आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( पंचत्रिंशत् अध्याय : )
25, 4, 2023
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गतांक से आगे -
प्रेम की मधुरता , प्रेम का बंधन , प्रेम की शृंखला ....युक्ति सिद्धान्त और शास्त्र तत्व के विधि नियम के अन्तर्गत ये नही आते ....शास्त्रीय विधि निषेध को प्रेम मान्यता नही देता ...उसके अपने शास्त्र हैं उसके अपने नियम हैं ...प्रेम स्वतन्त्र है ....पूर्ण स्वतन्त्र ।
निमाई ने बेचारी विशुद्ध प्रेमिन विष्णुप्रिया को समझाया ...युक्ति सिद्धान्त समझाये ....जीव का कर्तव्य समझाया ....भगवान ही एक मात्र आश्रय हैं ...ये भी समझाया । अपनी विद्वत्ता का भरपूर प्रदर्शन किया निमाई ने ...पर ये चौदह वर्षीया बालिका क्या समझे इन जटिल सिद्धान्तों को ...और क्यों समझे ? आवश्यकता क्या है ? ये तो इतना ही समझती है कि मैं अपने प्राणप्रिय निमाई की हूँ और निमाई मेरे हैं ....इसे और कुछ समझना भी नही है ।
निमाई ने जो कुछ समझाया विष्णुप्रिया ने उसे सुना ...ध्यान से सुना ...सुना, ये अपने प्रियतम का आदर था ....किन्तु माने ही ये कोई बात नही हुई । शास्त्र कहते हैं कहकर ...विष्णुप्रिया अपने प्राण धन को कैसे जाने दे ....प्रेम देवता प्रियतम को भेजने की आज्ञा नही देता ...नही देता ।
बाहर से निमाई के सारे आदेश, उपदेश ,सन्देश सुनने के बाद भी ...विष्णुप्रिया मन ही मन रट रही है ...एक ही बात को बारम्बार दोहरा रही है कि ....प्रिय ! मैं तुम को सन्यास लेने नही दूँगी ।
प्रिये ! बोलो ! क्या मैंने जो तुमसे कही उन बातों को तुम मानती हो ? क्या मैं सत्य नही कह रहा ? जीव को कृष्ण भजन नही करना चाहिये ! निमाई ने फिर अपनी ही बात दोहराई ।
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विष्णुप्रिया ने निमाई को देखा ...फिर दृष्टि नीचे करके बोली ...आप ज्ञानीशिरोमणि हैं ...मैं अज्ञानी अबला ...आप परम विद्वान हैं ...मैं अनपढ़ ....आप शास्त्रज्ञ हैं ...मैंने शास्त्रों के दर्शन भी नही किये ...विष्णुप्रिया कहती है ....नाथ ! आपकी बातें सारी सुनीं मैंने ....आपकी बातें सत्य हैं .....मैं कैसे कह दूँ ....कि असत्य आप बोल रहे हैं .....किन्तु नाथ ! ये जो धड़क रहा है ना सीने में ....ये नही मान रहा ....ये टीस पैदा कर रहा है .....कह रहा है .....प्रिया ! तू अपने प्राणनाथ के बिना कैसे जी लेगी ? ये पूछ रहा है मुझ से .....कि सारी बातें सही हैं ...धर्म की बातें हैं ....तेरे पति परम धर्मज्ञ हैं ....पर तू उनके बिना कैसे रहेगी ? विष्णुप्रिया फिर रो पड़ी .....फिर वही अश्रु धार ......विष्णुप्रिया को फिर सम्भालना पड़ा निमाई को .....अपने हृदय से लगाकर उसे थपथपी दी .....नाथ ! आप सन्यास ले लेंगे ना तो आपका कुछ नही जायेगा ...आपकी तो जयजयकार होगी ...लोक कल्याण होगा ....पर ये समाज आपकी इस प्रिया को क्या कहेगा ! यही ना कि इसी से दुखी था इसलिये सन्यास लिया ....यही कहेगा ना ....कि अपने पति को अपने पास न रख सकी ....ये क्या करेगी ! बेचारी बालिका विष्णुप्रिया सीधी बात करती है ....इसे नही आता घुमा फिराकर बात करना ...ये कोई तर्क की पण्डित थोड़े ही है निमाई की तरह .....ये तो बेचारी अपने पति निमाई से प्रेम करती है ....बहुत प्रेम करती है ।
गंगा घाट में जाऊँगी तो महिलायें मेरे विषय में कितनी बातें करेंगी ......क्या उस स्थिति से बचने के लिए मुझे मर जाना ही उचित नही होगा !
निमाई विष्णुप्रिया के इन बातों का क्या उत्तर दें ....हाँ कोई ऊँची बात हो तो निमाई बोल सकते हैं ...कोई शास्त्रार्थ करने के लिए आये तो निमाई के सामने वो टिक नही सकता ....पर विष्णुप्रिया के इन साधारण सी बातों का निमाई के पास कोई उत्तर नही है । वो सोचने लगे अब क्या उपाय ? क्या करें जिससे प्रिया का ये शोक दूर हो । तुरन्त वही उपाय सूझा निमाई को .....भगवान नारायण का रूप दिखाया जाये ...चतुर्भुज रूप जब प्रिया देखेगी तब ये समझ जायेगी कि ये तो भगवान हैं ....तब मुझे इन छोटी मोटी बातों का उत्तर नही देना पड़ेगा । ये विचार करके तुरन्त निमाई अंतर्ध्यान हो गये ....और उन्हीं के स्थान में चतुर्भुज विष्णु प्रकट थे ....प्रिया ने अपने सामने देखा ....भगवान विष्णु ? वो तुरन्त दूर हो गयी ...उसने अपने साड़ी का पल्लू सिर में रख लिया ....दृष्टि नीचे की ....और हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगी .....कुछ मन्त्र भी उसने बुदबुदाये ।
निमाई चकित हैं .....विष्णुप्रिया ने अब दृष्टि ऊपर की .....शंख चक्र गदा पद्म धारण करके भगवान विष्णु खड़े हैं .....पर वो कुछ ही देर व्याकुल हो उठी .....उसके नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े .....वो चरणों में बैठ गयी । हे विष्णुप्रिये ! क्या चाहती हो ? क्यों व्याकुल हो ? धीर गम्भीर वाणी गूंजी भगवान की ....विष्णुप्रिया रोते हुए बोली ....हे प्रभु ! मेरे नाथ कहाँ गये ? हे भगवान विष्णु ! मेरे स्वामी अभी यहीं थे ....पता नही आपके आते ही वो कहीं चले गये ....मुझे कुछ नही चाहिये ...कुछ नही ...बस मेरे प्राणनाथ को ला दीजिये ....ये विष्णुप्रिया उनके बिना रह नही पायेगी ....मैं बहुत छोटी मूर्खा नारी हूँ ...अबला हूँ ...मुझ में कोई शक्ति नही है ....इसलिए मेरी प्रार्थना सुन लीजिये और मेरे नाथ को ला दीजिये । हे चार भुजा वाले देवता ! क्या आप भी ‘नारी नर’ ये पक्षपात करते हैं ? ये बात कहते हुए जब विष्णुप्रिया अपना सिर पटकने लगी ....तब निमाई घबड़ा गये ...और उन्हें अपना ये रूप हटाना ही पड़ा, निमाई अब वहाँ खड़े थे ।
प्रसन्नतापूर्वक उठकर निमाई के हृदय से ये लग गयी थी ।
हार गये थे विष्णुप्रिया से निमाई .....ये इनका अन्तिम अस्त्र था चतुर्भुज रूप दिखाना ....इसी के चलते शचि देवि को बात माननी पड़ी थी ....किन्तु विष्णुप्रिया पर ये अस्त्र काम नही किया ।
निमाई कुछ नही बोले ......विष्णुप्रिया बस हृदय से लगी रही ......
तो यही है तुम्हारा प्रेम ? कुछ रूखे वचन थे निमाई के ।
प्रिया को अच्छे नही लगे .....निमाई के मुखचन्द्र की ओर देखा प्रिया ने ...मुख कठोर बना लिये थे निमाई ।
प्रेम जानती हो किसे कहते हैं ? प्रेम में अपना सुख कहाँ ! वहाँ तो प्रियतम को जो प्रिय लगे ...प्रेम में स्वसुख खोज रही हो तो तुम वासना में अपने आपको डाल रही हो ....प्रेम तो तत्सुख है ....प्रिय जिसमें सुखी हो ...अपने लिए वही सुख होना चाहिये । निमाई के वचन कठोर होते जा रहे थे ...विष्णुप्रिया स्तब्ध थी अब .....प्रेम स्वरूप का ये कैसा रूप ? क्या तुमने श्रीराधा रानी का नाम नही सुना ...या उनकी महिमा नही सुनी ? क्या तुमने गोपिकाओं के प्रेम का परिचय नही पाया .....अगर नही पाया तो पाओ ....प्रेम क्या है वो जानों ....मात्र प्रेम प्रेम कहने से क्या होता है ....कहना और जीना अलग बात है ....बातें तो प्रेम की दुनिया करती है ...पर जीया है वृन्दावन की गोपियों ने ।
इतनी चोट बेचारी विष्णुप्रिया के हृदय पर ....क्यों ? इसका अपराध क्या है ?
किन्तु निमाई शान्त नही हुये अभी भी .......कृष्ण मथुरा चले गये ....किन्तु गोपियों ने कभी भी कृष्ण को ये नही कहा ....कि आजाओ .....वो यही कहतीं ....तुम्हें अच्छा लगे तो मथुरा में ही रहो ...मत आओ कभी वृन्दावन ....हम रो रो कर जी लेंगी ।
“आप को सन्यास लेने में सुख मिलता हो तो आप सन्यास ले लो”
इतना कहकर विष्णुप्रिया मूर्छित हो गयी ......निमाई ने तुरन्त अपने गोद में उठाया प्रिया को ....और पर्यंक में ले जाकर सुला दिया ......सिर में हाथ फेरते रहे निमाई ....अश्रु गिरते रहे निमाई के ......प्रिया ! मैं क्या करूँ ? मैं समझता हूँ ....तुम प्रेम में गोपियों से कमतर नही हो ...तुम्हारा प्रेम भी इस विश्व इतिहास में गाया जायेगा .....तुम महान हो ....निमाई महान होगा तो इसके पीछे तुम होगी ....तुम्हारे इस महान त्याग के कारण ही निमाई महान बनेगा ।
यही सब सोचते रहे निमाई और विष्णुप्रिया को देखते रहे ......
इस बेचारी को प्रेम चाहिये , अपने निमाई का प्रेम ....क्या गलत है ?
पर ...................
शेष कल -
हरि शरणम🙏🙏
✍🏼श्रीजी मंजरी दास
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( षट्त्रिंशत् अध्याय: )
26, 4, 2023
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गतांक से आगे -
प्रातः की वेला हुई ...विष्णुप्रिया तो उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो गईं ....किन्तु निमाई सोये हुये हैं ...तभी प्रिया देखती है ...कि द्वार पर नवद्वीप के प्रबुद्ध लोग खड़े हैं ...उनमें उनके पिता सनातन मिश्र जी भी हैं वो दौड़कर जाती है और अपने पिता सनातन मिश्र जी के हृदय से लग जाती है ...बहुत रोती है ...पिता भी अपनी पुत्री को इस स्थिति में देखकर अपने अश्रु रोक नही पाते हैं । भीतर निमाई उठ गये हैं ...वो स्नान करके पूजा में बैठने वाले ही थे कि....निमाई ! तेरे ससुर जी समेत अनेक लोग आये हैं तू शीघ्र बाहर आजा ...तब तक मैं उन लोगों से बात करती हूँ । निमाई समझ गए हैं कि ...मेरे सन्यास की खबर पूरे नवद्वीप में फैल चुकी है ...और निमाई ये भी समझ गये हैं कि ...ये लोग मुझे समझाने के लिए ही आये हैं ।
निमाई पूजा पाठ पूर्ण करके बाहर आये ....सब को प्रणाम आदि किया और वहीं बैठ गये ।
निमाई ! क्या तुम सन्यास ले रहे हो ? अद्वैताचार्य जी ने निमाई से पूछा था ।
निमाई कुछ नही बोले ।
तुम तो प्रेम स्वरूप हैं ...फिर प्रेमी को वैराग्य की आवश्यकता क्या ?
