Friday, May 5, 2023

उँमादिनी श्री विष्णुप्रिया जी

आज के विचार

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !! 

              ( त्रिंशत् अध्याय : )

20, 4, 2023

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गतांक से आगे -

मैं ग्रहस्थ आश्रम का त्याग करूँगा ...ये मेरा निश्चय है ।   

केशव भारती सन्यासी महाशय से गुप्त मन्त्रणा का ये परिणाम हुआ कि ...निमाई ने अब दृढ़ निश्चय कर लिया....मैं सन्यास आश्रम स्वीकार करूँगा ही ।

आज सुबह से ही निमाई विचलित हैं  वो चले जाते हैं अपने प्रिय नित्यानंद के पास । 

निमाई को देख नित्यानंद बहुत प्रसन्न होते हैं ....पर उनकी प्रसन्नता कुछ ही देर में अपार दुःख में परिणत हो जाती है .......

मैं सन्यास लूँगा ....मैं ग्रहस्थ आश्रम का त्याग करूँगा ....ये मेरा निश्चय है ।    निमाई के मुख से ये सुनते ही बिलख उठते हैं नित्यानंद ....बेचारी माँ शचि देवि !....नित्यानंद के नेत्रों से अश्रु बह चलते हैं ...और वो श्रीमति विष्णुप्रिया ?      शचि देवि तो अड़ोस पड़ोस में सबको अपनी बात सुनाकर मन हल्का करती रहेंगी  पर विष्णुप्रिया घुट घुट कर मर जाएगी  !   वो तो किसी को कह भी नही पायेगी ।      उसका क्या होगा ?   ये विचार करते हुए अपार कष्ट होने लगा नित्यानंद को ।

नित्यानंद !  तुम मेरे हो ...तुम जानते हो कि मेरा लक्ष्य क्या है ?    मैं ग्रहस्थ आश्रम में फँसा रहूँ ऐसा नही हो सकता ।     मुझे उन्मुक्त विहार करना है ....कृष्ण को नाना रूपों में खोजना है ...उस समय मैं कोई बन्धन नही चाहता ....कोई बन्धन नही ।     

नित्यानंद भी समझ गये कि निमाई अपनी बात पर अडिग रहने वाले हैं ....इसलिए अपने को सम्भालकर वो बोले -  हे निमाई प्रभु !   मैं आपको जानता हूँ ....ये आपका जन्म नही है ...ये आपका एक रहस्यपूर्ण अवतार है ....प्रेम का अवतार ।   फिर प्रेम में तो त्याग होगा ही ....प्रेम देव त्याग ही की माँग करते हैं ...यही बात आप जन सामान्य को समझाना चाहते हो इसलिये ये लीला कर रहे हो .....किन्तु मेरी आपसे प्रार्थना है ....अपने भक्तों को कभी अन्धकार में मत रखना ....वो भी अपना जीवन आपमें समर्पित करके चल रहे हैं ....इसलिये हे निमाई प्रभु !  आप सबको बताओ ....स्पष्ट बताओ ।    नित्यानंद के मुख से ये बातें सुनकर निमाई ने नित्यानंद को अपने हृदय से लगाया और हिलकियों से रो पड़े ।     नित्यानंद को इससे कुछ सुख मिला था ।

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मुरारी निमाई के परम भक्त हैं ......निमाई ने उन्हीं के यहाँ जाने की सोची ....और तेज चाल से मुरारी के यहाँ चले भी गये ....पर मुरारी के यहाँ हरिदास भी थे ....और भक्त मुकुंद भी थे ।   अपने प्रभु को इस तरह आया देख सब प्रसन्न हुए ।    किन्तु  निमाई ने  अपनी बात जब रखी तो सबके ऊपर वज्रपात  ही हो गया ।

मैं सन्यास ले रहा हूँ .......निमाई ने स्पष्ट कहा ।  

क्या !     सब भक्त  दुःख से काँप उठे थे ......

हाँ ,  मैंने निश्चय किया है कि शिखा सूत्र को त्याग कर  सन्यास ग्रहण करूँगा । 

पर क्यों ?        आर्त नाद कर उठे सब भक्त । 

क्यों की मैं अब कृष्ण प्रेम को पाने के लिए ये सब कर रहा हूँ .....फिर मुझे कोई बन्धन नही होगा ...न कर्तव्य का ....न त्रिऋण का .....मेरे लिए एक ही कर्तव्य शेष रह जायेगा ...कृष्ण प्राप्ति ...वही तो जीव का मुख्य लक्ष्य है ।    

अगर ऐसा ही करना है तो कुछ वर्ष और नवद्वीप में इसी प्रकार कीर्तन कीजिये जब हम  पक्व भक्त बन जायें तब आप सन्यास लीजिएगा ।   मुरारी ने अश्रुपात करते हुये कहा ।

नही मुरारी !   ये सम्भव नही है....सन्यास लेने की त्वरा मेरे अन्दर अब बढ़ती ही जा रही है ....और वैसे भी शुभकार्य में विलम्ब क्यों ?    मुझे मत रोको ,  मुझे सन्यास लेने दो ।    निमाई दीन हीन से हो गये थे ....वो रोते रोते हाथ जोड़ने लगे थे ।  

ये बात अपनी माता शचि देवि से जाकर पूछो निमाई !   

अश्रुपात करते हुए बूढ़े श्रीवास आगे आये थे ...ये यहीं थे ...वृद्ध थे  ...निमाई को बहुत मानते थे ...भगवत् रूप में ही निमाई को देखते थे ।

अगर तुमने ऐसा किया तो माँ के हत्या का पाप तुम्हें लगेगा ...ऐसा कदापि मत करना ....

मुस्कुराए निमाई ...ऐसे कठोर वाक्य पहली बार किसी भक्त ने अपने भगवान को कहे थे ।

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पर निमाई ने दौड़कर श्रीवास को अपने हृदय से लगा लिया .....और बड़े प्रेम से बोले ....जैसे कोई व्यापारी परदेश जाता है ....और धनार्जन करके लाता है  , और उस धन को अपने परिवार में बाँटता है ...इसी प्रकार मैं भी प्रेमार्जन के लिए जा रहा हूँ ...वृन्दावन , नीलान्चल आदि आदि धामों में जाकर प्रेम बटोरुंगा  ....हे मेरे प्रिय  वो प्रेम तुम लोगों पर ही तो लुटाऊँगा ।   इसलिये मुझे मत रोको ....मुझे जाने दो ...मुझे सन्यासी बनने दो ।     निमाई बिलख उठे थे ।

निमाई को देखकर सारे भक्त बोल उठे .....क्या आवश्यक है सन्यास लेने की ....कृष्ण भक्ति सन्यासी को ही मिलती है ऐसा कहीं लिखा तो नही है .....कृष्ण का विशुद्ध प्रेम मात्र घर त्यागने वालों को ही मिलता है ऐसा भी कोई नियम नही है .....फिर ये जिद्द क्यों ?  क्यों ?   

सब निमाई को प्यार करते हैं ....नवद्वीप का बच्चा बच्चा निमाई के प्रति प्रेम से भरा है ....ये बात निमाई अच्छे से जानते हैं इसलिये उन्हें इनकी बातों का कुछ बुरा नही लगता ।  

तभी मुरारी बोलता है .....कई पौधे आपने लगाये थे  उन्हें सींचा था ....संवारा था ....आज कुछ बड़े हुए हैं पर आप इस तरह छोड़ देंगे तो वो मर ही जायेंगे !    मुरारी ये कहते हुए रोने लगा था .....अश्रु धार अब रुक नही रही थी ।   निमाई इस बात का भी कोई उत्तर नही देते हैं ।   निमाई सोचते हैं ये प्रेम के कारण प्रकटे तर्क हैं ...इनका क्या उत्तर दिया जाये । निमाई सबको देख रहे हैं ...और अनुभव भी कर रहे हैं कि ये सब बहुत दुखी हैं ...किन्तु सन्यास तो लेना ही है निमाई को ।

कुछ देर शान्त रहने के बाद निमाई बोलना शुरू करते हैं ...वो बोलते बोलते रोने लगते हैं .....बिलख उठते हैं ....उनके नेत्रों से  जल वृष्टि ऐसे हो रही है  मानों सावन भादौं का महीना हो ।

