[11/04, 1:55 pm] वृज रसिक लाड़ली दास: आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकविंशति अध्याय: )
11, 4, 2023
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गतांक से आगे -
रोने की सिसकी ने शचि देवि की नींद खोल दी ....नींद इन्हें कहाँ ! जिनका इतना योग्य बुद्धिमान पुत्र और उसकी ऐसी स्थिति हो गयी थी उस माँ को नींद कहाँ ? जैसे तैसे तो झपकी आई थी पर वो भी ...किसी की सिसकी ने तोड़ दी । किसी की क्यों ....अपने निमाई की ही सिसकी थी ....हे भगवान ! गया में ऐसा क्या हो गया ....मेरे बेटे को किसकी नज़र लग गयी ...शचि देवि उठीं और गयीं निमाई के कक्ष में । निमाई रो रहे हैं ...वो अपना सिर पटक रहे हैं ....हे हरि , ये क्या हो गया मेरे निमाई को ...उन्होंने दौड़कर निमाई को पकड़ा ...और अपनी गोद में लेकर उसे सुला दिया । माँ ! माँ ! , निमाई शचिदेवि को देखकर अब बोलने लगे थे ।
पुत्र ! क्या हुआ ? तू तो ऐसा नही था ....बता निमाई क्या हुआ ? कपूर और तैल मिलाकर निमाई के सिर में डाल दिया था माता ने और मल रहीं थीं ....तब पूछ लिया ।
माँ ! मुझे प्रेम हो गया है ।
क्या ? शचि देवि ने जैसे ही ये सुना उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी ....तू क्या कह रहा है निमाई तुझे पता भी है ! बाहर विष्णुप्रिया खड़ी सुन रही थीं ....वो धड़ाम से गिरीं ।
तेरे ऊपर किसी ने जादू टोना कर दिया है पुत्र , नही तो देख तेरी क्या दशा हो गयी है ....पीताभ मुखमण्डल हो गया है .....बता क्या हुआ ? गया मैं किसी ने कोई टोना तो नही किया ना ?
निमाई हंसे .....बोले ....मेरे प्रीतम ने टोना किया है । हंसी और रुदन एक साथ ....कैसी स्थिति होगी विचार करो । तू कैसी बहकी बातें कर रहा है ....ऐसे मत बोल ....क्या प्रीतम ? तेरी पत्नी है ...तेरी माँ है ....तेरा अपना अध्यापन का कार्य है ...इन्हीं में ध्यान दे ।
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माँ ! प्रेम कोई तैयारी नही है ...प्रेम घटना है ...जो घट जाती है ....मेरे साथ यही घट गयी । कैसे ? कहाँ ? वो कौन है ? शचि देवि के इन प्रश्नों के उत्तर में निमाई अपनी “गया यात्रा” का वर्णन करके बताते हैं ।
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गया तीर्थ पहुँचने से पूर्व ही मुझे ज्वर हो गया ....माँ ! मैं दो दिन तक ज्वर में ही पड़ा रहा ..मेरे साथ के मित्रों ने बहुत प्रयास किया कि मैं स्वस्थ हो जाऊँ ...पर नही ...मुझे औषधि देने की कोशिश की ....माँ ! मुझे औषधि लेना प्रिय नही है ....मैंने नही ली ...किन्तु मेरे मित्र बहुत दुखी थे तो मैंने उन लोगों को कहा ....मुझे किसी वैष्णव के चरणोदक का पान करा दो ...मैं ठीक हो जाऊँगा ।
फिर क्या हुआ ? निमाई ! तुझे तो वैष्णव लोग प्रिय नही थे ?