अद्वैताचार्य जी परम वैष्णव हैं ...निमाई इनके प्रति आदर भाव रखते हैं और ये निमाई के प्रति ।
वैराग्य के बिना प्रेमी कैसा ? निमाई बोले । अन्य से विराग हो तब प्रियतम से राग जुड़ता है ...संसार से वैराग्य हुए बिना भगवान अपना लग नही सकता ...हे अद्वैत प्रभु ! आप सब कुछ समझते हैं ...जानते हैं फिर भी पूछ रहे हैं तो इसमें कोई गूढ़ रहस्य भरा है ।
वैराग्य ही मेरा स्वधर्म है ...वैराग्य को छोड़कर मेरा कोई कर्म नही है । निमाई गम्भीर होकर बोले ।
ये सुनते ही निमाई के ससुर सनातन मिश्र जी के नेत्रों से अश्रु बहने लगे उनका ध्यान उनके सामने बैठी विष्णुप्रिया की ओर गया तो वो और बिलख उठे थे ।
“वैराग्य आमार स्वधर्म.....वैराग्य छाड़िया नाहि कोन कर्म” ।
यहाँ राग किससे करें ? राग करने जैसा कौन है यहाँ ? सब तो मरणधर्मा हैं ....काल कब किसे अपना ग्रास बना ले कोई पता है ....फिर वैराग्य क्यों नही ? निमाई स्पष्ट बोल रहे हैं ।
शचिदेवि रो रही हैं ....बिलख रही हैं ....विष्णुप्रिया ने जब ये स्पष्ट मत जाना तो शचि देवि के ही गोद में गिर गयीं और असह्य दुःख के कारण मूर्छित ही हो गयीं । सनातन मिश्र जी से ये दृश्य देखा नही गया ...वो हिलकियों से रोते हुए वहाँ से चले गये । जितने भी भक्त थे वहाँ सब रुदन करने लगे ...निमाई को कहने लगे ....हे प्रभु ! ये अनर्थ है ...आप ऐसे काम न करें ! निमाई हंसे ...अनर्थ आप लोग कर रहे हैं ....भगवान को त्याग कर संसार को पकड़ने की बात करके आप अनर्थ कर रहे हैं ...ये उचित नही है ...संसार से विराग और कृष्ण से राग ..इसी से कल्याण होगा ...मेरी बात मानों आप लोग भी इसी मार्ग पर चलो ...जीवन की सार्थकता इसी में है ।
निमाई सबको वैराग्य की शिक्षा देने लगे थे .....कर्म में पड़कर जीव , जन्मों के चक्कर में फंसता ही चला जाता है ....मरते समय जिसमें राग है जीव उसी में जाता है ....जैसे - राजा भरत मृग में आसक्त थे ....तो मृग बने ...ऐसे ही आसक्ति के कारण जीव नाना योनियों में भटकता रहता है ...और अपार दुःखों को भोगता रहता है ...वैराग्य का अभाव अगर जीवन में है तो यही होना है ।
किन्तु समझने की बात है ...जो भाग्यशाली है ....वैराग्य भी उसी को मिलता है ....वैराग्य एक निर्भय पद है ....वैराग्य होने पर ....सिंहासन या मिट्टी का ढ़ेला ....बराबर हैं । हे मेरे भगवद्भक्तों ! वैराग्य होने पर नींद से मतलब होता है ....कहाँ सो रहे हैं उसका कोई अर्थ नही रह जाता । हे मेरे कृष्ण प्रेमियों ! वैराग्य होने पर प्यास से मतलब रह जाता है ....प्यास बुझने से मतलब रह जाता है ....जल किस पात्र में पीया गया उसका कोई अर्थ नही ....वो पात्र सुवर्ण का था या मिट्टी का ।
निमाई आज वैराग्य की महिमा ही गाने में लगे थे .....उनके लिए वैराग्य ही सब कुछ था ।
भक्त जन विरह से भरे हैं .....और चीत्कार रहे हैं ।
विष्णुप्रिया को अभी भी होश नही आया है ।
ओह ! निमाई बारम्बार विष्णुप्रिया को देख रहे हैं ...ये सारी बातें ....वैराग्य की ये सारी चर्चायें इसी बेचारी को सुनाने के लिए ही तो है । उफ़ ! निष्ठुर निमाई !
शेष कल -
हरि शरणं गच्छामि
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (fb श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तत्रिंशत् अध्याय : )
27, 4, 2023
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गतांक से आगे -
साधकों ! ध्यान कीजिये निमाई और विष्णुप्रिया के इन प्रेमपूर्ण रुदन का ....आपने मुस्कुराते खिलखिलाते श्यामा श्याम का ध्यान बहुत किया होगा ...आपने श्रीरघुनाथ जी और किशोरी जी के आनन्दमय स्वरूप के दर्शन बहुत किये होंगे .....पर ये ध्यान सबसे अलग होगा ....ये ध्यान आपके अन्त:करण के पापों को धो देगा ....आपके भीतर प्रेम का प्रकाश छा जाएगा ...आप इस वियोग के योग से प्रेम के सर्वोच्च पद के अधिकारी हो जायेंगे । पर उस समय पद की कामना ही नही रहेगी ...रहेगी तो सिर्फ “युगल पद” की कामना । विष्णुप्रिया निमाई का ये रुदन आपके जीवन में नित्य होने वाले सांसारिक रुदन से आपको छुटकारा दिलायेगा । आप धरिये ध्यान ।
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अर्धरात्रि हो गयी है ...विष्णुप्रिया की मूर्च्छा अब टूटी है ...उसने देखा रोते रोते शचि देवि वहीं पर सो गयीं हैं ....चादर लेकर आई ये प्रिया और अपनी सासु माँ को ओढ़ा दिया । फिर खोजने लगी अपने प्रियतम को ....इधर उधर नही देखा तो डर गयी कहीं गृहत्याग कर चले तो नही गये ?
वो भागी निमाई के कक्ष की ओर ....और जैसे ही कक्ष का द्वार खोला ....भीतर का दृष्य देखते ही वो काँप गयी ..........
निमाई की प्रेमोन्माद दशा थी ....वो धरती पर लेटे थे और “कृष्ण कृष्ण” पुकार रहे थे ...बीच बीच में अपने सिर को पटक रहे थे जिसके कारण रक्त बह रहा था ...वो चीख रहे थे ...अश्रु ? अश्रु तो इतने बह रहे थे की पूरा कक्ष ही गीला हो गया था । वो अपना मुख धरती में रगड़ रहे थे ...हरि हरि ...कृष्ण केशव ...माधव मुकुंद कहकर उनका उच्च स्वर से पुकारना वातावरण को अत्यन्त करुण बना रहा था ।
विष्णुप्रिया से अपने पति निमाई की ये स्थिति देखी नही गयी ....वो हिलकियों से फूट फूट कर रोने लगी ....फिर बैठ गयी निमाई के चरणों के पास ...अपना सिर निमाई के चरणों में रख दिया ....नाथ ! मुझे छोड़कर मत जाना ...जहां जाओ मुझे भी ले चलो ....क्यों नही ले जा सकते जब श्रीरघुनाथ जी अपनी श्रीसीता जी को वन में ले जा सकते हैं तो आप क्यों नहीं ...जब धर्मराज युधिष्ठिर वन में अपनी पत्नी द्रोपदी को ले जा सकते हैं तो आप क्यों नहीं । मुझे यहाँ मत छोड़िए नाथ ! मुझे भी ले चलिये । ओह ! वो रोना ...विष्णुप्रिया का वो क्रन्दन ...दीवारें रो पड़ीं.....चेतन की बात नही है जड़ भी करुण रस में भींग गया । वो विष्णुप्रिया का चीखना ...वो निमाई का हा नाथ ! कहकर चीत्कार करना ।
प्रिया ! निमाई ने नाम लेकर कहा । हाँ , हाँ नाथ ! विष्णुप्रिया तुरन्त आगे आई ।
सन्यास में स्त्री को साथ में रखने का विधान नही है ...कुछ गम्भीरता के साथ निमाई बोले ।
तुम्हारे पति की भूमि नवद्वीप है ...तो तुम यहीं रहो ...अरुणोदय के समय नित्य गंगा में स्नान करना ....मेरा धोया वस्त्र धारण करना ...ओह ! ये क्या कह रहे हैं निमाई ! विष्णुप्रिया को कुछ समझ में नही आरहा ...ये मुझे छोड़कर ही जायेंगे ! तो मैं अब इनके बिना रहूँगी ! मर जाऊँगी मैं...
तुम्हें जीना है ....तुम्हें जगत की पतिव्रताओं के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना है ....
चावल की एक मुट्ठी हाथ में लेना .....और प्रिया ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण इस महामन्त्र का जाप करना ...एक बार मन्त्र पढ़कर एक दाना चावल का रखना ....इस प्रकार एक सौ आठ दानों को नामोच्चारण के साथ रखना फिर उन दानों को धोकर उसे पकाना फिर श्री कृष्ण को भोग लगाकर उसको ग्रहण करना । सिर्फ यही तुम्हारा आहार होगा ...घर में संकीर्तन करवाना ...वैष्णवों को अन्न दान करना । हे प्रिये ! बस मेरे इन वचनों का पालन करो ...इस जगत में कोई किसी का नही है ...माता पिता पुत्र पति कोई किसी का नही है ....ये सब मायामय जगत है ...माया के बंधन में सब बंधे हैं ....इतना कहकर निमाई विष्णुप्रिया के मुख की ओर देखने लगे थे ।
वो अब कुछ नही बोल रही है .....क्या बोले । शून्य नयनों से बस अपने स्वामी को देख रही है । प्रेम की भी अपनी एक ठसक है ....वो क्या बार बार गिड़गिड़ाये ...क्यों गिड़गिड़ाये ? हर बार यही उत्तर तो मिल रहा है ....की मैं सन्यास लूँगा ही । और अब तो ये भी बता दिया कि ....मेरे बिना तुम्हें कैसे रहना है ....क्या खाना है ....क्या पहनना है ....क्या बोलना है ....ओह ! पिया का ये कैसा अभिमान ! ले चलो ना अपने साथ , जो कहोगे वही करूँगी .....पर विष्णुप्रिया अब कुछ नही कह रही ....वो शून्य हो गयी है ....
“पतिधर्म रक्षा करे , सेइ पतिव्रता”
कहतो दिया .....दे तो दी पातिव्रत धर्म की शिक्षा .....पति धर्म की जो रक्षा करे उसी को पतिव्रता कहते हैं ....पतिधर्म है इस समय इनका सन्यास लेना ....मुझे हंसना चाहिए ...मुझे प्रसन्न होना चाहिये ...मुझे ख़ुशी खुशी इन्हें जाने देना चाहिये .....ओह ! इतने बड़े त्याग की अपेक्षा मुझ से ? क्यों ? मैंने तो पति सुख भी नही पाया अभी तक .....पत्नी पति कैसे संग रहते हैं ..हास्य विनोद कुछ नही हुआ मेरे साथ .....फिर इतने बड़े महान त्याग की अपेक्षा मुझ से क्यों ?
