Friday, January 31, 2025

मानसिक रूप लीला पुष्प माला एक प्रेम

पुष्पमाला का प्रेमार्चन

राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा.....

सखि! आज तो एक विचित्र बात देखने में आयी। मैं श्रीप्रियाजी के एकान्त कक्ष में किसी कार्य से गयी। गयी धीरे-धीरे, जिससे कक्ष की शान्ति बनी रहे। द्वार में प्रवेश कर एक किनारे खड़ी रही। श्रीप्रियाजी इतनी भावविभोर थीं कि उनको मेरे आने का परिज्ञान ही नहीं हो पाया। उनकी बेभान दशा देख-देख करके मैं विह्वल हो रही थी। श्रीप्रियाजी की भावभरी चेष्टाओं के बारे में क्या बतलाऊँ? उनके हाथ में पुष्पों की मालिका थी। कई प्रकार के सुगन्धित पुष्प उस माला में थे। 

यह पुष्पहार वही था, जिसको श्रीप्रियतम ने अपने करपल्लव से उन्हें पहनाया था। श्रीप्रियाजी माला को कभी आँखों से लगाती, कभी छाती से चिपकातीं, कभी मस्तक से छुलाती, कभी भूमि पर रखकर वन्दन करतीं और कभी उस माला की परिक्रमा लगातीं। कभी कपोल पर हाथ रखकर उस माला से बातें करतीं हे माला के पुष्पों! तुमको प्रियतम ने अपनी मृदुल अँगुलियों से चयन किया है, तुमको अपने करपल्लव में लेकर पिरोया है, तुमको बड़ी सावधानी से धागे में सरकाया है। तुम धन्य हो जो उनका मृदुल स्पर्श तुमको प्राप्त हुआ। हे पुष्पमालिके! तुमको धीरे से सहेज कर उन्होंने रखा है। जिस समय वे पिरो रहे थे, उस समय तुमको उनके भावमय श्वास-प्रश्वास की ऊष्मा की सन्निधि मिली है। उन प्रेमिल भावों की स्निग्धता से तुम्हारी कोमलता आद्योपान्त अनुप्राणित है। तुम कितने भाग्यशालिनी हो!

सखि! इस भाँति गद्गद स्वर में बात करना और फिर वन्दन-आलिंगन, नर्तन-गायन चलता रहा। उनकी यह भावमयी दशा देख-देख कर मैं अपना आपा खोती जा रही थी और रह-रहकर मन-ही-मन कह रही थी- बलिहार हूँ इस प्रेमार्चन पर। इस प्रेमार्चन की जय हो! जय हो!! जय हो!!! मैं बलि-बलि जाऊँ।

आशीर्वाद

*ब्राह्मण पत्नियों को आशीर्वाद*

एक बार गायों को चराते हुए भगवान श्री कृष्ण और बलराम जी को भूख लगीं तो उन्होंने अपने सखाओं से कहा -हे मित्र ! यहाँ पास ही में कुछ ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं तुम उनसे हम सबके लिए कुछ भोजन माँग लाओ। ग्वाल-बाल गए और बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना कर भोजन सामग्री माँगी परंतु ब्राह्मण लोग स्वर्ग-आदि लोक के सुख की कामनाओं की पूर्ति के लिए उस यज्ञ में इतने खो चुके थे कि उन्होंने इस बात की तरफ़ ग़ौर ही नहीं किया कि यह अन्न स्वयं भगवान श्री कृष्ण माँग रहे हैं।

ग्वाल बाल ख़ाली हाथ जब लौटकर आए तो प्रभु ने कहा अब तुम उनकी पत्नियों से जाकर माँगना।

ग्वाल  बाल गए और जैसे ही ब्राह्मणों की पत्नियों ने सुना कि श्री कृष्ण पास ही हैं और उन्हें भूख भी लगी है। तो इतने समय से जिन नंदलाल की लीला-कथा वे सुनतीं आयीं ,”आज उनका दर्शन होगा “, ऐसा सोचकर वे लोक लाज का त्याग कर अपने भाई-बंधुओं और पति (ब्राह्मणों) की आज्ञा को छोडकर प्रभु के पास आयीं और उन्हें मीठे दही- भात का भोग लगाया।

ब्राह्मणों ने उन्हें यहाँ तक कह दिया था कि अगर आज तुम चलीं गयीं तो हम से नाता तोड़कर ही जाना , वे फ़िर भी आ गयीं।

ब्राह्मण की पत्नियों ने केवल भगवान की लीला-कथा को सुना था, अभी तक दर्शन नहीं किया था और उसी साधन के ही प्रभाव से देखिए, आज प्रभु स्वयं उनसे भोजन माँगकर अपने दर्शन का आनंद देना चाह रहे हैं । धन्य हैं वो लोग जिनका जीवन ही प्रभु की कथा है । हमें भी प्रभु की कथा ही प्राप्त है, बस उसी को नित्य साधन समझ हमें उनके दर्शन को पाने में रत रहना है।

भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख आज ब्राह्मण-पत्नियाँ हाथ में दही-भात और चारों प्रकार के व्यंजन लिए खड़ी हैं । ग्वाल-वालों के साथ जैसे ही उन्हें पेड़ की छांव में उस कृष्ण बलराम की युगल छवि का दर्शन हुआ तो एक क्षण को तो मानो समय ही रुक गया।

उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा , ” प्रभु ! कितने सुंदर हैं ।” प्रभु अपनी पूर्ण छटा के साथ उन्हें दर्शन दे रहे हैं।मानो आज उन स्त्रियों की जन्म-जन्म की साधना सफल हो गयी। भगवान ने उनका स्वागत कर उनका धन्यवाद किया और कहा , ”धन्य हैं आप ! जो हमारी अन्न की याचना स्वीकार की ( सबका पेट भरने वाले ये बात बोल रहे हैं, देखिए उनकी लीला) और आपको मेरे दर्शन की लालसा थीं , अब आप दर्शन कर चुकी हैं , इसलिए घर लौट जाइए । आपके पति ब्राह्मण देव आपके बिना यज्ञ पूरा नहीं कर सकते।”

यज्ञ-पत्नियों ने कहा प्रभु हम उनसे लड़कर, सब बंधनों का त्याग करके आपके पास आयीं हैं। और एक बार जो आपका हो जाता है , जिसे आप एक बार स्वीकार कर लेते हैं उसे संसार में दोबारा नहीं जाना पड़ता न प्रभु , तो आप हमें ऐसी आज्ञा मत दीजिए।

प्रभु बोले , ”जो मेरा हो जाता है , मैं जिसे स्वीकार कर लेता हूँ , उसे संसार के लोग चाह कर भी नहीं त्याग सकते,आप अपने-अपने घर लौट जाइए , आपके साथ कोई दुर्व्यवहार और आपका किसी भी प्रकार से त्याग नहीं होगा।”

भगवान श्री कृष्ण ने पहले सभी ग्वाल बालों को वो प्रेम से लाया गया भोजन खिलाया और फिर स्वयं खाया । हमें प्रभु से यह भी सीखना है कि सामूहिक भोजन करने का तरीक़ा यही है।

इधर यज्ञ-पत्नियाँ जब घर पहुँची तो ब्राह्मणों ने उन्हें कुछ नहीं कहा , बल्कि सत्कार करके उन्हें यज्ञ में बैठने को कहा , यज्ञ-पत्नियों ने सारा वृतांत सुनाया और बताया की *नंद के लाला साक्षात भगवान हैं । जब उन्हें इस बात का बोध हुआ कि हाँ ! ग्वाल-बाल आए थे और हमसे अन्न की याचना भी की थी और हम कर्म-कांड लेकर बैठे रहे तो ब्राह्मणों को अत्यंत क्षोभ हुआ।

वे अपने आप को कोसने लगे–हाय रे विधाता ! ये हम से कैसा गुनाह हो गया। प्रभु ने सामने से अपना हाथ बढ़ा कर हमें दर्शन देना चाहा और हम ही मुँह फेर कर बैठे रहे।
वे उनके चरणों में गिर पड़े और चरण धूल लगाने लगे । धन्य हैं आप ! बोल-बोलकर उनका सत्कार किया और पछताने लगे।

ये प्रसंग हमें समझाता है कि किस प्रकार घर रहकर भी प्रभु को साक्षात पाया जा सकता हैं । यज्ञ-पत्नियों को प्रभु ने घर छोड़ने के लिए आदेश नहीं दिया है आप दर्शन कर सकते हैं लीला में, बल्कि घर में रहकर भजन करने की आज्ञा दी है । और यह जो ब्राह्मण पछता रहें हैं ना, यह हम जीव हैं जो प्रभु के दर्शन की दस्तख को पहचान नहीं पा रहे हैं । उनसे मुँह फेर कर बैठे हैं। उनकी प्राप्ति हर जगह हर अवस्था में सम्भव है , चाहिए तो केवल उनके लिए प्रेम-समर्पण और बरसती हुई अनवरत कृपा का अनुभव।

मानसिक लीला सखियो के चित्र

सखियों के चित्र
राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा.....

निकुञ्ज का एकान्त कक्ष। श्रीप्रियाजी मखमली सिंहासन पर अकेली बैठी हैं। उन्होंने धीरे से पुकारा- चित्रा!

अपना नाम सुनते ही श्रीचित्रा उपस्थित हो गयी। नयनों की भाषा में चित्रा पूछ रही थी कि क्या आदेश है? 