निमाई इसका कोई उत्तर नही देते ....फिर कहते हैं ....मुझे किसी वैष्णव ब्राह्मण का चरणोदक लाकर दिया गया ...आश्चर्य ! माँ मेरा ज्वर तुरन्त उतर गया । फिर तो मैं स्नान आदि से शुद्ध पवित्र होकर पादपद्म मन्दिर गया ...जहां भगवान श्रीनारायण के चरण विराजमान थे । माँ ! वहाँ भीड़ बहुत थी ....हजारों यात्री थे ....सब जा रहे थे मन्दिर की ओर ....वहाँ के पुजारी लोग सबको कह रहे थे ....ये चरण हैं भगवान के ....इन चरणों को छुओ ....इन चरणों में अपना मस्तक रखो ...ये चरण हैं जिनसे साक्षात् भगवती गंगा का प्राकट्य हुआ है ...इन चरणों की सेवा में माता लक्ष्मी नित्य रहती हैं ...इन्हीं चरणों का ध्यान करके बड़े बड़े योगी तर जाते हैं ....ये ऐसे चरण हैं ...आइये , इन चरणों को प्रणाम कीजिये और भेंट दक्षिणा चढ़ाइए । निमाई अपनी माता को बता रहे हैं ....माँ ! तभी मुझे पता नही क्या हुआ ! मेरे सामने साक्षात प्रभु के चरण प्रकट हो गये । वो चरण बड़े दिव्य थे ....क्या बताऊँ माँ ! चक्र शंख अंकित चरण ....पुजारी-पण्डे मुझे बोलते रहे ...सिर झुकाओ ...प्रणाम करो ...पर माँ ! मेरे देह में रोमांच होने लगा ..मैं काँपने लगा ....मेरे नेत्रों से अश्रु बहने लगे ....ओह ! यही हैं वे चरण जो पतितपावन कहे जाते हैं ....इन्हीं चरणों को पाने के लिए योगी-ज्ञानी आदि तरसते रहते हैं ...और निमाई , वो तेरे सामने हैं ...पकड़ ले इन्हें ...लगा ले अपने हृदय से ...माँ , पता नही मुझे क्या हुआ ....मैं उसी समय गिर गया ....मेरे शरीर से स्वेद बहने लगे ।
पुत्र ! तू भावुक है ...मैं जानती हूँ ....शचिदेवि ने कहा ।
माँ ! मेरे मित्रों ने मुझे भीड़ से बाहर निकाल कर एक खुली जगह में रख दिया था ....मुझे जल पिलाया ....मेरे मुँह पर जल का छींटा दिया । तभी मुझे लगा कि - कोई बुला रहा है ....निमाई पण्डित ! ओ पण्डित ! उन बुलाने वाले की वाणी अमृतमई थी ....मुझे उन्होंने फिर मेरे नाम से पुकारा ।
मैं उठा ...जब मैंने देखा तो चौंक गया ...वो दूर खड़े थे और मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे ।
श्री ईश्वर पुरी जी ? वो सन्यासी महात्मा ! जो मेरे नवद्वीप में आये थे ।
मैं उन्हें देखते ही दौड़ा ...और उनके चरणों में गिरने ही वाला था कि - सम्भाल लिया ।
तुम्हारा स्थान मेरे हृदय में है निमाई । आहा ! शीतल हो गयी थी छाती । उन्होंने मुझे अपने हृदय से लगा लिया था । श्रीकृष्णलीलामृत ....तुम्हारे स्मरण में है निमाई ? कैसे मुझे स्मरण नही होगा ....आप मुझे श्रीकृष्ण लीला सुनाते थे ....ओह ! अब बताओ ! तुम क्या चाहते हो ? सन्यासी महात्मा ने कहा । बस श्रीकृष्ण से मिला दीजिये । उनके दर्शन हो जायें बस ....मैंने उन सन्यासी महात्मा से प्रार्थना की । मेरी ये बात सुनकर वो बिना कुछ बोले ...मुस्कुराकर चले गये । मैं उन्हें पुकारता रहा माँ ! पर उन्होंने एक बार भी पीछे मुड़कर नही देखा । इतना कहकर निमाई हिलकियों से रोने लगे .....माँ ! माँ !
बाहर किसी के सिसकने की आवाज शचि देवि ने सुनी तो वो बाहर भागीं । विष्णुप्रिया गिर पड़ी थी । उससे उठा भी नही जा रहा था ..उसके नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे ....
