Saturday, June 12, 2021

वो एक औरत कविता ....

॥ जै श्रीकृष्ण ॥ 

सखीश्रीं  !!  वो कैसी औरतें थीं...!!
जो गीली लकड़ियों को फूँक कर चूल्हा जलाती थीं 
जो सिल पर सुर्ख़ मिर्चें पीस कर सालन पकाती थीं

सहर से शाम तक मसरूफ़, लेकिन मुस्कुराती थीं 
भरी दोपहर में सर अपना, जो ढक कर मिलने आती थीं 

जो पंखे हाथ के झलती थीं, और बस पान खाती थीं
जो दरवाज़े पे रुक कर देर तक, रस्में निभाती थीं

पलंगों पर नफ़ासत से, दरी चादर बिछाती थीं 
ब-सद इसरार मेहमानों को, सिरहाने बिठाती थीं

अगर गर्मी ज़ियादा हो तो रूह-अफ़्ज़ा पिलाती थीं 
जो अपनी बेटियों को, स्वेटर बुनना सिखाती थीं

सिलाई की मशीनों पर, कड़े रोज़े बताती थीं 
बड़ी प्लेटों में जो इफ़्तार के, हिस्से बनाती थीं

जो कलिमे काढ़ कर, लकड़ी के फ़्रेमों में सजाती थीं 
दुआएँ फूँक कर बच्चों को बिस्तर पर सुलाती थीं

और अपनी जा-नमाज़ें मोड़ कर तकिया लगाती थीं 
कोई साइल जो दस्तक दे, उसे खाना खिलाती थीं

पड़ोसन माँग ले कुछ, बा-ख़ुशी देती दिलाती थीं
जो रिश्तों को बरतने के कई नुस्ख़े बताती थीं

मोहल्ले में कोई मर जाए तो आँसू बहाती थीं 
कोई बीमार पड़ जाए तो उस के पास जाती थीं

कोई तेहवार हो तो, ख़ूब मिल-जुल कर मनाती थीं 
वो कैसी औरतें थीं...!!

मैं जब घर अपने जाती हूँ तो फ़ुर्सत के ज़मानों में 
उन्हें ही ढूँढती फिरती हूँ गलियों और मकानों में

किसी मीलाद में, जुज़दान में, तस्बीह दानों में 
किसी बरामदे के ताक़ पर, बावर्ची ख़ानों में...

मगर अपना ज़माना साथ ले कर खो गई हैं वो 
किसी इक चिता में सारी की सारी सो गई हैं वो..!! 

और वो  - फ़िर सदा कें लिए चुप हो गई ,

सखि नामावली