आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकादशोध्याय:)
1, 4, 2023
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गतांक से आगे -
“विधुमुखी” ....ये चाची थी विष्णुप्रिया की ....सनातन मिश्र जी के एक छोटे भाई भी थे जिनका नाम कालिदास था ...विवाह के कुछ समय बाद ही ये परलोक सिधार गये थे ...पर कोख में एक बालक था , विधुमुखी ने उसी को जन्म दिया था ....पर ये अपने पुत्र की अपेक्षा विष्णुप्रिया को ही ज़्यादा स्नेह करती थी । भोली थी विधुमुखी ....विष्णुप्रिया को दुखी कभी देख नही सकतीं थी।
आज ये मिश्र परिवार बहुत प्रसन्न है ....विधुमुखी भी बहुत प्रसन्न है । विष्णुप्रिया का विवाह जो होने वाला है ...इन्हीं तैयारियों में ये जी जान से लगी है । पर विधुमुखी को ये पता नही कि पण्डित काशीनाथ जी क्या कह कर चले गये ....वो गये नही महामाया देवि ने उन्हें भेजा ...और कहा कि अभी जाइये और निमाई के मन की बात को समझ कर आइये ....अन्यथा ये विवाह सम्भव नही होगा । सनातन मिश्र भी उदास हैं ...पण्डित जी चले गये हैं विवाह के प्रति निमाई की स्पष्टता जानने के लिए ।
पर विधुमुखी .....
विष्णुप्रिया ! प्यारी प्रिया ! दरवाज़ा तो खोल ...देख मैं तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ ......
किन्तु विष्णुप्रिया ने अपने कक्ष का द्वार नही खोला ....विधुमुखी चिन्तित हो गयीं ....उन्होंने महामाया देवि से ये बात कही ....पर महामाया का ध्यान निमाई की ओर था इसलिये विधुमुखी को कह दिया ....थक गयी होगी ...सो गयी है । पर विष्णुप्रिया अभी सो नही सकती ....विधुमुखी ने धीरे से कपाट के छिद्र से देखा ...तो वो स्तब्ध हो गयी....विष्णुप्रिया की स्थिति विचित्र थी ......नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे .....विष्णुप्रिया एक ओर ताकती ही जा रही है .....उसके पलक तक नही गिर रहे ....फिर एकाएक वो चारों ओर देखने लग जाती है ...फिर पेट के बल लेट जाती है ...तकिये को अपने अश्रुओं से भिगो दिया है ।
विष्णुप्रिया ! ओ प्रिया ! इस बार सुन ली चाची विधुमुखी की आवाज , अपने अश्रुओं को पोंछकर द्वार खोल दिया । और तकिये को अपने गोद में रखकर बैठ गयी ।
क्या हुआ विष्णुप्रिया ! तुम्हारा तो विवाह होने जा रहा है ...फिर ऐसे शुभ वेला में ये उदासी , ये रुदन क्यों ? क्या तुम्हें निमाई प्रिय नही है ?
नही नही काकी ! ऐसा मत कहो ....वो तो मेरे जीवन सर्वस्व हैं ...मेरे प्राण हैं ...मेरे जीवन धन हैं ....प्रिय शायद उन्हें मैं नहीं ....ये कहते हुए विष्णुप्रिया अपनी चाची के हृदय से लग गयी थी ।
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निमाई ! इधर आओ ,
शचि देवि को जाकर पण्डित काशीनाथ जी ने सारी बात बता दी ....और ये कह दिया -जब तक निमाई अपने मुख से ना कह दे कि ...हाँ मैं सनातन मिश्र जी की पुत्री से विवाह करूँगा तब तक ये विवाह सम्पन्न नही होगा ।
निमाई भात खा रहे थे .....
शचि देवि से पण्डित जी ने ये भी कहा कि इस तरह मैं विवाह नही कराता ....जो बात है स्पष्ट होनी चाहिये ....आप तैयार हो शचि देवि ! पर विवाह तो निमाई के साथ होनी है ना ! इसलिये स्पष्टीकरण अभी हो ...
वो भात खाते रहे ....और पण्डित जी की बातें सब सुनते रहे ....आज जानबूझकर कर विलम्ब कर रहे हैं निमाई .....माता शचि ने फिर आवाज दी ...इस बार बोले ...”भात तो अच्छे से खाने दे माँ”।
देखो , शचि देवि ! मैं पागल हूँ ? जो सुबह से शाम होने को आई ...कभी इधर कभी उधर भाग रहा हूँ ....तुम कहती हो ...विवाह पक्का है ...तुम्हारा निमाई कह रहा है ...उसे विवाह ही नही करनी । लड़का ही तैयार नही है तो क्या ज़बर्दस्ती लड़की उसके गले में बाँध दोगे ...इसलिये जो बात है पक्की हो ...शचि देवि ! मेरी भी तो इज्जत है .....
काशी काका ! तुम्हारी ही तो इज्जत है ....सबका घर बसाते हो ...सबके घरों में ख़ुशियाँ भर देते हो ...बड़ा पुण्य का काम है काका । निमाई खाकर आगये थे ....हाथ धोकर गमछा से पोंछते हुए बोल रहे थे ।
निमाई ! बैठ .....शचि माँ ने उसे पास में बिठाया .....निमाई ! देख , सनातन मिश्र जी की बेटी है विष्णुप्रिया .......माँ ! तुम्हें ठीक लग रहा है ? निमाई ने अपनी माता की पूरी बात भी नही सुनी ...और बोले ...माँ ! तुम्हें ठीक लगे वही करो ।
पर निमाई ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? काशीनाथ पण्डित जी ने अब गम्भीरता के साथ पूछा ।
काशी काका ! आप देख लो ...मेरी माँ को ठीक लग रहा है ...मुझे भी ठीक लग रहा है ।
तो फिर तुमने क्यों कहा था कि मुझे विवाह नही करना ? काका ! क्या तुम्हारा निमाई तुमसे विनोद भी नही कर सकता ? तो बोल दो ...मैं भी अध्यापक हूँ ...उसी भाषा में बोला करूँगा ।
काशीनाथ पण्डित जी अब सन्तुष्ट हुये थे ...शचिदेवि का मुखमण्डल खिल गया था ...तो निमाई ! मैं जा रहा हूँ ...और अब तिथि तय होने वाली है तुम्हारे विवाह की । कर दो काका निमाई का विवाह ...फिर बजने दो शहनाई ...निमाई हंसकर ये कहते हुए वहाँ से अपने पाठशाला चले गये।
पण्डित जी ! तुम तो जानते ही हो ....निमाई बचपन से ही ऐसा है ....कभी गम्भीर होता ही नही है ...ऐसा ही अल्हड़ है ....हर समय विनोद के मूड में ही रहता । आप जाओ और तिथि तय करके आओ । पण्डित जी ने अब राहत की साँस ली थी ...पण्डित जी को अब प्रसन्नता हो रही थी ....वो तेज चाल से सनातन मिश्र जी के घर की ओर चल दिये थे ।
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विष्णुप्रिया ! क्या बात है क्यों रो रही हो ? मुझे पता है अपने हृदय की बात कन्या बहुत छुपा कर रखती है ...कहीं तुम किसी ओर से प्रेम तो नही करतीं ? विधुमुखी पूछ रही हैं ....क्या तुम्हें प्रेम हो गया है ...क्यों की इस तरह प्रेम में ही लड़कियाँ रोती हैं ।
तभी नीचे पण्डित काशीनाथ के आने की आहट सुनाई दी ....वो सनातन मिश्र जी को पुकारने लगे थे ....उनकी आवाज़ सुनकर महामाया देवि और सनातन मिश्र जी दोनों आगये .....ये क्या!विधुमुखी ने देखा विष्णुप्रिया एकाएक उठकर बाहर गयी और चुपके से परिवार की बात सुनने लगी ।
मैंने निमाई से स्पष्ट पूछा ....कि तुम्हें इस विवाह में रुचि है या नही ?
तो क्या उत्तर दिया निमाई ने ? महामाया देवि ने पूछा । विष्णुप्रिया का ये सब सुनते हुये हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा है .....सनातन मिश्र जी भी पण्डित की ओर ही देख रहे हैं .....
निमाई ने कहा ...मैं विनोद कर रहा था ...ये सम्बन्ध मुझे स्वीकार है ।
ये सुनते ही विधुमुखी के हृदय से चिपक गयी विष्णुप्रिया और हंसते हुए बोली ...विनोद कर रही थी मैं तो ? विनोद ! विधुमुखी भोली भाली है ....हाँ क्या विनोद वही कर सकते हैं ? ये कहते हुए इतरा रही थी विष्णुप्रिया ।
तभी ज्योतिषी को बुलाया गया ...तिथि का निश्चय किया गया ....और निश्चय होते ही मंगल वाद्य सब बज उठे ....सब महिलायें मंगल ध्वनि करने लगीं । नवद्वीप में ये बात अब फैली ....विष्णुप्रिया और निमाई के विवाह की बात सुनते ही पूरा नवद्वीप झूम उठा था ...सब कह रहे थे बहुत सुन्दर जोड़ी है ....उपमा सब सीताराम या रुक्मिणीकृष्ण की ही दे रहे थे ।
शचि देवि के आनन्द का कोई पारावार नही है ...वर्षों बाद फिर ख़ुशहाली देखेगा ये परिवार ..साड़ियाँ तैयार कर रही हैं शचि माता ..गहने आभूषण ...सब महिलाओं को दिखा रही हैं ....कपड़े का व्यापारी घर में ही आगया है ...वो निमाई के लिए सुन्दर धोती कुर्ता दिखा रहा है ....निमाई धोती कुर्ता देखते हैं और पसन्द भी कर रहे हैं ।
नवद्वीप वासी अपने भाग्य को सराह रहे हैं कि ...सीताराम जी का विवाह तो हम लोग इन नयनों से देख नही पाये ....पर निमाई-विष्णुप्रिया के विवाह का दर्शन वही फल देगा ...वही सुख और आनन्द प्रदान करेगा ।
“चार सौ रुपये” ....कपड़े के व्यापारी ने धोती और कुर्ते का हिसाब करके बताया । पचास धोती थीं ....अन्य को भी तो देना होता है विवाह आदि में । और उतने ही कुर्ते के कपड़े थे ....अभी तो और खर्चा होना था ......विवाह में खर्चा होता ही है ।
निमाई हंसते हुए उस व्यापारी से बोले ....निमाई के पास चार आने हैं ...इतने से हो जाये तो बोलो ....नही तो रहने दो ...हम तो भगवान शंकर की तरह जायेंगे विवाह करने ...बिना कुछ लगाये ....क्या करें ! ब्राह्मण हैं पैसा नही है हमारे पास । ये कहते हुये निमाई उठ गये ...माता शचि ने देखा ...उनके पास भी सब मिलाकर पचास रुपये ही थे ।
निमाई ! मेरे मित्र ! चल मेरी ओर से तेरे विवाह का सारा खर्चा .....ये नवद्वीप का धनी बुद्धिमंत कायस्थ था ...ये निमाई का मित्र था ....अवस्था में निमाई से बड़ा था ...पर निमाई को ये , और निमाई इसे मित्र ही मानते थे ...एक प्रकार का ये नवद्वीप का राजा था.....इसी के तो गुरु थे सनातन मिश्र जी , जो ससुर बनने जा रहे थे निमाई के । निमाई को किसी से धन लेना प्रिय नही था ...मना किया पर बुद्धिमंत कायस्थ ने बात नही मानी ...ये श्रद्धा भी रखता था निमाई के प्रति । पाँच सौ रुपए देकर व्यापारी को भेज दिया बुद्धिमंत ने ...और निमाई से कहा ...सारा खर्चा मेरा होगा ..निमाई ! तुम मुझे रोकोगे नही ।
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पर इतना ही नही ...निमाई तो पाठशाला चलाते थे ...तो इनके जो शिष्य थे वो भी जुट गये ...उन सबने उत्साहित होकर कहा ...हमारे गुरु निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिये जो नवद्वीप ने आज तो देखी नही होगी । धन जुटाना शुरू किया शिष्यों ने आपस में ही ।
अब तो नवद्वीप के आम लोग भी कहने लगे थे कि ...निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिए जैसे ...किसी राजकुमार का हो ....गंगा घाट में आपस में सब लोग कहते ...नवद्वीप का राजकुमार तो है हमारा निमाई । इसके विवाह में कोई कमी नही आनी चाहिए । पूरा नवद्वीप उत्साहित है ...एक अलग ही उमंग से भरा हुआ है ।
रात्रि में अपनी छत में है विष्णुप्रिया और चन्द्र को देख रही है ...पर चन्द्र में इसे निमाई चन्द्र ही दिखाई दे रहा है ...वो असीम सुख का अनुभव कर रही हैं ....पर ....
काकी ! मुझे डर क्यों लगता है ? एकाएक अपनी चाची से विष्णुप्रिया पूछती है ...कैसा डर प्रिया ? कि “वो मुझे छोड़ देंगे”.....पगली है तू ...सो जा .....ये कहकर चाची तो सो गयी ...पर विष्णुप्रिया .....उफ़ ! ये प्रेम देवता भी ना ! जो कराये कम है !