शेष कल -
हरि शरणम्
[12/04, 8:31 am] वृज रसिक लाड़ली दास: आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्वाविंशति अध्याय:)
12, 4, 2023
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गतांक से आगे -
कृष्ण बोलो , हे प्रिया ! कृष्ण कहो ,
कृष्ण ही हैं सार , कृष्ण ही हैं सर्वस्व , जीवन धन वही तो हैं ।
हे प्रिया ! कृष्ण के सिवा सब मिथ्या है सब झूठ ।
निमाई भी माँ के साथ बाहर आगये थे ....विष्णुप्रिया बाहर रो रही थी ....उसने सब सुन लिया था गया तीर्थ में उनके प्राणेश्वर के साथ क्या क्या घटना घटी थी ।
प्रिया की ओर देखकर गया से आने के बाद निमाई पहली बार बोले थे ...
कृष्ण जीवन , कृष्ण मरण , कृष्ण ही हैं प्राणधन ....इसके सिवा और क्या ?
शचि देवि ने देखा - विष्णुप्रिया कातर दृष्टि से अपने पति को देख रही थी .....
शचि निमाई को सम्भाल कर भीतर ले गयी ...प्रिया भी भीतर ही चली आई थी ।
माँ ! मेरा श्राद्ध कर्म पूरा हो गया था ...हम लोग वापस अपने निवास में आगये थे ....मैंने ही कहा अपने मित्रों से ....आप लोग अब कहीं घूमना चाहो तो घूम लो ....मैं भोजन बना दूँगा । वो मान नही रहे थे पर मैंने ही उन्हें भ्रमण के लिए भेज दिया ...और स्वयं भात और दाल बनाने लग गया ।
अपनी माँ शचि को निमाई गया तीर्थ का शेष वृत्तान्त बताने लगे थे ।
तभी - पण्डित निमाई !
मधुर आवाज मुझे फिर सुनाई दी । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वही सन्यासी थे ..श्रीईश्वर पुरी जी ।
उनको देखते ही फिर मुझे रोमांच होने लगा था ....मैं भाव में पूर्ण डूब गया था । मैंने वहीं से साष्टांग ढोग लगाई ....पर उन कृपालु सन्यासी ने मुझे दौड़कर अपने हृदय से लगा लिया था ...माँ ! उनका वो प्रेमपूर्ण स्पर्श .....मैं रो उठा ....मेरे नेत्रों से सावन भादौं की तरह जल बरसने लगे ....
पण्डित निमाई ! आखिर चाहते क्या हो ? उन दयालु सन्यासी ने मुझ से पूछा ।
श्री कृष्ण को चाहता हूँ ...श्रीकृष्ण के दर्शन मुझे मिलें ....बस इतनी कृपा करिये नाथ !
ये नही कुछ और माँगों ....धन दे दूँ ? ना धनं, न जनं ....नही प्रभु ! मुझे धन जन कुछ नही चाहिये ...बस कृष्ण से मिला दीजिये ...मुझे श्रीकृष्ण के दर्शन हों ऐसी कृपा कीजिये ।
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ये कहते हुए निमाई की फिर हिलकियाँ बंध गयीं थीं .....माँ ! उसी समय उन सन्यासी श्रीईश्वरपुरी जी ने मेरे कान में एक कृष्ण मन्त्र फूंक दिया ....गोपी जन बल्लभाय नम: इस मन्त्र के मिलते ही मुझे तो पता नही क्या हुआ ! मैं उन्मत्त हो गया ...मैं सिर पटकने लगा ...भूमि पर लोट पोट होने लगा ....पर वो सन्यासी महात्मा वहाँ से चले गये थे । पर मेरी ये स्थिति और और विकट होती जा रही है ....निमाई अपने अश्रुओं को पोंछकर शचि देवि से बोले ....तू तो मेरी माँ है अब तू ही बता , मैं क्या करूँ ? मुझे क्या करना चाहिये जिससे मुझे कृष्ण मिलें ...माँ ! कृष्ण मिलेंगे ना ? बोल माँ ?
