ये नाम सुना ....सरसता उनके हृदय में घुलती चली गयी ।
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निमाई ! तुमने सुना , निमाई !
निमाई के शिष्य और विद्वान सब निमाई के पास आगये थे ।
हाँ , क्या बात है ? निमाई ने पूछा । बैठ के बात करते हैं ना ...तो चलो गंगा घाट ...मैं गंगा स्नान के लिए ही जा रहा हूँ ...निमाई सबको लेकर गंगा घाट पहुँच गये थे । ऊपर की चादर हटाई , सरसों का तेल निकाला और अपने शरीर में लगाने लगे ...हाँ , अब बोलिये क्या बात है । सब विद्वान एक स्वर में बोले ....”कश्मीर से कोई दिग्विजयी आया है”...तो आने दो ...हम भी दिग्विजयी जी का भाषण सुनेंगे । निमाई ने देह में तेल मर्दन करते हुये कहा । पर निमाई पण्डित ! वो शास्त्रार्थ करने आया है । नवद्वीप को हराने आया है ।
तुम कुछ करो निमाई ! सब लोग विनती के स्वर में बोलने लगे ।
निमाई ने कहा - नवद्वीप में और भी विद्वान हैं अकेला निमाई ही थोड़े है ? पर तुम ही हमारी लाज बचा सकते हो । एक वृद्ध विद्वान ने आगे आकर कहा ।
विष्णुप्रिया उसी समय गंगाघाट आगयीं थीं ...कई दिनों बाद इन्होंने अपने निमाई को देखा था ....पर विद्वान और अपने से मान्य जनों को देखा तो पीछे ही बैठ गयीं । अपने गौर शरीर में अभी भी तैल मर्दन ही कर रहे थे निमाई ।
ये काम तो हम चुटकी में ही कर सकते हैं .....उन्मुक्त हंसी हंस दिये निमाई ।
“कश्मीर राज्य के विद्वान दिग्विजयी पण्डित श्रीकेशव शास्त्री जी गंगा स्नान को पधार रहे हैं “।
दो सेवक आये ....जो घोड़े में बैठकर आये थे ...उन्होंने आकर ये सूचना दी । निमाई ने गंगा में डुबकी लगाई ...और बाहर निकलते हुये विद्वानों को बोले - आप कहें तो दिग्विजयी को यहीं देख लें ।
तभी दिग्विजयी अपने चार शिष्यों के साथ गंगा स्नान को आये .....गंगा घाट पर सब थे ही .. सबकी अब दृष्टि दिग्विजयी पर टिक गयी थी । दिग्विजयी ने गंगा स्नान किया ....और किनारे आकर बैठ गये । विष्णुप्रिया देख रही हैं ....उनकी दृष्टि तो निमाई से हटती ही नही ।
निमाई स्नान कर चुके थे ....वो दिग्विजयी के पास आये और प्रणाम किया ...प्रसन्न रहो ...इतना ही बोले दिग्विजयी , निमाई वहीं शान्ति से बैठ गये ।
मैं पण्डित निमाई । निमाई ने अपना परिचय दिया । नाम सुनते ही दिग्विजयी चौंके ...ओह ! तुम हो निमाई ? निमाई का नाम दिग्विजयी ने भी सुन रखा था । जी , आपका दास हूँ ....निमाई ने भी कह दिया ।
हूँ ...न्याय के विद्वान हो ? जी , आपके सामने तो बालक ही हूँ । निमाई की नम्रता देखकर दिग्विजयी गदगद हो रहे थे । उन्हें लग रहा था यही है जो मुझे हरा सकता है ? इसी के बल पर नवद्वीप वाले मुझ से भिड़ेंगे ! शास्त्रार्थ करेंगे ?
कुछ सुनाइये ! निमाई ने कुछ देर बाद कहा ।
हंसा दिग्विजयी ....क्या सुनना है ? तुम न्याय के विद्यार्थी क्या सुनोगे ?
ऐसी बात नही है ...काव्य से भी हमें प्रेम है .....निमाई ने नम्रता का ही प्रदर्शन किया ।
आप हमें ...पतितपावनी गंगा मैया के ऊपर कुछ सुनाइये ।
ओह ! गंगा , सुरसरी , विष्णुपदी , जाह्नवी .....ये पृथ्वी की पुज्या नही तीनों लोकों की पूज्य हैं .....निमाई हाथ जोड़कर - “जी जी” कह रहे हैं । चारों ओर लोग हैं ....जो निमाई और दिग्विजयी का ये संवाद बड़े ध्यान से सुन रहे हैं ...विष्णुप्रिया भी इन सबमें मुख्य है ।
नये कविता सुनाऊँगा ....अभी अभी रचना करके ...और दिग्विजयी ने सुनाना प्रारम्भ किया ....वो बोलते गए ....वो गाते गये ..अपनी नई रचना के साथ वो बहते गये ..क़रीब सौ श्लोक उन्होंने सुना दिये थे ।
अब कुछ श्लोक की व्याख्या हो जाये ! निमाई ने रूखे शब्दों में कहा ।
दिग्विजयी बोला - किस श्लोक की व्याख्या ? ये कहते हुये दिग्विजयी हंसा ...क्यों की सम्पूर्ण सौ श्लोकों की व्याख्या तो सम्भव नही है ...अब जिसकी व्याख्या सुननी हो वो श्लोक सुनाये ...श्लोक सुनाना सम्भव नही है ...क्यों कि सारे श्लोक नवीन हैं ...अभी रचित हैं । निमाई कुछ नही बोले ....तो दिग्विजयी ने कहा ...अभी तुम बालक हो ...जाओ ।
आँखें बन्दकर के निमाई ने सौ श्लोकों में से एक श्लोक सुना दिया ......और कहा - हे प्रभु ! इसमें श्लोक का गुण दोष बताइये । विष्णुप्रिया ने प्रसन्न होकर ताली बजाई ....दिग्विजयी ने मुड़कर देखा तो विष्णुप्रिया दीखी ....वो संकोच कर रही थीं अब ।
निमाई ! भई सच में तुम्हारी मेधा को देखकर हम बहुत प्रभावित हो गये .....स्मृति तुम्हारी अद्भुत है ....अब देखो दोष तो इसमें हैं हीं नहीं ....गुण हम बता देते हैं .....निमाई हंसे .....महाराज ! अपना बेटा तो सबको प्यारा लगता ही है । इस व्यंग ने दिग्विजयी को क्रोधित कर दिया ...तुम क्या कहना चाहते हो ....मेरे श्लोकों में , मेरे काव्य में दोष है ? निमाई ने कहा ...हाँ , है ....और ये पहला दोष ....ये दूसरा.....ये तीसरा .....ये चौथा ......बताते गये दोष ......सोचा नही था दिग्विजयी ने की इतनी बुरी तरह से पराजित होना पड़ेगा .....और वो भी निमाई जैसे बीस वर्षीय नवयुवक के आगे ।
निमाई ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और चारों ओर देखते हुये बोले ....सब अपने कार्यों में व्यस्त हैं ...किसी को पता नही चला कि आप हार गये ....इतना कहकर निमाई अपने घर की ओर चल दिये थे । विष्णुप्रिया उछलती हुई ....ताली बजाकर आनंदित होती हुई ....घर में चली आई ।
पिता जी ! निमाई ने दिग्विजयी को पराजित कर दिया .....
