वृज की एक शाम
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सभी सखाओं को छोड़़कर दौडा़--दौडा़ " मैया ! मैया ! ! " पुकारता हुआ कन्हैया अपनी मैया के पास चला आया।
"कहां जा रही है मैया तू ?"
---- भोलेपन से श्रीकृष्ण ने कहा ।
"कहीं नहीं, तू जा खेल ले सखाओं के साथ।"
नहीं मैया, " बता तो कहां जा रही है तू ? "
"लाला ! तेरे लिए माखन मिश्री लेने जा रही हूं।" पूजा के सामान को अपने आंचल से छिपाती हुई मैया बोली।
"नहीं मैया, तू झूठ बोल रही है, मैंने, अभी देखा है कि घर में ढेर सारी माखन की मटकियां और ढेर सारी मिश्री पड़ी है ! मैया, तू सच-सच बता कहां जा रही है।"
"लाला, मैं किसी ज़रुरी काम से जा रही हूं, तू जा खेल।"
"नहीं मैया, तू सज-धज के जरुर मेला देखने जा रही है। मैं भी जाऊंगा, मेला देखने।"
"अरे लाला ! रात को भी भला कहीं मेला होता है। सच बताऊँ मैं तो यमुना मैया की पूजा करने जा रही हूं।"
"अरी मैया, मैं भी जाऊंगा पूजा करने।"
"नहीं लाला, वहां बच्चे थोड़े ही जाते हैं।"
"नहीं मैया, अब मैं छोटा तो नहीं हूं, देख न कितना बड़ा हो गया हूं।"
लाला की चिकनी-चुपड़ी बातें सुन कर मैया का मन पसीज गया। अत: वह गोपाल से बोली --- "देख गोपाल ! मैं तुझे ले तो जाऊं, लेकिन तू वहां करेगा क्या ?"।
"मैया, मैं भी देखूंगा, तू कैसे पूजा करती है,
कभी मुझको भी तो करनी होगी।"
"अच्छा, तू मुझे परेशान तो नहीं करेगा ?"
"तेरी साैगंध खाकर कहता हूं मैया, मैं बिलकुल परेशान नहीं करुंगा।"
"अच्छा ठीक है।"
इतना कहकर मैया ने यमुना की अोर मुख किया और चल दी। कन्हैया ने भी मैया के अांचल के कोने को पकड़ लिया और धीरे-धीरे मैया के पीछे-पीछे चलने लगा ताकि भक्त मैया के श्रीचरणों की रज सिर पर गिरती रहे।
यमुना पर पहुंच कर मैया ने यमुना को प्रणाम किया। यमुना की स्तुति करते हुए उसने दोना निकाला,
उसमें एक दीपक जलाया तथा उसे चारों अोर से फूल इत्यादि से सजाकर यमुना में छोड़ दिया और हाथ जोड़ कर व अांख बन्द करके यमुना मैया के सामने न जाने क्या गुन-गुनाने लगी।
कन्हैया ने देखा कि यमुना के दोनों अोर छोटी-बड़ी बूढ़ी बहुुत सी गोपियां मग्न हुईं यमुना मैया की पूजा कर रही हैं
तथा अपने-अपने दीपकों को भांति-भांति के भावों से प्रवाहित कर रही है। लाखों-लाखों दीपक यमुना के जल में झिलमिल-झिलमिल करते हुए बह रहे थे।
थोड़ी देर बाद यशोदा मैया ने अांख खोलीं और यमुना जी को प्रणाम करते हुए वापिस जाने लगी पंरतु वहां कन्हैया का अता-पता ही नहीं था।
"कन्हैया ! अो कन्हैया !!
इसीलिए तो मैं इसे नहीं ला रही थी। अब कहां ढूँढूं इस अन्धेरे में।"
मैया की अावाज़ सुनकर "मैं यहाँ हूँ ! "-- कन्हैया ने जवाब दिया।
इधर-उधर निगाह दाैड़ाते हुए माता ने देखा कि लाला यमुना के बीच में घुसा हुअा था और बहते हुए दीपकों के साथ खेल रहा था।
"अरे क्या है ?
पानी से निकल, कहीं सांप अादि न डस ले।"
कन्हैया मुस्कराते हुए सोचता है कि भला काैन सा सांप मुझे डसेगा।
इतना बड़ा विषधर कालिय नाग तो बेचारा मेरा कुछ न कर सका। अरे फिर मैं तो हमेशा ही हजारों फन वाले सांप (शेष नाग) के ऊपर लेटा रहता हूं।
"अरे ! जल्दी निकल पानी से ।
क्या कर रहा है तू वहां।"-- मैया ने कड़कती हुई अावाज़ में कहा।
बहते दीपकों की ओर इशारा करते हुए कन्हैया कहने लगे ----- मैया मैं तो इन्हें किनारे लगा रहा हूं।"
" अरे , पागल है तू,
भला किस-किस को किनारे लगाएगा ?"
"मैया,
मैंने सभी का
ठेका थोड़े ही ले रखा है।
जो मेरे सामने अाएगा
मैं उसे किनारे लगा दूंगा।"
अर्थात भव सागर में डूबते कष्ट पाते हुए सभी जीवों को किनारे लगाने का ठेका भगवान ने नहीं लिया है ।
क्योंकि भगवान जीव स्वतंत्रता में बाधा नहीं देना चाहते।
हां, जो भाग्यशाली जीव भगवान के सम्मुख अर्थात शरणागत हो जाता है, उसे ही भगवान दु:खों के सागर से पार लगा देते है।
जय श्री राधे श्याम
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