बेचारी विष्णु प्रिया ...निमाई ने अपने पाँव हटाये ...विष्णुप्रिया भी उठकर खड़ी हो गयी ...प्रातः की वेला हो चुकी थी ..निमाई बिना कुछ बोले बाहर निकल गये । खड़ी है ये बेचारी विष्णुप्रिया ।
शचि देवि उठ गयीं हैं ....वो विष्णुप्रिया के पास आईं ....प्रिया ! प्रिया ! झकझोरा शचि देवि ने पर जड़वत प्रिया खड़ी ही रही । निमाई कहाँ गया ? शचि देवि ने पूछा ...पर प्रिया ने इसका भी कोई उत्तर नही दिया । शचि देवि बाहर भागी .....निमाई , निमाई ! आवाज लगाई दो तीन बार ....पर कोई प्रत्युत्तर नही मिला । वो गंगा घाट में गयीं .....अभी स्नान में ज़्यादा लोग आये नहीं हैं ...एक दो लोग ही हैं जो गंगा घाट पर हैं ......शचि देवि ने इधर उधर देखा ....पागलों की तरह फिर आवाज दी ...निमाई , निमाई , दो लोगों ने संकेत किया कि निमाई प्रभु वो रहे .....
चिल्ला उठीं शचिदेवि .....क्यों की निमाई गंगा के मध्य धारा में बढ़ते जा रहे थे ...उन्हें कुछ भान नही था ....वो आगे आगे और आगे ...दो लोग कूदे गंगा में और निमाई को पकड़ कर किनारे में ले आये ....निमाई के मुख से “कृष्ण कृष्ण कृष्ण” यही नाम प्रकट हो रहा था ।
कुछ देर में जब निमाई को होश आया ...तो उन्होंने चारों ओर देखा ....माता शचि को देखकर थोड़ा मुस्कुराये । तभी शचि देवि को उन्माद चढ़ गया ....निमाई ! तू इस तरह अपनी माता और उस बेचारी विष्णुप्रिया को दुःख देगा ...तो ठीक है , मैं भी इस देह का अभी गंगा में परित्याग करती हूँ ....तू जिद्दी है निमाई तो तेरी ये माता तुझसे ज़्यादा जिद्दी है .....इतना कहते हुए शचि देवि गंगा की उस प्रवल धारा में कूद गयीं । निमाई ने देखा वो तुरन्त पीछे माता के कूद गये ...और अपनी माता के प्राणों की रक्षा की । ये क्या किया तूने माँ ! निमाई गम्भीर होकर पूछ रहे हैं । तू वचन दे ....कि सन्यास नही लेगा । निमाई चरणों में गिर गये ....माँ ! बिना सन्यास के मैं जी नही पाऊँगा । तू समझती क्यों नही माँ ! जगत को निष्काम प्रेम की शिक्षा देने के लिए ही मेरा ये जन्म हुआ है ...और निष्काम प्रेम बिना वैराग्य के सम्भव नही है माँ !
शचि देवि ने देखा निमाई मानेगा नही ...ये मर जायेगा ...उससे अच्छा है कि सन्यास ही ले ले ।
यही सोचकर शचिदेवि बोलीं .....तो ले लेना सन्यास पर आये दिन ये रोना धोना ठीक नही है निमाई ! तू मेरी बात समझ रहा है ना ! ये आए दिन क्रन्दन , ये आए दिन चीख पुकार ...निमाई ! मेरे पुत्र , तू समझ, विष्णुप्रिया बहुत छोटी है अभी , उसके कोमल हृदय में कितना वज्राघात होता होगा जब तू नित्य ये आलाप करता है ..मैं सन्यास लूँगा ..मैं सन्यास लूँगा ।
निमाई को ये बात माता की अच्छी लगी ....ठीक है माँ ! तो मैं अब इस विषय को छेड़ूँगा ही नही .....मैं जब तक घर में हूँ एक अच्छा गृहस्थी बनकर रहूँगा । ये कहकर शचि देवि का हाथ पकड़ निमाई अपने घर की ओर चले थे ।
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विष्णुप्रिया अकेली रो रही है .....निमाई घर आ गये ...विष्णुप्रिया दौड़ती हुई गयी और निमाई के चरणों में गिर गयी .....मैं ही हूँ अपराधिन ! नाथ ! मैं विष पी लुंगी तो सब ठीक हो जायेगा ।
निमाई ने ये सुनते ही प्रिया को पकड़ कर अपने हृदय से लगा लिया ....उसके अश्रुओं को पोंछने लगे ....फिर थोड़ा मुस्कुराकर बोले .....मुस्कुराओगी नही ? बेचारी विष्णुप्रिया ....अब वो मुस्कुरा रही थी ...उसने शचि माँ की ओर देखा ....उसे लगा कि माँ ने ही ऐसा कुछ समझाया है कि उसके प्राणबल्लभ अब सन्यास नहीं लेंगे । मुस्कुराओ प्रिया ! विष्णुप्रिया के हृदय में अब आनन्द सागर हिलोरें लेने लगा था ....वो अब प्रसन्नता से अपने प्रियतम की छाती से चिपक गयी थी ।
इस बेचारी को लग रहा था कि उसके प्राणधन अब सन्यास लेंगे नहीं ......
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍🏼श्रीजी मंजरी दास ( श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( अष्टात्रिंशत् अध्याय : )
28, 4, 2023
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गतांक से आगे -
पौष का महीना चल रहा है ...शीतलहर है ...गंगा का जल इन दिनों कुछ ज़्यादा ही ठण्डा है । इसलिये लोग अरुणोदय के बाद ही आते हैं गंगा स्नान के लिये । हाँ जो तपस्वी और साधक श्रेणी के है उनको तो शीत और ग्रीष्म से विशेष फर्क पड़ता नही ।
निमाई को समझा बुझाकर ले तो आईं शचि देवि घर ...किन्तु वास्तविक बात विष्णुप्रिया को भी नही बताई ...विष्णुप्रिया को लग रहा है कि माँ के समझाने पर निमाई मान गये हैं अब वो सन्यास नही लेंगे , यही बात शचिदेवि ने प्रिया को भी कहा ....प्रिया झूम उठी है ....उसने अपनी सखी कान्चना को बुलाया ....और कान्चना से कहा ...मेरा शृंगार कर ...मुझे सजा दे ....मेरी वेणी गूँथ दे ....मुझे अपने प्राण बल्लभ के लायक बना दे । कान्चना ने भी जब अपनी सखी को इस तरह आनंदित देखा तो पूछ लिया .....प्रिया ! क्या हुआ ? कान्चना को अपने हृदय से लगाते हुए प्रिया ने कहा ...अब मेरे ‘प्राण’ सन्यास नही लेंगे । कान्चना को अपनी सखी की मुस्कुराहट से प्रयोजन था ....ये भी इन दिनों बहुत दुखी रहती थी ...क्यों की इसकी सखी विष्णुप्रिया दुखी थी ।
आज दोनों सखियों ने जी भर कर बातें कीं ...कान्चना ने सजाया प्रिया को ...कभी शरमा रही है प्रिया कभी इतरा रही है ....कान्चना उसे छेड़ती भी है ....तो वो संकेत में कहती है ...बाहर सासु माँ हैं , चुप ....फिर हंसते हुए दोनों सखियाँ चुप हो जाती हैं । ये सब शचि देवि देख रही हैं ...उनका हृदय जल रहा है ....वो अकेले में अश्रु बहाती हैं ....कि उनका पुत्र निमाई निष्ठुर है ...प्रिया ! तुम को क्या वो नवद्वीप को ही छोड़कर चला जायेगा । पर वो ये बात किसी को नही कहतीं ....इन दिनों शचिदेवि का घर खुश है ....प्रिया प्रसन्न रहती है ..निमाई पहले की तरह ही हो गये हैं ....कभी विष्णुप्रिया को छेड़ते हैं ...कभी बालक के समान व्यवहार करते हुए शचि देवि की गोद में बैठ जाते हैं ....विष्णुप्रिया ये सब देखकर हंसती है ...कभी कभी उसकी खिलखिलाहट पूरे घर में गूंजती है ...तो ये शरमा जाती है । पर शचिदेवि के मुखमण्डल में कोई मुस्कुराहट नही है । निमाई चाहे कुछ भी करे ...पर शचिदेवि का हृदय तो रो ही रहा है ।
इस तरह पौष का महीना बीत गया ।
निमाई ! देख सब कितने खुश हैं ...बेचारी विष्णुप्रिया कितनी खिलखिलाती है इन दिनों ...बेटा ! सन्यास मत ले । निमाई शचिदेवि को देखते हैं ...उनके नेत्र भी सजल हो गये हैं ।
कोई उत्तर नही देते निमाई ......कब जायेगा ? कलेजे में पत्थर रखकर पूछती हैं ।
माघ संक्रान्ति .......निमाई इतना बोलकर चले जाते हैं ।
माँ ! आप रो क्यों रही हो ? विष्णुप्रिया शचिदेवि को रोता देखकर पूछती है ।
बस .....निमाई के बड़े भाई की याद आगयी ....इतना कहकर वो भी गृहकार्य में लग जाती हैं ।
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उत्तरायण लग गया है ...आज संक्रान्ति है .....शुभ दिन है ....गंगा स्नान करने वालों की भीड़ है ...लोग दान भी खूब कर रहे हैं । आज अचम्भा हो गया ...नवद्वीप वासियों ने इस सुखद स्वरूप युगल का दर्शन किया । विष्णुप्रिया के साथ गंगा स्नान करने निमाई आये हैं । दोनों ने साथ गंगा स्नान किया ...दान दिये ....अपने पति के साथ चलते हुए विष्णुप्रिया इतरा रही है ...भक्त जन निमाई को अपने प्रभु के रूप में देखते हैं ....आज ये झाँकी देखकर वो सब भी आनन्द सिन्धु में डूब गये .....निमाई अपनी अर्धांगिनी के साथ दान पुण्य करते हुए अपने घर में आगये थे । पर घर आकर जैसे ही अपनी माता शचि देवि के चरणों में दोनों ने प्रणाम किया ....रो गयी शचि देवि ...हिलकियों से रो उठी । विष्णुप्रिया को लगा बहुत दिनों के बाद सुखद क्षण आये इसलिये माता को रोना आरहा है । निमाई कुछ देर ठहर गये ...फिर बोले ...मैं अभी आया ।
शचिदेवि डर गयीं .....निमाई कहीं इसी समय तो .....ये सोचकर वो बाहर गयीं ....एक माली से माला गजरा कुछ मालती के पुष्प लेकर निमाई लौटे । ये क्या है निमाई ! शचि देवि पूछ रही हैं ....हंसते हुए निमाई उत्तर देते हैं ....पुष्प हैं माँ ! इतना कहकर निमाई भीतर चले जाते हैं ।
खिचड़ी बनी है आज घर में .....संक्रान्ति जो है ...निमाई ने बड़े प्रेम से खिचड़ी प्रसाद ग्रहण किया ....और हस्तप्रक्षालन करने के बाद ....वो फिर गंगा घाट चले गये ।
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रात्रि में निमाई ने थोड़े ही दाल भात खाये थे ......विष्णुप्रिया जब परोस रही थी तब प्रिया को देखते हुए वो कह रहे थे ....तुम जिसे छू लो वो सामान्य भोजन भी अमृत बन जाता है ।
विष्णुप्रिया निमाई को संकेत करती है ....ज़्यादा मत बोलिये .....माता सुन रही हैं ....निमाई समझ जाते हैं और हंसते हैं ....विष्णुप्रिया के आनन्द का वर्णन इस समय नही किया जा सकता ।
भोजन करने के बाद निमाई शयन कक्ष में चले जाते हैं .......