तुम सब लोग मुझ से प्रेम करते हो ना !   फिर अपने प्रेमी को क्यों कष्ट दे रहे हो ....हे मेरे प्रिय जनों !   तुम्हारा निमाई बहुत कष्ट में है ....इस बात का क्या तुम्हें अनुभव नही है ?    मैं तुम्हारे निकट रहूँ इसलिये मुझे सन्यास लेने से मना कर रहे हो !   तो ये ग़लत है ...तुम सब को अपने विषय में नही ...थोड़ा मेरे विषय में भी सोचना चाहिये ।  मैं दिन रात रो रहा हूँ ....कोई क्षण ऐसा नही है जब मैं व्याकुल न होऊँ .....मुझे कृष्ण चाहिएँ ....जैसे भी हो  मुझे कृष्ण के बिना अब चैन नही आयेगा ....हे मेरे अपने लोगों !   कुछ तो विचार करो ...ये तुम्हारा निमाई तर्क में किसी से पीछे रहने वाला नही है .....किन्तु इस समय तर्क आदि सब मेरी मति से निकल गये हैं ....मेरी मति ही  कृष्ण चरणों में सती हो गयी है ....इसलिये मैं आपको  कोई उत्तर आदि देने की स्थिति में नहीं हूँ .....पर आप लोग मेरे सन्यास को लेकर डरते क्यों हैं ?  क्या आपको ये लगता है  मैं आप लोगों को त्याग दूँगा ...छोड़ दूँगा ....नही ....ये कभी नही होगा ....मैं जहां रहूँगा आप लोग भी मेरे साथ ही रहोगे .....सन्यास मेरा बाहरी रूप है ....जगत को दिखाने के लिए ये मेरा सन्यास है ...तुम सब सन्यास लेने के पूर्व जैसे मेरे साथ रहते हो वैसे ही  सन्यास लेने के बाद भी रहोगे ....और इस जन्म में ही नही जन्मों जन्मों तक ।   ये बात निमाई ने जब कही उस समय उनका मुखमंडल सूर्य की भाँति दमक रहा था ....मानों साक्षात् नारायण भगवान ही अपने भक्तों को ये सब कह रहे थे ....सबको ऐसा लगा ।

निमाई के इस आश्वासन से भक्तों को कुछ शान्ति मिली ।

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माँ !     मुझे डर लगता है  अपने प्रभु को लेकर । 

बेचारी विष्णुप्रिया  अपने माँ से चिपक कर रोने लगी थी ।

कैसा डर बेटी !   बोल कैसा डर ?        कहीं मेरे नाथ सन्यास न ले लें ।      

महामाया देवि के हृदय में वज्रपात हुआ ....यही बात वो भी तो कह रही थीं ....पर विष्णुप्रिया ने आज स्वीकार किया ।  

बेटी !  आज मैं गंगा घाट पर गई थी ....वहाँ मैंने एक बात सुनी .......

क्या बात माँ !       कोई केशव भारती नामक सन्यासी आये हैं नवद्वीप में ....निमाई को वो सन्यासी बनाना चाहते हैं ।     माता ने ये बात डराने के लिए नही ...अपनी पुत्री को सावधान करने के लिए कहा था ।     माँ !  कोई सन्यासी मेरे प्राणेश्वर को सन्यासी नही बना सकता ....किन्तु हाँ , ये भी सच है कि ....मेरे प्राणेश्वर ने ही ठाना हो सन्यास लेना तो कोई उन्हें रोक भी नही सकता ...विधाता भी नही माँ !   वे ऐसे जिद्दी हैं ।      

कुछ देर तक शून्य में तांकती रही विष्णुप्रिया .....बाहर आज शियार रो रहे हैं .....विष्णुप्रिया कहती है ....माँ !  मैं कल जाऊँगी ।    बेटी !  अभी तो तू आई ही है ....कुछ दिन और रुक जा !

नही माँ !   मुझे जाना पड़ेगा .....माँ !  जगत का मंगल होने  जा रहा है ...किन्तु तेरी बेटी का .....

मुँह में हाथ रख दिया महामाया देवि ने .....ऐसा मत बोल .....तेरा मंगल ही मंगल होगा ।

पर शियार रोता ही जा रहा है ......पता नही क्यों ?      

शेष कल - 

हरि शरणम् 

✍🏼श्याम प्रिया दास ( fb श्रीजी मंजरीदास)


आज के विचार

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !! 

           ( एकत्रिंशत्  अध्याय:)

21, 4, 2023

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गतांक से आगे - 

शचि दीदी !  शचि दीदी !      पागलों की तरह शचि देवि की बहन दौड़ी चली आईं थीं । 

क्या बात है ?  सब ठीक तो है ना !       शचि देवि अपना काम छोड़कर बाहर ही आगईं । 

दीदी ! आप सच कह रही थीं ....निमाई सन्यास ले रहा है ।    बहन स्वयं दुखी थीं ...वो ये सूचना देने के लिए ही आईं थीं ।    

ओह !   सिर चकराने लगा शचि देवि का ...वो गिरने जा रही थीं की बहन ने सम्भाल लिया ।

दीदी !  हिम्मत मत हारो ....निमाई ने तुमसे कहा था ना कि तुमसे बिना पूछे वो कुछ नही करेगा ।  तो तुम उसे साफ साफ कह देना कि सन्यास लेना ही नही है ।  बस दीदी !  फिर वो सन्यास नही लेगा ।      हिलकियों से रोती हुई शचि देवि बोलीं ....नही बहन ! नही ,   इतना आसान नही है निमाई को समझाना ....उसके पास अपने शास्त्र हैं वेद उपनिषद हैं ...पर हमारे पास क्या हैं ?    उसके पास तर्क है ...हमारे पास ?   और मैं तो उसकी माँ हूँ ...जन्म दिया है मैंने उसे ..मैं जानती हूँ उसके स्वभाव को ....वो जो ठान लेता है करके ही छोड़ता है ....बहन !  मुझे अपनी चिन्ता नही है ....सत्तर वर्ष की तो हो ही गयीं हूँ ....पर वो बेचारी तो चौदह वर्ष की मात्र है ...उसका क्या होगा ?      शचि देवि के इस रुदन से वातावरण और कारुणिक हो उठा था ।    बहन !  जब विष्णुप्रिया सिर झुकाये मेरे पास आएगी और कहेगी ...मेरे प्राणेश्वर कहाँ गये ?   क्यों लिया उन्होंने सन्यास ?  तब मैं उस बालिका को क्या उत्तर दूँगी ।  शचि देवि ये कहते हुए मूर्च्छित हो कर गिर गयीं थीं।

बहन कुछ देर तक वहाँ रहीं  फिर जब शचि देवि को होश आया तो वो सान्त्वना देकर चली गयीं ।     

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विष्णुप्रिया , मना करने के बाद भी वो अपने मायके से निकल गयीं ....पास में ही थी ससुराल।  

पिता सनातन मिश्र जी कहीं गये थे पूजा पाठ के लिये ...माता किसी कार्यवश पड़ोस में गयीं हुयी थीं  उस समय  अपनी चाची विधुमुखी को बोलकर  वो चली गयीं ।  गंगा घाट पर परिचित महिलायें मिलीं ....उन्होंने प्रिया से कुशल क्षेम पूछा ....प्रिया मुस्कुराती हुई सबको बता रही थीं ....कि एक महिला ने तुरन्त कहा ....तेरा निमाई तो सन्यास ले रहा है ।     ओह !  मानों इस बच्ची के कान में शीशा पिघला कर किसी ने डाल दिया हो ....काँप गयी विष्णुप्रिया ...उससे अब चला नही जा रहा ...किसी महिला ने कहा ....ये निमाई को सन्यास लेने थोड़े ही देगी ...अपने रूप पाश से बाँध लेगी ....दूसरी महिला तुरन्त कह उठी थी ....वो निमाई है वैराग्य की साक्षात् मूर्ति, वो किसी के रूप पाश में बंधने वाला नही है ।     तू ज़्यादा मत बोल ...बेचारी प्रिया को दुखी बना दिया ....तेरा पति सन्यासी न हो जाये ध्यान देना ....निमाई के साथ बहुत संकीर्तन में उछलता फिरता है वो भी ।  