विष्णुप्रिया अति प्रसन्नता के साथ अपने पिता जी को बता रही थी ।
कैसे ? सनातन मिश्र जी उत्साहित होकर सुनने लगे ...वो बताती गयी ...बताती गयी ....
सनातन मिश्र जी की आँखों में चमक आगयी थी ...बेटी ! नवद्वीप की लाज रख ली निमाई ने ।
वो तो है पिता जी ! मुस्कुराती हुई विष्णुप्रिया बोली थी ।
शेष कल -
✍️श्रीजीमंजरीदास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( नवमोध्याय:)
30, 3, 2023
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गतांक से आगे -
इन दिनों माँ शचि गंगा घाट जाने लगीं हैं .....
शचि देवि ! कैसे यहाँ गंगा में आकर बैठी रहती हो ?
तू भी ना , कुछ भी पूछती है ...अकेला घर काटने को दौड़ता होगा ना ....बहु लक्ष्मी का भी देहान्त हो गया ....निमाई को कहाँ फुर्सत है कि वो अपनी माँ के साथ बैठकर उसका दुखड़ा सुने । अब तुम भी ज़्यादा मत बोलो ....निमाई क्या , कौन युवा लड़का अपनी माँ के पास बैठकर उसकी बात सुनता है क्या ? लड़के हैं ...बाहर जायेंगे खेलेंगे अपना भविष्य बनायेंगे ....हम लोगों का क्या है ...हम तो हर समय की दुखी ही हैं ।
शचि माँ आज गंगा घाट पर आकर क्या बैठीं .....महिलायें पास बैठ कर अपनी अपनी बात कहने लगीं । शचि ! दुखी मत हो निमाई के लिए दूसरी लड़की देख ले ....ये वृद्ध महिला थी ...सब नवद्वीप की महिलायें इसका आदर करती थीं ....ये आकर माँ शचि के पास बैठ गयी थीं ....और इन्होंने माँ शचि को अपनी बात कह भी दी थी । पर शचि माँ कुछ नही बोलीं ....अपने सफेद साड़ी के पल्लू से अपने अश्रु ही पोंछती रहीं ।
देख शचि ! अपने हृदय की बात हमें बता ....ऐसे रोने से काम नही चलेगा , तू किसी को नही बतायेगी ना तो तो अस्वस्थ हो जायेगी ....बोल , बता दे । महिलाओं ने शचि माँ से आत्मीयता भरे शब्द बोले ।
लम्बी साँस ली शचि माँ ने .....फिर उन्होंने बताना प्रारम्भ किया ।
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श्री ईश्वर पुरी नाम है उन सन्यासी महात्मा का ....वो दो चार दिन से मेरे घर में आरहे हैं ....और घर में आकर सीधे पूछते हैं ....माँ ! निमाई है ? दो बार तो मैंने झूठ बोल दिया ....नही है ....तो कहने लगे कि आए तो बोल देना ....ईश्वर पुरी आये थे ....वो समझ जायेंगे ।
शचि माँ इतना बोलकर चुप हो गयीं ......सारी महिलायें सुन रही थीं शचि माँ की बात.....पर इसके आगे जब माँ शचि ने कुछ नही बोला । तो ? सारी महिलाओं ने पूछा ।
तो क्या ! निमाई जब घर में आया तो मैंने उसे बता दिया ....कि कोई सन्यासी महात्मा आये थे .....बस , श्रीईश्वर पुरी जी ? मैंने कहा ...हाँ ....तो वो उछलते कूदते भागा । मैंने उसे रोकना चाहा ....क्यों की भोजन का समय हो गया था .....पर उसे मेरी कहाँ चिन्ता ? शचि माँ फिर इतना बोलकर अश्रु बहाने लगीं ।
शचि ! पर हम ये समझ नही पाईं कि ...एक सन्यासी महात्मा के प्रति निमाई अगर भाव भक्ति रखते हुए चला गया तो इसमें रोने की क्या बात है ? उस वृद्ध महिला ने समझाना चाहा ।
निमाई उस दिन अर्धरात्रि में आया ....मैं उसकी प्रतीक्षा करती रही ....बाहर जाकर अड़ोस पड़ोस में भी पूछ आई ...पर कहीं उसका पता नही ....परेशान हो गयी थी इस तरह आधी रात जब बीती तब आता है निमाई ....और निमाई ऐसे आया था जैसे मदिरा पी ली हो उसने ।
हाय ! पण्डित निमाई ने मदिरा ? महिलायें जब “हाय-होय” करने लगीं ...तो शचि माँ ने कहा ...मेरा निमाई सपने में भी मदिरा आदि नही पी सकता ....पर उस समय उसकी चाल , उसके हाव भाव ऐसे थे कि जैसे मत्त मदिरा का पान करके वो आया हो ।
अच्छा , वो कहाँ गया था , और क्या करके आया था ?