विष्णुप्रिया माता को भोजन देकर और स्वयं प्रसाद ग्रहण करके ....माता शचि देवि को सुलाकर .....हाथ में पान का डिब्बा लिए ...प्रसन्न मन से अपने प्राणबल्लभ के पास आती हैं ।
जागे हैं निमाई ......विष्णुप्रिया को देखते ही उठकर बैठ जाते हैं ......वो आज कुछ ज़्यादा ही चंचल दिखाई दे रहे हैं ......पुष्प-माला की टोकरी अपने सामने रखते हैं ....ये क्या है ? चहकते हुये प्रिया पूछती है .....मैं तुम्हारा शृंगार करूँगा ....निमाई कहते हैं । नही , टोकरी को लेकर प्रिया कहती है ...मैं आपका शृंगार करूँगी । तुम्हें आता है ? विष्णुप्रिया नज़र मटकाते हुए कहती है ...स्त्री हूँ सजना सजाना मुझे नही आयेगा ? ठीक है ...तो पहले तुम मुझे सजा दो ....निमाई मुस्कुराते हुए बैठ गये । विष्णुप्रिया अपने प्राणधन को निहारती है ...उसका रोम रोम प्रफुल्लित है ....वो देखते देखते आनन्द की अतिरेकता के कारण हंसती है ...खूब हंसती है ।
अब सजाओ भी .....निमाई कहते हैं ।
विष्णुप्रिया सजाती है ....उन घुंघराले केशों को बिखेर देती है ...फिर संवारती है ....उस गौरांग देह में केसर आदि लगाती है ...इत्र फुलेल लगा कर वो उसी सुगन्ध में खो जाती है ।
बस , हो गया ? तुम स्त्री स्त्री कहकर अपनी महिमा गा रहीं थीं ...पर सजाना नही आया ...अब देखो मैं कैसे सजाता हूँ तुम्हें .....ये कहकर निमाई ने प्रेम से विष्णुप्रिया को देखा ...वो शरमा गयी .....नज़रे झुका ली उसने ....निमाई ने प्रिया के बंधे केश खोल दिए .....कंघी से केशों को सुलझाने लगे ...अद्भुत जूड़ा बना दिया ....फिर उसमें एक मालती का गजरा लगा दिया ।
बड़े बड़े नयनों में काजल खींच दी .....मस्तक में लाल बिन्दी ....अधरों में लाली ....माँग में सिन्दूर ......वक्ष में केसर .....विष्णुप्रिया निमाई के हृदय से लग गयी ....चूम लिया मुख अपनी प्रिया का निमाई ने ...........
शियार रो रहे हैं ........ये क्या ! विष्णुप्रिया के कानों में शूल की तरह चुभ रहे हैं ।
स्वान के एक साथ रोने की आवाज ....ये क्या हो रहा है ....विष्णुप्रिया निमाई से पूछती है ।
रो रहे हैं बेचारे .....अब क्या उन्हें रोने भी नही दोगे ? निमाई सहजता में लेते हैं ।
फिर शियार और स्वान एक साथ रुदन ......नाथ ! ये अपशकुन है ।
निमाई कुछ नही बोलते .....बंधे हुए जूड़े को निमाई खोल रहे हैं .....बिल्ली बोल रही है .....एकाएक विष्णुप्रिया का दाहिना अंग फड़कने लगा है । ऐसे प्रसंग में अपशकुन की चर्चा करते ही रहना उचित नही है ...ऐसा जानकर विष्णुप्रिया कुछ नही बोलती है ।
पर स्वान का रुदन ...शियार का रुदन .......ओह ! अब असह्य हो रहा है ।
भूखे होंगे स्वान ....या कोई कष्ट में होंगे .....जंगल है ...उसमें पशु रहते हैं ...अब वो कभी रोते हैं कभी हंसते हैं .....इसमें शकुन अपशकुन की चर्चा व्यर्थ है । इतना कहकर विष्णुप्रिया के मुख को चूम कर निमाई सो गये ....विष्णुप्रिया भी कुछ देर तक अपने दाहिने हाथ को सहलाती रही ...फिर अपने प्राणबल्लभ के साथ सो गयी ।
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अर्धरात्रि के समय निमाई उठे ...निष्ठुर निमाई ने प्रिया को देखा गहरी नींद में थी वो ....मुख में मुस्कुराहट अभी भी है ....धीरे से उसके हाथ को अपने से हटाया ....फिर पर्यंक से नीचे उतरे .....प्रिया को एक बार देखा ...बड़े ध्यान से देखा ....पास में जाकर कपोल में चुम्बन किया ....फिर ये बाहर आगये ....माता शचि देवि आज आँगन में ही सो रहीं थीं ...उन्हें पता था कि निमाई आज गृहत्याग करेगा .....इसलिये वो बाहर ही थीं .....किंतु वृद्ध देह और शारीरिक थकान के कारण शचिदेवि भी सो गयीं थीं । निमाई ने देखा अपनी माता को ...नयन भर आये ....चरणों में अपना मस्तक रख दिया मन ही मन प्रणाम करके ....वो बाहर आये ...पूरा नवद्वीप सो रहा🙇🏻♂️ है .....अपने घर को साष्टांग प्रणाम किया ....फिर दो बार ताली बजाते हुए निमाई चले गए ....चले गए अपनी विष्णुप्रिया को छोड़कर ...चले गये अपनी माता को छोड़ कर ...अपने घर को ...। उफ़ !
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍️श्याम प्रिया दास ( श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकोनचत्वारिंशत् अध्याय : )
29, 4, 2023
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गतांक से आगे -
हे स्वामी ! आप कहाँ हैं ? इतनी रात्रि में भी आप मुझ से लुका छुपी खेल रहे हैं .....अब आइये ना सामने मैं थक गयी हूँ खोजते खोजते ...कहाँ हैं आप । अंधकार भी है ना ...दीया मैं जला नही सकती ...क्यों कि माँ उठ जायेगी ....फिर आपका ये रासरंग का भेद भी खुल जाएगा ।
उठ गयी थी विष्णुप्रिया .....पर पर्यंक में जब अपने स्वामी को नही देखा तो वो धीमें स्वर में पुकारने लगी .....पर्यंक के नीचे भी उसने देखा ......कहीं छुपे तो नही है ऐसा विचार कर उसने शयन कक्ष के कोने कोने में भी खोजा .....प्रकाश नही था अन्धकार था ...इसलिए उसे खोजना पड़ रहा था ....देखिये पीछे से मत आजाना ....मुझे डर लगता है ....पर विष्णुप्रिया को कक्ष में नही मिले निमाई .....अब प्रिया भयभीत होने लगी ....वो अज्ञात भय से काँप गयी .....कहीं ? .....वो बाहर आई ....बाहर आँगन में शचिदेवि सो रही हैं .....गहरी नींद है उनकी ....प्रिया ने घर के द्वार को देखा .... .जो खुला हुआ था ....उसको और डर लगा ....वो बाहर तक आई .....अंधकार है बाहर । वो फिर भीतर गयी ....अब तो उठाना ही पड़ेगा माता को ....उसने शचिदेवि के पाँव पकड़ कर जैसे ही हिलाया ....शचिदेवि उठ गयीं ....क्या हुआ ? मेरा निमाई तो ठीक है ना ? वो घबराई हुयी हैं । माँ ! देखो ना ....वे कहाँ गये ....द्वार भी खुला है ....वो कहीं दिखाई भी नही दे रहे । बस ...प्रिया के मुख से ये सुनना था कि पछाड़ खा कर शचि देवि धरती पर गिर पड़ीं ......बेटी ! उसने अपनी निष्ठुरता दिखा दी ...वो हम सब को छोड़कर चला गया । विष्णुप्रिया स्तब्ध हो गयी ...जड़वत् ....क्या मुझे त्याग दिया मेरे स्वामी ने ! वो शून्यता में चली गयी .....ये गजरा ...काजल ...ये सिन्दूर ....फिर क्यों सजाया रात्रि में मुझे ......विष्णुप्रिया के सामने वो रात्रि के प्रेम प्रसंग क्रम बद्ध आरहे थे । शचिदेवि - निमाई ! हा निमाई ! तू भी निठुर ही निकला ....ये कहती जा रही हैं ।
माँ ! माँ !
एकाएक विष्णुप्रिया उठी ....माँ ! वो रात्रि में कभी कभी गंगा घाट में भी जाते थे ना ! चलो , चलो माँ ! मेरा हृदय कह रहा है वो गंगा घाट में ही होंगे ...हाँ ...माँ , चलो । विष्णुप्रिया ने शचि देवि को उठाया .....और जैसे ही बाहर खोजने के लिए जाने लगी ....रुको मैं लालटेन ले आती हूँ ....विष्णुप्रिया लालटेन जला कर ले आती । अन्धकार में दोनों गंगा घाट निकले हैं .....कोई नही है मार्ग में ।
माँ , आप उनका नाम लेकर पुकारो ना ....शायद आपकी आवाज सुनकर वो उत्तर दें ।
शचि देवि - निमाई ! निमाई ! निमाई ...आजा बेटा , आजा ....ऐसे रात्रि में घर से बाहर नही जाते .....शचि देवि पुकार रही हैं ....शचि देवि आवाज लगा रही हैं । गंगा घाट पर पहुँचे हैं ...वहाँ कोई नही है .....जन शून्य है अभी ...बस गंगा बह रही हैं । विष्णुप्रिया इधर उधर भागती है ....उसके पीछे शचि देवि भी भाग रही हैं .....उस वृक्ष के नीचे शायद बैठे होंगे .....प्रिया वृक्षों को देखती है ...वृक्षों के ऊपर देखती है । गंगा के उस पार तक देखती है .....पर नही हैं निमाई ।
माँ ! वो अपने मौसा चन्द्रशेखर जी के यहाँ गये होंगे ....चलो ना , उनके यहाँ जाते हैं .....चन्द्रशेखर आचार्य .....उनके घर में गयी विष्णुप्रिया अपनी सासु माँ के साथ । शचि देवि की बहन ने द्वार खोला था ....क्या निमाई आया है यहाँ ? नही ....एक मास से वो नही आया ....ओह ! ये सुनते ही विष्णुप्रिया के हृदय में वज्राघात हो गया ...वो अपने को सम्भाल नही पाई ...जैसे तैसे अपनी सासु माँ का हाथ पकड़ कर अपने घर में आई ...और घर में आते ही धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी ।
कान्चना ने आवाज सुन ली थी .....वो भागी घर से ....और जब प्रिया को देखा तो वो भी काँप गयी ....केश बिखरे हैं ...धरती पर वो कोमलांगी पड़ी हुई है ....पुष्पों की माला जो इसके स्वामी ने इसे पहनाई थी वो बिखर गयी है ...अश्रु बहते जा रहे थे ....उससे धरती भींग रही हैं .....
प्रिया ! मेरी सखी ! कान्चना दौड़कर सम्भालती है विष्णुप्रिया को ....पर प्रिया को होश कहाँ है ।
क्यों चले गये मेरे स्वामी ! कहाँ गये ? क्यों गये ? मुझ से क्या अपराध बन गया ...अरे कोई तो मुझे बताओ ...मुझ से क्या भूल हो गयी .....मैं तो अबोध थी ...पर वो तो बोध सम्पन्न थे ...मुझे समझाते ...मुझे कहते विष्णु प्रिया ! तू ये मत कर ...मैं नही करती ....।
हिलकियों से रोते हुए कान्चना सम्भालती है प्रिया को ....पर प्रिया की स्थिति इस समय उन्मादिनी की बनी हुई है ......
अरुणोदय होने वाला है ...आकाश में पक्षियों की चहक शुरू हो गयी है ......
मत उगना सूर्य देव ! मत उगना ...आज का दिन नवद्वीप वासियों के लिए अच्छा नही है ....मेरे लिए तो काल रात्रि ही है ....चाहे तुम उगो या न उगो । हे पक्षी , मत गाओ गीत ....रोओ मेरे साथ ...मेरे स्वामी मुझे त्याग कर चले गये .....हाय ! इस विष्णुप्रिया से अभागी और कौन होगी इस जगत में ....जो अपने स्वामी का प्रेम न पा सकी ....अभागी है तू प्रिया !
ये कहते हुए धरती में मस्तक को पटक रही है .......
क्या मेरे स्वामी आगये ? एकाएक उठ गयी उसी उन्माद की अवस्था में .....और बाहर भागी ।
बाहर आँगन में लोगों की भीड़ है .....निमाई के भक्त जन आये हैं ....और जब उनको ये जानकारी मिलती है कि निमाई ने गृह त्याग दिया ....और फिर श्रीमति प्रिया की ये स्थिति देखते हैं तो उनकी भी हिलकियाँ बंध जाती हैं ।
मेरे स्वामी कहाँ हैं ?