महिलाओं की बातों ने तोड़ दिया था इस विष्णुप्रिया को .....वो  धीरे धीरे चल रही थी ...अपने को सम्भाल कर चल रही थी ......घर आया ....द्वार कोई बाहर से ही लगा कर गया था .....द्वार खोलकर विष्णुप्रिया ने प्रवेश किया .....दर दीवार रो रहे हैं ,   प्रिया को ऐसा लग रहा है ....घनी उदासी घर के कोने कोने में छा रही थी .....वो भीतर जाती है ...शचि देवि लेटी हुई हैं ....उन्हें कुछ होश नही ....ये क्या है ?     क्या गृह त्याग दिया मेरे प्राणेश्वर ने ?  नही ,  इतने कठोर वे नही हैं ।

माँ ! माँ !       प्रिया  शचि देवि के पाँवों को हिलाकर उन्हें उठा रही है ।

शचि देवि उठीं ....हाँ ,  हाँ कौन ?   आँसुओं से भरे नेत्रों ने प्रिया को पहले तो पहचाना नही ...जब प्रिया ने कहा ....मैं आपकी बहू विष्णुप्रिया ।    विष्णुप्रिया !     अपने हृदय से लगाकर फिर रोना शुरू कर दिया शचि देवि ने ।     उस घर में चीख पुकार मच गयी थी ....प्रिया !   क्या करूँ मैं ...बोल बेटी !    मैं कुछ सोच नही पा रही हूँ ।     शचि देवि को इस दशा में देखकर बेचारी विष्णुप्रिया ने ही  उन्हें सम्भाला .....फिर कहा ...माँ !   वे आते होगें ....मैं भोजन बना लेती हूँ ...किन्तु माँ ! उनके भोजन करने तक आप इस विषय को नही छेड़ोगी ।    

विष्णुप्रिया भोजन बनाने के लिए चली गयी.....शचि देवि को फिर रोना आया ....इतनी समझदार बहु मिली मुझे ...पर मेरा पुत्र इसे नही समझ रहा ।  

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दोपहर में निमाई भोजन करने के लिए आये ...उन्हें पता नही था कि अपने मायके से उनकी धर्मपत्नी विष्णुप्रिया लौट आई है....ये तो  घर में आकर अपनी माता को आवाज दे रहे थे कि भीतर से विष्णुप्रिया आई ....इन्होंने देखा  तो मुस्कुरा दिये ....अरे वाह !  तुम कब आईं ?    तभी निमाई के मुख से ये भी निकल गया  अच्छा हुआ तुम आगयीं नही तो माँ अकेली रह जाती ।    ये सुनते ही प्रिया  फिर काँप गयी थी ...भीतर से शचि देवि भी अपने अश्रु पोंछ कर आईं ....और सुस्त मनःस्थिति से  निमाई को बोलीं .....बेटा !  भोजन कर ले ।    निमाई मुस्कुराये पर शचि देवि ने गम्भीरता के साथ ही कहा ....मेरा स्वास्थ्य ठीक नही है ....इसलिये तू भोजन कर ले ।   शचि देवि ये कहकर चली गयीं ।     

विष्णुप्रिया ने भोजन दिया ...पिता जी माता जी सब कुशल तो हैं ?   निमाई सहज बनाने के लिए पूछ रहे हैं ।       प्रिया ने सिर ‘हाँ’ में हिलाया ।    भोजन करने के बाद उठे हाथ धोये और अपनी माता के पास जाकर  बैठ गये ।   माँ !  क्या हुआ ?  तू अस्वस्थ लग रही है ?    तेरे कारण निमाई !   शचिदेवि ने निमाई को कहा .....मेरे कारण ?    निमाई पूछ रहे हैं ।  हाँ हाँ , तेरे कारण ...क्यों इस बुढ़िया माँ को मारने का मन बनाकर बैठा है ...बोल !  क्यों ?     मैंने क्या किया ?   निमाई ने कोने में देखा तो विष्णुप्रिया रो रही थी ।   माँ ,  स्पष्ट बोलो ना , क्या बात है !        

तू भी निर्दयी बन रहा है अपने बड़े भाई की तरह ......तू भी सन्यास ले रहा है ना !    दुनिया को धर्म की शिक्षा देगा अपनी माँ को मारकर ?   ये कैसा धर्म है तेरा निमाई !    

बड़ साध छिल मने नदीया वसति ।
काल हइया एल मोर केशव भारती ।।

मैंने कितना सोचा था कि नवद्वीप में मेरे बेटे का घर बसाऊँगी ...पर मुझे क्या पता था वो केशव भारती नामक सन्यासी मेरा काल बनकर आगया ।  उस सन्यासी को किसी ओर का घर नही मिला ....किसी ओर के पुत्र नही मिले ...इसी विधवा बूढ़ी का पुत्र ही उसे ले जाना है ...ओह !   शचि देवि चीख रही हैं ....आवाज पड़ोस में गयी तो कान्चना दौड़ी चली आई ....विष्णुप्रिया को पकड़ कर खड़ी हो गयी ...शचि देवि अपने पुत्र निमाई से बात कर रही हैं ।  निमाई कुछ नही बोल रहे वो एक अपराधी की भाँति सिर झुकाकर खड़े हैं ।   

माता की हृदय विदारक बातें सुनकर निमाई भी अत्यन्त दुखी हो गये .....वो क्या कहें ....माता की बातों को काटने के लिए उनके पास आज कोई तर्क भी तो नही हैं ।   
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सुन निमाई !   एक बात मेरी भी सुन ले ....तेरे बड़े भाई ने हम सबको छोड़ दिया और सन्यास लेकर चला गया ...तेरे पिता हम सब को छोड़ स्वर्ग सिधार गये ...अब अगर तू सन्यास लेगा तो ये तेरी माँ शचि आत्म हत्या कर लेगी ।   ये कहते ही निमाई बिलख उठे ...ऐसा मत बोल माँ !  मत बोल ।

क्यों न बोलूँ ....निमाई ! तू ही तो मेरी लाठी था ना ....अब कौन ?    देख उसे ...बेचारी चौदह वर्ष की मात्र है .....ये किसके आधार में रहेगी ....बोल निमाई !   बोल । 

तेरे जन्म के समय मैंने कितने देवि देवता मनाये थे ....तू तब जन्मा था ....मेरे कुल का दीपक है निमाई कहते नही थकते थे तेरे पिता ...मैं इतराती थी ....नवद्वीप के लोग मुझे भाग्यशाली कहते थे ....पर अब ये तू क्या कर रहा है निमाई ?  

तू भी तो कोमल है ....बिना पनहीं के चलेगा तो कोमल पग में कंटक न चुभेंगे !    तुझे वन प्रदेश में प्यास लगेगी तो कौन जल पिलायेगा ?   बोल निमाई ! बोल ।   निमाई कुछ नही बोल रहे ...वो मात्र सिर झुकाकर खड़े हैं ।  

सर्व जीवे दया तोर , मोर अकरुण ,कि जानि कि लागि , मोरे विधाता दारुण ।।

निमाई !  तुम सभी जीवों पर दया करते हो .....सर्व जीवों पर दया करो ये शिक्षा भी देते हो ...पर मेरी बात आते ही तुम क्यों निर्दयी बन जाते हो ....बोलो निमाई बोलो ।   

ये कहते हुए मूर्छित हो गयीं शचि देवि ....निमाई ने सम्भाला अपनी माँ को ....पीछे मुड़कर देखा तो विष्णुप्रिया सिसकियाँ भर रही थी ....उसकी सखी उसे सम्भाल रही थी ...पर रो वह भी रही थी ।

शेष कल - 

हरि शरणं

✍️श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)

आज के विचार 

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!  