शेष कल -
✍️श्री श्याम प्रिया दास
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्वादशोध्याय:)
2, 4, 2023
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साधकों ! बंगाल में विवाह से पूर्व एक विधि होती है ...जिसे “अधिवास”बोलते हैं ...इसमें आमन्त्रित लोग माला चन्दन आदि से होने वाले वर या वधू को आशीष प्रदान करते हैं ...फिर भोज आदि बड़े उत्साह-उत्सव के साथ मनाया जाता है ।
मैंने सोचा नही था कि ये “श्रीविष्णुप्रिया जी की पावन गाथा” इतने विस्तार से आगे बढ़ेगी ...मैंने तो बीस से पचास भाग तक में इस लीला को लिखने की सोची थी क्यों कि मैं पहले ही “चैतन्य चरित” लिख चुका था । पर मेरे सोचने से क्या होता है ....तीन दिन पहले मुझे एक वयोवृद्ध बंगाल के महात्मा मिले ...मैं यमुना जी के तट में अकेले बैठा था ...वो मुझे जानते थे , मुझे देखते ही बहुत प्रसन्न हुये और बोले ....”प्रिया जी का चरित्र लिख रहे हैं ! लिखिये ...प्रिया जी जैसा लिखायें वैसा ही लिखिये...कंजूसी मत करना” । ये मेरे लिए आदेश था ...महात्मा के शब्द थे पर प्रिया जी ही तो लिखा रही हैं ....”कंजूसी मत करना” इसका अभिप्राय ये था कि अपना “मैं” मिटा कर लिखना । मैंने लिखा होता तो इतने विस्तार से ये लीला आगे नही बढ़ती ...पर सच प्रिया जी ही लिखा रही हैं ...नही करूँगा कंजूसी ...नही आने दूँगा अपना “मैं” ।
हे गौर वक्ष विलासिनी ! हे महामाया सुतां देवि ! हे सनातन नन्दनी ! आपकी जय हो जय हो ।
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गतांक से आगे -
पूरे नवद्वीप को आज सजाया गया है ...”निमाई के विवाह” नाम से ही नवद्वीप के लोगों में उत्साह और उमंग है ।
शचि देवि के घर में केले के खम्भे रोपे गए हैं ...बंदनवार लगाया गया है ...रंगीन चंदोवा से आँगन सजाया है ....रंग बिरंगे पताका स्थान स्थान पर लगाये गये हैं ...आज सुबह से ही सुपारी नवद्वीप के घर घर में बाँटी गयी है ...ये निमन्त्रण है कि आज “निमाई का अधिवास है” आशीष देने के लिए और भोज पाने के लिए सबको आना है....निमाई के मित्र बुद्धिवंत कायस्थ ने पूरा साथ दिया है ....शचिदेवि तो कह रही थीं ...कि पूरे नवद्वीप को निमन्त्रण नही दिया जा सकता ..क्यों की सबको भोज देना होगा और माला चन्दन सुपारी ये स्वागत भी करना होगा । इतना धन उनके पास नही है ...पर बुद्धिवंत निमाई के परम मित्र थे उनका कहना था कि मेरा धन किस काम का है ...शचि देवि आगे कुछ नही बोलीं । तैयारियों में निमाई के शिष्य भी जुटे हुए हैं ....गुलाब जल का छिड़काव किया गया है निमाई के आँगन में ...पुष्पों की सज्जा के लिए बड़े बड़े कलाकार बुलाये हैं ...कलाकार तो गायन के लिए भी बुलाये हैं ....दिव्य संगीत चल रहा है ....महिलायें सुन्दर सुन्दर लाल साड़ी पहनकर हुलु मंगल ध्वनि करते हुए शचि देवि के घर में प्रवेश करती हैं ।
ब्राह्मण लोग स्वस्तिवाचन कर रहे हैं ....मंगल गीत महिलायें गा रही हैं .....निमाई को बैठाकर हल्दी तेल माथे में सिन्दूर और धान का लावा पान ये सब चढ़ा रही हैं ...शचि देवि के आनन्द का आज कोई ठिकाना नही है ...वो अपने में ही नही हैं । शुभ शंख ध्वनि होने लगी ....महिलायें जयजयकार करने लगीं । निमाई ने उठकर अब ब्राह्मणों का पूजन किया ...गन्ध चन्दन पुष्प माला कपूर पान संदेश-मिठाई आदि से ब्राह्मणों का आदर किया ।
शचि देवि के आँगन को अभी भी लोग सजा ही रहे हैं ....नवद्वीप के हर व्यक्ति को लग रहा है “अपने निमाई” की शादी है ...तो स्वयं भी काम कर रहे हैं । “ये चंदोवा मध्य में लगाओ”....तो दो नवद्वीप के प्रतिष्ठित व्यक्ति उठकर चंदोवा को स्वयं मध्य में लगाते हैं ....कोई महिला कह रही है अरी शचि देवि ! देखो नवद्वीप के महाजन स्वयं काम कर रहे हैं । शचि देवि भगवान नारायण का स्मरण करती हैं .....वो बारम्बार भावुक हो रही हैं ।
इस तरह अपराह्न का समय हुआ .....
मध्य में ...चंदोवा के नीचे निमाई को बैठाया गया ....नवद्वीप के लोग अब शचि के यहाँ आने लगे .....निमाई बैठे हैं ....शान्त भाव से बैठे हैं उनके आगे पीछे उनके मित्र शिष्य हैं ...बड़े ही सुन्दर लग रहे हैं ....नवद्वीप के लोगों को पंक्तिबद्ध आने के लिए कहा ....सब लोग पंक्ति में ही आगे बढ़ रहे हैं .....बहुत लोग हैं ...माता शचि देवि भीड़ देखती हैं और डर भी जाती हैं ...बुद्धिवंत से पूछती हैं इतने लोग खायेंगे क्या ? तब बुद्धिवंत कहते ...माँ ! आने दो ..निमाई के अधिवास में पूरा बंग प्रदेश भी आजाएगा तो भी कमी नही पड़ेगी ...अन्नपूर्णा साक्षात् आगयीं हैं ।
लोग निमाई को देखते हैं ....मुग्ध हो जाते हैं ....आज निमाई अलग ही लग रहे हैं ....इनकी रूप छटा विश्व विमोहित है । लोग पुष्प लावा आदि निमाई के ऊपर छोड़कर आशीष देते हैं ....उस समय मंगल वाद्य आदि बज रहे हैं ....महिलाओं का गीत अत्यन्त कर्णप्रिय है ।
अब भोज होगा ...दाल भात ...संदेश-मिष्ठान्न आदि अनेक प्रकार के बने हैं ...साग भाजी के प्रकार कितने हैं कोई बता नही सकता ...नवद्वीप के लोग भोज पा रहे हैं और मन ही मन सोच रहे हैं ...विवाह से पूर्व ये भोज है तो विवाह के दिन कैसा होगा । भोज के बाद पान सुपारी पुष्पमाला और दक्षिणा दिये ....पहले व्यवस्था थी ब्राह्मणों को ही ...पर निमाई ने हंसते हुए कहा ...सबको दक्षिणा पान पुष्प माला दो । बुद्धिवंत अब प्रसन्न थे ...वो बोले निमाई ! अब अच्छा लग रहा है ....अब लग रहा है मित्र ने मेरी सेवा स्वीकार की । निमाई ने उसे अपने हृदय से लगा लिया ।
चार ब्राह्मण थे वो दूसरी बार भोज में आकर बैठ गये थे ...लोभ था दक्षिणा पान सुपारी का ...इनको पकड़ लिया था निमाई के मित्रों ने और निमाई के पास ले आये थे ...निमाई इनको देख कर बहुत प्रसन्न हुए और बोले ...ये दूसरी बार आए हैं ...तो तीसरी बार आने का कष्ट न दो इनको तीन बार की दक्षिणा पान सुपारी माला तीन तीन बार की देकर प्रसन्नतापूर्वक विदा करो ....निमाई की बात पर आज सब प्रसन्न थे ....निमाई स्वयं इतने प्रसन्न जिसकी कोई सीमा नही थी । एक ब्राह्मण दो रसोगुल्ला खाते थे और चार छुपाकर थैला में रख लेते थे ...निमाई ने देखा तो हंसते हुए उनके पास गये ...और थैला ले लिया और अपने मित्रों से कहा इस थैले को रसोगुल्ला से भर दो ....फिर हंसते हुये निमाई बोले ..अब आपको छुपाकर रखने की आवश्यकता नही है ....प्रेम से पाइये ...और थैला भर दिया है घर ले भी जाइये ।
निमाई की उदारता पर सब गदगद थे ...पर डर भी था कि कहीं भोज सामग्री खतम न हो जाये और नये लोगों को मिले नही ...पर चमत्कार हुआ कि नवद्वीप के लोगों ने पाया ही नही घर में लेकर भी गये । कहते हैं ....माला फूल सुपारी नवद्वीप में कई महीनों तक चारों तरफ़ बिखरे हुए लोगों को मिलते थे ....ये अधिवास तो अद्भुत और अद्वितीय था ....निमाई को देखकर सब लोग कहते ...भगवान श्रीराम साक्षात् विराजे हैं ...जनकपुर धाम में ...दूल्हा भेष में ....ऐसा हम को प्रतीत होता है ।
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सनातन मिश्र जी अपने घर से चले ब्राह्मणों की टोली लेकर ....शचि देवि के घर पहुँचकर उन्होंने अपने होने वाले जामाता का पूजन किया .....फिर मंगल गान के साथ लौटकर आगये ।
सनातन मिश्र जी के घर की सजावट तो और दिव्य थी ....समस्त अड़ोस पड़ोस की महिलायें इकट्ठी हुई थीं ...ब्राह्मण समाज आया था ...शंख ध्वनि और मंगल गीत का गायन चल ही रहा था ...लाल लाल साड़ी में सुहागिन कितनी सुन्दर लग रही थीं ये अवर्णनीय है । महामाया देवि स्वयं प्रसन्नता से फूल रही थीं .....इस आनन्दोत्सव में अब विष्णुप्रिया को उनकी सखियाँ लेकर आईं....साथ में “विधुमुखी”मुख्य थीं । नाना प्रकार के रत्न आभूषण से सुसज्जित विष्णुप्रिया साक्षात् भगवती लक्ष्मी ही प्रतीत हो रही थीं । शंख , घण्टा , करताल , मृदंग आदि की ध्वनि से दिशायें और प्रफुल्लित थीं । सुन्दर ललनाओं द्वारा हुलु मंगल ध्वनि वातावरण को और मंगलमय बना रही थी । विष्णुप्रिया को मध्य में विराजने के लिए महिलाओं ने कहा ....संकोच से सनी विष्णुप्रिया नतमुख संकोच से बैठ गयीं । उस समय विष्णुप्रिया का रूप सौन्दर्य मुखरित हो उठा था ...अब सुहागिन महिलाओं ने पुष्प , दूर्वा , लावा के द्वारा आशीष देना प्रारम्भ किया ....ये समय अद्भुत था ...जो भी उस समय वहाँ उपस्थित था वो अपने भाग्य को सराह रहा था ...अरी बहन ! जनकपुर में सीता जी का विवाह हमने नही देखा ...कथाओं में सुना अवश्य है ...पर अपनी विष्णुप्रिया को देखकर लगता है ...सीता जी भी ऐसी ही होंगी ...ये सारी विवाह की विधियाँ ऐसे ही आनंदोल्लास से मनाई गयीं होंगी । सब आनंदित हैं ...सब आनन्द के कारण मत्त से हो गये हैं ।
“ब्राह्मणेत वेद पढ़े , बाजे शुभ शंख ,
आनन्दे दुन्दुभी बाजे , बाजये मृदंग “।
जय जय जय जय । सब लोग यही बोल रहे हैं ।
शेष कल -
✍️श्रीजीमंजरीदास (श्याम प्रिया दास )
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रयोदशोध्याय: )
3, 4, 2023
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गतांक से आगे -
प्रातः शचि माता उठीं ...आज कुछ विलम्ब हो गया इन्हें ...स्वाभाविक था घर में उत्सव हो तो रात्रि शयन में विलम्ब हो ही जाता है ....सब कुछ समेटते समेटते इन्हें अर्धरात्रि हो गयी थी ..पर नींद भी तो जल्दी नही आती ऐसे अवसरों में । नींद रूठ जाती है या तो अत्यन्त सुख का अवसर हो या दुःख का ....शचि माँ को झपकी आई ही थी ब्रह्ममुहूर्त में ....उसके कुछ ही देर में ये उठ गयीं ....स्नान किया ....स्नान के बाद जब तुलसी में जल देने लगीं तब इन्हें कुछ चमकते पत्थर दिखाई दिये ....धरती में पड़े ये चमकदार पत्थर मणि माणिक्य थे ....हे भगवान ! ये किसके हैं ? पर शचिदेवि भी समझ गयीं कि ये नवद्वीप वासियों के तो नही हीं हैं । इन्होंने उसे लेकर अपने पास रख लिया ...बुद्धिवंत कायस्थ से ज़्यादा धन लेना उचित भी तो नही है ....वो खर्च कर रहा है अलग बात है ...पर माता की भी तो इच्छा होती है कि अपने हाथों अपने पुत्र के विवाह में लुटाऊँ !
शचिदेवि उन बहुमूल्य मणि आदि को अपने संदूक में रख लेती हैं ....किसी का होगा तो वो पूछ लेगा ...नही तो भगवान ने मेरे निमाई के विवाह में मुझे दिये हैं ....ऐसा विचार करती हुई शचि देवि पूजा आदि के कृत्य में लग गयीं थीं ।
निमाई ! उठ पुत्र ....
आज हरिद्रा-संस्कार हैं ...चल शीघ्र उठ जा मेरे लाल , गंगा स्नान करके आजा ।
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निमाई उठे अंगड़ाई ली ....बिखरे हुए अपने केशों को पीछे किया ....फिर अपनी माता शचि के चरण छूए .....उस समय इनकी जो छवि थी वो अनुपम अद्भुत लग रही थी । निमाई के मित्र घर में आगये थे ...निमाई उन सबको लेकर गंगा घाट पहुँचे ...खूब जी भर कर गंगा स्नान किया ....
फिर अपना नित्य कर्म सन्ध्या आदि .....निमाई ने फिर बड़े ही प्रेम से भगवान श्रीविष्णु की आराधना की .....निमाई अब अपने घर चले आये ....यहाँ ब्राह्मण लोग आ चुके थे निमाई हाथों नंदीमुख श्राद्ध आदि सब कर्मकाण्ड को विस्तार दिया ।
शचि देवि बहुत परेशान हैं ...उन्हें समझ में नही आरहा कि आज भी भोज है ...पूरा नवद्वीप आज भी भोजन करने आयेगा ...उन सबकी व्यवस्था कैसे होगी ! निमाई के परम मित्र बुद्धिवंत कायस्थ आगये थे उन्होंने शचि माँ को कहा ...माँ ! हम सब लोग हैं ना व्यवस्था के लिये सब हो जायेगा ...कोई चिन्ता की बात नही, आप तो बस अपने निमाई के विवाह विधि पर ध्यान दीजिये ।
सुन ना , बुद्धिवंत ! इधर आ ....अपने कक्ष में माता बुद्धिवंत को बुलाकर ले गयीं और संदूक से मणि माणिक्य निकाल कर बोलीं ....ये तेरा है ? बुद्धिवंत को मणि की पहचान है ...उसकी आँखें चुंधिया गयीं ....ये मणि ? ये मणि नवद्वीप क्या पूरे बंग प्रदेश की भी नही है । बेटा ! ये मणि मुझे आज सुबह तुलसी बिरवा के पास मिली ....सच बता दिया शचि माता ने ...बुद्धि वंत बोला ....माता ! पण्डित जी हमारे घर कथा सुनाते हैं तब वो कहते हैं ...”जब मंगल समय आया तब पृथ्वी ने रत्न मणि आदि देना प्रारम्भ कर दिया” ...मैंने निमाई को अपना मित्र ही नही माना है ...ये तो मेरा भगवान है ...मैं इसका भक्त हूँ ....ये साधारण नही है माँ !