उन्हीं सन्यासी के पास गया था ...और उसके मुख से “कृष्ण कृष्ण” अपने आप प्रकट हो रहा था ।
मैंने उसे डाँटना चाहा पर वो तो मुझे बड़े प्रेम से अपने पास बिठाकर बोला ....माँ ! श्रीकृष्ण की लीला लिखी है श्रीमान ईश्वर पुरी जी ने ....श्रीकृष्ण लीलामृत ....आहा ! रस ही रस है उसमें ...मैं भी पागल हूँ ना माँ ! रसराज में रस नही होगा तो फिर किसमें होगा ? श्रीकृष्ण तो रस सिन्धु हैं ...रस सागर हैं ...रसेंदु हूँ ...रस शेखर हैं ....अरी मेरी माँ ! वो स्वयं रास हैं । रास । ये कहते हुए वो सोने के लिए चला गया । मैंने उसे कहा ...निमाई कुछ खा ले ...वो बिना उत्तर दिये जाकर सो गया ....पर सोने से पहले वो इतना अवश्य बोला था ....कल श्रीईश्वर पुरी जी भिक्षा के लिए आरहे हैं ...माँ , तैयारी करना । माँ शचि इतना ही बोलीं और मौन हो गयीं ।
गंगा घाट की सभी महिलायें मौन ही रहीं ....कुछ देर बाद शचि माँ ने फिर बोलना प्रारम्भ किया ....श्रीकृष्ण लीलामृत नामका ग्रन्थ लिखा है उन सन्यासी महात्मा ने ...मेरे निमाई को सुनाना है उन्हें ....दूसरे दिन भिक्षा में आये ....मेरे निमाई को नज़र लगायेंगे वो सन्यासी ....मुझे डर लगता है ........माँ शचि ने कहा । हाँ , शचि ! तेरा बड़ा बेटा भी तो सन्यासी हो गया था ना ! वृद्ध महिला ने शचि माँ से कहा ।
हाँ , यही तो डर है मुझे .....मेरा इकलौता निमाई अगर सन्यासी हो गया तो मुझ बूढ़ी शचि की देख रेख कौन करेगा ? चलो , मेरा क्या है ...मैं तो कुछेक वर्षों में मर जाऊँगी ...पर निमाई का क्या होगा ? उसका तो जीवन बर्बाद ही हो गया ना ।
और सुनो , जब वो सन्यासी मेरे निमाई को देख रहे थे ...मुझे तो लग रहा था पक्का ये निमाई को बाबा जी बनाकर ही रहेंगे । अरे हद्द तब हो गयी ...जब भिक्षा न लेकर वो निमाई को ही देख रहे हैं ....ये भी कोई बात है ।
अब कहाँ है वो सन्यासी ?
निमाई कह रहा था ...कि गया तीर्थ में चले गये हैं ...मैं भी जाऊँगा वहाँ ।
ना , शचि ! जाने मत देना निमाई को ऐसे किसी भी सन्यासी के पीछे । पर ये शचि बेचारी भी कहाँ तक रोकेगी ....रोकती तो बहु है । ऐ शचि ! कोई लड़की देख ना ! नवद्वीप में कोई कमी थोड़े ही है लड़कियों की ....और अपना निमाई सुन्दर है विद्वान है ...हंसमुख है ...और क्या चाहिए ।
पर दूसरी शादी है ना ! एक महिला ने ये भी कह दिया । क्यों तेरे पति ने दो नही रखीं ? उसी महिला को पहली ने जबाब दे दिया था । और निमाई की पहली पत्नी तो स्वर्गवासी हो गयी ना ! निमाई कोई भोग-विलास के लिए तो दूसरी रख नही रहा ...जो भी आएगी वही रहेगी । वृद्ध महिला ने स्पष्ट कह दिया था । तू देख शचि ! हमें बता दियो कौन सी तुझे अच्छी लगी ...बिचौलिया हम भिजवा देंगे ....और निमाई के लिए कौन मना करेगा ?
तभी -
ये कौन है ? सुन्दर , अत्यन्त सुन्दर कन्या , सुवर्ण के समान गौर वर्ण ...मृग के समान नयन .....वय कम ही थी पर काम पत्नी रति पूर्ण रूप से इन पर प्रसन्न थी .....गंगा स्नान करते हुए अपनी सखियों द्वारा जल छींटे जाने पर जो उसकी हंसी गूंज रही थी वो वातावरण को मधुरातिमधुर बना रही थी ।
ये कौन है ? माँ शचि उठ गयीं ...उस कन्या का भी स्नान पूरा हो गया था ....गीली साड़ी में ही बाहर आई ....फिर अपने केशों को झटका ...साड़ी पहनी ....साड़ी भी बड़े सलीके से बांधा था ।
जब चलने लगी ....तो ध्यान गया माँ शचि पर ....शचि देवि थोड़ा झेंप गयीं ...उन्हें लगा कन्या को मैं घूरे जा रही थी इसे बुरा तो नही लगा । पर वो शचि देवि के पास आई ....और झुककर शचि देवि के चरण छूए .....क्या नाम है पुत्री ? शचि माँ ने पूछा । विष्णुप्रिया ....कन्या ने उत्तर दिया । किसकी पुत्री हो ? तुम्हारे माता पिता ? क्या नाम है तुम्हारे माता पिता का ?
“आपकी ही पुत्री है” ....पीछे से महामाया देवि आयीं थीं ...ओह ! ये आपकी पुत्री है ? शचि माँ ने विष्णुप्रिया को अपने हृदय से लगा लिया ....और मन ही मन भगवान को मनाने लगीं यही मेरी बहु बने ....हे हरि ! मेरी इतनी सी प्रार्थना सुन लेना । शचि माँ बहुत प्रसन्न थीं आज ।
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आप इतना क्यों सोच रहे हैं ....निमाई सुन्दर है ...विद्वान है ....प्रेमी है ...फिर क्या दिक्कत है अपनी विष्णुप्रिया को देने में ? रात्रि में मिश्र दम्पति चर्चा कर रहे हैं ....सनातन मिश्र जी बोले ...मुझे कोई दिक्कत नही है ...देवि ! निमाई हमारे दामाद बनेगे तो ये हमारे कुल का गौरव होगा ...फिर क्या बात है ? महामाया देवि ने पूछा ...निमाई का विवाह दूसरा है , इसलिये आप किन्तु परन्तु सोच रहे हैं । नही देवि ! निमाई जैसा जामाता मिले तो ये बात गौण हो जाती है ।
