आज के विचार
!! उद्धव प्रसंग !!
{ "कृष्ण के आँसू और आह" - उद्धव प्रसंग }
भाग-2
ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः..
(श्रीमद्भागवत)
आँसू और आह !...
श्री कृष्ण ज़रा सम्भल तो ले ...
पर ... ये आँसू मानेंगे नही... स्वयं बहेंगे और बचा कुचा जो भी है... उसको भी हृदय से ले बहेंगे ।
पाप ही नही... पुण्य भी... अच्छा बुरा सब... वहाँ तो अब विरह का राज्य होने वाला है... और विरह के आगे सब बौने हैं... ।
प्रेम का विरह अग्नि के समान है... आपको पता है ना ?
उसमें ये रुई जैसे संस्कार जलकर भस्म हो जाते हैं ।
क्यों कि प्रेमी के साँसों की हवा उस आग को और भी प्रज्वलित कर रही है... पर ये शरीर जल नही पाता... कैसे जले... ये स्वार्थी नयन जल बरसाते रहते हैं... उफ़ !... न पूरी तरह जल सके... न पूरी तरह बुझ ही सकें । सुलगते रहे... सुलगते रहे ।
कृष्ण की यही दशा हो रही है... आज मथुरा में ।
आ तो गए कृष्ण अपनी प्रेम भूमि वृन्दावन को छोड़कर... मथुरा ।
पर रह रहकर... यादों में वृन्दावन आरहा है कृष्ण के ।
ये विरह आपके पाप ताप को मिटा देगा... सच मानिये ।
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उद्धव ! शाम हो गयी है... चलें यमुना किनारे !
उद्धव का हाथ अपने हाथों में लेकर कृष्ण व्याकुल स्वर में बोल उठे थे ।
हाँ... चलिये... पर उद्धव भी समझ नही पा रहे... कि कृष्ण को हुआ क्या ?... इतनी व्याकुलता क्यों ?
ये जीवन है... इसमें संयोग वियोग तो चलता ही रहता है ना !
किसी से संयोग होता है... और किसी से वियोग... यहाँ लोग मिलते ही इसलिये हैं कि कल बिछुड़ना पड़ेगा... ।
यही जीवन का सत्य है... मुझे पता है… पर मेरे सर्वेश्वर श्री कृष्ण ये आज क्या कह रहे हैं ?
उद्धव समझ ही नही पा रहे ।
उद्धव चलो !... पीताम्बरी अपने कन्धे में डाल कर... महल से निकल पड़े थे कृष्ण ।
कृष्ण के अंग रक्षक साथ में चलने लगे तो कृष्ण ने उद्धव से कहा-
उद्धव ! इनको कह दो... मुझे इनकी जरूरत नही है ।
पर आपको ले जाना पड़ेगा इन अंगरक्षकों को… क्यों कि हमारे पास गुप्तचरों से ये सूचना मिली है कि... युवराज कंस की विधवा पत्नियां अपने पिता जरासन्ध के यहाँ हैं... और जरासन्ध बड़े युद्ध की तैयारी में लगा है ।
अक्रूर ने आकर ये सारी बातें कृष्ण को कहीं... ।
कृष्ण कुछ नही बोले... और उद्धव का हाथ पकड़े यमुना की ओर चल पड़े थे ।
मार्ग में जो भी मिलता था... मथुराधीश श्री कृष्ण चन्द्र महाराज की जय !
यही बोलता था ।
यहाँ कोई "कन्हैया" नही कहता... भावुक हृदय से कृष्ण ने सोचा ।
जयजयकार है... पर वृन्दावन जैसा प्रेम नही है ।
माँ देवकी और रोहिणी माँ ने मेरी सेवा के लिए दास दासियाँ लगा दिए हैं...
पर यशोदा मैया कहाँ है ?
पकवान रख दिए जाते हैं... मेरे सामने... पर खिलाने वाले वो यशोदा के हाथ तो नही हैं ना !...वो हाथ, जो मुँह में खिलाते खिलाते... जब मैं मना करता था... "पेट भर गया मैया"... तो वही हाथ मेरे पेट को दबाते थे ।
अभी कहाँ पेट भरा कन्हैया ?
कितना खाली है पेट ।
और खा… इतने से क्या होगा ?
सब है मथुरा में… पर वो प्रेम नही है ।
यमुना के किनारे आगये थे कृष्ण... ये सब सोचते हुये ।
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उद्धव ! यही है वो यमुना... इसी के किनारे हम लोग शाम को बैठते थे... गोपियाँ आती थीं...
ये कहते हुए कृष्ण के नेत्र फिर बह चले थे ।
उद्धव ! देखो... वो दीया... एक दीया बहता हुआ आगया था यमुना में...... कृष्ण उस दीया को देखते ही दौड़ पड़े... ।
उद्धव ! ये दीया मेरी उस गोपी ओर मेरी राधा ने जला कर भेजा है... कृष्ण व्याकुल हो उठे ।
अभी भी बैठे होंगे... वृन्दावन के सब लोग यमुना के किनारे... पर मेरे बिना वो लोग कैसे होंगे ?