शचि देवि ने सिर में हाथ रखा निमाई के , और कह दिया ....हाँ , तुझे श्रीकृष्ण मिलेंगे । निमाई इतना सुनते ही उठकर खड़े हो गये ....माँ ! सच , वो मुझे मिलेंगे ? शचिदेवि रो रही हैं ....फिर तू क्यों रो रही है ? तभी विष्णुप्रिया बोल उठी .....उससे अब ये सब सहन नही हो रहा था ....माँ ! आप क्यों इन सब बातों को आगे बढ़ा रही हो ? अरे , किसी वैद्य को बुलाओ ..इन्हें दवा आदि दो ...इनको झाड़ फूंक कराओ ....इनके नाम का कुछ जाप कराओ । माँ ! मेरी प्रार्थना है किसी अच्छे पण्डित को बुलवा कर अनुष्ठान करवाओ । शचि देवि ने देखा विष्णुप्रिया अज्ञात भय के कारण भयभीत थी .....और ये स्वाभाविक भी था ।
शेष कल -
हरि शरणम्
[13/04, 10:29 am] वृज रसिक लाड़ली दास: आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रयोविंशति अध्याय: )
13, 4, 2023
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गतांक से आगे -
पण्डितों को बुलाया गया ....एक नही पाँच पण्डित बुलाये गये । निमाई को ठीक करना है ....दो तान्त्रिक भी आये हैं ...वो पूर्व ही “दुर्गा दुर्गा” कहकर कुछ झाड़ फूंक कर चले गये । अब गृह देवता की आराधना होगी ...वही रुष्ट हैं इसलिये तो निमाई ऐसा हो गया...ये शचि देवि का कहना है ...विष्णुप्रिया का तो कुछ कहना ही नही हैं ...इस बेचारी की तो बुद्धि ही काम नही कर रही ....बस “पति ठीक हो जायें” ...ये हर देवि देवता से यही मनाती है ।
पूजन शुरू हुआ ,एक धोती और उसी को ऊपर लपेटे हुये ...बस ...इन्हीं वस्त्रों में निमाई पूजा में आकर बैठ गये थे । शचि देवि ने देखा ...विष्णुप्रिया ने भी देखा ....ये वही निमाई हैं ? धोती और कुर्ता उसमें इत्र फुलेल ...मुख में पान, यही तो थे निमाई ...पर आज परम विरक्त हो गये हैं ...विरक्ति भी एकाएक चरम पर पहुँची ...अरे ! कोई महात्मा भी बनता है तो वैराग्य धीरे धीरे चढ़ता है ...पर ये क्या ! निमाई का वैराग्य तो ....
गृह देवता रुष्ट हैं ....इसलिए आज पूजन रखा गया है ....निमाई के गृह देव भगवान नारायण हैं ....आज नारायण भगवान का पूजन होगा ....संकल्प , निमाई के स्वास्थ लाभ के लिए । स्वस्तिवाचन के साथ निमाई के ऊपर जल का छींटा दिया ....पर निमाई तो एक टक भगवान नारायण को देख रहे हैं ...वो विष्णुप्रिया के दाहिने भाग में भी नही बैठे ....वो अपनी माँ शचि देवि के साथ बैठे हैं । एक बार भी पूजन के समय निमाई विष्णुप्रिया को नही देखते ....प्रिया देख रही हैं....उनके हृदय में क्या बीत रही होगी उसे लिख पाना सम्भव नही है ।
पण्डित लोग पूजन के समय बारम्बार स्वास्थ्य लाभ की बात करते हैं ......एक बार , दो बार ..पर जब तीसरी बार भी स्वास्थ्य लाभ का उल्लेख किया ...तो निमाई चीख पड़े - “इस दो कौड़ी के देह के लिये आप लोग भगवान नारायण की भक्ति कर रहे हो !” ये देह तो माटी है ..और माटी में ही मिल जाएगा । निमाई बोलते गये ...उनके नेत्र बह रहे थे ....वो भाव में डूबे हुए थे ...प्रिया घूँघट में थी ....वो भीतर ही भीतर रो रही है ।
तो फिर आप क्या चाहते हो पण्डित निमाई ?