फिर आप क्या सोच रहे हैं ? हम किसके द्वारा ये बात शचि देवि तक पहुँचायें ! आप भी ना , सनातन मिश्र जी को महामाया देवि ने कहा ....हमारे पास पण्डित जी हैं ना....जो विवाह की बात शचि देवि के पास जाकर करेंगे । किन्तु निमाई ने मना कर दिया तो ? सनातन मिश्र अपनी पत्नी से बोले । आप भी ना , हमारी विष्णुप्रिया चन्दा की उजियारी है ....उसे निमाई मना नही कर सकते । सनातन मिश्र कुछ देर के लिए अब मौन हो गये थे ।
विष्णुप्रिया को आज नींद नही आरही ...निमाई का मुखचन्द्र इसके हृदय में बार बार उभर रहा है । ये अकेले ही हंसते हुए जब अपने हृदय में हाथ रखती है ....तो उसकी धड़कनें तेज हो रही हैं ...वो अनुभव करती है.....ये फिर करवट बदल लेती है ...मेरे प्रियतम के नयन ...प्रिया आँखें मूँद लेती है ...मेरे प्राण के वो घुंघराले केश ....और हाँ ...उन केश की एक लट जब उनके कपोल को छूती है तब ऐसा लगता है मानों कमल को भौंरे ने छू लिया ....ओह ! विष्णुप्रिया आज अपने में नही है ।
।। विष्णुप्रिया चाहे निमाई भालोवासा ।।
शेष कल -
✍️श्री श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( दशमोध्याय:)
31, 3, 2023
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गतांक से आगे -
इधर शचि देवि रात भर विष्णुप्रिया के विषय में सोचती रहीं ...कितनी सुन्दर है ...कितनी सुशील है ...मेरे निमाई के लिए बिल्कुल सही जोड़ी ....शचि माँ कल्पना करती हैं ....विष्णुप्रिया और अपने निमाई को हृदय में रखकर उस छवि की भावना करते हुये स्नेह सिन्धु में डूब जाती है । भगवान विष्णु का नाम बारम्बार ले रही हैं ....हे भगवान श्रीविष्णु , हे नारायण देव , हे गरुड़ध्वज ! हे मुकुंद ! और भाव से कह रही हैं ....”विष्णुप्रिया को मेरी बहु बनाना”। इसी चिन्तन में रात बीत गयी ...सुबह ये उठीं .....भगवान का नाम लिया ....फिर वही प्रार्थना - विष्णुप्रिया इस घर में निमाई की वधू बनकर आये ।
सूर्योदय होने वाला है ....स्नानादि से निवृत होकर पूजा पाठ आदि सब कर लिया है ....दूध और भूजा निमाई के लिए रख दिया है ....निमाई गंगा स्नान के लिए गये हैं ....सन्ध्या गायत्री आदि सब ब्राह्मण कर्म ये वहीं करते हैं ।
शचि देवि बाहर आँगन में अकेली बैठी हैं ...पर सोच में वही है ....विष्णुप्रिया । अब तो जैसे भी हो विष्णुप्रिया-निमाई की चर्चा चलाई जाये । कहीं मना कर दिया सनातन मिश्र जी ने तो ? मन फिर दुखी हो गया शचि माँ का । कह दिया “दूजवर” है निमाई तो ! पुनर्विवाह करने वाले पुरुष को समाज में यही नाम तो दिया जाता है ...निमाई की ये दूसरी शादी है । ओह ! तो क्या विष्णुप्रिया निमाई को नही मिलेगी ? शचि देवि के कुछ समझ में नही आरहा ....तभी इन्हें पड़ोस के पण्डित काशीनाथ स्मरण में आये ...विवाह आदि की बातें करना ...दो परिवार को जोड़ना , कुल मिलाकर मध्यस्थता की भूमिका काशीनाथ अच्छी निभाते हैं ...शचि देवि बहुत प्रसन्न हो गयीं ...इनका काम ही है ये ...हाँ इसके लिये ये धन लेते हैं ...तो क्या हुआ दे दूँगी धन ।
आप भी कैसी बात करती हो शचि देवि ! मैं आपसे धन लूँगा ...निमाई का घर बसे ये तो हम भी चाहते हैं ....काशीनाथ पण्डित को आखिर बुलवा ही लिया शचि माँ ने ...और उनसे कहा ...निमाई के विवाह की चर्चा चलानी है ....और केवल चलानी ही नही है ....विवाह करवानी है ...आप जो अन्यों से लेते हैं धन मैं आपको दूँगी ...आप उसकी चिन्ता ना करें ...बस मेरे निमाई का विवाह करवा दें । ये सुनकर पण्डित काशीनाथ बोले थे ....धन आदि मुझे मिलते रहते हैं ....मैं आपसे धन नही लूँगा ....निमाई का विवाह हो ये मैं भी चाहता हूँ ....अच्छा ! शचि देवि कोई लड़की देखी है ? या मैं देखूँ ?
नही पण्डित जी , आपको देखने की आवश्यकता नही है ....मैंने देख ली है ...आपको बस उनके मुख से “हाँ” कहलवाना है ...और पण्डित जी ! ये काम आप अच्छे से कर सकते हो ...शचि देवि की बात सुनकर तुरन्त पण्डित जी बोले ...लड़की के पिता का नाम बताओ ! सनातन मिश्र ...शचि देवि ने कहा । वो राजगुरु ? पण्डित जी चौंकें ...हाँ , हाँ पण्डित जी ! वही जिन्हें नवद्वीप राजगुरु के नाम से जानती है वही सनातन मिश्र जी । कुछ देर सोचने के बाद पण्डित हंसे और बोले ...वो बालिका विष्णुप्रिया ? मुस्कुराते हुये शचि देवि ने पूछा ....पण्डित जी ! कैसी जोड़ी रहेगी दोनों की ? कामदेव और रति .....शचि देवि ! अद्भुत जोड़ी रहेगी ....बहुत सुन्दर ! किन्तु सनातन मिश्र जी मना तो नही करेंगे ? मैं हूँ ना, आप बिल्कुल चिन्ता ना करें ....ये कहते हुए उसी समय पण्डित जी ने अपना स्वर देखा ...दाहिना स्वर चल रहा था ...जो शुभ माना जाता है ...वो उसी समय वहाँ से निकल गये ।
अरे काशी काका ! बड़े दिनों बाद हमारे घर में पधारे ....कैसे ? सब ठीक हैं ना ?