इसका क्या करूँ ? अपने पुत्र की ज़्यादा प्रशंसा सुनना उचित नही है ....इसलिये शचि देवि ने मणि आदि दिखाते हुये कहा ...इसका क्या करूँ ? सुन , तेरा बहुत ख़र्चा हो रहा है इसे तू ही रख ले ....मणि शचि देवि बुद्धिवंत को देने लगीं ....तो उसने मना कर दिया और बड़े आदर से कहा ....माँ ! अभी बहु आयेगी ..उसके लिए रख दो ...ये मणि मोती उसे अच्छे लगेंगे । शचि देवि को बात माननी ही पड़ी ....क्या करतीं ....पर वापस संदूक में रखते समय देखा तो वो फिर चौंक गयीं ...पाँच चमचमाता सुन्दर हार , हीरा जड़ाऊँ सुवर्ण का हार वहीं था ..अब ये कहाँ से आया ?
शचि देवि ! चलो गंगा जल भरकर लाना है ...फिर निमाई का स्नान होगा ....पचासों स्त्रियाँ आगयीं हैं सज धज के ....वो सब आवाज़ दे रही हैं । शचि देवि ने अब सोचना छोड़ दिया और संदूक को बन्दकर के रख दिया ..फिर स्वयं बाहर आगईँ ।
लाल लाल साड़ी में ...सुवर्ण के आभूषणों से सजी धजी नवद्वीप की ललनाएँ गंगा घाट चलीं ...मंगल गीत गाती हुईं गयीं वहाँ से इन सबने जल भरा फिर गीत गातीं हुलु मंगल ध्वनि करती हुईं शचि देवि के घर में आ गयीं । घर में आकर शचि देवि ने सबका आदर किया ...सबके हाथों में हल्दी और तैल दिया था ...वो तैल सुगन्धित था ।
उधर पूजा पूरी हुई .....निमाई को वहाँ से उठकर आँगन के मध्य में पीढ़े पर बैठाया गया ...उनके ऊपर जो उत्तरीय था उसे हटाया , बस फिर क्या था ...निमाई का वो सुन्दर श्रीअंग ..स्त्रियाँ को तो हल्दी लगानी है इन सुंदरतम अंगों में ये भी भूल गयीं ...अपलक बस देखती जा रही हैं ...जब लोगों ने कहा ...तब वो अपने आपको सम्भालती हुई निमाई के पास गयीं ....परम सौभाग्यवती नवद्वीप की ये महिलायें जब निमाई को छूने लगीं तो एक बार ये देह भान ही भूल गयीं ...कोमल अंग हैं निमाई के उसमें हल्दी ....गौर वर्ण में हल्दी की शोभा अलग ही बन रही थी ..अब तो मत्त हो गयीं कोई कपोल में हल्दी लगा रही हैं ...कोई वक्ष में लगाते हुये परम सुख का अनुभव कर रही हैं ...कोई निमाई के चरणों में हल्दी का लेपन करके फिर मार्जन कर रही हैं ....एक सुन्दरी ने आकर ऊपर से गंगा जल चढ़ा दिया ...फिर तो मर्दन प्रारम्भ हो गया था ...हल्दी सुगन्धित तैल ऊपर से गंगा जल थोड़ा थोड़ा .....पहले तो सम्भल कर संकोच पूर्वक अंगराग लगा रही थीं ...पर बाद में संकोच छूट गया इन सबका ....निमाई को मलने लगीं ...ऊपर से गंगा जल ..सुन्दरियों की साड़ी भीगने लगी ...पर इन्हें परवाह क्या थी ....चारों ओर नवद्वीप वासी खड़े हैं ....इस दृष्य को देख रहे हैं ...वातावरण सुगन्ध से सरावोर हो गया है । सब लोग आनंदित हो रहे हैं ....हुलु ध्वनि मध्य मध्य में मंगल की सूचना दे रही है ...मंगल गीत गाकर महिलायें विमल सुख का अनुभव कर रही हैं । वो सब अपने भाग्य को सराह रही हैं कि हमारा भाग्य कितना सुप्रसन्न है ।
एक सुन्दरी नारी चरण में हल्दी का लेपन कर रही थी ...दूसरी को मत्तता छाई तो उसने किसी की परवाह किये बगैर पहली नारी को हटाकर निमाई के चरणों को स्वयं पकड़ लिया और जोर जोर से हल्दी रगड़ने लगी ...वो कभी युगल चरणों को अपने वक्ष से छुवा रही थी ....पहली वाली सुन्दरी उठ कर रिसाय के जाने लगी ....मीठी गाली भी देने लगी ...तो सबने पहली वाली को बैठाकर इस को उठा दिया ....पर तीसरी सुन्दरी ने निमाई के हाथों को आक्रामक ढंग से हल्दी लगाना शुरू किया । अद्वैताचार्य जी भी वहाँ आगये थे ...उन्होंने इस झाँकी को देखा तो गदगद हो गये ....वो अपने आस पास के लोगों को कहने लगे मुझे तो ऐसा लगता है ...नवद्वीप आज श्रीवृन्दावन बन गया है ....निमाई नही हैं ये श्री श्याम सुन्दर हैं ...और ये सब इनकी ही गोपियाँ हैं ...देखो ! क्या दिव्य लीला कर रहे हैं श्रीश्याम सुन्दर ।
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शचि देवि ने निमाई की हल्दी , उबटन सनातन मिश्र जी के यहाँ पहुँचाई ...वहाँ इसी प्रतीक्षा में ही थे कि वर की प्रसादी उबटन आये तो इधर भी ये विधि प्रारम्भ हो ...तभी ब्राह्मण देवता निमाई के अंग में लगी उबटन लेकर मिश्र जी के यहाँ पहुँचे । उसी समय बाजे गाजे बज उठे थे ...महिलाओं ने हुलु ध्वनि करके वातावरण को और मंगल बना दिया ....सुन्दर सुन्दर सजी धजी महिलायें चारों ओर खड़ी हैं ...मध्य में जो ब्रह्म स्थान है ...उसके ऊपर सुन्दर चंदोवा लगाया है ...चारों ओर रंगीन पताकाओं से पाट दिया गया है । चाँदी की पीढी रखी है मध्य में ....तभी स्वर्ग की नारियों को मात देने वाली सौन्दर्य की मूर्ति बनी विष्णुप्रिया सज धज कर वहाँ आईं ...लाल साड़ी में इनकी शोभा अद्भुत थी ...सुवर्ण आभूषणों से सजी विष्णुप्रिया की तुलना किससे की जाये ? मेनका ? या रम्भा ? नही ..इनके साथ तुलना करना विष्णुप्रिया का अपमान होगा ...ये तो स्वयं लक्ष्मी हैं ....साक्षात् लक्ष्मी ।
पीढ़े में आकर ये बैठ गयीं हैं .....मंगल गीत प्रारम्भ हो गये ....सुन्दर महिलाओं ने प्रिया के शुभ अंगों में हल्दी का लेपन और मार्जन शुरू किया । विष्णु प्रिया को किसी सुगन्ध की आवश्यकता नही थी इनके श्रीअंग से ही सुगन्ध निकल रही थी ...जो स्थान के साथ साथ काल को भी सुगन्धित बना रही थी । हल्दी तैल के लेपन से प्रिया का रूप और निखर गया था ..कच्चे सुवर्ण की तरह विष्णुप्रिया का अंग लग रहा था ।
हम मूल मिथिला वासी हैं .....भावुक होकर महामाया मिश्र ने कहा ....जनकनन्दिनी जानकी जी के विवाह का दर्शन हमारे पूर्वजों ने किया था पर आज विष्णुप्रिया को देखकर लग रहा है ...मिथिलेश नन्दिनी भी ऐसी ही होंगी ।
अब गंगा जल से स्नान कराया गया ....सुन्दर साड़ी मँगवाई ...केश में सुगन्धित तैल लगाया गया ..उन्हें संवारा ....गन्ध चन्दन माला गजरा आदि से साक्षात् शृंगार की देवि का और शृंगार किया गया .....अद्भुत अनुपम था ये सब ।
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सुन्दर रेशमी धोती धारण की निमाई ने ...गन्ध चन्दन आदि से उनको और सुगन्धित किया गया ...कण्ठ में माला धारण कराई जो इनके घुटनों तक आरही थी ...बड़े बड़े नेत्रों में काजल लगाये गये .....घुंघराले केशों को संवारा गया । माता शचि आनंदित हैं ....अरी शचि ! अपने निमाई की आरती तो उतार ! महिलाओं ने कहा ...तो शचि दौड़ी गयीं आरती लाने तो क्या भीतर क्या देखती हैं ...अनाजों से भरा पड़ा है पात्र ....ये क्या है ? पर शचि देवि को अभी फुर्सत नही है कि वो ये सब सोचें ...और सोचकर भी होने वाला क्या था ...विधाता दाहिनी ओर था ।
शचि देवि ने अपने निमाई चन्द्र की आरती की ......
अब भोज प्रारम्भ हुआ ....ये भोज कल से भी ज़्यादा अच्छा था ...मिष्ठान्न के प्रकार कितने थे ये किसी को पता नही ...भाजी कितने प्रकार की थी आज कोई गिन नही पा रहा था । सबने भोज पाया ...इतने पदार्थ कहाँ से आये ....ये भी किसी को पता नही ।
शेष कल -
✍️Shyam priya das
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( चतुर्दशोध्याय:)
4, 4, 2023
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गतांक से आगे -
दूसरे दिन अपराह्न में निमाई को वर रूप में बरात में जाना था ....सब मित्र जन प्रातः ही निमाई के घर में आगये थे ...स्नान आदि से निवृत्त निमाई को सब लोगों ने सजाना शुरू कर दिया ...शचि देवि बारम्बार अपने पुत्र को देखतीं और फिर नज़र हटा लेतीं ....”मेरी ही नज़र लगती है इस निमाई को”.....अब तो महिलायें भी आगयीं थीं घर में ...गीत आदि के गायन शुरू हो गये थे ...झाँझ मंजीरा ढोलक लेकर महिलायें विवाह के मंगल गीत गाने लगी थीं । मित्रों ने जिस तरह से सजाया था निमाई को ये देखकर महिलायें हंसने लगीं ....निमाई के मित्रों ने कहा ...क्यों क्या कमी है ? तब महिलायें गायन आदि छोड़कर निमाई के पास आईं और हंसती हुई बोलीं - महिलाओं के बिना कुछ नही है ....तुम लोग अच्छे से सज भी नही सकते ...ये कहते हुये निमाई को एक चौकी में बिठाया ...फिर सारे पुरुषों को वहाँ से जाने के लिये कहा ...शचि देवि हंसते हुये ये सब देख रहीं थीं तो शचि देवि को भी वहाँ से हटाया ....और निमाई को वो नवद्वीप की युवतियाँ सजाने लगीं । चादर ओढ़े हुये थे निमाई, उसे हटाया ...पर चादर को हटाते ही सुगन्ध निकली निमाई के श्रीअंग से जो वातावरण में महकने लगी थी । महिलायें मुग्ध हो रही हैं ...इस सुगन्धित देह में चन्दन लगाने की आवश्यकता क्या है ! एक महिला प्रेम के वश में होकर कह रही है ....दूसरी तुरन्त आगे आजाती है ...वो पहली को हटाते हुये कहती है ...मैं लगाऊँगी चन्दन ...ये कहकर निमाई के अंग में चन्दन का सुगन्धित तैल मर्दन करती है ...मर्दन करते हुये वो अपने आँखें बन्द कर लेती है ...शचि देवि ये देख लेती हैं ...”कोई ओर आजाओ ये तो गयी काम से “। फिर तीसरी आती है ...वो दिव्य अलंकार धारण करा देती है । लाल चौड़ी किनारी की धोती पहनते हैं निमाई ...सुन्दर रेशमी कुर्ता ...माथे में लाल सिन्दूर का टीका ...गले में मोतियों की माला ...बाहों में बाजू बन्द ...उँगलियों में नाना प्रकार की अँगूठियाँ ....बड़े सुन्दर लग रहे है निमाई ...ये कहना ही पर्याप्त नही होगा ...पर शब्दों में इससे ज़्यादा और क्या कहा जाये ।
मुहूर्त है सन्ध्या काल का , गोधुली वेला के समय में सनातन मिश्र जी के घर में निमाई का प्रवेश है ...इन सब कामों में दोपहर हो गयी ....तभी बाजे बजाने वाले आगये ....घर से गंगा घाट जाना है ...वहाँ पूजन होगा ...निमाई को घेरकर सब लोग गंगा घाट ले गये ...पर गंगा घाट में भीड़ लगी है ....नवद्वीप के समस्त नर नारी इस सौभाग्य से वंचित नही रहना चाहते थे ....इसलिए सब आगये ....निमाई ने पूजन किया गंगा जी का ...बड़ी श्रद्धा है गंगा के प्रति निमाई की ....फिर आरती की ....पालकी आगयी है जिसमें वर रूप निमाई बैठकर विष्णुप्रिया को लेने जायेंगे ....महिलाओं ने हुलु मंगल ध्वनि करनी आरम्भ कर दी ....सब गदगद हैं ...पुष्प लावा आदि निमाई के ऊपर छोड़ते हैं । अब पालकी में बैठने के लिए लोगों ने कहा ...पर निमाई ने पालकी में बैठने से पूर्व माँ शचि की परिक्रमा की ...उनके चरण धूल को अपने माथे से लगाया और पालकी में बैठ गये । नवद्वीप में ऐसा विवाह आज तक नही हुआ था ये बात सब लोग कह रहे थे ...निमाई जितना सुन्दर लग रहा है उतना आज तक कोई लगा नही था । महिलायें अपने अपने झरोखे में झांक रही हैं ...वो सब हुलु ध्वनि करती हैं ..निमाई की पालकी जब उनके यहाँ से गुजरती है तो वो सब पुष्प और लावा बरसाती हैं ।इस तरह नवद्वीप वासियों को आनन्द प्रदान करती हुई ये निमाई की बारात ठीक गौधुलि वेला में ही सनातन मिश्र जी के द्वार पर जा खड़ी हुई ।
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आज सनातन मिश्र जी और उनका पूरा मिश्र परिवार आनन्द में सरावोर है ....द्वार पर ही सब खड़े हैं ....महिलायें मंगल गीत गा रही हैं ...मृदंग आदि वाद्य बडी ही सुन्दरता से कलाकार लोग बजा रहे हैं ....पुष्पों को मार्ग में बिखेर दिया है ....सुन्दर सुन्दर डलिया में पुष्प और लावा भर कर सजी सजी धजी सुन्दरियाँ खड़ी हैं .....चारों ओर आनन्द ही आनन्द छाया हुआ है ।
तभी ......हुलु ध्वनि सुनाई दी ....वाद्य आदि की धूम सुनाई दी ....महामाया देवि के नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहने लगे हैं ....उनके साथ की महिलायें पूछती हैं तो वो हंसते हुये कहतीं हैं ...इतना आनन्द मैंने जीवन में कभी देखा नही था इसलिये ये आनन्द के अश्रु बह रहे हैं ।
बारातियों के दल बल के साथ निमाई की डोली मिश्र जी के द्वार पर पहुँची ....बारातियों ने नाचना शुरू किया ...उनके ऊपर पुष्प की वर्षा युवतियाँ करने लगीं ...गुलाब जल का छिड़काव किया जाने लगा ...तभी सनातन मिश्र जी डोली के पास आये और हाथ जोड़कर बोले ...आप उतरें ....ये कहते हुये निमाई को जैसे ही उठाने लगे ....बाराती हर्षोल्लास में चिल्लाये ...निमाई ! ऐसे मत उतरना ....निमाई नही उतरे ....सनातन मिश्र जी ने फिर हाथ जोड़ा ....पर निमाई इस बार भी नही उतरे .....बाराती आनन्द ले रहे हैं ....निमाई के मित्र नाच रहे हैं ....उनके ऊपर पुष्प गुलाब जल की वर्षा की जा रही है ...”आप की जो माँग हो हम पूरी करने के लिए तैयार है”.....सनातन मिश्र जी ने निमाई से हाथ जोड़कर कहा ....निमाई के नेत्र सजल हो गये ...आप हमें अपनी “आत्मा” दे रहे हैं इससे ज़्यादा और क्या । ये कहते हुये निमाई ने सनातन मिश्र जी को डोली से ही प्रणाम किया । तभी मिश्र जी ने निमाई को अपने गोद में उठा लिया ..किन्तु निमाई का स्पर्श पाते ही मिश्र जी को रोमांच होने लगा ...अद्भुत दिव्य अनुभूति होने लगी ....उन्हें लग रहा था कि मेरा जीवन धन्य हो गया .....मेरे जितने अहोभाग्य और किसके ! यही सोचते हुये सनातन मिश्र जी घर के आँगन में सुन्दर चँदोवे के नीचे जो दिव्य वरासन लगाया था ...वहीं निमाई को विराजमान कर दिया ।
भीड़ है मिश्र जी के आँगन में ..अब लोग हुलु ध्वनि कर रहे हैं ...वातावरण मंगल मंगल हो रहा है ।
मिश्र जी सपत्नीक आये और वर रूप निमाई के चरण धोने लगे ....उन्हें सुन्दर माला पहनाई ....पण्डितों ने वेद मंत्रों का उच्चारण किया ...चारों ओर से निमाई के ऊपर पुष्प लावा आदि की वृष्टि की गयी ।
अब कन्या को लाने की बात कही गयी ......