पण्डितों ने भी डरते हुए कहा ...क्यों की निमाई के प्रबल पाण्डित्य से सब परिचित ही थे ।
उठ गये निमाई , ब्राह्मणों के चरणों में अपना मस्तक रख दिया ...आहा ! आप लोग तो भगवान के प्रिय हो ...आप लोगों से भगवान सदैव प्रसन्न ही रहते हैं ...आप को भगवान ने अपना इष्ट कहा है ...फिर आप लोग मेरे लिए भगवान से प्रार्थना करें । निमाई को इस तरह देखकर ....असहज हो गये पण्डित लोग ।
आप भगवान नारायण से कहें ....कि वो मुझे भक्ति दें ....भक्ति ....नही नही , मात्र भक्ति नही ....उनकी तीव्र व्याकुलता दें ....वो मुझे दर्शन दें ...कृष्ण मेरे नाथ ! आप दर्शन दो । बोलो ना , भगवान से कहो कि इस निमाई को वो दर्शन दें ....बोलिये , वो दर्शन देंगे ना । लाल मुखमण्डल हो गया निमाई का ...अविरल अश्रु बहते ही जा रहे हैं उनके । वो लम्बी लम्बी साँस लेने लगते हैं ...फिर केशव , माधव , मुकुंद , हे मुरारी ....यही सब कहते हुए निमाई धड़ाम से धरती पर पछाड़ खा रहे हैं । शचि देवि सम्भाल रही हैं....पर वो अपनी माँ के चरणों में फिर गिर पड़ते हैं ....वो अब अपनी माँ से प्रार्थना कर रहे हैं ....माँ ! देख ना , मुझे श्रीकृष्ण दर्शन देंगे ना ! तेरा बेटा तो अधम है ...क्या अधम को भी वो अपना बनायेंगे ! बोल ना माँ ! निमाई की स्थिति देखकर माँ शचि ने भी रोना शुरू कर दिया । निमाई सिर पटक रहे हैं .....सिर पटकते हुए वो और आर्त नाद कर रहे हैं । प्रिया ने देखा रक्त निकल रहा है निमाई के ....वो दौड़ी ....ये उससे कैसे देखा जाता ....उसने निमाई को पकड़ा ....नाथ ! निमाई शान्त हुए ...अपने को प्रिया से दूर किया ....ये प्रिया को अच्छा नही लगा ...पर क्या करे प्रिया !
नाथ ? निमाई हंसे ....नाथ तो एक मात्र श्रीकृष्ण हैं ....मेरे भी नाथ हैं तुम्हारे भी वही नाथ हैं ....चराचर के वही नाथ हैं ....मैं कहाँ किसी का नाथ हूँ .....मैं स्वयं सेवक हूँ ...उस गोपी के भरतार का सेवक ....नही नही ...सेवक नही ...उनके सेवकों का भी सेवक । ये कहते हुये फिर हंसने लगे निमाई । शचि देवि ने तो अपने को सम्भाल लिया ...पुत्र की ऐसी दशा में स्वयं का बिलखना शचि देवि को उचित नही लगा । पुत्र की स्थिति दयनीय है और बहु प्रिया तो अभी छोटी है ....मुश्किल से बारह वर्ष की ही तो है । इसे कौन सम्भालेगा । शचि देवि निमाई को ले जाती हैं और सुला देती हैं ...कपूर और तैल का मर्दन मस्तक में करती हैं .....निमाई हंसते हैं ....तेरा बेटा पागल हो गया है ? ए माँ ! तू यही सोच रही है ना ? निमाई और जोर से हंसते हैं ।
पागले दले मत मिसियो रे भाई ...........
यही बोल रहे हैं निमाई । विष्णुप्रिया क्या करे ? ये सब प्रिया को शूल की तरह चुभ रहे हैं । ओह !
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आज प्रिया ने और शचिदेवि ने विचार किया .....क्यों न पाठशाला में निमाई को भेजा जाये । वैसे भी विद्यार्थी घर में आ आकर पूछते हैं .....और निमाई पाठशाला जायेंगे ...तो शायद इनका मन वहाँ लग जाये । सुन्दर धोती कुर्ता पहना कर निमाई को पाठशाला भेज दिया शचि देवि ने ।
यही वो निमाई हैं ...जो विद्यार्थियों को पढ़ाने में अपने आपको खपा देते थे ....विद्यार्थी अपने पण्डित निमाई शिक्षक को पाकर कितना गर्व अनुभव करते थे...पर.......