गंगा स्नान करके निमाई घर आरहे थे ...घर से निकलते पण्डित जी को देखा तो हाथ जोड़ते हुए बोल दिये । ठिठक कर निमाई को सम्पूर्ण देखा पण्डित काशीनाथ ने ....अपने ही शब्द उन्हें भले लगे थे ...कामदेव और रति की जोड़ी होगी विष्णुप्रिया और निमाई की ....लम्बा क़द , गौर वर्ण , घुंघराले केश ...अद्भुत अनुपम ......क्या हुआ काका ! कुछ तो बोलिये ! निमाई कहते रहे पर पण्डित जी कुछ बोल न सके ....अपलक देखने के बाद बिना कुछ निमाई से बोले ....दुर्गा , दुर्गा , दुर्गा ....भगवती का नाम लेते हुए काशीनाथ सनातन मिश्र जी के यहाँ चले गये थे ।
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पण्डित काशीनाथ को बड़े आदर से सनातन मिश्र जी ने आसन दिया ...जल फल आदि देकर पूछा ....आपके आने का कारण कोई विशेष था या ऐसे ही अनुकम्पा करने के लिए पधार गये ।
पण्डित काशीनाथ ने बात को घुमाते हुए कहा ....गंगा घाट पर आपकी पुत्री को देखा था ...वो सुन्दर सी विष्णुप्रिया नाम की कन्या आपकी ही है ना ? भीतर से महामाया देवि आयीं और हाथ जोड़कर बोलीं ....जी , हमारी कन्या है । उसके सम्बन्ध की चर्चा करूँ तो आप लोग अन्यथा नही लेंगे ! सनातन मिश्र जी ने अपनी पत्नी की ओर देखते हुये कहा ...आप कहिये ...हमें आप पर पूरा विश्वास है ....आप से हमारा हमारे परिवार का हित ही होगा ।
तभी विष्णुप्रिया ने घर में प्रवेश किया ...वो भी गंगा स्नान करके आई थी...काशीनाथ जी को देखा तो अपरिचित होने के बाद भी ....उन्होंने पास में जाकर प्रणाम किया । काशीनाथ विष्णुप्रिया को देखते रह गये ....अद्भुत सौन्दर्य था ....गौर वर्ण ....गौर वर्ण भी तपते सुवर्ण की तरह ....ठिठक गये पण्डित काशीनाथ । फिर अपने को सम्भाला ....और सनातन मिश्र जी की ओर देखते हुये बोले ....अद्भुत जोड़ी रहेगी ...हे राजगुरु ! ऐसी जोड़ी अब विधाता मिलाने जा रहा है ...जो नवद्वीप में तो क्या पूरे संसार को खोजे नही मिलेगी ।
आप अब पहेली न बुझायें पण्डित जी ! सीधे नाम बतायें ।
आपने स्वर्गीय पण्डित श्रीजगन्नाथ जी का नाम तो सुना ही होगा ? ये सुनते ही महामाया देवि मुस्कुराते हुये अपने पति की ओर देखने लगीं ....महामाया देवि के हृदय में आनन्द का श्रोत उमड़ पड़ा था ....पर सनातन मिश्र के संकेत से उन्होंने ये सब छुपा लिया और गम्भीर बनने का स्वाँग करने लगीं । जी , सुना है ...सनातन मिश्र जी भी गम्भीर स्वर में बोले ....तो लो उन्हीं के पुत्र हैं ...निमाई को तो पूरा नवद्वीप जानता ही है ...तो आपने नही जाना होगा ये सम्भव ही नही है ....धाराप्रवाह बोले जा रहे थे पण्डित काशीनाथ ....विष्णुप्रिया से अब वहाँ खड़ा नही हुआ जा रहा ....उनके हृदय में जो आनन्द उमड़ घुमड़ पड़ा है ...उसे सम्भालना अब कठिन है ....ये कुछ देर और वहाँ खड़ी रहीं ...तो सब के सामने “प्रेम”प्रकट हो जायेगा ....इसलिये विष्णुप्रिया वहाँ से चली गयीं ।
आहा ! क्या जोड़ी रहेगी .....कामदेव और रति ....नही नही , भगवान शंकर और पार्वती ...नही नही ...भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ....पण्डित जी स्वयं गदगद हो रहे थे ।
अब सनातन मिश्र के नेत्र अत्यन्त हर्ष के कारण सजल हो गये ...और उन्होंने कहा ...पण्डित जी ! मेरे मन में ये आकांक्षा थी ही कि निमाई को ही मैं अपनी पुत्री दूँ ...आप ने आकर हमें जो सुख दिया है आपने सम्बन्ध बताकर जो प्रसन्नता इस मिश्र परिवार में फैलाई है ...उसके लिए तो आपके हम जीवन भर आभारी ही रहेंगे ।
पर क्या आपने शचि देवि को ये बात बताई ? ये प्रश्न कुछ देर बाद महामाया देवि ने पूछा था ।
पण्डित जी हंसते हुए बोले - उन्हीं ने मुझे यहाँ भेजा है ....ये और सुनते ही सनातन मिश्र और उनकी श्रीमति का आनंद शतगुण और बढ़ गया था ....महामाया देवि तो भीतर जाकर मिठाई लेकर आईं और पण्डित जी का मुख मीठा कराया ।
कहने के लिए अब कुछ नही था , क्यों की कन्या पक्ष वाले इस सम्बन्ध से बहुत प्रसन्न हो गये थे ।
और निमाई के विषय में कुछ कहना था नही क्यों कि पूरा नवद्वीप निमाई को जानता था ।
इसलिए तुरन्त ही पण्डित जी मिठाई खाकर वहाँ से चल दिये ......उन्हें शचि देवि के पास जाकर ये शुभ सूचना देनी थी कि सनातन मिश्र और उनके परिवार को भी ये सम्बन्ध स्वीकार है ।
पण्डित जी ! एक बात कहेंगे हम आपसे । सनातन मिश्र जी ने जाते हुए पण्डित से कहा ...
जो भी बात हो शचि देवि के घर में ...सारी बातें यहाँ आकर आप स्पष्ट बतायेंगे ।
और हाँ पण्डित जी ! एक बात और ....निमाई की सोच क्या है विवाह के प्रति ....ये भी हमें पता चले ...कहीं ऐसा न हो कि निमाई की इच्छा नही है और उनकी माता जी ही प्रयास में लगीं हैं ।
ये बात श्रीमति मिश्र ने कही थी ।
मुझे पूरा नवद्वीप जानता है ...और आप लोग भी जानते हैं ...मैं जो विवाह करवाता हूँ , सम्बन्ध जोड़ता हूँ वो अटल होता है .....मैं कुछ भी छुपाता नही हूँ ...और छुपाना भी नही चाहिए ।
पण्डित काशीनाथ पूर्ण आश्वासन देकर सनातन मिश्र जी के यहाँ से चल दिए शचि देवि के यहाँ ....वहाँ जाकर इन्हें यहाँ की बातें भी तो बतानी है ।
“एक बार शचि देवि से बात करके यहाँ अवश्य आइयेगा” ....ये बात भी महामाया देवि ने पण्डित जी से कही थी ।
विष्णुप्रिया छुपकर सारी बातें सुनती रहीं ....उन्हें जिस आनन्द का अनुभव हो रहा था उसे तो लिखा नही जा सकता ।
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पण्डित जी ! क्या कहा सनातन मिश्र जी ने ? उनकी धर्मपत्नी ने क्या कहा ?