विष्णुप्रिया सखियों से घिरी हुई हैं ....सुन्दरता की साक्षात् मूर्ति लग रही हैं ...आभूषणों से सुसज्जित ...साक्षात् काम पत्नी रति को भी विमोहित करने वाली रूप राशि लेकर विष्णुप्रिया ने वहाँ प्रवेश किया ...सखियाँ मंगलगीत गा रही थीं ...महिलायें धान का लावा ऊपर चढ़ा रही थीं ।
निमाई शान्त गम्भीर बैठे हैं ...विष्णुप्रिया का मन कर रहा है एक बार देख लूँ ...अपने प्रियतम को निहार लूँ ...पर ये मर्यादा ! विष्णुप्रिया जाकर निमाई के दाहिने भाग में बैठ गयीं । युगल छवि ऐसी लग रही है ...जैसे श्रीसीता राम विवाह मण्डप पर विराजमान हों ।
सारी विवाह विधियाँ सम्पन्न होने लगीं ....लोग दर्शन कर रहे हैं और देह सुध भूल रहे हैं ।
सनातन मिश्र जी ने अब कन्या दान किया ....विष्णुप्रिया ने सात प्रदक्षिणा किये निमाई के ....निमाई ने गोद में लेकर विष्णुप्रिया को यज्ञ के सात बार फेरे लिये । ये जो झांकी थी .....बहुत दिव्य थी । विष्णुप्रिया ने इस प्रसंग में ही अपने वर निमाई को देखा था ...और निमाई ने अपनी वधू विष्णुप्रिया को । आहा !
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विवाह सम्पन्न हुआ ...विष्णुप्रिया अब निमाई की हैं ....महिलाओं ने कहा ...अब दूल्हा दुल्हन को वासर गृह ( कोहवर ) में ले जाओ ....यही यहाँ की विध है ...जहां किसी पुरुष का प्रवेश नही है ....पुरुष है तो वो दूल्हा मात्र बाकी दुल्हन और उनकी सखियाँ । मण्डप से उठकर चल पड़े निमाई ....हाथ छोड़ना नही है ...हाथ तो अब जीवन भर पकड़े ही रहना है ....निमाई ने वासर गृह जाते हुए विष्णुप्रिया का हाथ छोड़ दिया था ....तो सारी सखियों ने टोका ...विष्णुप्रिया निमाई की ओर देखकर मुसकुराईं । बस इसी समय विष्णुप्रिया के दाहिने पैर के अंगूठे में ठेस लग गयी .....भारी पीड़ा होने लगी ...पर प्रिया ने छुपा लिया ...किन्तु रक्त बहने लगा ....किसी को पता नही है ....निमाई ने देख लिया था ...भारी पीड़ा हो रही है प्रिया को ...और रक्त रुक भी नही रहा ...तभी निमाई ने धीरे से अपने दाहिने पैर के अंगूठे से प्रिया के अंगूठे को थोड़ा सा दबा दिया .....विष्णुप्रिया को अपने प्रियतम का स्पर्श मिला तो उनकी सारी पीड़ा ही खतम हो गयी ...रक्त भी रुक गया ...अपने प्राणबल्लभ निमाई के स्पर्श ने प्रिया को सब कुछ भूलने के लिए मजबूर कर दिया ....उनके आनन्द का पारावार नही था आज । कोहवर में पूरी रात हास्य विनोद होता रहा ...सखियों ने एक ही थाल में दोनों को नाना पकवान रुचि रुचि से पवाये थे ।
इस तरह से “प्रिया निमाई” का विवाह सुसम्पन्न हुआ ।
शेष कल -
श्रीजीमंजरीदास (श्याम प्रिया दास )
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( पंचदशोध्याय: )
5, 4, 2023
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गतांक से आगे -
दूसरे दिन प्रातः निमाई और विष्णुप्रिया उठे ....स्नान आदि किया ....सुन्दर वस्त्र धारण किये ....फिर कुछ देर अग्निहोत्रादि का शेष कार्य पूर्ण किया ...फिर भोजन का समय हुआ तो निमाई और विष्णुप्रिया को बैठाकर माता महामाया देवि ने स्वयं भोजन बना, खिलाने लगीं ....आज प्रिया की माता महामाया बहुत प्रसन्न हैं ...अपने हाथों इन्होंने पकवान बनाये हैं ....अनेक प्रकार की भाजी , अनेक प्रकार के भाजा , अनेक प्रकार की मिठाइयाँ । निमाई तृप्त हुये हैं ...विष्णुप्रिया तो परम संकोची हैं ....वैसे भी संकोची थीं पर आज तो ....अपने ही घर में ....अपने ही माता पिता के सामने वो कैसे पराई हो रही थी । विष्णुप्रिया को निमाई मिले हैं इस बात का तो परम आनन्द है किन्तु अपना घर कैसे पराया हो रहा था ....इस बात को महसूस कर रहीं थीं । जहां खेलीं कूदीं ...अपने जिद्द के लिये रोईं ....पिता माता से अपनी हर बात मनवाई ...यहाँ का कण कण अपना था ...पर कैसे एक ही दिन में पराया हो गया ।
भोजन हो गया निमाई विष्णुप्रिया का ....
अब विदाई होगी ...चाची विधुमुखी लेकर गयीं विष्णुप्रिया को कक्ष में...सुन्दर नई साड़ी पहनाई ....आभूषण धारण कराये ...सजाया ...फिर से शृंगार हुआ ....पर कक्ष में जैसे ही महामाया देवि आयीं और अपनी प्रिया को देखा ...बस फिर क्या था हिलकियाँ फूट पड़ीं ...अपनी लाड़ली प्रिया को छाती से चिपका कर रोने लगीं ...विष्णुप्रिया के भी नेत्र बह चले .....रोने की और हिलकियों की आवाज से वातावरण अत्यन्त करुण बन रहा था । बाहर स्वजनों और परिजनों की भीड़ लगी थी । सनातन मिश्र जी ने देखा ...निमाई के नेत्र सजल हो गये ...ये देखकर सनातन मिश्र जी अपने अश्रुओं को रोक नही पाये ...हे गौरांग देव ! अपने “प्राण” मैं आपको सौंप रहा हूँ ....इसका ख़्याल रखना ....मुझे अभी कुछ स्मरण नही है ....बस मैं इतना जानता हूँ कि ....नारायण स्वरूप निमाई को मैंने अपनी लक्ष्मी स्वरूपा विष्णुप्रिया का कन्या दान किया है । ये कहते हुये बिलख उठे थे सनातन मिश्र जी ।
विदाई का मुहूर्त निकला जा रहा था ...तो ब्राह्मणों ने मिश्र जी को संकेत किया ...मिश्र जी ने आज्ञा दी ...प्रिया को लेकर आओ । भीतर से माता महामाया देवि और विधुमुखी चाची प्रिया को लेकर आईं .....प्रिया ने सिर ऊँचा करके अपने पिता को देखा ....पर वो आज अपनी लाड़ली को देख नही सके ...नयन भरे हैं पिता के , ये जब देखा प्रिया ने तो वो दौड़ पड़ीं और पिता के हृदय से लग गयीं .....ये दृष्य कैसे भी कठोर हृदय वालों को पिघलाने के लिए पर्याप्त थे । पिता सनातन अब हिलकियों से रो पड़े । परिजनों ने समझाया ....तब जाकर अपने को सम्भाला था मिश्र जी ने ....हाथों में लावा पुष्प आदि लेकर निमाई और प्रिया के सिर में आशीष के रूप में छोड़ा ...अब तो विदाई के गीत महिलायें गाने लगीं .....वातावरण और करुण हो उठा था ...डोली लाई गयी ...दोनों वर वधू को उसमें बिठाया ...और वो डोली चल पड़ी निमाई के घर की ओर ...हुलु ध्वनि महिलायें बहुत देर तक करती रहीं थीं ।
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मार्ग में हज़ारों लोग खड़े हैं ....जो निमाई और प्रिया को देखना चाहते हैं ...जब इन युगल की झाँकी उन्हें दीख जाती है ...तो वो सब गदगद हो जाते हैं ...”हमारे नेत्र सफल हो गये ..हृदय शीतल हो गया”....सब के यही बोल होते थे । इस तरह अपने घर में निमाई आगये ।
निमाई ने तो मना किया था दाईज लेने के लिये ....पर सनातन मिश्र कहाँ मानने वाले थे ...उन्होंने पहले ही बहुमूल्य सामग्रियाँ शचि गृह में भिजवा दिया था ....नाना प्रकार के वस्त्र आदि थे ....नाना प्रकार के आभूषण ....स्वर्णमुद्रायें आदि आदि । शचि देवि का घर इन सब से भर गया था । निमाई और अपनी बहु प्रिया के स्वागत के लिए आरती लेकर शचि देवि खड़ी हैं ....उनके साथ सुन्दर महिलायें भी हैं .....कुछ पण्डित भी हैं ...जो शंख बजा कर मंगल की सूचना दे रहे हैं ।
आरती की शचि देवि ने अपने पुत्र और पुत्र वधू की ...उस समय शचि देवि इतनी भावोन्मत्त हो गयीं कि उन्हें कुछ पता ही नही रहा ....विष्णुप्रिया को गोद में उठाकर नृत्य करने लगीं ...उन्मत्त नृत्य उनका प्रारम्भ हो गया था ....ये देखकर नवद्वीप वासी सब जय जयकार करने लगे ....हुलु ध्वनि से वातावरण और शुभ-मंगल हो गया था ....खुशी के अश्रु सबके बह चले थे ...क्यों की शचि देवि ने जीवन में बहुत दुःख देखे थे ....आज इनके यहाँ आनन्द का अवसर आया था । इसलिए शचिदेवि भावोन्माद से भर गयी थीं ।
अन्य महिलाओं ने इन्हें सम्भाला ...फिर बड़े प्रेम से पुत्र पुत्रवधू को लेकर ये भीतर आयीं ।
माँ ! ये क्या है ?