श्रीचित्रा पर दृष्टि जमाये श्रीप्रियाजी ने कहा- क्या तुम मेरा एक काम कर दोगी?

श्रीचित्रा ने विनम्र स्वर में कहा- मैंने कब किसी कार्य के लिये ना कहा है?

श्रीप्रियाजी- यह तो मैं जानती हूँ, पर आज जो कहूँगी, उसके लिये तुम आनाकानी तो नहीं करोगी?

श्रीचित्रा- तुम कहो तो सही। मैं न ना कहूँगी और न आनाकानी करूँगी।

श्रीचित्रा का कथन आदेश पालन की भावना से भरपूर था।श्रीप्रियाजी- मैं जो कहूँगी, उसके बीच में कोई प्रश्न मत करना और न इसकी चर्चा कहीं अन्यत्र करना। मैं जो कहूँ, वैसा कर देना। श्रीप्रियाजी ने जो कहा, उनके शब्द-शब्द से अपार प्यार झर रहा था। श्रीचित्रा की चित्तवृत्ति अत्युत्सुक थी कि श्रीप्रियाजी आज क्या अनोखी बात कहने वाली हैं। 

सुनने के लिये अति तत्परा चित्तवाली श्रीचित्रा से श्रीप्रियाजी ने कहा- तुम एक चित्र बना दो। सुन्दर चित्र, एक ललिता का, एक विशाखा का एक तुम अपना।

श्रीचित्राजी बीच में ही बोल पड़ीं- मेरा और मेरी बहिनों का चित्र क्यों बनवा रही हो?

श्रीप्रियाजी- देखो, देखो, तुम बीच में ही बोल पड़ी न? मैंने कहा था न कि बीच में कुछ प्रश्न मत करना।

श्रीचित्रा- ठीक है। उत्सुकतावशात् प्रमाद हो गया। अब मैं नहीं  पूछूंगी। श्रीचित्रा ने विश्वास दिलाया।

श्रीप्रियाजी- तुम ललिता, विशाखा, अपना, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी इन सभी का एक-एक सुन्दर चित्र बना दो।

श्रीचित्रा ने कहा- जैसी आज्ञा। श्रीचित्रा ने एक-दो दिन में आठों बहिनों के आठ चित्र बनाकर दे दिये। श्रीप्रियाजी ने उन आठों चित्रों को चन्दन की मञ्जूषा में सहेजकर और सँभाल कर रख लिया। श्रीचित्रा के मन में बड़ी जिज्ञासा थी कि इन चित्रों को बनवाने का प्रयोजन क्या है? पूछने पर श्रीप्रियाजी बतलायेंगी नहीं और प्रयोजन जानने की उत्सुकता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही थी।

एक रात श्रीचित्राजी के उकसाये जाने पर मैंने बात को टटोलने का प्रयास किया। प्रयास सफल भी हो गया। निकुञ्ज के छिद्र-रन्ध्र से चुपचाप झाँककर मैंने जो देखा, उसे देखकर अपार विस्मय हुआ।

श्रीप्रियाजी ने चन्दन की मञ्जूषा से श्रीललिताजी का चित्र निकाला। उस चित्र को श्रीप्रियाजी ने प्रणाम किया, उसे छाती से लगाया, कपोलों से चिपकाया और फिर उसे निहारते हुए वे कहने लगीं- ललिते! जैसी तेरी सेवापरायणता है, उसके कणांश का भी उद्भव मेरे जीवन में कभी होगा क्या? मेरी बहिनि! तुम कितनी महान् हो, जो हम दोनों के लिये सतत और सर्वथा सर्वार्पण किये रहती हो। मैं तेरे चित्र को प्रणाम करती हूँ। शायद इसी से तेरा यह महान् सद्गुण प्रियसुख-संवर्धनशीलता मेरे अन्तर में भी संक्रमित हो जाय।

जिस प्रकार श्रीललिताजी के चित्र के प्रति वन्दन-निवेदन आदि श्रीप्रियाजी ने किया, वैसा ही अन्य बहिनों के चित्रों के प्रति भी किया।

मैं मन-ही-मन पुकार उठी- इस भाव-गरिमा की जय हो! जय हो!! मैं बलि-बलि जाऊँ।
Join with us only whatsapp+919711592529
ओर हमारे facebook पेज श्रीजी मंजरीदास को like करे 
YouTube channel @brajrasmadira 
                          @thebrajbhav

विशाखा सखी

सखी बिसाखा अति ही प्यारी। कबहुँ न होत संगते न्यारी॥ बहु विधि रंग बसन जो भावै। हित सौं चुनि कै लै पहिरावै॥ ज्यौं छाया ऐसे संग रहही। हित की बा...