मैं कृष्ण, स्वयं उनके विरह में इस तरह से तड़फ़ रहा हूँ... तो उन लोगों की क्या दशा होगी ?
उद्धव ! वो लोग मुझसे बहुत प्रेम करते हैं... उद्धव ! मेरे बिना वो लोग कैसे जीते होंगे ना ?
और मेरी वो बृज गोपियाँ... मुझे बिना देखे उन्हें चैन नही आता था ।
वो किसी न किसी बहाने से मेरे घर में आजाती थीं... और मैया यशोदा से शिकायत करतीं... मैया उनकी शिकायत पर जब मुझे पीटने लगतीं... तो वो हाथ जोड़कर कहतीं - मारो मत !
बस समझाओ ।
...उद्धव ! मेरे साथी... मेरे मित्र लोग...
और मेरी वो राधा !... ये कहते हुए कृष्ण ने आह भरी थी ।
कृष्ण के अविरल अश्रु बहते जा रहे हैं ।
पर आपको चाहने वाले मथुरा में भी बहुत हैं... यहाँ किसी वस्तु की कमी तो नही है ना ?
उद्धव ने इतना अवश्य कहा ।
ना ! कोई कमी नही है... एक इशारे में मेरे लिए सब सेवक दौड़ पड़ते हैं... चारों ओर से "मथुराधीश श्री कृष्ण चन्द्र महाराज की जय"... बस यही सुनाई देता है ।
पर वहाँ का जैसा प्रेम यहाँ नही है ।
वहाँ की आत्मीयता कहाँ है यहाँ ?
हजारों दास दासियों के होते हुए भी मेरी मैया यशोदा अपने हाथों से मेरे लिए माखन निकालती थीं । ब्रजेश्वरी थीं मेरी मैया यशोदा...बृज की महारानी कही जाती थी... और बृज के राजा थे.. मेरे बाबा नन्द... और मैं उनका लाडला कन्हैया ।
मेरा काम कभी सेवक और सेविकाओं से नही करवाया मेरी मैया ने ।
पर यहाँ... उद्धव ! कोई तुलना ही नही है मित्र ! मथुरा और वृन्दावन की... मथुरा में ऐश्वर्य है... भरपूर ऐश्वर्य है... पर वृन्दावन में माधुर्य है... मिठास है... मधुरता है ।
उद्धव ! मुझे वृन्दावन भुलाये नही भूल रहा... मैं क्या करूँ ?
कृष्ण ने ये कहते हुए... अपना सिर उद्धव के काँधे पर रख दिया था ।
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यमुना के किनारे जल भरने सब गोपियाँ आज आई हैं ।
पर कोई किसी से कुछ नही बोलती... क्या बोले ?
सबकी आँखें सूजी हुयी हैं... रात भर रोती रहेंगी तो यही होगा ।
मटकी लेकर बैठ गयीं यमुना के किनारे ।
बैठी रहीं... अपलक नेत्रों से यमुना को देखती रहीं ।
हाँ... एक सखी ने कहना शुरू किया...
यही यमुना मथुरा गयी है ना... और हो सकता है... यमुना के किनारे खड़े होकर वो भी हमें याद कर रहा होगा ।
हाथ जोड़कर यमुना के सामने खड़ी हो गयी... वो सखी ।
हे यमुने ! कृष्ण से पूछना... कब आओगे ?
जल्दी आओ… नही तो मुझ यमुना की बाढ़ में समूचा बृजमण्डल डूब जायेगा… ऐसा कहना ।
मेरे हृदय की पीर कहना… पर ये आँसू कितने बहते हैं... ये मत कहना ।
हे यमुने ! ये कहना - तुम्हारी गोपियाँ रोज दीया जलाती हैं... और पहले की तरह इसी यमुना में छोड़ भी देती हैं... पर अब दीया ही नही जलता... ये दिल भी जलता है... पर यमुने ! इस दिल की बात मत बताना ।
हे यमुने ! कहना उस मथुराधीश से... कुब्जा हमसे सुंदर है क्या ?
वहाँ के लोग हमसे ज्यादा प्रेम करते हैं क्या ?... ।
सब कहना... हे यमुने ! कृष्ण से... पर रोते रोते हमारे कपड़े कितने भींग जाते हैं ये मत कहना ।
हम सबके रोने से… यमुना का जल खारा हो गया है… ये भी मत कहना ।
विष ही भेज दो... प्यारे ! उसी को खा कर हम मर जायेंगी।
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उद्धव ! वो रो रही हैं... यमुना की जल धारा से उनके रोने की आवाज आरही है... ।
कृष्ण विलख उठे इधर यमुना के किनारे ।
उद्धव ! गोपियाँ मेरी प्राण हैं... उन्हें छोड़ कर जो मैं मथुरा में बैठा हूँ ना... वह पीड़ा मात्र मैं ही जानता हूँ ।
किसी भी कार्य में मुझे तनिक भी उत्साह या आनन्द नही है ।
जैसे सांस लेना और छोड़ने की तरह ही मैं यहाँ अपने कर्तव्य कर्म को बस कर रहा हूँ... ।
पर ऐसा क्यों नाथ !