             ( द्वात्रिंशत् अध्याय 🙂 

22, 4, 2023

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गतांक से आगे - 

माँ !   उठो ,  माँ  इस तरह मिथ्यात्व संसार को सत्य समझ कर शोक मत करो ।  

निमाई ने जब देखा  शचि देवि मूर्छित हो गयी हैं  उन्हें पुत्र का सन्यास लेना अच्छा नही लग रहा ....किन्तु निमाई मान नही रहे ...जब शचि देवि ने जाना की पुत्र जिद्दी है वो मानेगा नही ...सब को छोड़ छाड कर चला जायेगा ...तब  शचि देवि मूर्छित हो गयीं थीं ...अपार दुःख-कष्ट के कारण शचि देवि मूर्छित हो गयीं । 

माँ !  माँ !   
जल का छींटा मुख में मारने लगे थे निमाई ....ये भी माँ की ऐसी दशा देखकर अधीर हो उठे थे ।   

समय लगा पर शचि देवि को कुछ होश आया ....उन्होंने निमाई के सिर में हाथ रखा ....मस्तक को चूमा ।    कुछ शान्त दिखाई दीं शचि देवि  तो निमाई गम्भीर होकर बोलने लगे ....बोलते समय उनके मुख मण्डल पर एक दिव्य तेज व्याप्त हो गया था ...शचि देवि ये देखते ही उठकर बैठ गयीं ....दिव्य आलोक से दमकते निमाई  ने अपनी माता को ज्ञान देना प्रारम्भ किया ।

निमाई के तत्व ज्ञान का उपदेश इतना गहन गूढ़ था कि शचिदेवि के नेत्रों के अश्रु तुरन्त ही सूख गये थे ।  शचिदेवि का निमाई के प्रति पुत्र भाव जाता रहा और भगवत्भाव से भावित हो वो निमाई को सुनने लगीं थीं ।    

माँ !   इस प्रकार मिथ्यात्व संसार को सत्य मानकर शोक मत करो ।   

यहाँ कौन किसका है ?    तुम कौन हो ?    कौन तुम्हारा पुत्र है ....व्यर्थ ही तेरा-मेरा करके दुखी हो रही हो और अन्यों को भी दुःख दे रही हो ।    कौन स्त्री कौन पुरुष ?   कौन पति कौन पत्नी ?  स्मरण रहे माँ !  श्रीकृष्ण भक्ति बिना अन्य कोई गति नही है ....यही सत्य है ।

यही सत्य है कि - कृष्ण ही हमारे माता पिता हैं ...वे ही बन्धु जन हैं ...वे ही हर्ता कर्ता सब हैं ।

हे माँ ! एक रहस्यमई बात मैं आपको बताता हूँ ...समस्त योनियों में ये मानव योनि ही है जो  केवल प्रभुकृपा से ही प्राप्त होता है ....बाकी सब प्रारब्ध अनुसार मिलते हैं ...इसलिये मानव जीवन को प्राप्त करके भी  जो मात्र भोग विलास और कर्म बन्धन में अपने को बांधता चलता है उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ?     माँ !   प्रभु की कृपा हुई है  हमें मनुष्य शरीर मिला हैं....और मनुष्य शरीर केवल कृष्ण प्राप्ति के लिए ही है ...और कोई लक्ष्य नही है ।   कर्म बन्धन में बंधे लोग ही कर्म की महिमा गाते हैं और कर्म के लिए प्रेरित करते रहते हैं ....इससे जीव कर्म के जाल में उलझता चला जाता है ....और जन्म मृत्यु के भयानक चक्र में फंस जाता है ।    

निमाई जब बोल रहे थे  तब वो  स्वयं परम प्रकाश स्वरूप ही लग रहे थे ...उनका मुख मण्डल सूर्य के तेज की भाँति दमक रहा था , शचि देवि  चमत्कृत हो उठी थीं ...उन्होंने  अपने आप हाथ जोड़ लिये थे । निमाई  अभी भी तत्व ज्ञान की बातें स्पष्टता से और सरल मधुर शब्दों में बता रहे थे । 

माँ !  भगवान की माया बड़ी प्रबल है ...इससे बड़े बड़े योगी ज्ञानी ध्यानी पार नही पा सकते  ....माया के इस दुस्तर सागर में अधिकतर लोग डूब जाते हैं .....मैं , मैं , मैं , मेरा ,मेरा ,मेरा ....बस यही माया का स्वरूप है ...कोई ना मेरा है ...न मैं ।    हे माँ ! जो भी है वो  “वही” है ।   वही  कृष्ण ...जो कृष्ण का बन जाता है ....वही इस माया से पार चला जाता है ।  जो कृष्ण चरणों को कस कर पकड़ लेता है ...उसे माया छूने की बात तो छोड़ो उसकी ओर देखने की भी हिम्मत नही होती ।   

कुछ देर के लिए निमाई मौन हो जाते हैं ...विष्णुप्रिया और उसकी सखी कान्चना वो भी अब बैठ गये हैं  और निमाई की बातों को ध्यान से सुन रहे हैं ....निमाई की वाणी में वो शक्ति है जो सबके मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है ....और वाणी में मधुरता इतनी है कि मुग्ध हुये बिना कोई रह नही सकता ।   निमाई की बातों से  सबके हृदय शीतल हो गये ...सबका मन शान्त परम शान्त हो गया था ।  

माँ !  कृष्ण परम करुणालय हैं ...करुणा से भरे , करुणा से पचे हैं ...कृष्ण का भजन ही  एक मात्र साधन है  जो बद्ध जीव को  मुक्त बनाकर भक्ति का रस चखा देती है ।   अरी मेरी माँ !  तुम जितना मोह इस निमाई से करती हो उससे कम भी  कृष्ण से कर लेतीं तो तुम्हारा कल्याण हो जाता है ।    इस निमाई को अपने से कब तक बांधोगी माँ !   सुख दुःख सब स्वयं को ही भोगना पड़ता है ...तुम्हारा पुत्र या पौत्र उसमें क्या करेगा ।   हाँ  अगर सब और से मन को हटा कर कृष्ण चरणों में लगा लो  तो उद्धार है तुम्हारा ।    संसार से आसक्ति मृत्यु का कारण है माँ !  और कृष्ण से आसक्ति  तो परम कल्याण का साधन है ।  सब कुछ है ।   

माँ ! अब मेरी बात ध्यान से सुनो ...उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का जन जन में प्रसार करने के लिए ही मैं सन्यास ले रहा हूँ ....जब निमाई ने देखा कि सब लोग मेरी बात ध्यान से सुन रहे हैं ...तो मूल विषय को उन्होंने आखिर छेड़ ही दिया । 

माँ !  सन्यास के लिए मना मत कर ....इससे  जगत का बहुत बड़ा लाभ होगा ....लोग दुखी हैं ...संताप से घिरे हुए हैं ....रोग शोक आदि से  त्रस्त हैं ......माँ !   काल की पुकार है ....काल को इस समय भक्ति की आवश्यकता है ....नही तो  लोग आपस में ही राग द्वेष के कारण लड़ते भिड़ते मर जायेंगे .....वो भक्ति , वो प्रेम ,  वो दिव्य भावोन्माद.....इस कलि काल की भीषण दाहकता को कम करेगी ।

माँ !   मोह त्याग , मोह के बंधन को काट दे ....और मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दे ।  

निमाई ने ये अन्तिम वाक्य कहे थे ...पर ये वाक्य कहते हुये  उनका मुखमण्डल सूर्य की भाँति अत्यन्त तेज पूर्ण हो गया था ...उस तेज में  शचि देवि अपने पुत्र को देख भी न पाईं ..आँखें उनकी बन्द हो गयीं  हृदय शान्त हो गया .....मन स्थित हो गया ।   कुछ देर के बाद जब माता ने 
देखा तो  सामने एक नील वर्ण का किशोर बैठा है ....घुंघराले केश राशि उसके बिखरे हुए हैं ....वो मन्द मन्द मुस्कुरा रहा है .....वनमाला गले में उसके झूल रही है.....पीताम्बरी भी है ।   उनके श्रीअंग से कस्तूरी की सुगन्ध प्रकट हो रही है ....ये सब देखकर  माँ शचि सब कुछ भूल गयीं ....हाथ जोड़ने लगीं .....हाथ तो विष्णुप्रिया और कान्चना ने भी जोड़ लिए थे ।  पर शचि माता हाथ जोड़कर बोलीं .....

“पुत्र नही आप तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो ...फिर भगवान को क्या आज्ञा ?   आप का ही सब कुछ रचा है और विनाशक भी आप ही हो ....फिर मुझ से आज्ञा क्या !  हे प्रभु !  हम जीव हैं ...संकुचित दृष्टि से सब कुछ देखते और सोचते हैं .....आपको जो उचित लगे वही कीजिये ।    विष्णुप्रिया स्तब्ध रह गयी ....ये क्या ,  माता शचि ने आज्ञा दे दी सन्यास की ?     