निमाई ने देखा पूरा घर-आँगन तो भरा पड़ा है सामग्रियों से तो पूछ लिया ।
पुत्र ! ये तेरे श्वसुर गृह से आया है ..दाईज है ये पुत्र ! शचि माँ ने कहा ।
माँ ! हम ब्राह्मण हैं जितनी आवश्यकता हो उतना ही रखना चाहिये हमें इतने वस्तु की आवश्यकता नही है ....इसलिये माँ ! इन सबको बाँट दो .....शचि देवि को भी ये उचित लगा ....विवाह में जिन जिन लोगों ने आकर अपनी सेवा दी थी उनको भी तो कुछ मिलना चाहिये ....शचि देवि ने सब कुछ बाँट दिया । नवद्वीप के ब्राह्मण , सेवा करने वाले सेवक धन आदि पाकर बहुत प्रसन्न हुये । खूब आशीष देते हुये अपने अपने घर की ओर सबने प्रस्थान किया । बुद्धिवंत को जब निमाई कुछ देने लगे तो वो रोष करने लगा ...और अत्यधिक प्रेम के कारण बोला ...अच्छा , अब मुझे अपना सेवक मान लिया क्या ? नही मित्र ! तुम तो मेरे अपने हो ....ख़ास अपने ...ये कहते हुये बुद्धिवंत को प्रगाढ़ आलिंगन में निमाई ने भर लिया था ।
उसके आनन्द का आज पारावार न था ...निमाई ! “मुझे मत भूलना” ये कहते हुये बुद्धिवंत रोने लगा था ...निमाई ने सहज मुस्कान बिखेरते हुये कहा ....तुम तो मेरे विवाह के पण्डे हो ...तुम्हें कैसे भूल जाऊँ ? इस तरह अपने समस्त परिकरों को परिजनों को प्रसन्न करके निमाई ने विदा किया ।
निमाई भैया ! निमाई भैया !
ओह ये लड़की कहाँ से आगई ? निमाई ने अपना सिर पकड़ लिया ।
सिर पकड़ने से नही होगा भैया ! भाभी दिखाओ ! कहाँ है हमारी भाभी ? भाभी ले आये और अपनी बहना को कुछ नही ।
ये पड़ोस में रहती है ...ब्राह्मण कन्या है ...नाम है इसका “कान्चना”। चंचल है ...बोलती बहुत हैं.....पर अच्छी है ।
शचि माँ ! देखो तो भैया ने सबको दिया ...पूरे नवद्वीप को दिया ...पर अपनी बहना को ! ठेंगा ।
निमाई ! दे , इसे तो पहले देना चाहिये । निमाई सुवर्ण की अंगूठी देने लगे तो ये उछलती हुई बोली .....रहने दो भैया ! मुझे तो अपनी प्रियतमा के मुख दिखा दो ....कहाँ है ? ये तो नववधू के कक्ष में घुस गयी । देख , परेशान मत करना ...बेचारी थकी है । शचि देवि ने कान्चना को समझाया ....शचि माँ ! मैं किसी को परेशान नही करती ।
दवे पाँव कक्ष में प्रवेश किया कान्चना ने ....विष्णुप्रिया घूँघट डालकर बैठी हैं ...प्रिया समझ तो गयीं कोई आरही है ....पर ....हो.....कहकर जैसे ही विष्णुप्रिया को डराने दिया ...विष्णुप्रिया ने अपना घूँघट हटाया .....वाह ! भाभी , तुम तो बहुत सुन्दर हो । प्रिया ने देखा- समवय है ये ...तो भाभी कहना अच्छा नही लगा । तो हम मीत हैं आज से .....हाँ ...विष्णुप्रिया ने अपना सिर प्रसन्नता से “हाँ”में हिलाया । ठीक है ....कान्चना ने हाथ आगे करके कहा ...तो आज से हम दोनों मीत हुये । बड़ी प्रसन्न होकर विष्णुप्रिया उसकी सारी बातें सुनती रहीं ।
शेष कल -
हरि शरणम्
✍️श्याम प्रिया मंजरी (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( षोडशोध्याय: )
6, 4, 2023
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गतांक से आगे -
कान्चना! ये क्या कर रही हो ? अरे ! बताओ तो क्या कर रही हो ?
प्रिया ! तुम चुप रहो ....बस देखती रहो ....आज पता है तुम्हारा आनन्दोत्सव है ?
मेरा आनन्दोत्सव तो तभी से प्रारम्भ है जब से मुझे मेरे प्रभु मिले हैं । विष्णुप्रिया ने सलज्ज अपनी सखी कान्चना को कहा । हाँ हाँ , पता है मुझे ...तुम्हारा आनन्दोत्सव तो बहुत पहले से ही प्रारम्भ था ...वहीं गंगा घाट में ! कान्चना बोलने में पीछे कहाँ रहती है । हट्ट ! तू भी कुछ भी बोल देती है .....ये कहकर प्रिया कुछ देर के लिए चुप हो गयी ....फिर पूछने लगीं ....कान्चना! तू इतने फूलों का करेगी क्या ?
“आजि फूल साजे सजाइब प्रिया-गौर ।
एनेछि कुसुम-डालि, मन साधे मोर । “
मधुर कण्ठ से कान्चना ने गाकर सुनाया ।
समझीं मेरी सखी ! मैं इन फूलों से आज अपनी सखी विष्णुप्रिया और गौरांग को सजाऊँगी ।
आनन्द से उछल पड़ी विष्णुप्रिया ....वाह ! कितना सुन्दर गाती हो तुम ....बहुत मीठा कण्ठ है तुम्हारा ......मेरी प्रिया सखी को अच्छा लगा ? बहुत अच्छा लगा ....विष्णुप्रिया कान्चना के कन्धे में अपना सिर रखकर बोलीं .....और सुना ना ! तू बहुत अच्छा गाती है ।
“गले दे मालती माला , हाते दे फुलेर बाला ।
काने दे कदम्ब फूल , माथे कृष्ण चूड़ा ।
साजा लो फुलेल साजे नदियार गौर । आजि फूल-साजे प्रिया संग गौर ।। “
गले में मालती फूलों की माला , हाथों में फूलों के कंगन , कानों में कदम्ब के फूल ...सिर में कृष्णचूड़ा देकर फूलों के साज से मैं अपनी प्रिया संग गौर को सजाऊँगी ।
कितनी प्रेम से सनी है ये कान्चना । वो गा रही है प्रिया मुग्ध है ....वो गाते हुए हार बनाती है ....प्रिया को पहनाती है ....कदम्ब के फूलों को प्रिया के कानों में लगा देती है । अद्भुत अशोक के कोमल पत्तों की नूपुर बनाये हैं ....उसमें चम्पक के फूलों का झूमर बाँध दिया है ।
कमर में गेंदे का हार ........
सुन्दर शैय्या सजाने लगी अब कान्चना । मुझे सजाते सजाते ये क्या करने लगी ? विष्णुप्रिया ने देखा ...प्रिया की सेज सजा रही है ....सफेद शुभ्र वस्त्र बिछाया है ....उसमें इत्र आदि का छिड़काव किया है ...फिर उसमें गुलाब की पंखुडियाँ बिखेर दी हैं ।
“आज तुम्हारा मिलन है” ....अपने चंचल नयनों को मटकाते हुए कान्चना बोली ।
मिलन तो हमारा हो गया ! विष्णुप्रिया उछलते हुये बोलीं थीं ।
कान्चना कुछ कहतीं उससे पहले ही निमाई को लेकर उसके सखा घर में आगये थे बाहर हास्य विनोद प्रारम्भ हो गया था ।
मित्रों ने सुन्दर सुन्दर माला निमाई को पहनाये ....फूलों से भर दिया घर को ।
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सुन्दर फूलों का ही सिंहासन सजाया है , चाँदनी रात्रि में निमाई-प्रिया दोनों आकर विराजे हैं ।
प्रिया की सखी कान्चना आज बहुत प्रसन्न है ....इस सखी को पाकर प्रिया भी प्रसन्न हैं ।
दोनों जब विराजे हैं ....उस समय नवद्वीप वासी इस लाभ को कैसे छोड़ सकते थे ....सब अपने घर से शचि देवि के यहाँ पहुँचे ...वहाँ पुष्प सज्जित प्रिया और गौर की छवि जब देखी ....सब भूल गये ....देह भान भूल गये ...अपलक देखते रहे । कोई कोई तो इतने उन्मत्त हो गये कि पुष्प वृष्टि आरम्भ कर दी .....निमाई उन लोगों को देखते हैं और मुस्कुराने लगते हैं ...कभी कभी निमाई के कर का स्पर्श हो जाता है प्रिया को तो उन्हें रोमांच होने लगता है .....वो दृष्टि बचाते हुए अपने प्राण निमाई को देख लेती हैं ....तब इनके मन में आनन्द सिंधु का श्रोत फूट पड़ता है ।
कान्चना ये सब देख रही है ....प्रिया को इस तरह प्रसन्न देख वो और प्रसन्न है ....निमाई सुन्दर लग रहे हैं पर निमाई से भी ज़्यादा सुन्दर प्रिया दीख रही हैं । दोनों आज ऐसे लग रहे हैं जैसे कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ विराजे हों ।
वाद्य बजने लगे ...सुर छिड़ने लगे हैं .....बड़े बड़े गवैये आए हैं यहाँ ...सब गायन कर रहे हैं ....बहुत देर हो गयी है ....तब निमाई ने प्रिया से धीरे पूछा ....क्या इन सबका गायन आपको अच्छा लग रहा है ? प्रिया ने कोई उत्तर नही दिया ....तो निमाई ने फिर पूछा । प्रिया ने संकेत में कहा ...कान्चना इन सबसे अच्छा गाती है ....निमाई मुस्कुराते हैं .....कान्चना मना करती है ...वो प्रिया को कहती है ....मैं कोई गायक थोड़े ही हूँ । पर निमाई वीणा कान्चना को देने को कहते हैं हैं ...और हंसते हुये कहते हैं .....आज तो सुनानी पड़ेगी ...हम लोगों की बात नही मानोगी पर अपनी सखी की बात तो मान लो ....प्रिया की ओर देखती है कान्चना .....प्रिया उसके स्कन्ध में हाथ रखकर संकेत से ही .....गाओ सखी ! गाओ ।
वीणा हाथ में है अब कान्चना के ....कोयल सी मधुर कण्ठ से उसने गायन शुरू किया ।
सखि !
अशोकेर कलि गाँथि , करेछि नूपुर ।
ताहाते बाँधिया दिछि चम्पक झुमुर।
कटितटे गाँदा हार , बाहुते बकुल ताड़ ।
पद्म पुष्प पद तले , दाओ लो प्रचुर ।
सर्व अंग क ‘र सखि ! पुष्पे भरपूर ।।
आजि फूल-साजे साजाइब प्रिया-गौर ।
एनेछि कुसुम डालि , मन साधे मोर ।।
अद्भुत गायन है इस कान्चना का ...निमाई भी मुग्ध हो गये हैं ।
करतल ध्वनि सबने की , निमाई ने प्रथम की , तो निमाई को देखकर अपनी सखी के लिए प्रिया ने उत्तम भाव से करतल ध्वनि की ....वो करती ही रही ।
अब कुछ हास्य विनोद भी हुआ ......पर प्रिया को उबासी आइ ये देखकर शचिदेवि ने इन युगल को भीतर ले जाने के लिए कहा ...कान्चना प्रिया को लेकर भीतर चली गयीं । इधर भोजन की व्यवस्था सबके लिए थी ....सबने भोज पाया और बारम्बार शचि देवि के भाग्य की सराहना करते हुए नवद्वीप वासी अपने आपने घरों में चले गये थे ।
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आज शचिदेवि ने अपने हाथों अपनी बहु के लिए सुस्वादु पकवान बनाये हैं ....दोनों को बैठाकर भोजन पवाया । फिर दोनों को शयन कक्ष में ले जाकर सुला दिया ।
शचि देवि पुत्र और पुत्रवधू को देखकर सब कुछ भूल जाती हैं ....वो फिर पर्यंक में आती हैं और अपनी बहु को स्नेह करती हैं ...निमाई के घुंघराले केशों को सहलाती हैं ।
अरी शचि ! सोने दे....तू भी कहाँ दोनों में घुसी रहती है ....वृद्धा पड़ोसी ने देखा तो हंसते हुए शचि देवि को कहा । शचि देवि अत्यन्त संकोच करते हुए इन दोनों को चूमकर बाहर आजाती हैं ।
युगल के केशराशि बिखरे हैं ....पुष्प के आभूषण टूट गये हैं ....गुलाब की पंखुडियाँ मसली गयीं हैं ....दोनों गौर वर्ण के ....दोनों की शोभा समस्त शोभाओं को मात देने वाली है । पर उफ़ ! विष्णुप्रिया का अपना द्वन्द , शैशव और यौवन एक संग अनुभव में आरहे हैं ...उफ़ ! दोनों ही प्रबल हैं ...इसलिये द्वन्द मच गया है ...कभी केश बाँधती हैं प्रिया ...तो कभी खोल देती हैं ...कभी अपने अंगों को देखती हैं और शरमा जाती हैं ..कभी नेत्र चंचल तो कभी स्थिर हो जाते हैं ...मन शान्त होता है कभी , कभी उन्मादी हो उठता है । मदन जाग रहा है ...इसलिये ये सब हो रहा है ।
शेष कल -
हरि शरणं
✍️श्रीजी श्याम प्रिया मंजरी (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तदशोध्याय:)
7, 4, 2023
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गतांक से आगे -
पिता जी ! ये है मेरी प्यारी सखी कान्चना ।
आज अपनी पुत्री और जामाता को लेने सनातन मिश्र जी आये हैं । अपने पिता को देखते ही दौड़ पड़ी थी विष्णुप्रिया । दोनों पिता पुत्री का हृदय भर आया था । तभी सखी कान्चना आयी अपने अश्रुओं को पोंछकर प्रिया ने परिचय कराया था ।
तुम जा रही हो ? प्रिया ने सिर हाँ में हिलाया । दुखी सी हो गयी कान्चना ....पर प्रिया ने उसे समझाया ...मैं तो आही जाऊँगी ना । भीतर शचि देवि के रोने की आवाज सुनी ...तो प्रिया भीतर गयी ....माँ ! मत रो ....बेटी ! तू इस घर को अंधकारमय बनाकर जा रही है ...तू जब तक थी तब तक ऐसा लगा दुनिया के सारे सुख अब इस शचि के पास हैं ....पर आज !