विष्णुप्रिया के केश खुले हैं .....लाल बिन्दी माथे में है ...वो भी बिगड़ गयी है ....मुख सूख रहा है .....साड़ी में धूल लगी है ......वो आती है और खड़े लोगों से पूछती है .....
मेरे स्वामी कहाँ हैं ? कब आयेंगे ? बताओ ना ! कब तक आयेंगे ?
ये दशा प्रिया की देख कठोर से कठोर हृदय भी रो रहा था .......
तभी ....नित्यानंद आये ....ये निताई हैं .....इनको देखते ही शचि देवि ने कहा ....तू तो खोज कर ला ....निताई ! देख तेरा निमाई कहाँ गया ? तू उसे समझा कर ला ना ।
नित्यानंद को देखते ही प्रिया ने कहा ....अरे ! तुम तो मेरे स्वामी के मित्र हो ...तो हम लोगों की प्रार्थना सुन लो ......उनको ले आओ यहाँ । विष्णुप्रिया रो रही है ...सन्यासी के साथ स्त्री नही रह सकती ....किन्तु माँ स्त्री नही होती ...माँ तो माँ है ...स्त्री त्याज्य है सन्यासी के लिए किन्तु माँ नही ....मैं यहाँ से चली जाऊँगी ...गंगा किनारे बैठ जाऊँगी ...या गंगा में कूद जाऊँगी ...पर उनको कहना ...इस बूढ़ी माता को तो न छोड़ें ...ये बेचारी कैसे रहेंगी .....उनको ले आओ ...उनको समझा कर ले आओ ...मेरा नाम लें ...तो कह देना वो घर से निकल जायेगी ....फिर तो आपके संकीर्तन में कोई बाधक नही होगा ना .....आप जाओ , निताई भैया ! मेरी ये प्रार्थना सुन लो ।
श्रीमति प्रिया की ये स्थिति देखकर नित्यानंद भी बालकों के समान हिलकियों से रो पड़े थे ।
ओह ! शचि देवि ने आचार्य चन्द्रशेखर और नित्यानंद को खोजने के लिए भेज दिया ...निमाई को खोजने के लिए ये लोग कुछ और भक्तों को लेकर चले गये थे ।
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍🏼श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( चत्वारिंशत् अध्याय : )
30, 4, 2023
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गतांक से आगे -
तीन दिन हो गये हैं ....शचिदेवि और विष्णुप्रिया की तो बात छोड़ ही दो ...नवद्वीप में किसी ने अन्न का दाना तक नही खाया है । इन दिनों नवद्वीप के लोग शचिदेवि के घर में ही हैं ....शचिदेवि को समझाते हैं ....पर समझाते हुए ये लोग भी रो देते हैं ....शचिदेवि के आस पास नवद्वीप की बूढ़ी बड़ी माताएँ हैं ....वो बारम्बार - “अपने को सम्भालो शचि देवि”....ये कहती रहती हैं । पर शचि देवि के अश्रु रुके नही हैं इन तीन दिनों में भी ।
अब विष्णुप्रिया की दशा का वर्णन क्या किया जाये ....उनके पास लोग जाते हैं समझाने के लिए पर उनकी स्थिति देखकर रोते हुए लौट आते हैं ।
तीन दिन से अन्न की कौन कहे ....इस वियोगिनी ने जल का एक बूँद अपने मुँह में नही रखा है ।
ओह ! धरती पर पड़ी हैं.....मलिन वस्त्र हैं ....केश बिखरे हुये हैं ....प्रिया के रोने की आवाज से मनुष्य की कौन कहे ...पशु पक्षी भी करुण हो उठे हैं । किसी की हिम्मत नही है प्रिया तक जाने की .....हिम्मत तो कान्चना की है जो तीन दिन से अपनी सखी के साथ है ...वो भी साथ दे रही है रोने में ...हाँ ...कई बार इसने जल देने की कोशिश की ....पर ....”नाथ ! प्यासे हैं”। ये कहकर फिर हिलकियाँ बंध गयीं । कान्चना प्रिया की स्थिति देखकर जिद्द भी नही कर सकती ।
हाँ ...एक वृद्ध पण्डित जी ....जो नवद्वीप में सबसे वृद्ध थे ....सब इनका आदर करते थे ...”श्री वास” इनका नाम था ...ये गये भीतर, विष्णुप्रिया को समझाने के उद्देश्य से गये थे ...पर वहाँ विष्णुप्रिया की स्थिति जब देखी ....उनका वो क्रन्दन जब इनके कानों से होकर हृदय को बेधने लगा ....विष्णुप्रिया के रोम रोम से “ हा गौरांग ! हा गौर ! “ यही निकल रहा था ।
समझाने के शब्द मुँह से क्या निकलते पण्डित जी के ...और ऐसे वियोग की सिद्ध साधिका को ये समझाते भी क्या ? स्वयं स्थिति देखकर रोते हुए बाहर आगये । दो तीन महिलाओं ने भी भीतर जाने की चेष्टा की ...पर जाकर देखने के बाद उनसे रुका नही जाता था ...विष्णुप्रिया की स्थिति ऐसी थी जैसे कोई जल बिन मछली तड़फ रही हो । उसे क्या समझाया जाये ...क्या कहा जाये ...कि पानी को भूल जाओ ...अरे पानी इसके प्राण हैं ....ऐसे ही ये है ..निमाई इसके प्राण हैं ..बिना प्राण के अभी तक ये जीवित है आश्चर्य यही है । ये बात श्रीवासपण्डित जी ने कही थी ।
इस तरह से विरह सागर में विष्णुप्रिया डूबी हैं.......
मैं मर जाऊँ ? वो एकाएक हंसते हुये अपनी सखी कान्चना से पूछती है ....फिर नेत्रों से अश्रुधार बह चलते हैं ...सखी ! मैं मर भी नही सकती ...क्यों की ये अधिकार भी मुझे नही मिला है मेरे नाथ से ....ये प्राण मेरे कहाँ ...ये उन्हीं के हैं । कान्चना भगवान के सामने अपना सिर पटकती है कि इतना दुःख इस बेचारी के भाग्य में क्यों लिखा ? ये न जी सकती है न मर ....ओह !
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तीन दिन पूरे हो गये हैं ....आज चौथा दिन है ....अब तो सबको प्रतीक्षा है नित्यानंद आयें या चन्द्रशेखर आचार्य आयें ...और उनके द्वारा “आगमन” की शुभ सूचना मिले ।
तभी ....नित्यानंद तो नही ...किन्तु चन्द्रशेखर आचार्य आगये ....उनको देखते ही शचिदेवि द्वार पर दौड़ीं....सब लोग द्वार पर दौड़े ....और पूछने लगे ....निमाई कहाँ हैं ? पर चन्द्रशेखर आचार्य अश्रु बहाते रहे ...उनके मुख से एक शब्द न निकला । घर के भीतर आये ....शचि देवि में अब कोई शक्ति नही रही ....उनको महिलायें सम्भाल रही हैं ....जल आदि चन्द्रशेखर जी को पिलाया गया ।
प्रिया ! चन्द्रशेखर मौसा जी आये हैं .....वो कुछ तो सन्देश लाये होंगे .....
जैसे ही प्रिया ने सुना उसमें अपूर्व शक्ति का संचार हुआ , वो उठी ...और कक्ष के द्वार पर आकर खड़ी हो गयी ..कुछ नही बोल रही ...बस सुन रही है ...सुनना चाहती है ...कि उसके प्राणबल्लभ आ रहे हैं ।
कहाँ है मेरा निमाई ! हे आचार्य ! कुछ तो कहो ....मेरा निमाई कैसा है ? वो क्यों गया यहाँ से ! कुछ कहो । शचि माँ बारम्बार पूछ रही हैं । सब लोगों की दृष्टि टिकी है अब चन्द्रशेखर जी पर ।
सिसकियाँ भरने लगे थे ....क्या कहूँ शचि देवि ! मुझ से कुछ कहा नही जा रहा .....बस इतना सुन लो ....”निमाई ने सन्यास ले लिया” । ओह ! वज्र की तरह छाती में लगे विष्णुप्रिया के ये शब्द .....वो गिर पड़ी ...कान्चना ने उसे सम्भाला । शचि देवि - हाय निष्ठुर तुझे ये बूढ़ी माँ याद नही आई ....तुझे तेरी नव वधू याद नही आई ....तू भी अपने भाई की तरह निष्ठुर निकला रे , चीख रही हैं शचि देवि ....चिल्ला रही है ।
पर विष्णुप्रिया क्या करे ! उसका तो सर्वस्व लुट गया ........
किस कठोर हृदय के प्राणी ने मेरे पुत्र को सन्यास दिया ? मेरे निमाई के घुंघराले केशों को किस नाई ने काटा ? गैरिक वस्त्र देते हुये लाज नही आई ? शचि देवि आक्रामक हो गयी हैं ....पर विष्णुप्रिया .....अब - हा गौरांग , हा गौर ! हा गौर हरि .....नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं ....हृदय में गौरांग की छवि है ....वो परम वियोगिनी बन उठीं ....यही इनकी साधना है ...अब इनको ऐसे ही रहना है । विरह में ही जीवन बताना है । ओह !
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कहाँ जायें ? हाँ , वृन्दावन चलूँ .....निमाई वृन्दावन के लिए चल देते हैं ....अब कौन रोकने वाला है ......कौन रोकेगा ? सन्यास ले लिया है ....समस्त सांसारिक सम्बन्धों की होली जला दी है ...तभी तो अग्नि के रंग का वस्त्र भी धारण किया है .....अब कोई रोक टोक नही है .....चलो वृन्दावन ....वृन्दावन ! हा कृष्ण ...हा गोविन्द ..हा माधव .....इनका नाम अब निमाई नही है ...”श्रीकृष्ण चैतन्य भारती” । ये उन्मत्त हैं ....ये भाव में डूबे हैं । ये जा रहे हैं वृन्दावन के लिए ....दौड़ रहे हैं ....मार्ग में कोई कदम्ब वृक्ष मिलता है तो उसमें चढ़ जाते हैं और बाँसुरी बजाने का स्वाँग करते हैं ....और इसी स्वाँग में वो घण्टों समाधिस्थ हो जाते हैं । फिर जब उन्हें देह भान होता है तब फिर वृन्दावन की ओर दौड़ पड़ते हैं ........
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मेरी बात मानोगे ?
विष्णुप्रिया आज अपने कक्ष से बाहर आई है ...उसको सम्भालती हुई उसकी सखी साथ में है ।
सब चकित थे ....ये कभी समाज के सामने इस तरह बोली नही थी ...मर्यादा के कारण । पर अब काहे की मर्यादा ...जब बड़े ही मर्यादा को तोड़ने लगें तो छोटों से क्यों अपेक्षा रखी जाये ...ये विष्णुप्रिया ने ही कहा था । उनके नेत्रों से अश्रु अभी भी बह रहे थे ....उसके वस्त्र आँसुओं से भींग गये थे ....पर अब वो बोल रही थी ।
बोलो प्रिया ! बोलो ! शचि देवि ने भर्राये स्वर में कहा ।
विष्णुप्रिया ने कहा ....वो आयेंगे ...मैं कह रही हूँ उन्हें आना ही पड़ेगा ....बस मेरी बात मानों ....उन्हें पुकारो ....पुकारने पर उन्हें आना ही पड़ेगा ....हमारी पुकार उन्हें हमारी ओर खींचेगी ....उनके चरण रुक जायेंगे ....मैं कह रही हूँ .....हे नवद्वीप वासियों ! ये रहस्य उन्हीं ने मुझे एक बार बताया था ...भगवान का नाम पुकारने से भगवान आते हैं ....हमारी हृदय की पुकार उन्हें खींचती है ....पर पुकार हृदय से उठे .......हम जिस तरह रो रहे हैं विलाप कर रहे हैं ...इसका उपयोग हम क्यों न करें ...ये रुदन , ये विलाप बहुत ऊँची वस्तु है ..........