क्या निमाई के सम्बन्ध को लेकर वो प्रसन्न हुए या मना कर दिया । शचि देवि ने जब पण्डित काशीनाथ को अपने यहाँ देखा तो उन्होंने शान्ति से बैठकर ये सारे प्रश्न पूछ लिए ।
शचि देवि ! क्या मुँह मीठा नही कराओगी !
ये वाक्य पण्डित जी के मुख से सुनते ही वर्षों बाद आज शचि देवि हंसीं ...खुलकर हंसीं ....वो समझ गयीं कि सनातन मिश्र जी मान गये हैं ....भीतर जाकर तुरन्त मिठाई लाईं और पण्डित जी के आगे रखते हुये बोलीं ....क्या कहा ? वो तो बहुत प्रसन्न हो गये ....सनातन मिश्र जी तो इस सम्बन्ध को चाहते ही थे ...निमाई उन्हें पूर्व से ही प्रिय थे ...शचि देवि ! अब कोई बाधा नही है ....तुम निश्चिन्त होकर विवाह की तैयारियों में लग जाओ ।
आहा ! ये सुनते ही शचि देवि के नेत्रों से अब आनन्द के अश्रु बह चले थे ......वो ऊपर देखतीं हैं ...निमाई के पिता जी आज होते तो कितने प्रसन्न होते ....निमाई को उसके अनुरूप कन्या मिल रही है ....फिर भाव में भरकर शचिदेवि पण्डित जी से कहती हैं ..हम तो आपके आभारी हैं ...हमारा परिवार आपका आभारी है ...आपने इस बूढ़ी शचि की बात रख दी और अब इस बात को लक्ष्य तक पहुँचाना भी आपका ही कार्य है । पण्डित जी मुस्कुराते हुये उठे और बोले ....आप अब बहू के सपने देखो जो साकार होने जा रहे हैं ....मैं तो चला ....
पर कहाँ चले पण्डित जी आप ? शचि देवि ने सहज में पूछा ।
कहाँ जाऊँगा आपके ही कार्य के लिए जा रहा हूँ ...सनातन मिश्र जी और उनकी पत्नी को आपके साथ हुई वार्ता तो बता दूँ ....फिर आगे का काम वही देखेंगे । शचि देवि ने उठकर हाथ जोड़ा और पण्डित जी चले गये ....पर बाहर फिर निमाई मिल गये ...ये विवाह आदि का सम्बन्ध बनाने वाले पण्डित जी हैं ....वयोवृद्ध हैं ...अपने जीवन काल में इन्होंने हजारों सम्बन्ध बना दिए और सब सफल हैं । निमाई को देखा तो निमाई ने तुरन्त कहा ...काका ! आज कल बड़े व्यस्त हो ! हमसे तो बात ही नही करते । पण्डित जी ने निमाई का हाथ पकड़ कर कहा ...तुम्हारे ही कामों में लगा हूँ ....मेरा काम ? मेरा काम क्या है !
निमाई ! विवाह हो रहा है तुम्हारा.....
निमाई ने जैसे ही ये सुना .....तुरन्त बोले ...विनोद बहुत करते हैं आप काका ! मेरा विवाह तो हो गया ...मुझे नही करना अब विवाह । ये कहते हुए निमाई आँधी की तरह फिर चले गए ।
ये क्या ? निमाई विवाह नही करेगा ? पण्डित जी दुखी हो गये ...सोचते सोचते वो सनातन मिश्र जी के यहाँ पहुँच गये ।
सब लोग बैठे हैं ....एक ज्योतिषी को भी मिश्र जी ने बुला लिया है ....पण्डित जी जैसे ही गये ...सबने बैठाया ...फिर महामाया देवि ने पूछा ...शचि देवि क्या बोलीं ? विष्णुप्रिया दूर खड़ी है....वो जानबुझकर ऐसे खड़ी है....ताकि लोगों को उन पर सन्देह ना हो कि अपने विवाह की बातें ये सुन रही है ।
मैंने सारी बातें बता दीं ...शचि देवि आपलोगों की बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं । इतना बोलकर पण्डित जी फिर चुप हो गये । और ? सनातन मिश्र जी ने पूछा । और कुछ नही अब विवाह की तैयारियाँ की जायें । पण्डित जी की बातों में पहले वाली बात नही थी । सनातन मिश्र जी ने पण्डित का हाथ पकड़ा और बड़े प्रेम से बोले ....हम कन्या पक्ष वाले हैं ...कुछ मत छुपाइये ...जो बात है खुल कर कहिये हम अन्यथा नही लेंगे । पण्डित जी ने देखा ..फिर विचार करने लगे ...आज तक मैंने जो बात है स्पष्ट कही है ...फिर आज क्यों छुपाऊँ ? पण्डित जी ने फिर सोचा - मैंने निमाई की बात कह दी तो कहीं सम्बन्ध ही टूट गया तो ? फिर मन ही मन पण्डित जी हंसे ...सम्बन्ध तो भगवान बनाते हैं ......
क्या बात है कहिये पण्डित जी ! कुछ मत छुपाइये ।
अब तो विष्णुप्रिया भी ध्यान से पण्डित जी की बातें सुनने लगीं ....क्या हुआ ऐसा जिससे पण्डित जी इतने गम्भीर हो गये ।
देखिये सनातन मिश्र जी ! देवि शचि से बात करते ही मैं जैसे ही बाहर आया तो मुझे निमाई मिला ...मैंने उससे कहा ...तुम्हारे विवाह की बात कर रहा हूँ ....तो उसका उत्तर था ..मेरा विवाह ? मुझे विवाह नही करना ।
ओह ! ये सुनते ही विष्णुप्रिया के आँखों के सामने अन्धकार छा गया ....उसे लगा उसका संसार बसने से पहले ही उजड़ गया ....अब निमाई विवाह नही करेंगे , क्यों ! फिर ये मेरा जीवन ! विष्णुप्रिया धीरे धीरे अपने कक्ष की ओर चली.....उनको सम्पूर्ण जगत अब शून्यवत् प्रतीत हो रहा था .........