मैं आजाऊँगी माँ ! प्रिया के मुख से ये सुनते ही शचि देवि ने उसे हृदय से लगा लिया ...और मुख चूमते हुए कहा ....शीघ्र आजाना ...ये बुढ़िया तेरी प्रतीक्षा में है ....इस बात को मत भूलना ।
तभी पाठशाला से निमाई आगये .....उन्होंने अपने ससुर जी का अभिवादन किया ....सनातन मिश्र जी निमाई को देखते ही आनन्द सिन्धु में डूब जाते हैं ....कुछ बोल ही नहीं पाते ।
बेटा ! जा कुछ दिन अपने ससुराल में रह ले । शचि माँ ने अपने निमाई से कहा ।
निमाई विष्णुप्रिया के साथ सनातन मिश्र जी के घर की ओर चल पड़े थे ।
प्रिया ! जल्दी आना , अब तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगेगा । कान्चना अपने अश्रु पोंछते हुए चिल्ला रही थी । मैं जल्दी आऊँगी ...तुम मेरी माँ का ध्यान रखना । विष्णुप्रिया ने अपनी सखी को कहा .....निमाई जा रहे हैं ...विष्णुप्रिया जा रही है ....ये सब देखती रही शचि देवि ...दुःख तो हो रहा था पर कोई बात नही ....कुछ दिन में तो प्रिया आ ही जाएगी ...और अगर ज़्यादा याद आयी तो मिश्र जी का घर कौन सा दूर है ...मिल आऊँगी ....ऐसा विचार कर अपने मन को समझा लिया था शचि देवि ने ।
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सनातन मिश्र जी के घर में आज उत्सव है ....हो भी क्यों नही ....उनका प्यारा जमाई और प्यारी पुत्री जो आये हैं । महामाया देवि ने स्वयं ही लग कर भोजन बनाया है ...सुस्वादु पकवान बनाये हैं ...भाजी ,भाजा , मिष्ठान्न आदि .....भूख लगी होगी ...ऐसा विचार कर निमाई और प्रिया को भोजन में बिठाया है । निमाई भोजन करते समय कभी संकोच नही करते ...पर अपने ही घर में प्रिया शरमा रही है ....अपने माता पिता के सामने विवाह करने के बाद आज प्रिया को कुछ अजीब सा लग रहा है । जमाई बाबू ! संकोच मत करो ...ये दो रसोगुल्ला और खाना पड़ेगा ....निमाई हंसते हुए कहते हैं ....ना , दो नही हम तो चार लेंगे....निमाई के मुख से ये सुनकर सब हंसते हैं ...विष्णुप्रिया भी मुस्कुराने लगतीं हैं ....तब निमाई कहते हैं ....मुझे छोड़ो ...आप अपनी बेटी से कहो कि वो तो कुछ खाये । हाँ जमाई बाबू ! ये तो कुछ खा ही नही रही ....प्रिया ! बेटी ! खाओ ! तुम्हें तो ये बैगन का भर्ता बहुत प्रिय था ....ये तो खाओ । पर विष्णुप्रिया बहुत संकोच करती है ...यही घर , यही माँ , यही आँगन ....कितनी जिद्दी थी ....जो खाना हो उसे ये बनवाती ही थी ...नही तो खाना ही नही । आज प्रिया कुछ नही खा रही ...कितनी जल्दी पराई हो गयी मैं ! माँग में सिन्दूर ....माथे में बड़ा सा लाल बिंदा ..लाल साड़ी ..हाथों में चूड़ी ....और बगल में ?
जीवनधन ....जीवन सर्वस्व ।
निमाई का भोजन हो गया ....विष्णुप्रिया ने तो थोड़ा ही भात खाया था ...उठ गयी ।
बेटी ! तू प्रसन्न तो है ना ? तेरी सासु माँ कैसी हैं ? तुझे प्यार करती हैं ना ?
विष्णुप्रिया अपनी माँ के हृदय से लग गयी .....बहुत अच्छी हैं माँ ! ये कहते हुये प्रिया के मुख में प्रसन्नता दिखाई दी महामाया देवि को ...फिर माता ने पूछा ...और ये ?
सामने कुछ दूरी पर निमाई विराजे हैं ....उनके साथ उनके ससुर सनातन मिश्र जी गदगद भाव से बैठे हैं ....कुछ विद्वान भी आये हैं ...जो निमाई से शास्त्र चर्चा करना चाहते हैं ...और निमाई सहज हैं ....वो मुस्कुराकर सबका अभिवादन करते हैं ।
माँ ! ये तो प्रेम की साक्षात् मूर्ति हैं .... कहते हुए प्रिया अपनी माँ से कुछ शरमा गयी थी ।
तो पण्डित निमाई जी ! आप क्या कहते हैं ...मनुष्य जीवन में क्या आवश्यक है ?
एक विद्वान ने प्रश्न किया ।
प्रेम-भक्ति ही सर्वोपरि है .....निमाई ने कहा ....विष्णुप्रिया और उसकी माँ ये सब सुन रही हैं ।
क्या ये शास्त्रीय वचन हैं ? निमाई ने कहा ..हाँ ....फिर निमाई बोले ...वेद वाक्य भी यही हैं ...वेद तो सर्वोपरि है ना ....हम सनातन धर्म वालों ने वेद को ही सब कुछ माना है ...तो वही वेद भगवान भी यही कहते हैं .....भक्ति ही मनुष्य का एक मात्र कर्तव्य है । पण्डित निमाई ! भक्ति किसे कहते हैं ? एक वृद्ध विद्वान ने प्रश्न किया । निमाई इस प्रश्न पर कुछ देर मौन हो गये ।
निमाई पण्डित ! हमने सुना है कि - भक्ति उसे कहते हैं ...जैसे - शिवलिंग के ऊपर जल की धारा अविरल बहती रहती है ..ऐसे ही हमारे चित्त की गति अविरल ईश्वर की ओर लगी रहे वो भक्ति है । निमाई इस बात पर थोड़ा रुके ....मुस्कुराये फिर बोले - नही , भक्ति तो सरल है ...भक्ति तो माँ है ....अगर निरन्तर चित्त ईश्वर में लगी रहे यही भक्ति होगी तो बड़ा कठिन होगा ये तो ...क्यों कि निरन्तर-अखण्ड चित्त का लगा रहना सामान्य जनों के लिए कहाँ सम्भव है ? फिर ? सनातन मिश्र जी गदगद हैं ...अपने निमाई की प्रेम भरी मधुर वाणी सुनकर ।
निमाई बोले - भक्ति उसे कहते हैं ...शिव लिंग के ऊपर राई का एक दाना रखो ...वो जितनी देर तक टिका रहे ...उतनी देर भी ईश्वर में हमारा चित्त लग जाये तो वो भी भक्ति है ।
ये सुनते ही सारे विद्वान वाह वाह करने लगे थे ।
महामाया देवि विष्णुप्रिया से बोलीं ...बेटी !
हमारे जमाई जितने सुन्दर हैं ...बोलते भी उतना ही मधुर हैं ।
विष्णुप्रिया अपलक अपने प्राण निमाई को देखती रही थी ।
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दो दिन हो गये .....अब निमाई ने जाने की आज्ञा माँगी । सनातन मिश्र जी ने उन्हें रोकना चाहा ...महामाया देवि ने भी कुछ दिन और रूकने का आग्रह किया । पर निमाई ने सहजता से कहा ....मेरे विद्यार्थीयों की विद्या मेरे कारण बाधित हो रही है ...आप तो जानते ही हैं ...मेरी पाठशाला है ...और मेरे प्रति मेरे शिष्य बहुत श्रद्धा रखते हैं ...इसलिये मुझे अब जाना चाहिये ।
विष्णुप्रिया उदास है ..उसके प्राण निमाई जा रहे हैं ...पर ये भी तो प्रेमी हैं , विष्णुप्रिया को छोड़कर जाते हुये इनका हृदय भी भारी हो गया था ।
निमाई ! तू आगया ? मेरी बहु कैसी है ? शचि देवि निमाई से पूछती हैं ।
ठीक है ....इतना कहकर निमाई अपनी पाठशाला में चले गये ।
कुछ बताता भी नही है ...ये घर भी मुझे काटने को दौड़ता है ...खुद तो दुनिया घूमता है ..मित्र यार सब हैं ...पर अपनी माँ के विषय में कुछ नही सोचता । कुछ नही । अकेले में ही बोलती जा रही हैं शचि देवि ।
निमाई घर आते हैं ...दाल भात पा कर सो जाते हैं ....फिर सुबह उठकर पाठशाला । निमाई की पाठशाला अब धीरे धीरे चरम प्रसिद्धि की ओर बढ़ रही थी । पूरा बंग प्रदेश इस पाठशाला से परिचित हो रहा था ...बड़े बड़े विद्वान “पण्डित निमाई” इस नाम को पहचानने लगे थे ।
शचि देवि आज प्रातः उठीं .....इन्हें विष्णुप्रिया की बहुत याद आरही है .....रह रह कर वो शशिमुख शचि देवि को परेशान कर रहा है । निमाई स्नान आदि से निवृत्त होकर आगये ....उन्हें भोजन परोस दिया माँ ने ....निमाई भोजन कर रहे हैं .....निमाई बेटा , प्रिया की बहुत याद आरही है ...अब तो ले आ । निमाई ने सहज कहा ...माँ ! अभी तो गयी है रहने दो ना उसे अपने मायके ।
हाँ , तुझे क्या है ? तेरे तो इष्ट मित्र बहुत हैं ...पाठशाला में मन भी लग जाता है तेरा ...पर मेरा ?
अरे माँ ! इतनी ही याद आरही है तो हो आओ न , ....
पास में ही तो है घर ...गंगा जाते समय हो आना । ये कहकर निमाई चले गये ।
शचि देवि इस बात से खुश हुईं ....चलो , आज तो अपनी बहु को देखकर ही आऊँगी ।
सन्ध्या से पूर्व ही घर से चलीं ....सनातन मिश्र जी का घर पास में ही तो है ।
द्वार पर पहुँच शचिदेवि ने आवाज लगाई तो महामाया देवि भीतर से दौड़ी दौड़ी आईं ।
भीतर आइये .....बड़े आदर से प्रिया की माँ ने कहा ।
नही , मैं तो गंगा घाट में आई थी ...फिर बहु से मिलने की इच्छा हुई ....शचि देवि ने अपने दिल की बात कह दी थी ।
तभी - माँ !....
दौड़ती हुई आई विष्णुप्रिया अपनी सासु माँ को देखकर वो आनंदित हो गयी ....
शचि देवि ने उसे अपने हृदय से लगा लिया ...चूम लिया ।
माँ ! घर के भीतर आओ ना , वो प्रिया जिद्द करने लगी । नही , मुझे बहुत काम है बहु ! मुझे जाने दे ...शचि वहीं से लौटना चाहती थीं ....पर प्रिया ऐसे कैसे जाने देती ...शचि देवि के साड़ी का पल्लू पकड़ कर वो भीतर ले गयी ....और मिठाई आदि खिलाकर ही भेजा ।
निमाई ! अब तो ले आ विष्णुप्रिया को .....
भोजन करते समय फिर निमाई को शचि माँ ने टोक दिया ।
निमाई भी आज बोल दिये ....ठीक है माँ ! .....क्या तू मान गया मेरी बात ? शचि देवि ने सोचा नही था कि निमाई इतनी जल्दी मान जायेगा ।
कब लायेगा ? शचि देवि ने फिर पूछा ।
कल ...निमाई बोल दिये । अब तो शचि देवि के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ...गदगद थीं वो .....पड़ोस में जाकर कान्चना को भी बोल आईं थीं ....मेरी “प्रिया”कल आरही है ।
शेष कल -
हरि शरणं
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( अष्टदशोध्याय:)
8, 4, 2023
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गतांक से आगे -
किन माता पिताओं की इच्छा होगी वो अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से दूर करें पर जगत की रीत बड़ी निर्दय है । जिसे नयनों का तारा बनाकर रखा था उसी को विदा करना ....ये कितना कष्टप्रद होता है ...पर नारी के भाग्य में विधाता ने यही लिखा है ।
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निमाई गये अपनी ससुराल और अपनी नई नवेली भार्या विष्णुप्रिया को विदा करवा लाये ।
विष्णुप्रिया अब शचिदेवि के यहाँ आगयीं हैं ...प्रिया के रुनझुन करते पाँव जब आँगन में चलते तब शचि देवि के आनन्द का कोई ठिकाना न रहता । भोजन बनाना चाहती हैं प्रिया पर शचि देवि उन्हें बनाने नही देतीं कहतीं - अभी तुम छोटी हो ....कुछ समय और बीतने दो । निमाई तो अपनी पाठशाला में ही व्यस्त रहते थे । इन दिनों निमाई पूरी तरह से लगे हैं अपनी पाठशाला की प्रगति में ...विद्यार्थी बढ़ते जा रहे हैं ....नवद्वीप में निमाई की प्रतिष्ठा चरम पर पहुँच गयी है । लोग वाहन में चल रहे होते और उन्हें निमाई दीख जाते तो उतर कर उन्हें प्रणाम करते । इन दिनों निमाई को कुछ नही सूझ रहा ...बस ...कैसे अपने विद्यार्थियों को विद्या देकर उन्हें परम विद्वान बनायें । यही इनका लक्ष्य था , इसलिये विद्यार्थी भी इनका बहुत आदर करते थे ।
घर की स्थिति बहुत सुखद है ....शचि देवि और विष्णुप्रिया दोनों घर में हैं ...दोपहर के समय कान्चना आजाती है तो ये सखियाँ मिल कर खेलती हैं ...हार जीत पर हंसती हैं ...खूब हंसती हैं ...लोट पोट हो जाती हैं ....निमाई जब ये देखते हैं ...तब उन्हें बहुत प्रसन्नता होती , वो दवे पाँव आकर गम्भीर आवाज में कहते ...इस तरह हंसना लड़कियों को शोभा नही देता ।
बेचारी विष्णुप्रिया डर जाती ...रुआंसी सी हो जाती ...तब हंसते हुये निमाई कहते ...अरे वाह ! मैं पति हूँ क्या पत्नी से विनोद भी नही कर सकता । प्रिया तब भी असहज ही रहती ...तो निमाई कहते ....हम भी खेलेंगे ....प्रिया तब भी डरी रहती ...तो निमाई प्रिया को गुदगुदी करते हुए चले जाते ....तब वो खूब हंसती ...साड़ी का पल्लू मुँह में दबा कर हंसती । तुम रोती अच्छी नही लगती हो ...तुम हंसा करो ....”तो भैया ! आप इसे हंसाया करो”.....कान्चना पीछे से बोलती ।
शचि देवि के साथ प्रिया पल्लू पकड़ कर गंगा स्नान के लिए जाती ...पल्लू पकड़े ही गंगा नहाती ...फिर वैसे ही वापस घर में आती । अपनी सासु माँ शचि के प्रिया केश बना देती ....पाँव दबा देती ....हर समय माँ , माँ , माँ ....आगे पीछे रुनझुन करते हुये डोलती रहती । इस तरह आमोद प्रमोद घर में बना हुआ था ....पर समय तो बीतता जा ही रहा था ।
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निमाई ! बड़े गम्भीर हो आज ? क्या बात है ....बोलो पुत्र ! शचि देवि ने निमाई को आज कुछ ज़्यादा ही गम्भीर देखा तो पूछ लिया । सहज ही रहते थे निमाई ....हंसते खेलते चंचलता लिये निमाई से ही माँ का भी परिचय था ....पर आज इतना गम्भीर !