ओह ! ये क्या हो रहा है ....विष्णुप्रिया के मुखमण्डल में दिव्य तेज छा गया ....वृद्ध, बालक, विद्वान मूर्ख सब चकित भाव से विष्णुप्रिया के एक एक शब्द को सुन रहे हैं ....और इनके शब्द सबके हृदय में सीधे जा रहे हैं ।
करुण नेत्रों से सबको देखती है विष्णुप्रिया .....फिर कहती है - एक दिन समय जानकर मुझे मेरे स्वामी ने कहा था - “नामी” को अगर बांधना है तो उसके “नाम” को पकड़ लो.....इसलिये मैं कृष्ण को नही कृष्ण के नाम को पकड़ कर चलता हूँ ...यही शिक्षा मैं सबको दे रहा हूँ ....और इसी शिक्षा का प्रसार मुझे करना है ....इस बात को तुम भी समझ लो ।
विष्णुप्रिया गदगद भाव से कहती है ....मैंने समझ लिया नाथ ! मैंने समझ लिया ।
अब आप देखो ....आपने कृष्ण को नही कृष्ण नाम को पकड़ कर उन्हें अपने वश में किया है ....अब हम भी आपको नही ..आपके नाम को पकड़ेंगे ...और आपको यहाँ आना पड़ेगा ....
फिर बड़े प्रेम से विष्णुप्रिया अपनी सखी कान्चना को देखती है .....सखी ! मेरे स्वामी का नाम लो ....माँ ! अपने पुत्र का नाम लो ...आप सब मेरे साथ बोलो ...गौर हरि ...विष्णुप्रिया चिल्लाती है ....गौर हरि .....बोलो ....सब लोग अश्रु बहाते हुए कहते हैं - गौर हरि ....कान्चना कहती है - गौर हरि ....शचि माँ कहती हैं ....गौर हरि .....गौर हरि ...श्रीवास पण्डित जी मृदंग ले आते हैं ...कुछ भक्त झाँझ ले आते हैं .....गौर हरि , गौर हरि , गौर हरि ....सब रो रहे हैं और पुकार रहे हैं । अद्भुत दृष्य प्रकट हो गया है .......सब “गौर हरि” में खो गये हैं ।
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ये क्या , गौरांग के पद रुक गये ! वो आगे बढ़ नही पाये ....वो पद बढ़ाना चाहते हैं पर बढ़ नही रहे .....गौरांग को समझ नही आरहा कि ये हुआ क्या ! गौरांग की ये स्थिति हो गयी मानों किसी ने सिंह को पाश में बाँध दिया हो । नही चला जा रहा गौरांग से अब आगे । नित्यानंद साथ में हैं ...वो समझा समझा कर हार गये ...पर गौरांग नही माने ।
अब बढ़िये आगे ! नित्यानंद ने गम्भीरता के साथ कहा ।
गौरांग के नेत्रों के आगे नवद्वीप का भावुक दृष्य घूम गया ......सब पुकार रहे हैं ....सब रो रोकर गौरहरि , गौरहरि पुकार रहे हैं । नेत्रों से गौरांग के भी अश्रु बहने लगे ......नित्यानंद ने कहा ...हे गौरांग ! वो आपकी धर्मपत्नी विष्णुप्रिया .....आगे नित्यानंद कुछ कहने जा रहे थे किन्तु गम्भीर बन गए एकाएक गौरांग ....नेत्रों के अश्रु उनके सूख गये ....आगे कुछ भी कहने से नित्यानंद को गौरांग ने मना कर दिया था ।
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍️श्याम प्रिया दास ( श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकचत्वारिंशत् अध्याय : )
1, 5, 2023
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गतांक से आगे -
गौरांग दौड़ रहे हैं ....नित्यानंद उनके पीछे हैं .....हे गौर ! रुक जाओ । हे गौर प्रभु , कहाँ जा रहे हैं आप ! रुक जाओ नाथ ! रुक जाओ । ये क्या हो गया था गौरांग को किसी को पता नही ...वो दौड़ रहे थे ....बस दौड़े जा रहे थे । नित्यानंद ने उन्हें आगे जाकर पकड़ा ...वो गिर गये .....क्या हुआ ? नित्यानंद ने सम्भाला । हे नित्यानंद ! माँ की याद आरही है । वो सब लोग मुझे पुकार रहे हैं .....सब लोग मेरे नाम का संकीर्तन कर रहे हैं ...आज पाँच दिन होने को आये हैं ...अन्न जल परित्याग करके सब मेरे नाम का जाप कर रहे हैं । मेरी माता ! उस बूढ़ी मैया ने जल भी नही पीया है ...........
तो आपने क्या सोचा ? नित्यानंद ने पूछा ।
मैं नवद्वीप की सीमा तक जाऊँगा ......गौरांग बोले । शान्तिपुर में आचार्य अद्वैत के यहाँ रुकूँगा ......जाओ , जाओ और जाकर कह दो कि मुझे देखना हो ...मुझ से मिलना हो तो सब अद्वैत आचार्य के यहाँ आजायें । गौरांग ने स्पष्ट कह दिया था । नित्यानंद मुस्कुराये ....उन्होंने नाचते हुए कहा ....आहा ! भक्त जीत गया और भगवान हार गया । गौरांग गम्भीर ही बने रहे .....वो अब आगे बढ़ रहे हैं ...उनके पद नवद्वीप की ओर बढ़े जा रहे हैं । अब ज़्यादा दूरी भी नही है नवद्वीप । हे गौर ! नवद्वीप वासी कितने प्रसन्न होंगे ....आहा ! प्रभु ! आपकी माता जी ....उनके तो प्राण ही वापस आजाएँगे .....आपने वापस नवद्वीप में जाने का विचार करके अपनी करुणा का ही परिचय दिया है ......और , और वो भोली भाली बेचारी विष्णुप्रिया !
ये नाम सुनते ही गौरांग रुक गए .....गम्भीर दृष्टि से नित्यानंद को उन्होंने देखा .....क्या हुआ ? नित्यानंद भी पूछने लगे ....मैंने कुछ अनुचित तो नही कहा ? सबको लेकर आना नित्यानंद ...सबको निमन्त्रण देना ....किन्तु ......किन्तु क्या ? नित्यानंद ने फिर पूछा ....किन्तु विष्णुप्रिया मेरे सामने न आये .....इतना कहकर गौरांग फिर नवद्वीप की ओर बढ़ गए थे ।
ओह ! गौरांग इतने कठोर कैसे हो सकते हैं ! नित्यानंद को अब लग रहा है ....हे गौर ! मत जाओ नवद्वीप ...उस बेचारी को आपके दर्शन भी नही होंगे ....क्यों ? क्यों ? नित्यानंद चीखे ।
गौरांग फिर रुक गये ...क्या तुम्हें पता नही है नित्यानंद ! कि सन्यासी को स्त्री मुख नही देखना चाहिये ! गौरांग गम्भीर होकर बोल रहे थे ।
आपको तो मैं विधि निषेध से परे मानता था ....किन्तु आप भी सामान्य ही निकले । क्या सन्यास ? आप सन्यास लेकर जगत को ठग रहे हैं ....आप सन्यास के नाम पर विशुद्ध कृष्ण प्रेम फैलाना चाहते हैं ....मैं सब जानता हूँ ....फिर क्यों ये लीला ? उस बेचारी को अपना मुख दिखा दीजिये ....उसे सन्तोष होगा ....उसे कुछ तो सुख मिलेगा । नित्यानंद और भी बातें कह रहे थे ....पर गौरांग ने उन्हें रोक दिया और कहा .....अब तुम जाओ ...और जाकर मेरे पूर्वाश्रम के घर से सबको निमन्त्रण दो ....मेरी माता को विशेष । इतना कहकर गौरांग शान्तिपुर में पहुँच गये ....जो नवद्वीप की सीमा पर ही था ।
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गौर हरि , गौर हरि , गौर हरि बोल ....मुकुंद माधव गोविन्द बोल ....
सब गा रहे हैं .....सब पुकार कर रहे हैं शचि देवि के आँगन में ....विष्णुप्रिया अपने कक्ष में बैठ गयीं हैं ....नयन मुंद कर वो अपने स्वामी का नाम जाप कर रही हैं .....आज पाँच दिन से भी ज़्यादा हो गये हैं जल की एक बूँद भी मुख में नही गयी है ।
माता ! नित्यानंद आगये ......श्रीवास पण्डित जी ने ही द्वार पर देखा था ...नित्यानंद उन्मत्त की भाँति घर में प्रवेश कर गये थे ....संकीर्तन रुक गया ...मृदंग की थाप ठहर गयी .....माता शचि ने नित्यानंद को जब देखा तब उन्हें ऐसा लगा जैसे वर्षों से प्यासे किसी मनुष्य को कुछ जल की बूँदे मिल गयीं हो ।
मेरे निताई ! हृदय से लगा लिया शचिदेवि ने ।
बता ना , मेरा निमाई कहाँ है ! तू उसे भी ले आता ...उसे क्यों छोड़ दिया । वो कहाँ है ...मुझे ले चल ...मुझे अपने लाल को देखना है ...नित्यानंद ने माता को प्रणाम किया ...फिर सब भक्तों को प्रणाम किया और कहा .....निमाई प्रभु ! करुणा करके आप लोगों के पास आ गये हैं ....ये सुनते ही सब नाचने लगे ...जय जयकार करने लगे ...आनन्द के अश्रु सबके नेत्रों से बहने लगे ।
नित्यानंद ने फिर कहा ....शान्ति पुर में अद्वैत आचार्य के यहाँ गौरांग रुके हुए हैं ....और सब लोगों को वहाँ प्रभु ने बुलवाया है ....ये सुनकर शचि देवि के आनन्द का पारावार नही था ...उनकी शारीरिक अस्वस्थता भी समाप्त हो गयी थी ...पाँच दिन से कुछ नही खाया ...किन्तु इस सुखद सूचना ने उनको स्वस्थ बना दिया ।
माता ! अब तो अपने हाथ से भात बनाकर कृष्ण को भोग लगाओ हम सब को वो प्रसाद खिलाओ ......बहुत भूख लगी है माँ ! नित्यानंद के सहज वचनों से शचि देवि के मुखमण्डल पर किंचित मुस्कुराहट आई .....मैं विष्णुप्रिया को कहती हूँ .....वो कितनी प्रसन्न होगी । शचि देवि भीतर प्रिया के पास जाने लगीं ....तो हाथ पकड़ लिया नित्यानंद ने .....उनको रहने दो ....उनको ......क्यों ? शचि देवि ने नित्यानंद से पूछा । माता ! आप स्वयं विचार करो ...क्या प्रिया जी को ये अच्छा लगेगा ....कि उनके प्राण सर्वस्व सन्यासी भेष में होंगे ?
फिर नेत्र से अश्रु बह चले शचि देवि के ....हाँ , मैं वही सोच रही थी कि निमाई को ये बच्ची कैसे सन्यासी भेष में देख पायेगी ! नित्यानंद बोले ...इसलिये आप तुरन्त दाल भात बना दो ...प्रसाद सब लोग पायेंगे ...और माता! हम लोग चल देंगे गौरांग प्रभु के पास ।
ठीक है ....शचि देवि ने दाल भात बैठा दिया है ....और वो बन भी गया ...कृष्ण को भोग लगाकर सबने प्रसाद ग्रहण किया .....अब चलना है गौरांग प्रभु के पास । पालकी भेज दी है माता के लिए अद्वैत आचार्य के यहाँ से .....और लोग पैदल ही चल दिये हैं .....पालकी आगयी है ...माता आप बैठिये .....किन्तु माता को भीतर नाम जाप में बैठी वो विष्णुप्रिया याद आरही है ।
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कान्चना! बाहर नाम संकीर्तन रुक गया है ...देख तो क्या हुआ ? विष्णुप्रिया भीतर “गौर हरि” के नाम का जाप कर रही थीं ....बाहर से जब नाम उनके कान में आना बन्द हुआ तो उन्होंने अपनी सखी से कहा .......