निमाई ने अब प्रणाम किया शचि माता को ...और शचि माता के जैसे ही पाँव छुए ...पुत्र भाव जो हृदय से चला गया था  शचि माता का  वो फिर से हृदय में प्रकट हो गया ।   

ये मैंने क्या किया ?      माँ !  आपने मुझे आज्ञा दे दी है ।  अब मैं सन्यास ले सकता हूँ ।    निमाई ने कहा ।  विष्णुप्रिया ने जैसे ही सुना ....वो रोती बिलखती अपने कक्ष में चली गयी ।    ओह !  शचि देवि अब  शोक कर रही हैं ....किन्तु आज्ञा दे दी है माता ने । 

शेष कल - 

हरि शरणम् गाछामि
✍️ श्याम प्रिया दास (fbश्रीजी मंजरी दास) 


आज के विचार

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!  

            ( त्रयत्रिंशत् अध्याय: ) 

23, 4, 2023

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गतांक से आगे - 

आज रात्रि संकीर्तन में नही गये निमाई ..माता को समझाने में समय लग गया ..फिर जब घर का वातावरण कारुणिक देखा तो वो आज रुक गये । विष्णुप्रिया ने अपने को सम्भालते हुये भोजन तैयार किया ..भोजन बनाते विष्णुप्रिया को जब देख रहीं थीं शचि देवि  तो उन्हें  रोना आ रहा था।

निमाई को भोजन कराया प्रिया ने ...फिर अपनी सासु माँ शचि देवि को ....फिर स्वयं निमाई की थाली में  प्रसाद ग्रहण कर...माता शचि देवि को सुला कर  अपने कक्ष में गयीं ...सजी प्रिया ...अपने केश बनाये ...इत्र फुलेल लगाये ...फिर हाथ में पान की डिब्बी लेकर ...फूलों की माला लेकर निमाई के शयनकक्ष में आईं ।  प्राणबल्लभ सो रहे हैं ....गहरी नींद में हैं ...ये  देखती रहीं ...फिर  प्राणेश्वर के चरणों के निकट बैठ गयीं ...अत्यन्त कोमल चरण हैं ...संकीर्तन में कितना  उछलते कूदते हैं ...दूखते होंगे ना !   ये सोचते हुए  उन युगल चरणों को अपने गोद में रख लेती है  प्रिया ....और बहुत धीरे धीरे  चरण चापन करने लगती हैं ।  मन में डर भी है कि  कहीं नींद खुल न जाये ...इतनी गहरी नींद शायद ही इन्हें  इन दिनों में कभी आई होगी ...ये सोचते हुये  बहुत धीरे चरण दबा रही हैं ।    विष्णुप्रिया अपने को परम भाग्यशाली भी आज मानती हैं ...कि ये सौभाग्य मेरे ही भाग्य में लिखा ...मैं इनकी श्रीमति हूँ ....ये मेरे पति हैं ....मेरे पिता जी इस बार कह रहे थे ...कि लोगों में चर्चा है ....निमाई  नारायण स्वरूप हैं....वो बता रहे थे कि इनके चरणों में शंख चक्र पद्म आदि के चिन्ह हैं ....ये बात स्मरण करते ही  प्रिया चरण चिन्हों को देखती है ....उसे दीख जाते हैं ...वो  अपने मस्तक को चरणों तक लाकर छुवाती है ...फिर गदगद होकर अपने को बड़ भागी मानती है । विष्णुप्रिया निहार रही है अपने ‘प्राण’ को ....अद्भुत सौन्दर्य बिखर रहा है निमाई का ....उनके श्रीअंग से  कमल की सुगन्ध  प्रकट हो रही है ....उनके घुंघराले केश बिखरे हुए है  ,  इस तरह दिव्य शोभा बन गयी है निमाई की ।     

पर ये सन्यास लेंगे ?      ओह !   ये बात स्मरण में आते ही  प्रिया के साँस अटक गये । 

ये गृह त्याग करेंगे ?   मेरा त्याग करेंगे ?     विष्णुप्रिया के हृदय में बज्राघात हुआ । 

इनसे पूछना है मुझे ......नेत्रों से टप्प टप्प अश्रु बहने लगे .......

“शुन शुन प्राणनाथ  मोर शिरे देह हाथ ,
सन्यास करिबे नाकि तुमि ? 
लोक मुखे  सुनि इहा , विदरिते चाहे हिया ,
आगुनिते प्रवेशिब  आमि ।।”

ये कहना चाहती है ...पूछना चाहती है अपने प्राणनाथ से ...कि बताओ ,  मेरे सिर में हाथ रखके बताओ  मेरे प्राण नाथ !    क्या तुम सन्यास लोगे ?   मैंने सुना है ...लोग कहते हैं ...पर मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ ...बता दो ....मैं भी अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी ....तुम्हारे सन्यास लेते ही ।

झर झर अश्रुओं के साथ हिचकियाँ बंध गयीं प्रिया की .....बस उसी समय निमाई की नींद खुल गयी .....नेत्र खोलकर देखा ....विष्णुप्रिया को अपने पास देखते ही वो उठकर बैठ गये ।

प्रिया !     क्या हुआ , तुम रो क्यों रही हो ?     मैं तो तुम्हारे पास हूँ ....फिर इतना रुदन क्यों ?   

निमाई ने देखा  इतने पर भी प्रिया का रुदन शान्त नही हुआ तो  निमाई ने अपने हृदय से लगा लिया.....और अपने कोमल करों से अश्रु पोंछते हुये  बोले -  इस निशा में इतना रुदन उचित नही है ......तुम मेरी हृदयेश्वरी हो .....अब शान्त हो जाओ प्रिया !       

पर निमाई ने क्या सोचा था इस तरह प्रेम संभाषण से ये  रुदन रुकेगा !   प्रेम का वेग और तीव्र हो उठा ....तीव्र से तीव्रतम ।    कण्ठ अवरुद्ध हो  गया प्रिया का ...अदम्य हृदयावेग के कारण देह काँपने लगा ......प्राण पुकार उठे ....हे गौर !  बचा लो मुझे ...या  इस जीवन को ही ले लो ।

उन युगल चरणों को अपनी छाती से चिपका लिया प्रिया ने ......और रोते हुये बस इतना ही बोली ....नाथ !  इस दासी को इन चरणों से दूर मत करो ...नही तो मर जाएगी ये । 

ओह !   क्रन्दन ऐसा था की कठोर से कठोर हृदय भी विदीर्ण हो जाये .....

निमाई स्वयं इस स्थिति का सामना नही कर पा रहे थे ....तुरन्त अपने वक्षस्थल से चादर हटाया और उससे प्रिया के अश्रु पोंछने लगे ....प्यारी !   क्या हुआ ?     निमाई फिर पूछ रहे हैं ।  

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कातर नयनों से अपने स्वामी को देखा विष्णुप्रिया ने .....फिर नयनों को झुकाकर  हाथ जोड़कर बोली ....”स्नेह और प्रेम बरसा रहे हो स्वामी !  तो मेरे सिर में हाथ रखकर सौगंध खाओ कि मुझे त्याग कर सन्यास” .......आगे ये बोल न सकी ।    फिर रुदन प्रारम्भ हो गया ।   वो विषम असह्य बात मुख से निकाल भी ना सकी प्रिया ।    हृदय दुःख के अथाह सागर में डूबा हुआ है .....ये सब देखकर  निमाई ने तुरन्त विष्णुप्रिया को सम्भाला ....अपने हृदय से  चिपका लिया उसके सिर में हाथ फेरने लगे ।       विष्णुप्रिया को ये सब नही ...उसे उत्तर चाहिए था ...जो वो पूछ रही थी ।  

जब बहुत देर तक निमाई ने कोई उत्तर नही दिया तो फिर विष्णुप्रिया ने  पूछा ....पूछने में भी  वो करुण वाणी थी ....कि  निमाई के कक्ष की दीवारें भी रो पड़ी होंगी । 

नाथ !  आप अपने भाई की तरह कहीं सब कुछ छोड़कर तो नही चले जायेंगे ?    