शेष कल -
✍️श्रीजी मंजरीदास (श्री श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकादशोध्याय:)
1, 4, 2023
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गतांक से आगे -
“विधुमुखी” ....ये चाची थी विष्णुप्रिया की ....सनातन मिश्र जी के एक छोटे भाई भी थे जिनका नाम कालिदास था ...विवाह के कुछ समय बाद ही ये परलोक सिधार गये थे ...पर कोख में एक बालक था , विधुमुखी ने उसी को जन्म दिया था ....पर ये अपने पुत्र की अपेक्षा विष्णुप्रिया को ही ज़्यादा स्नेह करती थी । भोली थी विधुमुखी ....विष्णुप्रिया को दुखी कभी देख नही सकतीं थी।
आज ये मिश्र परिवार बहुत प्रसन्न है ....विधुमुखी भी बहुत प्रसन्न है । विष्णुप्रिया का विवाह जो होने वाला है ...इन्हीं तैयारियों में ये जी जान से लगी है । पर विधुमुखी को ये पता नही कि पण्डित काशीनाथ जी क्या कह कर चले गये ....वो गये नही महामाया देवि ने उन्हें भेजा ...और कहा कि अभी जाइये और निमाई के मन की बात को समझ कर आइये ....अन्यथा ये विवाह सम्भव नही होगा । सनातन मिश्र भी उदास हैं ...पण्डित जी चले गये हैं विवाह के प्रति निमाई की स्पष्टता जानने के लिए ।
पर विधुमुखी .....
विष्णुप्रिया ! प्यारी प्रिया ! दरवाज़ा तो खोल ...देख मैं तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ ......
किन्तु विष्णुप्रिया ने अपने कक्ष का द्वार नही खोला ....विधुमुखी चिन्तित हो गयीं ....उन्होंने महामाया देवि से ये बात कही ....पर महामाया का ध्यान निमाई की ओर था इसलिये विधुमुखी को कह दिया ....थक गयी होगी ...सो गयी है । पर विष्णुप्रिया अभी सो नही सकती ....विधुमुखी ने धीरे से कपाट के छिद्र से देखा ...तो वो स्तब्ध हो गयी....विष्णुप्रिया की स्थिति विचित्र थी ......नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे .....विष्णुप्रिया एक ओर ताकती ही जा रही है .....उसके पलक तक नही गिर रहे ....फिर एकाएक वो चारों ओर देखने लग जाती है ...फिर पेट के बल लेट जाती है ...तकिये को अपने अश्रुओं से भिगो दिया है ।
विष्णुप्रिया ! ओ प्रिया ! इस बार सुन ली चाची विधुमुखी की आवाज , अपने अश्रुओं को पोंछकर द्वार खोल दिया । और तकिये को अपने गोद में रखकर बैठ गयी ।
क्या हुआ विष्णुप्रिया ! तुम्हारा तो विवाह होने जा रहा है ...फिर ऐसे शुभ वेला में ये उदासी , ये रुदन क्यों ? क्या तुम्हें निमाई प्रिय नही है ?
नही नही काकी ! ऐसा मत कहो ....वो तो मेरे जीवन सर्वस्व हैं ...मेरे प्राण हैं ...मेरे जीवन धन हैं ....प्रिय शायद उन्हें मैं नहीं ....ये कहते हुए विष्णुप्रिया अपनी चाची के हृदय से लग गयी थी ।
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निमाई ! इधर आओ ,
शचि देवि को जाकर पण्डित काशीनाथ जी ने सारी बात बता दी ....और ये कह दिया -जब तक निमाई अपने मुख से ना कह दे कि ...हाँ मैं सनातन मिश्र जी की पुत्री से विवाह करूँगा तब तक ये विवाह सम्पन्न नही होगा ।
निमाई भात खा रहे थे .....
शचि देवि से पण्डित जी ने ये भी कहा कि इस तरह मैं विवाह नही कराता ....जो बात है स्पष्ट होनी चाहिये ....आप तैयार हो शचि देवि ! पर विवाह तो निमाई के साथ होनी है ना ! इसलिये स्पष्टीकरण अभी हो ...
वो भात खाते रहे ....और पण्डित जी की बातें सब सुनते रहे ....आज जानबूझकर कर विलम्ब कर रहे हैं निमाई .....माता शचि ने फिर आवाज दी ...इस बार बोले ...”भात तो अच्छे से खाने दे माँ”।
देखो , शचि देवि ! मैं पागल हूँ ? जो सुबह से शाम होने को आई ...कभी इधर कभी उधर भाग रहा हूँ ....तुम कहती हो ...विवाह पक्का है ...तुम्हारा निमाई कह रहा है ...उसे विवाह ही नही करनी । लड़का ही तैयार नही है तो क्या ज़बर्दस्ती लड़की उसके गले में बाँध दोगे ...इसलिये जो बात है पक्की हो ...शचि देवि ! मेरी भी तो इज्जत है .....
काशी काका ! तुम्हारी ही तो इज्जत है ....सबका घर बसाते हो ...सबके घरों में ख़ुशियाँ भर देते हो ...बड़ा पुण्य का काम है काका । निमाई खाकर आगये थे ....हाथ धोकर गमछा से पोंछते हुए बोल रहे थे ।
निमाई ! बैठ .....शचि माँ ने उसे पास में बिठाया .....निमाई ! देख , सनातन मिश्र जी की बेटी है विष्णुप्रिया .......माँ ! तुम्हें ठीक लग रहा है ? निमाई ने अपनी माता की पूरी बात भी नही सुनी ...और बोले ...माँ ! तुम्हें ठीक लगे वही करो ।
पर निमाई ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? काशीनाथ पण्डित जी ने अब गम्भीरता के साथ पूछा ।
काशी काका ! आप देख लो ...मेरी माँ को ठीक लग रहा है ...मुझे भी ठीक लग रहा है ।
तो फिर तुमने क्यों कहा था कि मुझे विवाह नही करना ? काका ! क्या तुम्हारा निमाई तुमसे विनोद भी नही कर सकता ? तो बोल दो ...मैं भी अध्यापक हूँ ...उसी भाषा में बोला करूँगा ।
काशीनाथ पण्डित जी अब सन्तुष्ट हुये थे ...शचिदेवि का मुखमण्डल खिल गया था ...तो निमाई ! मैं जा रहा हूँ ...और अब तिथि तय होने वाली है तुम्हारे विवाह की । कर दो काका निमाई का विवाह ...फिर बजने दो शहनाई ...निमाई हंसकर ये कहते हुए वहाँ से अपने पाठशाला चले गये।
पण्डित जी ! तुम तो जानते ही हो ....निमाई बचपन से ही ऐसा है ....कभी गम्भीर होता ही नही है ...ऐसा ही अल्हड़ है ....हर समय विनोद के मूड में ही रहता । आप जाओ और तिथि तय करके आओ । पण्डित जी ने अब राहत की साँस ली थी ...पण्डित जी को अब प्रसन्नता हो रही थी ....वो तेज चाल से सनातन मिश्र जी के घर की ओर चल दिये थे ।
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विष्णुप्रिया ! क्या बात है क्यों रो रही हो ? मुझे पता है अपने हृदय की बात कन्या बहुत छुपा कर रखती है ...कहीं तुम किसी ओर से प्रेम तो नही करतीं ? विधुमुखी पूछ रही हैं ....क्या तुम्हें प्रेम हो गया है ...क्यों की इस तरह प्रेम में ही लड़कियाँ रोती हैं ।
तभी नीचे पण्डित काशीनाथ के आने की आहट सुनाई दी ....वो सनातन मिश्र जी को पुकारने लगे थे ....उनकी आवाज़ सुनकर महामाया देवि और सनातन मिश्र जी दोनों आगये .....ये क्या!विधुमुखी ने देखा विष्णुप्रिया एकाएक उठकर बाहर गयी और चुपके से परिवार की बात सुनने लगी ।
मैंने निमाई से स्पष्ट पूछा ....कि तुम्हें इस विवाह में रुचि है या नही ?