कान्चना बाहर आई ....किन्तु बाहर तो सब लोग जा रहे हैं ...शचि देवि पालकी में बैठने के लिए तैयार हैं ....कान्चना को शचि देवि ने देखा तो अपने पास बुलाया ....और कहा ...निमाई आया है मैं उसे देखकर आ रही हूँ ....तू विष्णुप्रिया का ध्यान रखना । कान्चना ने जब ये सुना तो वो भागी भीतर विष्णुप्रिया के पास ...और जाकर बोली ...सखी ! तेरे नाम संकीर्तन के प्रभाव से निमाई आगये हैं ...उनसे मिलने के लिए सब लोग जा रहे हैं ...माता पालकी में बैठने के लिए तैयार ही हैं ..
ये जैसे ही सुना विष्णुप्रिया ने वो भागी बाहर .....हजारों लोग खड़े हैं बाहर ...सब चर्चा कर रहे हैं ...बड़े बड़े लोग हैं ...नित्यानंद बारम्बार आग्रह कर रहे हैं ....”माता ,शीघ्र पालकी में बैठो “।
तभी मर्यादा को ताक में रखकर विष्णुप्रिया पागलों की तरह दौड़ पड़ी .....और अपनी सासु माँ के चरण पकड़ लिए .....माँ ! मैं भी जाऊँगी ...माँ ! मुझे मत छोड़ो ...मुझे भी एक बार उनके मुख चन्द्र को देखने दो ....मुझे ले चलो , मैं उनको एक बार निहारना चाहती हूँ । विष्णुप्रिया हिलकियों से रो रही थी .....लोग देख रहे हैं ....सब लोग विष्णु प्रिया की ये दशा देखकर रोने लगे थे ....शचि देवि ने नित्यानंद की ओर देखा ....नित्यानंद ने संकेत किया ...नही । बेटी ! तू घर में रह ...मैं जाकर आती हूँ .....इतना ही बोल सकी शचि देवि ।
माँ ! वही मेरे सब कुछ हैं .....उनको एक बार तो निहारने दो ...एक बार माँ ! मुझे उन्हें देखना है ....मैं कुछ नही कहूँगी ...कुछ नही ....बस एक बार माँ ! तेरे पाँव पड़ती हूँ ....मुझे छोड़कर मत जा ...मत जा !
शचि देवि से रहा नही गया ...विष्णुप्रिया का हाथ पकड़ा और कहा ...चल पालकी में बैठ ।
“नही”......नित्यानंद बोल उठे । विष्णुप्रिया पालकी में बैठने के लिए तैयार थी ..रुक गयी ।
हजारो लोग देख रहे हैं ....डरी सी , सहमी सी ..विष्णुप्रिया नित्यानंद की ओर देखती है ।
आप नही जा सकतीं .....नित्यानंद ने दृष्टि नीचे करते हुये कहा ।
क्यों ? विष्णुप्रिया चीखी ।
“गौरांग ने कहा है ....सबको लाना पर विष्णुप्रिया नही आनी चाहिये” ...नित्यानंद ने कहा ।
ये सुनते ही विष्णुप्रिया मूर्छित होकर गिर गयी ।
इतने कठोर क्यों ? और ये कठोरता केवल इस बेचारी विष्णुप्रिया के लिए ही ? क्यों ?
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
श्रीजी श्याम प्रिया दास ( fbश्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्विचत्वारिंशत् अध्याय : )
2, 5, 2023
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गतांक से आगे -
हे महामहिम !
क्या कहूँ आपको ? क्या सम्बोधन करूँ ? स्वामी ? नही , ये अधिकार मेरा छीन लिया है ।
मैं आपकी पत्नी आप मेरे स्वामी ...ओह ! अच्छा होता ना , मैं आपकी पत्नी ही नही होती ...हाँ , यही अच्छा होता कि विष्णुप्रिया आपकी पत्नी नही होती .....तो ये विष्णुप्रिया कम से कम अन्य नवद्वीप की आमनारियों की तरह आपके दर्शन तो कर सकती थी । सब गये हैं आपके पास ....पूरा नवद्वीप ही गया है किन्तु एक विष्णुप्रिया नही गयी ....उससे ये अधिकार छीन लिया गया ....”प्रिया ! वैराग्य का अपना नशा होता है”.....आपने ही उस दिन मुझ से कहा था । तो मैं क्या समझूँ कि आप पर वही नशा हावी है ......क्षमा कीजिएगा ....। मुझे आपसे कोई शिकायत नही है ...दासी की क्या शिकायत ? दासी शिकायत कर भी नही सकती । किन्तु हाँ , दासी के मन में ये व्यथा तो रहेगी ही कि - उसे सेवा से वंचित किया गया । छोड़िये इन बातों को ....हाँ , मेरे पिता जी आए थे मुझे अपने घर ले जाने के लिये लेकिन मैंने मना कर दिया । मेरे पति जब शास्त्र मर्यादा का इतना पालन करते हैं तो मैं कैसे शास्त्र के विधि निषेध को त्याग दूँ । जब मैं पिता के घर से निकली थी तभी वो घर मेरे लिए पराया हो गया था ....मैं अब यहीं हूँ ....आपके यहाँ ..आपकी माता की सेवा में । हाँ , सब कुछ किया आपने किन्तु इस दासी को ये नही बताया कि - वो अन्न खाये या नही ? मुझे खाना नही है ...किन्तु आपकी माता खाने के लिये जिद्द करती हैं ...उस समय मैं क्या करूँ ? मुझे आज्ञा दीजिये । मेरे मन में आशा है कि आप अवश्य मुझे दर्शन देंगे । मैं पूछूँगी नही ...कि देंगे या नही ? देंगे तो कब ? दासी के ये अधिकार क्षेत्र में नही आता ....स्वामी जब चाहे दर्शन दे ...या ना भी दे । सन्यासी के नियम हैं ....जैसे स्त्री मुख नही देखना .....आप उसका अच्छे से पालन कर रहे हैं ....किन्तु सन्यासी की पत्नी के भी नियम तो होंगे ही ना ! मुझ अज्ञानी को वो भी बता दीजिए । आज ही मैंने अपने सारे गहने उतार कर फेंक दिए ....कंगन उतारने जा रही थी तो मन में आया इसके उतारने से कहीं आपका अनिष्ट तो नही होगा ? मैंने नही उतारा है ....उतारना है या नही बता देना । आपके वस्त्र हैं ...पीताम्बरी रेशमी कुर्ते धोती उनका क्या करूँ ? क्या पता उसे भी मैं छू सकती हूँ या नही ....बात देना ।
आपकी बहुत वस्तुयें हैं ...जैसे कण्ठहार .....कठूले ....अंगूठी ...इनका क्या करूँ ?
हा हा हा हा........आप भी कहेंगे ये पहले भी परेशान करती थी अभी भी कर रही है ....तो मैं किससे पूछूँ ये सब बातें ? कौन बतायेगा मुझे ? मैं तो स्वयं अज्ञानी हूँ ।
सुनिये , एक बात चाहती हूँ ....मैं समझ गयी सन्यासी स्त्री का त्याग करता है ...और स्त्री यानी सिर्फ पत्नी ही होती है ...माँ स्त्री नही है ....तो आप यहीं आकर रहिये ना ! मैं चली जाऊँगी गंगा के किनारे ....वहीं रहूँगी ....या मैं इस जीवन का ही परित्याग कर दूँगी ....आपके पास कभी नही आऊँगी ...आपको कभी दुखी नही करूँगी .....आप आइये ना अपनी माता के साथ रहिये ना ।
मैंने आपको कभी दुःख दिया है क्या ? कभी मैंने आपको कुछ कहा है क्या ? आपके संकीर्तन में मैंने कभी बाधा पहुँचाई ? फिर क्यों ? क्यों ? क्यों त्याग कर चल दिये अपने इस घर को ? क्यों सन्यास लेना आपको अपरिहार्य हो गया ? क्यों क्यों क्यों ? ? ?
आपकी दासी - विष्णुप्रिया
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कान्चना! क्या सब चले गये स्वामी के दर्शन करने ?
शचि देवि भी चली गयीं अपने पुत्र निमाई को देखने ....मूर्छित होकर पड़ी है विष्णुप्रिया , कुछ ही देर में जब मूर्च्छा खुली तब उसने अपनी सखी से पूछा । रोते हुए कान्चना ने कहा ....हाँ , सखी ! हाँ सब चले गये ।
उठ गयी प्रिया ......नयनों के काजल से एक पत्र लिख दिया कुछ ही देर में .....और अपनी सखी को देती हुयी बोली - कान्चना! तू जा ...और जाकर मेरे स्वामी को ये पत्र दे आ ।
कान्चना अकेले कैसे छोड़ दे विष्णुप्रिया को .....किन्तु प्रिया की जिद्द .....कान्चना को वो पत्र लेकर जाना पड़ा ।
ओह ! भारी भीड़ है आचार्य अद्वैत के मकान में ...पूरा नवद्वीप ही उमड़ पड़ा था ....शचि माता को आदर देकर गौरांग ने आसन में बिठाया था ....कान्चना गयी ....पहले तो उसे प्रवेश ही नही मिला ....क्यों की भीड़ इतनी थी ...हाँ ...चन्द्रशेखर आचार्य की पत्नी ने कान्चना को देख लिया तो उसे आगे बुला लिया था ।
भिक्षा लेंगे अब गौरांग ....शचि माता को भी परोसा गया ....शचि माता ने नही ग्रहण किया ....गौरांग बहुत जिद्द करते रहे ...पर शचि देवि ने इतना ही कहा ...निमाई ! तू जिद्दी है तो मैं तेरी माँ हूँ ...निमाई ने प्रसाद की बात कही ...तो शचिदेवि ने प्रसाद भाव से कण ही लेकर माथे से लगा अपने मुख में डाल लिया था । गौरांग ने भी ऐसा ही किया । हस्तप्रक्षालन के लिए बाहर गये गौरांग ....जल पात्र लेकर स्वयं अद्वैत आचार्य उपस्थित हैं ....उन्होंने जल डाला ....यही अवसर ठीक है ....यही ....कान्चना दौड़ी गौरांग के पास ....उनके पास किसी को जाने नही दिया जा रहा ....लोग जाना चाहते हैं ...किन्तु भीड़ हो जाएगी ...इसलिए लोगों को रोका जा रहा है ।
“ये पत्र” .....कान्चना वहाँ तक पहुँच गयी ....गौरांग ने दृष्टि उठाई ....कान्चना को देखा ...नेत्र चमक गये ....कान्चना ! नाम भी पुकारा गौरांग ने । कान्चना ने फिर पत्र आगे किया ....नेत्रों से ही संकेत में प्रश्न किये ....ये क्या है ? ये पत्र है ....धीरे से बोली । किसने लिखा है ....ये स्पष्ट पूछा । विष्णुप्रिया ने ....कान्चना ने भी स्पष्ट उत्तर दिया । गौरांग के नेत्र सजल हो गये ....तुरन्त पत्र को खोला ....और एक ही साँस में पूरा पत्र पढ़ गये । पत्र पढ़ते हुए इनकी आँखें डबडबा गयीं थीं .....ये कान्चना ने देखा था ।
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क्या कहा मेरे स्वामी ने ?
कान्चना गौरांग को पत्र पढ़ाकर वापस अपनी सखी के पास पहुँच गयी थी ।
प्रिया ने अपूर्व उत्सुकतावश पूछा था - क्या कहा मेरे स्वामी ने ?