निमाई  इसका उत्तर खोज रहे हैं पर उन्हें भी नही मिल रहा ....अपनी माता को तो समझा दिया पर इसको कैसे समझायें ?   क्या कहूँ ?       

बहुत देर तक चुप ही रहे निमाई ....तो विष्णुप्रिया ने  फिर देखा अपने ‘प्राण’ की ओर ....फिर एकाएक उनके हाथ को अपने सिर में  रखते हुये बोली ....मेरी सौगन्ध खाओ ....मैं थक गयी हूँ नाथ !  लोगों के मुख से सुन सुनकर कि “तेरे पति सन्यास ले रहे हैं”....मैं मायके जाती हूँ तो वहाँ भी लोग मुझ से पूछते हैं ...मैं गंगा घाट जाती हूँ तो वहाँ भी यही चर्चा ...आपकी माता जी भी यही कहती हैं ....कभी सोचा आपने मुझ पर क्या बीतती होगी ?      अब आप ही बता दीजिये सच बात क्या है ....सच बताइये ..क्या इस घर को , यहाँ के वैभव को , मुझे ....मैं आपके लिए हूँ इस घर में ...आप चले जायेंगे तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी ।    और क्या , जब आप ही नही तो इस जीवन का क्या अर्थ !     मैं तो भाग्यशाली हूँ कि आप जैसे मुझे पति मिले ...परम विद्वान , रूप गुण शील में आपके समान और कौन होगा !  मैं तो भाग्यशाली हूँ  पर  मेरे भी अपने सपने थे ...उनका क्या ?   मैंने भी बहुत कुछ सोचा था ....उनका क्या ?  आशा थी मेरी भी कि साथ रहेंगे  आपके चरणों की सेवा जीवन पर्यन्त मिलती रहेगी तो ये दासी आपकी   धन्यता का अनुभव करेगी ,  किन्तु .........निमाई  प्रिया के इतना बोलने पर भी मौन ही रहे .....तो विष्णुप्रिया ने  निमाई के चरणों की ओर देखते हुये कहा ....इनको आप वनों में ले जायेंगे ...इतने कोमल चरणों को ?     मैं अभी आपके चरण चाँप रही थी तो डर लग रहा था कहीं मेरे कठोर करों  से आपके कोमल चरणों को कोई कष्ट न हो ....नाथ !   सन्यास मत लीजिये ।  विष्णुप्रिया ने फिर रोते हुये कहा -  चलिये मेरी  छोडिए  किन्तु अपनी बूढ़ी माता का तो ध्यान रखिये ....माता की सेवा से बढ़कर और कुछ है क्या ?   आप धर्म का सार जानते हैं ...मैं तो एक स्त्री जात हूँ ...मैं क्या आपको धर्म सिखाऊँगी ....किन्तु बूढ़ी माता का त्याग   ये तो धर्म की श्रेणी में नही ही आता होगा ।

विष्णुप्रिया की इन बातों का निमाई क्या उत्तर देते ।     ओह !  विष्णुप्रिया बेचारी ,  जिसकी आयु इस समय चौदह वर्ष मात्र है .....

शेष कल - 

🙏हरि शरणम् गाछामि

✍🏼सूर श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)

आज के विचार

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !! 

          ( चतुस्त्रिंशत् अध्याय: ) 

24, 4, 2023

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गतांक से आगे - 

प्रियतमे !  तुमसे किसने कहा कि मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ ?   तुम मिथ्या शोक कर रही हो ।  हे प्रिया !  तुम मेरी प्राण हो ...ये कहते हुए निमाई ने  विष्णुप्रिया को अपने गोद में बिठा लिया था ....बेचारी प्रिया  निमाई का संसर्ग पाकर फूली नही समाई ....वो सब भूल गयी ....निमाई ने  अपनी प्रिया के मुख को चूम लिया .....इससे प्रिया के हृदय में  प्रेम का  वर्षण होने लगा ।   उसने अपने नेत्रों को बन्द कर लिये .....गौर वक्ष  में बिहार करने लगी थी ये  विष्णुप्रिया ।  नेत्रों के अश्रु  निमाई के इन प्रेम प्रसंगों से  सब सूख गये थे ....मुख मण्डल में मुस्कान फैल रही थी निमाई के , और  सलज्ज भाव प्रिया के ....दोनों ही मानों रास कर रहे हों ....प्रेम संभाषण ...प्रेमालिंगन ....के कारण विष्णुप्रिया प्रेमानन्द में ही डूब गयी थी ।   ये सब कर रहे थे  रसिक शेखर निमाई ....प्रेम के मर्मज्ञ थे ...प्रेम के रहस्य को इनसे ज़्यादा और किसने जाना है ।      

अजी ,  पूरी रात्रि बीत गयी ...ये प्रथम रात्रि थी ...जो इस तरह  प्रेम में बीती ।  किन्तु विष्णुप्रिया के मन में  कहीं  अभी भी ये बात है कि  मेरे प्राणेश्वर ने स्पष्ट नही कहा कि  - मैं  सन्यास लूँगा ही नहीं ।    तो   ये सन्यास लेंगे !     गौर वक्ष में  बिहार कर रही विष्णुप्रिया को भी  वियोग व्याप्त होने लगा ....ये अद्भुत और वैचित्र्या स्थिति थी ।    विष्णुप्रिया का हृदय अब रो उठा ....ये मुझसे कपट करके चले जायेंगे ....मुझे अपनी मीठी मीठी बातों में फँसा कर  सन्यास ले लेंगे ...फिर मैं कुछ नही कर सकूँगी ।  मर जाऊँगी ....पर उससे क्या ?   ये तो मुझ से छूट ही जायेंगे ना ।   ये विचार आते ही फिर  उन्माद चढ़ गया प्रिया को .....निमाई के वक्ष में अपना मुख रखकर ये रोने लगी ।    निमाई ने फिर  सम्भाला ...पुचकारा ....मुख चुम्बन किया ।   पर इस बार कोई लाभ हुआ नही ।       

अब क्या हुआ ?     तुम इस प्रकार अब क्यों रो रही हो ?   मैंने तुम्हें कहा ना ।

क्या कहा नाथ ?     फिर कहिये तो ?  विष्णुप्रिया ने स्पष्ट जानना चाहा ।   
क्या आप सन्यास नही लेंगे ?  बोलिये !   क्या आप गृहत्याग नही करेंगे ?   वचन दीजिये मुझे । 

विष्णुप्रिया का यह रूप निमाई ने आज तक देखा नही था .....वो अब वचन माँग रही थी ...कि कहिये आप सन्यास नही लेंगे !      कुछ देर निमाई मौन हो गये .....फिर अपने पर्यंक से उठे ....झरोखे के पास आये .....झरोखा खोल दिया ....आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं .... पक्षियों की चहक से   प्रातः का समय होने वाला है इसकी सूचना मिल रही है ।  

हे विष्णुप्रिये !   सन्यास तो मैं लूँगा ही .....

ओह !  निमाई के ये शब्द विष्णुप्रिया के कानों में शीशा घोल गये ...प्राण घातिनी वाणी थी  प्रिया के लिए ये ......उठ गयी प्रिया भी ...वो निमाई के पास आई ...निमाई झरोखे से बाहर देख कर बोल रहे हैं.....सब कुछ मिथ्या है यहाँ ...किसे सत्य समझ रही हो ?    जितने सम्बन्ध हैं इस जगत के सब झूठे हैं .....सत्य केवल कृष्ण हैं ...कृष्ण के साथ हमारा सम्बन्ध सत्य है ।  माया के कारण हम सब भ्रमित हैं ...असत्य को सत्य मान बैठे हैं .....अपवित्र को हम पवित्र समझते हैं ....हे प्रिये !   देखा जाये तो  रज और वीर्य से  जन्मा जीव  मूत्र और विष्टा के स्थान पर जन्म लेता है ...और पृथ्वी पर गिरते ही वो सच्चा ज्ञान भूल जाता है ....अपने सच्चे साथी को भी भूल जाता है ...अपने सच्चे सम्बन्धी को भूल जाता है ....झूठे माया प्रपंच में उलझता चला जाता है ...इन्हीं को वो अपना मान लेता है ......ये सब झूठे हैं प्रिया !    ये मल मूत्र से भरा प्राणी  सत्य है क्या ?   जो आज है कल नही रहेगा और कल नही था ...उसमें हम अपनी आसक्ति को लगा कर चलते हैं  ये बहुत गलत करते  हैं हम प्रिया !  बताओ , यहाँ कौन किसका है ?  इस जन्म में जो माता पिता हैं वो दूसरे जन्म में  माता पिता नही रहेंगे ....फिर कौन किसका ?     केवल केवल श्रीकृष्ण ही हमारे हैं ....बाकी सब झूठ है ...माया  है ।  कृष्ण  का भजन करो ...मिथ्या शोक त्याग दो .....निमाई इतना बोलकर फिर आकाश को देखने लगे थे ।