उद्धव ने जानना चाहा ।
ऐसा क्या है उन गोपियों में... जो यहाँ मथुरा के भक्तों में नही है !
क्यों कि उन गोपियों ने अपना सर्वस्व मुझ में अर्पण कर दिया है ।
लौकिक कर्म... अपना अच्छा बुरा... पाप पुण्य... धर्म अधर्म सब कुछ मुझ में लगा दिया है... ।
मेरे सिवा उन्हें मुक्ति की भी कामना नही है... और मैं अगर उन्हें नर्क में मिलूं... तो वो हँसते हँसते... नर्क की यात्रा भी कर लेंगी ।
उद्धव ! उन्हें स्वर्ग नर्क ..मुक्ति ..योग ..ज्ञान... किसी से कोई मतलब नही है... उन्हें मतलब है... बस मुझ से... सिर्फ मुझ से ।
जो इस तरह से मुझ में समर्पित हैं... मुझे क्यों न उनकी याद आएं !
और उद्धव ! तुम्हें तो पता ही है... मेरी प्रतिज्ञा है... "ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम् " अर्थात... जो मेरा जिस तरह से भजन करता है... मैं भी उसे उसी तरह से भजता हूँ ।
इतना कहकर यमुना की ओर फिर देखने लगे थे कृष्ण ।
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चलो ! शाम हो गयी... घर चलो !
एक गोपी ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा... ।
हाँ... चलो ! सबने अपनी अपनी मटकी उठाई... और चल पड़ीं ।
हवा भी चले तो गोपी तुरन्त मुड़कर पीछे देखती है... कहीं कृष्ण तो नही आया !
पत्ता भी हिलता है... तो गोपी रुक जाती है... कहीं कृष्ण तो नही आरहा... दबे पाँव ।
गोपी बारम्बार अपनी मटकी को सम्भालती है... कहीं उसकी मटकी कृष्ण ने फोड़ तो नही दी ।
घर आगयीं सब सखियाँ... अपने अपने घर ।
बहू जल भर कर ले आई ? सास ने पूछा ।
कुछ बिना बोले... घर की रसोई में जाकर जल का वह पात्र रख दिया ।
बहू ! आज 10 दिन हो गए... तू बोलती क्यों नही है ?
कृष्ण को इतना याद मत कर ।
सासू माँ के गले लगकर रो पड़ी वो बहू ।
माँ ! उन दिनों रोज मेरी मटकी फूटती थी... वो नटखट रोज मेरी मटकी फोड़ देता था... पर मुझे आनन्द आता था... मुझे प्रसन्नता होती थी... तुम डाँटती थीं... पर मेरा हृदय आनन्द की हिलोरें ले रहा होता था... मुझे बहुत खुशी होती कि... कृष्ण ने मेरी मटकी फोड़ी... मेरी छाती चौड़ी हो जाती ।
पर माँ ! आज मेरी मटकी फोड़ने वाला कोई नही है... आज मेरी मटकी साबूत आगयी... पर मुझे आज बहुत दुःख हो रहा है...
मुझे रोना आरहा है... माँ ! काश ! वो फिर आजाता... और मेरी मटकी फिर फोड़ देता ।
पर अब वो नही आएगा... हम लोगों ने उसे बहुत सताया है ना... इसलिये अब नही आएगा ।
माँ ! आज मेरे पैरों में काँटा गढ़ गया...
मैं बैठ गयी...
उन दिनों मेरे पैर में जब काँटा लग जाता था ना... तो कृष्ण ही आकर अपने हाथों से निकाल देता था ।
पर... आज काँटा निकालने वाला कोई नही था माँ !
मैं वहीँ बैठी बैठी रोती रही... ।
इतना ही बोला गया इस सखी से... फिर तो बेहोश ही हो गयी थी ।
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उद्धव ! ये बृज गोपियां मेरी प्राण हैं... मुझ कृष्ण की ही आत्मा हैं ।
वे गोपियाँ मेरे सिवा किसी को नही जानतीं... और मैं भी उनके सिवा किसी को नही जानता ।
पर मैं अपने वचन में दृढ़ नही रह सका... उद्धव !
रो पड़े फिर कृष्ण ।
किस वचन में आप दृढ़ न रह सके नाथ !
उद्धव ने पूछा ।
गोपियां मेरी अनन्य हैं... पूर्ण अनन्य ।
पर मेरा व्रत था... कि जो मुझे जैसा भजेगा... मैं भी उसे वैसा ही भजूँगा... पर गोपियों ने मुझे अनुत्तीर्ण कर दिया... ।
वो अनन्य हैं... पर मैं अनन्य कहाँ हूँ ?
ओह ! वो तो मेरे सिवा किसी को न मानती हैं... न जानती ही हैं ।
जो भी है... उनका मैं ही हूँ... बस मैं ।
ना मैं देखूँ और को, ना तोहे देखन देउँ...।
उद्धव को गले से लगा कर कृष्ण खूब रोये... खूब रोये ।
🙏🙏🌹राधे श्याम 🌷 🙏🙏
शेष चर्चा कल...
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