माँ ! पिता जी याद आरहे हैं ।
निमाई के नेत्र सजल हैं .....पर शचि देवि के नयन तो बरस पड़े ....पुत्र ! विधाता के आगे किस की चली ..देख वो हमें अनाथ करके चले गये ....हिलकियाँ फूट पड़ी थीं शचि देवि की । निमाई कुछ देर शान्त रहे ...शचि देवि ने अपने अश्रु पोंछे ...और निमाई की ओर देखने लगीं .....निमाई ! तू कुछ कहना चाह रहा है क्या ? माँ ! मैं गया तीर्थ जाने की आज्ञा माँग रहा हूँ । निमाई ने कह तो दिया पर शचि देवि इस बात पर फूट फूट कर रोने लगीं थीं । एक काम कर निमाई , इस बूढ़ी माँ को विष दे दे और चला जा जहां जाना हो ।
माँ ! ऐसा मत कह ...मैं तो पिता जी का श्राद्ध करने जा रहा हूँ .....माँ ! तू इतनी अधीर क्यों हो रही है ! ये कर्म आवश्यक है ....हम शास्त्र को मानने वाले हैं हम ही श्राद्ध आदि कर्म नही करेंगे शास्त्र मर्यादा का पालन नही करेंगे तो फिर कैसे होगा । निमाई ने अपनी माता को धैर्य धराया ....शचि देवि अब क्या कहें ....क्यों की निमाई अपने पिता के श्राद्ध कर्म करने के लिए गया जा रहे थे । पुत्र ! तुमने प्रिया को ये बात कही ? नही , अभी नही । उस बेचारी को क्या कहेगा ? तू दूर जा रहा है ये सुनते ही उसके तो प्राण अटक जायेंगे । माँ ! तुम भी समझाना ना उसे । निमाई ने अपनी माता को नाना विधि से समझा दिया पर अब बारी थी विष्णुप्रिया को समझाने की .....निमाई जानते हैं उसे समझाना बड़ा कठिन कार्य होगा ।
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“तुमी परदेशे जाबे , ऐहि बड़ दुःख “
भीतर से माता पुत्र की बात प्रिया ने सुन लिया ..उसके हाथों थाल थी जिसमें व्यंजन आदि थे ...पर ये सुनते ही उसके हाथ काँपने लगे ...पूरा शरीर काँपने लगा ...मेरे प्राण प्रियतम चले जायेंगे , उस सरला बालिका को क्या पता वियोग क्या होता है ! ये तो बेचारी आनन्द से गृहस्थ का सुख लूट रही थी ...आमोद प्रमोद में इसका समय बीत रहा था ....इसने तो सोचा भी नही था ....कि ये समय भी आयेगा । निमाई की ओर देखा शचि देवि ने ....और संकेत किया अब जा और जाकर समझा ।
पर विष्णुप्रिया अब परिपक्व हो गयी है ....मैं कुछ नही कहूँगी अपने “प्राण” से । वो जायें तब भी नहीं ....क्या उन्हें मुझे बताना नही चाहिये ! मैं उनकी अर्धांगिनी हूँ ....वो अश्रु पोंछ कर बाहर आई ....और निमाई के आगे वो व्यंजन रख दिये ....निमाई ने प्रिया के मुख की ओर देखा ...उसकी आँखें भरी हुई थीं.....कुछ देर और निमाई ने देखा तो वो और हिलकियों से रोती हुयी भीतर चली गयी । शचि देवि ने निमाई को प्रिया के पास जाने को कहा .....पर निमाई इस बालिका को कैसे समझायेंगे ! पर उन्हें समझाना तो है ....वो दवे पाँव कक्ष में गये .....पर्यंक में बैठी है ....और सुबुक रही है ।
प्रिया !
निमाई पास में गये...और जैसे ही प्रिया के स्कन्ध में अपने हाथ रखे , नाथ ! हमें छोड़कर मत जाइये ना , निमाई के चरणों में गिर गयी थी प्रिया , अपने अश्रुओं से चरणों को धो दिया था ।
शेष कल -
हरि शरणम्..
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास ( श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकोनविंशति अध्याय: )
9, 4, 2023
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गतांक से आगे -
आश्विन मास, पितृपक्ष का समय है ....मुझे धर्म के कार्य में जाना है ...गया तीर्थ जाकर पितृश्राद्ध करना है ...हे प्रिये! तुम मेरी धर्मपत्नी हो ....तुम्हें तो मुझे प्रसन्नता पूर्वक भेजना चाहिये । उठा लिया था अपने बाहों में और बड़े प्रेम से हृदय से लगाये अपनी सुकुमारी प्रिया को समझा रहे थे । प्रिया ! इतनी व्यथित हो जाओगी ....तो फिर मुझे दुःख होगा ना ....इसलिये अपने अश्रुओं को पोंछ लो ...और मुझे प्रेमपूर्वक विदा दो .....ये कहते हुए स्वयं ने ही प्रिया के अश्रुओं को पोंछ दिया था । विष्णुप्रिया की हिचकियाँ बंध गयीं थीं ....उसको समझ में नही आरहा था कि वो अपने को कैसे समझाये ....उनके “प्राण” का कहना सत्य था ....धर्म के कार्य के लिए वो जा रहे थे ....पर ये हृदय इन सब बातों को नही समझता ....उसे तो बस प्रेमास्पद ही चाहिये । विष्णुप्रिया स्तब्ध सी होकर खड़ी है ...अब वो रो भी नही सकती ....क्यों कि रोयेगी तो उसके प्रभु कहीं रिसाय गये तो फिर क्या होगा ? प्रिया के लिए तो यही सब कुछ हैं । फिर निमाई ने अपनी प्रिया को हृदय से लगाया ...और कहा ...”शीतकाल तक आजाऊँगा”। विष्णुप्रिया बस देखती रही ....ये गौरांग छवि अब कई दिनों तक दिखाई नही देगी ....औरों के लिये “दिन” हैं पर प्रिया के लिए तो “युग” कहिये । उसको रोना आरहा है ....बहुत रोना ...हाँ एक बार तो प्रिया ने सोचा भी था कि ...प्रभु से प्रार्थना करूँ एक बार और ...कि “आप न जायें” ....शायद मान जायें । पर हिम्मत नही हुई । बाहर लोग खड़े हैं ...इनके कुछ शिष्य हैं जो साथ जायेंगे ।
निमाई ने प्रिया के स्कन्ध में हाथ रखा और वो बाहर निकल आये । प्रिया ने दौड़ते हुए बाहर आकर देखा ....निमाई अपने शिष्यों के साथ निकल गये थे ..शचि देवि गंगा घाट तक पहुँचाने गयीं थीं ....विष्णुप्रिया ने देखा ....उसके प्रियतम दूर जा चुके हैं ....वो भागी हुई छत में गयी वहाँ से दिखाई देंगे ...छत से जाकर उसने देखा ....जब दीखना बन्द हुए तो वो नीचे आई ....और अपनी शैया में जाकर लेट गयी ....घर में कोई था नही ....सुनने वाला भी कोई नही था ..शचि देवि पहुँचाने गयीं थीं निमाई को । तकिया को अपने मुँह में लगाकर जोर जोर से इसने रोना शुरू किया । विष्णुप्रिया की चीत्कार छूट रही थी .....ओह !
प्रिया !
किसी ने आवाज दी ...अपने को सम्भालकर ....अश्रुओं को पोंछ कर ...प्रिया जैसे ही बाहर आई ....सामने खड़ी है इसकी सखी कान्चना । पक्की सखी है ...प्रिया के सुख में सुखी होती है और दुःख में दुखी ....हृदय से लगा लिया प्रिया ने अपनी सखी को ...फिर तो दोनों ही रोने लगीं ....खूब रोईं । कुछ समय बाद कान्चना ने प्रिया को सम्भाला ....पर बिलख रही है ये तो ....कान्चना ने समझाते हुये कहा .....प्रिया ! अपने आपको सम्भालो , धर्म के कार्य में गये हैं तुम्हारे पति ....तुम्हें इस तरह बिलखना ठीक नही है ...प्रिया ! हर दिन सुख नही है ...हर दिन मिलन नही है ...सुख आया है तो दुःख आयेगा ...प्रिय से मिलन है तो वियोग होगा ही । इस बात को समझो ...अपने आपको सम्भालो प्यारी !
कान्चना के समझाने पर प्रिया को कुछ आधार मिला ।
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विरह हृदय के प्रेम को विकसित कर देता है ....प्रेम को प्रदीप्त कर समस्त को जलाकर राख कर देता है ....विरह एक साधना है ...ये ऐसी साधना है जो बड़े बड़े योगियों को भी अतिशय दुर्लभ है ...इस साधना को जो करता है उसे कुछ और करने की आवश्यकता ही नही पड़ती ।
विष्णुप्रिया की ये साधना यहाँ से शुरू होती है ।
वो अब भोजन बनाती ...अपनी सासु माँ को खिलाती ...सब कुछ समेटती ...फिर एकान्त में बैठकर अपने प्राणप्रियतम का ध्यान करती । नही नही “ध्यान करती” ये कहना ठीक नही होगा .....क्यों की विरह में स्मरण-ध्यान करना नही पड़ता ....वो तो विरही का सहज होता है । आकाश की शून्यता में उसे निमाई दिखाई देते ....गंगा की उज्ज्वल धारा में गौरांग की अनुभूति इसे होती ...बादलों की गम्भीर गर्जना में निमाई की ही गम्भीर वाणी का इसे अहसास होता । अपने केश विन्यास करते समय प्रिया को लगता मेरे “प्राण” आगये ! .....वो भागती द्वार की ओर ....पर कोई नही आया ।
“प्रिया! मैं शीतकाल तक आऊँगा” ....यही कहा था ।
माँ ! वे कब आयेंगे ? आज जैसे जैसे विष्णुप्रिया अपनी सासु माँ से पूछने लगी ।
प्रिया ! अभी तो समय है .....निमाई तो शीतकाल में आयेगा ना !
पर माँ ! मुझे तो कल से ही शीत का अनुभव हो रहा है । जाड़ा लग रहा है ।
शचि देवि अपनी भोली बहु के मुख से जब ये सुनती तो वो बिलख उठतीं ...बेटी ! अभी कुछ दिन और हैं । माँ ! कितने दिन और ? अब शचि देवि क्या कहें ....बेटी ! पंचांग देखना पड़ेगा ...प्रिया पंचांग भी ले आई ...पन्द्रह दिन और हैं ...शचिदेवि की बात सुनकर प्रिया फिर दुखी हो गयी ...पन्द्रह दिन बहुत होते हैं । ये गिनती करती ....एक एक दिन का हिसाब रखती ...कब आयेंगे उसके प्रियतम ! अब आयेंगे उसके प्रियतम । जी । पन्द्रह दिन जैसे जैसे काटे ....और अब ......
शेष कल -
हरि शरणम्
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( विंशती अध्याय: )
10, 4, 2023
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गतांक से आगे -
माँ !
इस पुकार ने शचिदेवि के कानों में अमृत भर दिया था ....वो बाहर दौड़ीं ...उनके प्रिय पुत्र निमाई ने उन्हें आवाज दी थी ....इसका मतलब था कि गया तीर्थ यात्रा पूरी करके उनका निमाई आगया था । द्वार पर जाकर खड़ी हो गयीं ...निमाई सामने हैं ...पर उनके सामने बड़े बड़े वैष्णव भक्त हैं ....जो निमाई से वार्ता कर रहे हैं । शचि देवि कहना चाहती है ....इन सब से बाद में बात कर लेना पुत्र ! पहले अपनी माँ से तो मिल ले । पर निमाई बाहर ही खड़े हैं और नवद्वीप के ही वैष्णवों से चर्चा कर रहे हैं .....निमाई ने देखा अपनी माँ की ओर ....वो अपने पुत्र को ही देख रहीं थीं ..जब निमाई ओर माँ की दृष्टि मिली तो संकेत से माँ ने कहा ....घर आ , इन सबसे बाद में मिल लेना ।
निमाई ने उन लोगों को कहा ......आप लोग बाद में आना । कब ? वो वैष्णव लोग भावुक थे .....निमाई से समय भी पूछने लगे । निमाई ने सन्ध्या का समय दिया ....और अपने घर में आगये । झुके ....माँ शचि के चरण वन्दन किये । शचि माँ ने अपने पुत्र का मुख चूम लिया ...अपना वात्सल्य उढेल दिया ...इनके आनन्द का कोई ठिकाना नही है । रुक , निमाई ! रुक ...देख प्रिया को बुलाती हूँ ...वो तुझे देखेगी तो उसकी जो स्थिति होगी - देखते हैं !
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शचि देवि ने आवाज दी .....प्रिया ! हाँ माँ ! जैसे ही विष्णुप्रिया बाहर आई ....
स्तब्ध , सामने उसके प्राणेश्वर हैं ...विष्णुप्रिया का हृदय कितनी तेज़ी से धड़क रहा है ....उसे कुछ सूझ नही रहा ....क्या सच में मेरे “प्राण” मेरे सामने हैं । प्रिया ! देख कौन आया ? प्रिया के नेत्रों से शीतल अश्रु बरस पड़े थे ...वो दौड़ी ..और अपने प्राणेश्वर के चरणों में गिर गयी ।
निमाई ने उठाया .....प्रिया को रोमांच हुआ .....उसका हृदय और तेज धड़क रहा है । “अपने आपको सम्भालो प्रिया !” इतना कहकर वो अपने कक्ष में चले गये ।
ये क्या ! मुझे देखकर मुस्कुराये नही ? क्यों ? प्रिया शून्य में तांक रही है ।
बेटी ! निमाई थका है ..बहुत दूर की यात्रा करके आया है ना , इसलिए थकान हो गयी होगी ।
माँ शचि ने प्रिया को तो समझा दिया ...पर अपने को कैसे समझाये । निमाई मुस्कुराया नही ! ये तो हर समय मुस्कुराने वाला था ...हर समय हंसने हंसाने वाला था ....फिर क्या हुआ इसे ।
पर शचि देवि ने भी उसी तर्क से अपने को समझा लिया .....कि थका होगा ...थकान हो गयी होगी ...इसलिये हंसा नही .....