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विष्णुप्रिया समझ गयी कि उसके निष्ठुर प्रियतम  उसे छोड़कर चले जायेंगे ।    उनके द्वारा कहे ज्ञान-उपदेश आदि से तो यही अर्थ निकलता है ....और अब ये पहले की भाँति मुस्कुरा भी नही रहे .....गम्भीर हैं ....गम्भीर ही  बने हुये हैं ....प्रिया को जब निश्चय हो गया कि  सन्यास लेना ही इनका लक्ष्य है ....तब ये फिर बिलख उठी .....नेत्रों से अश्रु धार फिर बह चले ....किन्तु इस बार निमाई ने अपनी गम्भीरता नही छोड़ी ।    क्यों की विष्णुप्रिया भी अब स्पष्ट सुनना चाहती है ...एक प्रकार से पकड़े गए थे भक्त द्वारा भगवान ।    
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क्या तुम सुन पाओगी  मैं जो कहूँगा ?     निमाई मुड़ें अपनी प्रिया की ओर .....इस बार  निमाई के नेत्रों में अश्रु थे .........

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मेरा जन्म दुःख भोगने के लिए हुआ है प्रिया !  मेरे जितना दुःख कौन भोगेगा !    मैं रोने के लिए जन्मा हूँ ...मैं जितना रोऊँगा जीव का हृदय उतना पिघलेगा ....हृदय पिघलने पर  शुद्धता और पवित्रता उसके हृदय में आजाएगी ।    तब कृष्ण नाम का  जीव उच्चारण करेगा ....उससे  उसे सब कुछ मिल जायेगा .....हे विष्णुप्रिया !  मैं रोने आया हूँ ....मैं दुःख भोगने आया हूँ ....ये कहते हुए निमाई हिलकियों से रोने लगे थे ।       प्रिये !  तुम सोचोगी  फिर हम ?     तुम दोनों मेरी माँ और तुम , तुम दोनों को भी मेरा साथ देना है .....तुम दोनों की भी मेरे दुःख में हिस्सेदारी है ....क्या अपनी हिस्सेदारी नही लोगी ?     मेरी माँ दुखी होगी ....वो मुझे पुकारेगी ...वो तड़फ़ेगी ....वो रोएगी ...तो जगत का हृदय पिघलेगा ....मैं यही चाहता हूँ ।   तुम मेरे वियोग में अपने जीवन को  झोंक  दोगी ...विरह में डूब जाओगी ....रोओगी ...चीखोगी ...पुकारोगी ...हे प्रिये !  गोपियों ने जिस तरह प्रेम का उदात्त उदाहरण  जगत के सामने रखा ऐसे ही तुम्हें रखना है ।    देखो ,  अपना स्वार्थ नही ...इस जगत के जीवों के दुखों को देखो ....इनका कैसे उद्धार होगा ....कर्मकाण्ड से नही होने वाला ....सत्य असत्य मार्ग के विवेक से इनका उद्धार नही होने वाला ....योगायोग का मार्ग इन कलि के लोगों के लिए नही हैं .....हे प्रिये !  मैं बहुत सोचता रहा ....कैसे कैसे इनका उद्धार हो....तब मेरे समझ  में एक ही मार्ग दिखाई दिया ....रोने  का.......रोने  से हृदय द्रवित होता है ...हृदय के द्रवित होते ही उसके पाप बह जाते  हैं ...वो निष्पाप हो  जाता है ....फिर कृष्ण भक्ति  बीज उसके भीतर डालो तो  वो परम भक्त बन जाएगा ....ये मैंने किया है ....बड़े बड़े पापियों पर मैंने ये प्रयोग किया है ....अरी मेरी प्रिया !   रुदन सबसे  बड़ी साधना है ....कोई भी प्रायश्चित इतनी शीघ्रता से पापों को नही धो पाता जितनी जल्दी रुदन धो देता  है...इसलिए हे विष्णुप्रिया !  बैठ गये निमाई ...विष्णुप्रिया के सामने  हाथ जोड़ने लगे ...विष्णुप्रिया काँप गयी ....ये क्या कर रहे हैं आप ?   निमाई बोले ....अब तुम्हें मेरे  इस जगत मंगल के कार्य में साथ देना होगा ...भगवान श्रीकृष्ण तुम्हें शक्ति प्रदान करें ...तुम्हारे क्रन्दन से जीवों का मंगल हो ...इतना ही बोलकर निमाई शान्त हो गये । 

बेचारी विष्णुप्रिया !   क्या कहे अब  उफ़ !     

शेष कल - 

हरि शरणम् गाछामि
✍️सूर श्याम प्रिया दास(श्रीजी मंजरी दास)

आज के विचार

!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !! 

         (  पंचत्रिंशत् अध्याय : ) 

25, 4, 2023

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गतांक से आगे - 

प्रेम की मधुरता , प्रेम का बंधन , प्रेम की शृंखला ....युक्ति सिद्धान्त और शास्त्र तत्व के विधि नियम के अन्तर्गत ये नही आते ....शास्त्रीय विधि निषेध को प्रेम मान्यता नही देता ...उसके अपने शास्त्र हैं उसके अपने नियम हैं ...प्रेम स्वतन्त्र है ....पूर्ण स्वतन्त्र ।      

निमाई ने बेचारी विशुद्ध प्रेमिन विष्णुप्रिया को समझाया ...युक्ति सिद्धान्त समझाये ....जीव का कर्तव्य समझाया ....भगवान ही एक मात्र आश्रय हैं ...ये भी समझाया ।  अपनी विद्वत्ता का भरपूर प्रदर्शन किया निमाई ने ...पर ये चौदह वर्षीया  बालिका  क्या समझे इन जटिल सिद्धान्तों को ...और क्यों समझे ?  आवश्यकता क्या है ?    ये तो इतना ही समझती है कि मैं अपने प्राणप्रिय निमाई की हूँ और निमाई मेरे हैं ....इसे और कुछ समझना भी नही है ।   

निमाई ने जो कुछ समझाया  विष्णुप्रिया ने उसे सुना ...ध्यान से सुना ...सुना,  ये अपने प्रियतम का आदर था ....किन्तु माने ही ये कोई  बात नही हुई ।   शास्त्र कहते हैं कहकर ...विष्णुप्रिया अपने प्राण धन को कैसे जाने दे ....प्रेम देवता  प्रियतम को भेजने की आज्ञा नही देता ...नही देता ।

बाहर से निमाई के सारे आदेश, उपदेश ,सन्देश सुनने के बाद भी ...विष्णुप्रिया मन ही मन रट रही है ...एक ही बात को बारम्बार दोहरा रही है कि ....प्रिय !  मैं तुम को सन्यास लेने नही दूँगी ।

प्रिये !   बोलो !  क्या मैंने जो तुमसे कही उन बातों को तुम मानती हो ?    क्या मैं सत्य नही कह रहा ?    जीव को कृष्ण भजन नही करना चाहिये !       निमाई ने फिर अपनी ही बात दोहराई ।