तो क्या उत्तर दिया निमाई ने ? महामाया देवि ने पूछा । विष्णुप्रिया का ये सब सुनते हुये हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा है .....सनातन मिश्र जी भी पण्डित की ओर ही देख रहे हैं .....
निमाई ने कहा ...मैं विनोद कर रहा था ...ये सम्बन्ध मुझे स्वीकार है ।
ये सुनते ही विधुमुखी के हृदय से चिपक गयी विष्णुप्रिया और हंसते हुए बोली ...विनोद कर रही थी मैं तो ? विनोद ! विधुमुखी भोली भाली है ....हाँ क्या विनोद वही कर सकते हैं ? ये कहते हुए इतरा रही थी विष्णुप्रिया ।
तभी ज्योतिषी को बुलाया गया ...तिथि का निश्चय किया गया ....और निश्चय होते ही मंगल वाद्य सब बज उठे ....सब महिलायें मंगल ध्वनि करने लगीं । नवद्वीप में ये बात अब फैली ....विष्णुप्रिया और निमाई के विवाह की बात सुनते ही पूरा नवद्वीप झूम उठा था ...सब कह रहे थे बहुत सुन्दर जोड़ी है ....उपमा सब सीताराम या रुक्मिणीकृष्ण की ही दे रहे थे ।
शचि देवि के आनन्द का कोई पारावार नही है ...वर्षों बाद फिर ख़ुशहाली देखेगा ये परिवार ..साड़ियाँ तैयार कर रही हैं शचि माता ..गहने आभूषण ...सब महिलाओं को दिखा रही हैं ....कपड़े का व्यापारी घर में ही आगया है ...वो निमाई के लिए सुन्दर धोती कुर्ता दिखा रहा है ....निमाई धोती कुर्ता देखते हैं और पसन्द भी कर रहे हैं ।
नवद्वीप वासी अपने भाग्य को सराह रहे हैं कि ...सीताराम जी का विवाह तो हम लोग इन नयनों से देख नही पाये ....पर निमाई-विष्णुप्रिया के विवाह का दर्शन वही फल देगा ...वही सुख और आनन्द प्रदान करेगा ।
“चार सौ रुपये” ....कपड़े के व्यापारी ने धोती और कुर्ते का हिसाब करके बताया । पचास धोती थीं ....अन्य को भी तो देना होता है विवाह आदि में । और उतने ही कुर्ते के कपड़े थे ....अभी तो और खर्चा होना था ......विवाह में खर्चा होता ही है ।
निमाई हंसते हुए उस व्यापारी से बोले ....निमाई के पास चार आने हैं ...इतने से हो जाये तो बोलो ....नही तो रहने दो ...हम तो भगवान शंकर की तरह जायेंगे विवाह करने ...बिना कुछ लगाये ....क्या करें ! ब्राह्मण हैं पैसा नही है हमारे पास । ये कहते हुये निमाई उठ गये ...माता शचि ने देखा ...उनके पास भी सब मिलाकर पचास रुपये ही थे ।
निमाई ! मेरे मित्र ! चल मेरी ओर से तेरे विवाह का सारा खर्चा .....ये नवद्वीप का धनी बुद्धिमंत कायस्थ था ...ये निमाई का मित्र था ....अवस्था में निमाई से बड़ा था ...पर निमाई को ये , और निमाई इसे मित्र ही मानते थे ...एक प्रकार का ये नवद्वीप का राजा था.....इसी के तो गुरु थे सनातन मिश्र जी , जो ससुर बनने जा रहे थे निमाई के । निमाई को किसी से धन लेना प्रिय नही था ...मना किया पर बुद्धिमंत कायस्थ ने बात नही मानी ...ये श्रद्धा भी रखता था निमाई के प्रति । पाँच सौ रुपए देकर व्यापारी को भेज दिया बुद्धिमंत ने ...और निमाई से कहा ...सारा खर्चा मेरा होगा ..निमाई ! तुम मुझे रोकोगे नही ।
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पर इतना ही नही ...निमाई तो पाठशाला चलाते थे ...तो इनके जो शिष्य थे वो भी जुट गये ...उन सबने उत्साहित होकर कहा ...हमारे गुरु निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिये जो नवद्वीप ने आज तो देखी नही होगी । धन जुटाना शुरू किया शिष्यों ने आपस में ही ।
अब तो नवद्वीप के आम लोग भी कहने लगे थे कि ...निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिए जैसे ...किसी राजकुमार का हो ....गंगा घाट में आपस में सब लोग कहते ...नवद्वीप का राजकुमार तो है हमारा निमाई । इसके विवाह में कोई कमी नही आनी चाहिए । पूरा नवद्वीप उत्साहित है ...एक अलग ही उमंग से भरा हुआ है ।
रात्रि में अपनी छत में है विष्णुप्रिया और चन्द्र को देख रही है ...पर चन्द्र में इसे निमाई चन्द्र ही दिखाई दे रहा है ...वो असीम सुख का अनुभव कर रही हैं ....पर ....
काकी ! मुझे डर क्यों लगता है ? एकाएक अपनी चाची से विष्णुप्रिया पूछती है ...कैसा डर प्रिया ? कि “वो मुझे छोड़ देंगे”.....पगली है तू ...सो जा .....ये कहकर चाची तो सो गयी ...पर विष्णुप्रिया .....उफ़ ! ये प्रेम देवता भी ना ! जो कराये कम है !
शेष कल -
✍️श्री श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)