स्नान किया निमाई ने .....फिर भोजन ......विष्णुप्रिया भोजन दे रही है .....पर निमाई एक बार भी इसकी ओर नही देखते .....शचि देवि ने ही प्रिया को कहा था ...मैं नही तू ही देकर आ निमाई को भोजन । तो विष्णुप्रिया ही दे रही थी । जो दिया वही खा रहे हैं ....कैसा है ...क्या है ....कुछ चाहिये .....ये सब कुछ नही ...बस मूर्ति की तरह भोजन करते रहे निमाई । शचि देवि भीतर से देख रही हैं .....उनको घबराहट होने लगी ....क्यों की निमाई सच में बदल गये थे ....वो चंचलता अब कहा ?
भैया ! आप आगये ?
सखी कान्चना ने जब सुना की पण्डित निमाई अपने घर आगये हैं ....तो वो भी भागी ....और निमाई उस समय भोजन से उठे ही थे .....हाथ धो रहे थे ...तभी कान्चना ने हंसते हुए पूछा था ।
ये वही निमाई हैं ...कभी कान्चना की हंसी उड़ाते तो वो लड़ने लगती ...तब इससे कहते ..मैं तो विनोद कर रहा था .....विष्णुप्रिया और कान्चना जब खेल रहे होते तो निमाई पीछे से आकर इन दोनों की चोटी बाँध देते ....और हंसते हुये चले जाते । ये वही हैं ...जो चंचल पण्डित के नाम से प्रख्यात थे ....इन्होंने चंचलता में सब को पीछे छोड़ दिया था ....कोई अपने घर ठाकुर जी को भोग लगाता तो ये उसे खा कर चल देते ...और हंसते हुये कहते ....मेरे अन्दर भी तो भगवान हैं ...उस भगवान को मैंने भोग लगाया ...क्या गलत किया !
ये वो निमाई थे .....पर आज ?
कान्चना को देखा बस ....उसकी बात का कोई उत्तर नही दिया .....कान्चना स्तब्ध थी ...ये क्या होगया ? वो प्रिया के पास गयी । शचि देवि भोजन कर रही हैं ...प्रिया अब उन्हें खिला रही है ...निमाई के विषय में न शचि देवि कुछ कहती हैं ...न प्रिया । कान्चना भीतर आई ....उसको भी प्रिया ने देखा ....पर कुछ नही बोली ....कान्चना पूछना चाहती है ...सब ठीक तो है ? प्रिया बताना चाहती है कि सखी ! कुछ ठीक नही है ...मेरे प्राणेश्वर पहले जैसे नही हैं ....पर डरती है ...सरस्वती जिह्वा में बैठती है एक समय और उस समय जो बोलो ...वो सत्य होता है ।
नहीं ...ये सत्य नही है ...नही , मेरे “प्राण” बदल नही सकते । उन्होंने जाते हुये मुझे अपने हृदय से लगाया था ....वो छुवन आज भी स्मरण में है ....माँ ! वो थके हैं ....यात्रा लम्बी करके आए हैं ना ! इसलिये । ये बात एकाएक विष्णुप्रिया बोली थी ....शचि देवि ने चौंक कर प्रिया के मुख को देखा .......कान्चना ने भी प्रिया की बात सुनी । फिर कृत्रिम हंसी हंसते हुये विष्णुप्रिया बोली ...हाँ , कान्चना! देख गयातीर्थ यहाँ थोड़े ही है ...बहुत दूर है ...वहाँ से आये हैं थके हैं ....क्यों हंसेंगे ? हंसना आवश्यक है क्या ? उनकी मर्जी ...नही हंस रहे ।
तभी बाहर कोई आया है ...प्रिया गयी ....शचि देवि हाथ धो रही हैं ....
निमाई प्रभु से हम मिल सकते हैं ? प्रिया ने उन आगन्तुक वैष्णव अतिथि को संकेत करके कहा ...अभी अभी भोजन किये हैं ....इतना ही बोली थीं प्रिया कि निमाई बाहर आगये ....ओह ! आप आइये , विराजिये ....निमाई बड़े आदर के साथ उन वैष्णवों को अपने कक्ष में ले गये ...इस समय भी विष्णुप्रिया की ओर एक बार दृष्टि डाली थी ...पर मुस्कुराये नहीं ।
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कृष्ण ! हा कृष्ण ! हे कृष्ण ! एकाएक चीखे निमाई ।
प्रिया ने सुनी ...वो भागी .....शचि देवि ने सुनी .....वो निमाई के कक्ष की ओर दौड़ीं ...पर कक्ष भीतर से ही बन्द है .....बाहर ही खड़े होकर प्रिया और माँ सुन रहीं हैं उन वैष्णवों से चल रही निमाई की वार्ता ।
कृष्ण , आहा ! ये नाम सबसे मधुर है ...कृष्ण, ये रूप सब रूपों में सुन्दरतम है ...मेरे हृदय को ये कृष्ण व्यथित कर रहे हैं ....आप लोग वैष्णव हैं ...कृष्ण के परम भक्त हैं ....आशीर्वाद दीजिये इस निमाई को ....कि कृष्ण कृपा इसे मिले ....नही तो ये निमाई मर जायेगा ।
ये सुनते ही .....विष्णुप्रिया रोने लगीं ....शचि देवि के हाथ पाँव काँपने लगे ...ये क्या ? क्या गया तीर्थ में किसी ने मेरे निमाई के ऊपर जादू टोना किया ?
मैं क्या करूँ ? सब मिथ्या है ....एक मात्र कृष्ण ही सत्य है ...क्या वो मुझे मिलेंगे ? बताइये भक्तों ! क्या मेरे कृपालु कृष्ण मेरे ऊपर कृपा नही करेंगे ? राक्षसी पूतना को अपनी माता की गति देने वाले कृष्ण क्या निमाई को अपना नही बनायेंगे । ये सब कहते हुए निमाई फिर चिल्लाने लगते हैं ...हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे केशव ! हे माधव ! उनके नेत्रों से अश्रु की धार बह चली है । ओह !
विष्णुप्रिया कातर नयन से अपनी सासु माँ को देख रही है ....वो पूछना चाहती है माँ ! बताओ ना , मेरे प्राणेश्वर को ये क्या हुआ ? पर क्या उत्तर दे शचि देवि अपनी इस बच्ची विष्णुप्रिया को ।
शेष कल -
हरि शरणं गच्छामि
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकविंशति अध्याय: )
11, 4, 2023
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गतांक से आगे -
रोने की सिसकी ने शचि देवि की नींद खोल दी ....नींद इन्हें कहाँ ! जिनका इतना योग्य बुद्धिमान पुत्र और उसकी ऐसी स्थिति हो गयी थी उस माँ को नींद कहाँ ? जैसे तैसे तो झपकी आई थी पर वो भी ...किसी की सिसकी ने तोड़ दी । किसी की क्यों ....अपने निमाई की ही सिसकी थी ....हे भगवान ! गया में ऐसा क्या हो गया ....मेरे बेटे को किसकी नज़र लग गयी ...शचि देवि उठीं और गयीं निमाई के कक्ष में । निमाई रो रहे हैं ...वो अपना सिर पटक रहे हैं ....हे हरि , ये क्या हो गया मेरे निमाई को ...उन्होंने दौड़कर निमाई को पकड़ा ...और अपनी गोद में लेकर उसे सुला दिया । माँ ! माँ ! , निमाई शचिदेवि को देखकर अब बोलने लगे थे ।
पुत्र ! क्या हुआ ? तू तो ऐसा नही था ....बता निमाई क्या हुआ ? कपूर और तैल मिलाकर निमाई के सिर में डाल दिया था माता ने और मल रहीं थीं ....तब पूछ लिया ।
माँ ! मुझे प्रेम हो गया है ।
क्या ? शचि देवि ने जैसे ही ये सुना उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी ....तू क्या कह रहा है निमाई तुझे पता भी है ! बाहर विष्णुप्रिया खड़ी सुन रही थीं ....वो धड़ाम से गिरीं ।
तेरे ऊपर किसी ने जादू टोना कर दिया है पुत्र , नही तो देख तेरी क्या दशा हो गयी है ....पीताभ मुखमण्डल हो गया है .....बता क्या हुआ ? गया मैं किसी ने कोई टोना तो नही किया ना ?
निमाई हंसे .....बोले ....मेरे प्रीतम ने टोना किया है । हंसी और रुदन एक साथ ....कैसी स्थिति होगी विचार करो । तू कैसी बहकी बातें कर रहा है ....ऐसे मत बोल ....क्या प्रीतम ? तेरी पत्नी है ...तेरी माँ है ....तेरा अपना अध्यापन का कार्य है ...इन्हीं में ध्यान दे ।
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माँ ! प्रेम कोई तैयारी नही है ...प्रेम घटना है ...जो घट जाती है ....मेरे साथ यही घट गयी । कैसे ? कहाँ ? वो कौन है ? शचि देवि के इन प्रश्नों के उत्तर में निमाई अपनी “गया यात्रा” का वर्णन करके बताते हैं ।
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गया तीर्थ पहुँचने से पूर्व ही मुझे ज्वर हो गया ....माँ ! मैं दो दिन तक ज्वर में ही पड़ा रहा ..मेरे साथ के मित्रों ने बहुत प्रयास किया कि मैं स्वस्थ हो जाऊँ ...पर नही ...मुझे औषधि देने की कोशिश की ....माँ ! मुझे औषधि लेना प्रिय नही है ....मैंने नही ली ...किन्तु मेरे मित्र बहुत दुखी थे तो मैंने उन लोगों को कहा ....मुझे किसी वैष्णव के चरणोदक का पान करा दो ...मैं ठीक हो जाऊँगा ।
फिर क्या हुआ ? निमाई ! तुझे तो वैष्णव लोग प्रिय नही थे ?
निमाई इसका कोई उत्तर नही देते ....फिर कहते हैं ....मुझे किसी वैष्णव ब्राह्मण का चरणोदक लाकर दिया गया ...आश्चर्य ! माँ मेरा ज्वर तुरन्त उतर गया । फिर तो मैं स्नान आदि से शुद्ध पवित्र होकर पादपद्म मन्दिर गया ...जहां भगवान श्रीनारायण के चरण विराजमान थे । माँ ! वहाँ भीड़ बहुत थी ....हजारों यात्री थे ....सब जा रहे थे मन्दिर की ओर ....वहाँ के पुजारी लोग सबको कह रहे थे ....ये चरण हैं भगवान के ....इन चरणों को छुओ ....इन चरणों में अपना मस्तक रखो ...ये चरण हैं जिनसे साक्षात् भगवती गंगा का प्राकट्य हुआ है ...इन चरणों की सेवा में माता लक्ष्मी नित्य रहती हैं ...इन्हीं चरणों का ध्यान करके बड़े बड़े योगी तर जाते हैं ....ये ऐसे चरण हैं ...आइये , इन चरणों को प्रणाम कीजिये और भेंट दक्षिणा चढ़ाइए । निमाई अपनी माता को बता रहे हैं ....माँ ! तभी मुझे पता नही क्या हुआ ! मेरे सामने साक्षात प्रभु के चरण प्रकट हो गये । वो चरण बड़े दिव्य थे ....क्या बताऊँ माँ ! चक्र शंख अंकित चरण ....पुजारी-पण्डे मुझे बोलते रहे ...सिर झुकाओ ...प्रणाम करो ...पर माँ ! मेरे देह में रोमांच होने लगा ..मैं काँपने लगा ....मेरे नेत्रों से अश्रु बहने लगे ....ओह ! यही हैं वे चरण जो पतितपावन कहे जाते हैं ....इन्हीं चरणों को पाने के लिए योगी-ज्ञानी आदि तरसते रहते हैं ...और निमाई , वो तेरे सामने हैं ...पकड़ ले इन्हें ...लगा ले अपने हृदय से ...माँ , पता नही मुझे क्या हुआ ....मैं उसी समय गिर गया ....मेरे शरीर से स्वेद बहने लगे ।
पुत्र ! तू भावुक है ...मैं जानती हूँ ....शचिदेवि ने कहा ।
माँ ! मेरे मित्रों ने मुझे भीड़ से बाहर निकाल कर एक खुली जगह में रख दिया था ....मुझे जल पिलाया ....मेरे मुँह पर जल का छींटा दिया । तभी मुझे लगा कि - कोई बुला रहा है ....निमाई पण्डित ! ओ पण्डित ! उन बुलाने वाले की वाणी अमृतमई थी ....मुझे उन्होंने फिर मेरे नाम से पुकारा ।
मैं उठा ...जब मैंने देखा तो चौंक गया ...वो दूर खड़े थे और मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे ।
श्री ईश्वर पुरी जी ? वो सन्यासी महात्मा ! जो मेरे नवद्वीप में आये थे ।
मैं उन्हें देखते ही दौड़ा ...और उनके चरणों में गिरने ही वाला था कि - सम्भाल लिया ।
तुम्हारा स्थान मेरे हृदय में है निमाई । आहा ! शीतल हो गयी थी छाती । उन्होंने मुझे अपने हृदय से लगा लिया था । श्रीकृष्णलीलामृत ....तुम्हारे स्मरण में है निमाई ? कैसे मुझे स्मरण नही होगा ....आप मुझे श्रीकृष्ण लीला सुनाते थे ....ओह ! अब बताओ ! तुम क्या चाहते हो ? सन्यासी महात्मा ने कहा । बस श्रीकृष्ण से मिला दीजिये । उनके दर्शन हो जायें बस ....मैंने उन सन्यासी महात्मा से प्रार्थना की । मेरी ये बात सुनकर वो बिना कुछ बोले ...मुस्कुराकर चले गये । मैं उन्हें पुकारता रहा माँ ! पर उन्होंने एक बार भी पीछे मुड़कर नही देखा । इतना कहकर निमाई हिलकियों से रोने लगे .....माँ ! माँ !
बाहर किसी के सिसकने की आवाज शचि देवि ने सुनी तो वो बाहर भागीं । विष्णुप्रिया गिर पड़ी थी । उससे उठा भी नही जा रहा था ..उसके नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे ....
शेष कल -
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
शेष अगले अंक मे जल्द ही प्राप्त होगा तब तक आप भजन कीर्तन यात्रा चिंतन करे व भक्ति में वृद्धि कीजिए।