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विष्णुप्रिया ने निमाई को देखा ...फिर दृष्टि नीचे करके बोली ...आप ज्ञानीशिरोमणि हैं ...मैं अज्ञानी अबला ...आप परम विद्वान हैं ...मैं अनपढ़ ....आप  शास्त्रज्ञ हैं ...मैंने शास्त्रों के दर्शन भी नही किये ...विष्णुप्रिया  कहती है ....नाथ !  आपकी बातें  सारी सुनीं मैंने ....आपकी बातें सत्य हैं .....मैं कैसे कह दूँ ....कि असत्य आप बोल रहे हैं .....किन्तु नाथ !   ये जो  धड़क रहा है ना सीने में ....ये नही मान रहा ....ये टीस पैदा कर रहा है .....कह रहा है .....प्रिया !  तू अपने प्राणनाथ के बिना कैसे जी लेगी ?   ये  पूछ रहा है मुझ से .....कि सारी बातें सही हैं ...धर्म की बातें हैं ....तेरे पति परम धर्मज्ञ हैं ....पर  तू  उनके बिना कैसे रहेगी ?       विष्णुप्रिया फिर रो पड़ी .....फिर  वही अश्रु धार ......विष्णुप्रिया को फिर सम्भालना पड़ा निमाई को .....अपने हृदय से लगाकर उसे थपथपी दी .....नाथ !   आप सन्यास ले लेंगे ना तो आपका कुछ नही जायेगा ...आपकी तो जयजयकार होगी ...लोक कल्याण होगा ....पर ये समाज आपकी इस प्रिया को क्या कहेगा !   यही ना कि  इसी से दुखी था   इसलिये सन्यास लिया ....यही कहेगा ना ....कि  अपने पति को अपने पास न रख सकी ....ये क्या करेगी !   बेचारी बालिका विष्णुप्रिया  सीधी बात करती है ....इसे नही आता घुमा फिराकर बात करना ...ये कोई तर्क की पण्डित थोड़े ही है निमाई की तरह .....ये तो बेचारी अपने पति निमाई से प्रेम करती है ....बहुत प्रेम करती है  ।   

गंगा घाट में जाऊँगी तो महिलायें मेरे विषय में कितनी बातें करेंगी ......क्या  उस स्थिति से बचने के लिए मुझे मर जाना ही उचित नही होगा !      

निमाई  विष्णुप्रिया के इन बातों का क्या उत्तर दें ....हाँ कोई ऊँची बात हो तो निमाई बोल सकते हैं ...कोई शास्त्रार्थ करने के लिए आये तो निमाई के सामने वो टिक नही सकता ....पर विष्णुप्रिया के इन साधारण सी बातों का निमाई के पास कोई उत्तर नही है ।   वो  सोचने लगे अब क्या उपाय ?   क्या करें  जिससे  प्रिया का ये शोक दूर हो ।   तुरन्त वही उपाय सूझा निमाई को .....भगवान नारायण का रूप दिखाया जाये ...चतुर्भुज रूप  जब  प्रिया देखेगी तब ये समझ जायेगी कि ये तो भगवान हैं ....तब मुझे इन छोटी मोटी बातों का उत्तर नही देना पड़ेगा ।   ये विचार करके  तुरन्त निमाई अंतर्ध्यान हो गये ....और  उन्हीं के स्थान में  चतुर्भुज विष्णु प्रकट थे ....प्रिया ने अपने सामने देखा ....भगवान विष्णु ?    वो तुरन्त दूर हो गयी ...उसने अपने साड़ी का पल्लू सिर में रख लिया ....दृष्टि नीचे की ....और हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगी .....कुछ मन्त्र भी उसने बुदबुदाये ।  

निमाई चकित हैं .....विष्णुप्रिया ने अब दृष्टि ऊपर की .....शंख चक्र गदा पद्म  धारण करके भगवान विष्णु खड़े हैं .....पर वो कुछ ही देर व्याकुल हो उठी .....उसके नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े .....वो चरणों में बैठ गयी ।    हे  विष्णुप्रिये !  क्या चाहती हो ?  क्यों व्याकुल हो ?   धीर गम्भीर वाणी गूंजी भगवान की ....विष्णुप्रिया  रोते हुए बोली ....हे प्रभु !  मेरे नाथ कहाँ गये ?   हे भगवान विष्णु !   मेरे स्वामी अभी यहीं थे ....पता नही आपके आते ही वो कहीं चले गये ....मुझे कुछ नही चाहिये ...कुछ नही ...बस मेरे प्राणनाथ को ला दीजिये ....ये विष्णुप्रिया उनके बिना रह नही पायेगी ....मैं बहुत छोटी मूर्खा नारी हूँ ...अबला हूँ ...मुझ में कोई शक्ति नही है ....इसलिए मेरी प्रार्थना सुन लीजिये और मेरे नाथ को ला दीजिये ।   हे चार भुजा वाले देवता !   क्या आप भी ‘नारी नर’ ये पक्षपात करते हैं ?    ये बात कहते हुए जब विष्णुप्रिया अपना सिर पटकने लगी ....तब निमाई घबड़ा गये ...और उन्हें अपना ये रूप हटाना ही पड़ा,  निमाई अब वहाँ खड़े थे ।

प्रसन्नतापूर्वक उठकर निमाई के हृदय से ये लग गयी थी ।      

हार गये थे विष्णुप्रिया से निमाई .....ये इनका अन्तिम अस्त्र था  चतुर्भुज रूप दिखाना ....इसी के चलते शचि देवि को बात माननी पड़ी थी ....किन्तु विष्णुप्रिया पर ये अस्त्र काम नही किया ।  

निमाई कुछ नही बोले ......विष्णुप्रिया बस हृदय से लगी रही ......

तो यही है तुम्हारा प्रेम ?       कुछ रूखे वचन थे निमाई के ।   

प्रिया को अच्छे नही लगे .....निमाई के मुखचन्द्र की ओर देखा प्रिया ने ...मुख कठोर बना लिये थे निमाई ।

प्रेम जानती हो किसे कहते हैं ?      प्रेम में अपना सुख कहाँ !  वहाँ तो प्रियतम को जो प्रिय लगे ...प्रेम  में स्वसुख खोज रही हो तो तुम वासना में अपने आपको डाल रही हो ....प्रेम तो तत्सुख है ....प्रिय जिसमें सुखी हो ...अपने लिए वही सुख होना चाहिये ।    निमाई के वचन कठोर होते जा रहे थे ...विष्णुप्रिया स्तब्ध थी अब .....प्रेम स्वरूप  का ये कैसा रूप ?    क्या तुमने  श्रीराधा रानी का नाम नही सुना ...या उनकी महिमा नही सुनी ?   क्या तुमने गोपिकाओं के प्रेम का परिचय नही पाया .....अगर नही पाया तो पाओ ....प्रेम क्या है वो जानों ....मात्र प्रेम प्रेम कहने से क्या होता है ....कहना और जीना अलग बात है ....बातें तो प्रेम की दुनिया करती है ...पर जीया है  वृन्दावन की गोपियों ने ।

इतनी चोट  बेचारी विष्णुप्रिया के हृदय पर ....क्यों ?    इसका अपराध क्या है ?    

किन्तु निमाई शान्त नही हुये अभी भी .......कृष्ण मथुरा चले गये ....किन्तु गोपियों ने  कभी भी कृष्ण को ये नही कहा ....कि आजाओ .....वो यही कहतीं ....तुम्हें अच्छा लगे तो मथुरा में ही रहो ...मत आओ कभी वृन्दावन ....हम रो रो कर जी लेंगी ।       

“आप को सन्यास लेने में सुख मिलता हो तो  आप सन्यास ले लो”

इतना कहकर विष्णुप्रिया मूर्छित हो गयी ......निमाई  ने तुरन्त अपने गोद में उठाया प्रिया को ....और  पर्यंक में ले जाकर सुला दिया ......सिर में हाथ फेरते रहे निमाई ....अश्रु गिरते रहे निमाई के ......प्रिया !  मैं क्या करूँ ?  मैं समझता हूँ ....तुम प्रेम में गोपियों से कमतर नही हो ...तुम्हारा प्रेम भी  इस विश्व इतिहास में गाया जायेगा .....तुम महान हो ....निमाई महान होगा तो इसके पीछे तुम होगी ....तुम्हारे इस महान त्याग के कारण ही निमाई महान बनेगा ।

यही सब सोचते रहे निमाई और विष्णुप्रिया को देखते रहे ......

इस बेचारी को प्रेम चाहिये , अपने निमाई का प्रेम ....क्या गलत है ?  

पर  ...................

शेष कल - 

हरि शरणम गछामि 🙏🙏
✍🏼श्रीजी मंजरी दास ( श्याम प्रिया दास) 

सखि नामावली