उनके नेत्र बह चले थे पत्र पढ़कर .....कान्चना ने कहा ।
विष्णुप्रिया शून्य में तांकती रही .....फिर वापस वही क्रन्दन ।
मैं ही दुष्टा हूँ सखी ! मैं ही ....इसलिए मेरे स्वामी ने सन्यास लिया है ...मुझे छोड़ा अपने घर को छोड़ा .....क्या आवश्यकता थी मुझे उन्हें शिकायत करके पत्र लिखने की ...हाय ! मैं मूर्खा ! उन्हें और दुःख दिया मैंने .....ये मैंने क्या किया ? मैंने उन्हें आँसु दिये ? हाँ , मैंने उन्हें आँसु ही तो दिये हैं ....सिर्फ आँसु .....और अब सन्यास लेने के बाद भी मैं उन्हें दुखी करना नही छोड़ रही ।
विष्णुप्रिया धरती पर गिर गयी ......और उसका वो रुदन , क्रन्दन ....उफ़ !
सखी प्रिया ! इस तरह तुम व्यथित मत हो .....मत करो शोक ....मत रोओ ....तुम सच में अपने पति से प्रेम करती हो तो ......हाँ ! बता कान्चना! बता ....मैं क्या करूँ ? प्रिया ! तुम प्रसन्न रहो ....तुम हंसो .....इससे वो प्रसन्न होंगे !
कान्चना की बात सुनकर विष्णुप्रिया एकाएक हंसने लगी .....मैं प्रसन्न हूँ ....मेरे स्वामी मेरे प्रसन्न रहने से प्रसन्न होंगे ? तो मैं प्रसन्न हूँ .....देखो ! सब देखो ...विष्णुप्रिया प्रसन्न है ...प्रसन्न है ।
ये कहते हुए विष्णुप्रिया हंस रही थी .....पर नेत्रों से अश्रु रुक नही रहे ....वो बाहरी हंसी ....ओह ! पत्थर भी पिघल रहे थे....पंछी भी रो रहे थे ....विष्णुप्रिया का ये उन्माद देखकर ।
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रिचत्वारिंशत् अध्याय : )
3, 5, 2023
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गतांक से आगे -
कान्चना! देख ....मेरी सासु माँ आईं हैं .........
विष्णुप्रिया के ऐसा कहने पर कान्चना द्वार पर गयी किन्तु शचि देवि नही आईं थीं ।
आज तीन दिन दो गये माँ अभी तक नही आईं ......विष्णुप्रिया उठ कर बैठ गयी है ....किन्तु सासु माँ के आने की इतनी प्रतीक्षा क्यों ? कान्चना जानना चाहती है ....कि प्रिया के मन में इस समय क्या चल रहा है ।
देख कान्चना! मेरी सासु माँ मुझे बहुत स्नेह करती हैं ....उन्हें अपने पुत्र से भी ज़्यादा मुझ से स्नेह है .....इसलिये वो एक बार भी हो स्वामी को यहाँ तक ले आयेंगी । मुझे एक बार दिखाने के लिये ...मेरी प्रसन्नता के लिये । हाँ , मेरे स्वामी नही मांगेंगे ....वो जिद्दी हैं ....पर मेरी सासु माँ उनके कान भी पकड़ कर ले आयेगी ......ये कहते हुए विष्णुप्रिया के मुखमण्डल में कुछ आशा की किरणें दिखाई दी थीं । अरे धर्म , शास्त्र , विधि , निषेध ....माता की आज्ञा के आगे कुछ मायने नही रखते ....माता कह देगी ...चल एक बार मेरे द्वार पर चलकर मेरी बहु को अपना मुख दिखा दे ...फिर जहां जाना हो जाना । कान्चना मौन हो कर सब सुन रही है ....उसको प्रिया की बातें सुनकर रोना आरहा है ...खूब रोना आरहा है ....पर उसने अपने आपको रोक लिया है ....उस रुदन को रोके हुये है कान्चना .....क्यों की इसके नेत्र से एक बुंद भी गिरा तो जल प्रलय आने वाला है अब ।
पता है ...एक दिन की बात ....मेरे स्वामी बिना भोजन किए चले गये दो दिन तक श्रीवास पण्डित जी के यहाँ ही रहे थे .....मैंने जल भी नही ग्रहण किया था , उनके बिना खाये मैं कहाँ कुछ खाती ।
मेरी सासु माँ परेशान रही ....बहुत परेशान ..उसने पता करवाया कि मेरे स्वामी कहाँ हैं ...श्रीवास पण्डित जी के यहाँ ...माँ जाकर मेरे स्वामी को पकड़ ले आई और बहुत डाँटा ....मुझे दिखाकर कहा ....इसने दो दिन से जल भी नही पीया है ....दुःख देता है मेरी बहु को ! विष्णुप्रिया कहती है - स्वामी को बहुत डाँट पड़ी थी । आज भी देखना सखी ! मेरी सासु माँ जैसे भी हो लेकर आयेंगी मेरे स्वामी को ....तभी तो तीन दिन लग गये .....नही तो पहले दिन ही आजातीं ना ।
नही ,ऐसा कुछ नही होने वाला प्रिया ! अब रहा नही गया कान्चना से वो बोल उठी थी ।
तुम को वहाँ की बात तो मैंने बताई नही ...वहाँ क्या क्या हो गया ....और तुम अभी भी आस लगाये बैठी हो ! सत्य का सामना करो विष्णुप्रिया ! सत्य ये है कि इस समय कोई तुम्हारे साथ नही है ...न तुम्हारा स्वामी जो सन्यास ले चुका न तुम्हारी सासु माँ ! रो गयी हिलकियों से कान्चना.....बैठ कर रोई ....क्रन्दन था उसका ।
क्या हुआ कान्चना! तू ऐसे क्यों रो रही है .....तू कोई बात छुपा रही है मुझ से ? बता तू तो वहाँ गयी थी ....वहाँ की बातें भी सुनीं होंगी ना ! क्या बात है ।
मेरी सखी प्रिया ! गले लगकर कान्चना रो रही है ।
कुछ बता , क्या वहाँ कोई बात हुई है ? मुझ से कुछ मत छुपा ...तुझे मेरी सौगन्ध है ।
कान्चना का हाथ अपने सिर में रख लिया था विष्णुप्रिया ने ।
नही , नही बता पाऊँगी वो बात । तुझे मेरी सौगन्ध है ....तुझे बताना होगा । बता सखी ! बता ....अब क्या डर ...सब कुछ तो मेरा छिन चुका है ...मेरे स्वामी ने ही मुझे त्याग दिया है ...अब क्या होगा ? तू बता । विष्णुप्रिया की जिद्द के कारण कान्चना को बताना पड़ा ।
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धर्म , धर्म , धर्म ....
कभी सोचती हूँ सखी ! क्या धर्म को नारी की आवश्यकता नही है ? नारी के बिना धर्म अपने आप को बढ़ा लेगा ? कभी कभी तो मेरे मन में आता है ...अगर धर्म में नारी बाधक है तो विधि ने नारी सृजी ही क्यों ? क्या दुःख देने के लिये ...सिर्फ उसके भाग्य में दुःख ही लिखकर धकेल दिया इस जगत में ...क्यों ? क्यों ? हम नारियों की गलती क्या थी ? कान्चना चीखती है ....फिर कुछ देर मौन रहने के बाद बोलना शुरू करती है -
बहुत भीड़ थी प्रिया! वहाँ ....माता शचि बैठी हुई थीं ....सबकी दृष्टि गौरांग देव पर थी कि वो अब क्या कहेंगे ....मैं भी सुनने के लिए रुक गयी ।
प्रभु ! सब दुखी हैं .....पूरा नवद्वीप रुदन कर रहा है ....आप नवद्वीप में ही रहिये यहीं रहकर सन्यास धर्म का पालन कीजिये .....हम सब की यही प्रार्थना है ...आचार्य अद्वैत ने कहा था ।
तब गौरांग देव ने अपनी माता को देखा और देखकर उनके चरणों में बैठ गये ....मेरी माता जो कहेगी मैं वही मानूँगा ! गौरांग देव ने स्पष्ट कहा था । फिर ? फिर क्या कहा माता ने ?
विष्णुप्रिया पूछ रही है । गौरांग तो सबके सामने बोले थे ...मेरी माता अगर मुझे आज्ञा दे कि तू छोड़ सन्यास और चल मेरे साथ घर तो मैं ये भी करने के लिए तैयार हूँ । कान्चना! फिर सासु माँ ने क्या कहा ? प्रिया को बात जल्दी सुननी है । क्या कहेंगीं माँ भी .....धर्म , शास्त्र ये सब बीच में आगये .....कान्चना ने ये कहते हुए रोष व्यक्त किया था । हाँ , सारे धर्म पुरुषों के लिए ही तो हैं ...नारी के लिए तो बस एक धर्म - पति , पति , सिर्फ पति ।
डर गयी वो बेचारी माता ....अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका से ....ये धर्म भ्रष्ट हो गया और इनका अमंगल हो गया तो ? सन्यास धर्म ले चुका है पुत्र ....उससे हटना या उसे हटाना दोनों धर्म विरुद्ध है .....ओह ! शचि माता कह देतीं ‘चल’...........
हाँ , मैं नही कह पाई काँचना ! मैं नही कह पाई .....द्वार पर शचि देवि खड़ी हैं और उन्होंने सब सुन लिया है ...प्रिया दौड़कर हृदय से चिपक गयी अपनी सासु माँ के , और रोने लगी । शचि देवि का क्रन्दन ......कान्चना का हृदय अपनी सखी प्रिया को देखकर फटा जा रहा है ।
कान्चना! तू बता मैं क्या कहती .....निमाई को कहती कि तू चल और रह घर में ....नवद्वीप के लोग क्या कहते उसे ...क्या उसकी निन्दा नही होती ? इस लोक में निन्दा और परलोक में नर्क !
अपने धर्म का त्याग करने से हानि ही होती है ....धर्म शास्त्र यही कहते हैं ।
शचि देवि के मुख से ये सुनकर अट्टहास करके हंसी कान्चना ....धर्म , धर्म , और धर्म शास्त्र ! इस बेचारी विष्णुप्रिया के लिए उनका कोई धर्म नही है ? वाह ! इस बेचारी ने बारह दिनों से जल का एक बुंद अपने मुख में नही डाला है ....इसके लिए धर्म शास्त्र कुछ नही कहते ...क्यों ? क्यों दिन रात रो रही है ये बेचारी ? किन्तु इसको त्यागने का विधान है धर्म में ....वाह ! तालियाँ बजाती है कान्चना ....अट्टहास करती है ....वाह रे सन्यास धर्म ! वाह रे वैराग्य ! सब धर्म के विषय में सोचो पर इसके विषय में कोई नही सोच रहा ....ये बेचारी मर जाये तो ? फिर हंसती है कान्चना ....स्वर्ग मिलेगा इसे । कान्चना आज मुखर है ....ये इसके हृदय की पीड़ा है ।
विष्णुप्रिया आगे आई ....अपनी सखी कान्चना का हाथ पकड़ा और बड़े स्नेह से बोली .....कान्चना! ये सारी बातें मेरे स्वामी को प्रिय नही हैं ....तू मत बोल । अभागी मैं ही हूँ तो इसमें धर्म और शास्त्रों का दोष ? किसी का कोई दोष नही है ...दोष है तो मेरा ...इस विष्णुप्रिया का ....मेरी सखी ! मेरे साथ मेरी सासु माँ हैं ...तेरे जैसी सखी है ...और मेरे स्वामी हैं जो मेरे हृदय में विराजे हैं ....उनमें इतनी हिम्मत नही हैं कि मेरे हृदय से निकल कर वो सन्यास ले सकें ।
इतना कहते हुए फिर विष्णुप्रिया फफक फफक रो पड़ी थी ।
हाय !
शेष कल -
हरि शरणम् गाछामि
श्रीजी श्याम प्रिया दास (Fbश्रीजी मंजरी दास)