आज पाठशाला गये निमाई ....गये क्या माँ ने भेजा ...प्रिया ने माता से कहकर भिजवाया ।
विद्यार्थियों ने अपने अध्यापक निमाई को देखा तो उनके प्रसन्नता का कोई ठिकाना नही था ।
गुरु जी ! क्या किया आपने गयातीर्थ में ? विद्यार्थियों को लगा पहले की तरह हंसते हुए कोई उत्तर देंगे ।
पर कोई उत्तर नही ...गम्भीर बने रहे .....विद्यार्थियों ने अपने ग्रन्थ खोले ....
क्या करना है ? निमाई सबसे पूछते हैं । विद्यार्थी उत्तर देते हैं ....गुरु जी ! न्याय पढ़ाइये ।
निमाई न्याय की किताब देखते हैं ....दो तीन पन्ने पलटते हैं ....फिर सजल नेत्रों से विद्यार्थियों को देखते हैं .....
क्या मिलेगा ये सब पढ़कर ? ...वो विद्यार्थियों से पूछते हैं ...फिर स्वयं उत्तर देते हैं - कुछ नही मिलेगा । मेरे विद्यार्थियों ! ये जीवन अमूल्य है ....पुण्यों से भी ये मानव देह नही प्राप्त होता ...ऐसे में इन किताबों को पढ़कर समय गँवाने से लाभ क्या ?
फिर क्या पढ़ें ? एक विद्यार्थी ने पूछा ।
श्रीकृष्ण जिसे पढ़कर हृदय में आजाएँ वही पढ़ो । श्रीकृष्ण का चिन्तन जिसे पढ़कर बने उसी को अपनाओ । ये जीवन प्रेम करने के लिए है .....प्रेम , निमाई की आँखें चढ़ गयीं ...प्रेम ही सब कुछ है ...प्रेम नही तो जीवन में कुछ नही है ....प्रेम , प्रेम प्रेम .....प्रेम किससे ? निमाई हंसे ....प्रेम करने जैसा कौन है इस जगत में ? बताओ ? जो कल राख हो जाएगा उससे प्रेम करोगे ? कल तो विष्टा बन जायेगा उससे प्रेम करोगे ? अरे ! श्रीकृष्ण ...श्रीकृष्ण ही हैं प्रेम करने योग्य ....श्रीकृष्ण ....बोलो , श्रीकृष्ण ....कृष्ण कृष्ण कृष्ण ...निमाई नाचने लगे ....उन्मत्त होकर उन्होंने पाठशाला में नाचना शुरू किया ....वो अपने नेत्रों से अश्रु बहा रहे थे ...वो जोर जोर से चिल्ला रहे थे ...कृष्ण , कृष्ण , कृष्ण ......और कुछ देर बाद वहीं मूर्छित हो गये निमाई ।
शेष कल -
हरि शरणम्
[14/04, 11:01 am] वृज रसिक लाड़ली दास: आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( चतुर्विंशति अध्याय:)
14, 4, 2023
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गतांक से आगे -
ये जीव अपने सनातन प्रियतम को भूल जाता है इसलिये दुखी है ....हमारे सर्वस्व तो श्रीकृष्ण ही हैं ...वही सनातन प्रिय हैं ....उनको भूलना पाप है ....उनकी स्मृति ही सबसे बड़ा पुण्य है । माँ ! जहां कृष्ण को गाया जाता है ....वहाँ वैकुण्ठ प्रकट है ...साक्षात वैकुण्ठ भूमि है वो । माँ ! मुझे देखकर दुखी क्यों होती हो ...दुखी होना है तो इस जगत को देखो ....कैसे अपने स्वामी को भूलकर लोग हंस रहे हैं ...ठठोली कर रहे हैं .....ये सबसे बड़ा आश्चर्य है । काल हमारे पीछे है ...कब आकर हमारी गर्दन दबोच ले ....कोई पता नही । जिस जीवन का एक क्षण भरोसा नही है उसके लिये हम क्या क्या नही करते । चोरी , हिंसा , द्वेष , अहंकार .....माँ ! इन सब को छोड़कर श्याम सुन्दर का भजन करना चाहिये । उन्हीं को भजो ।
आज हुआ ये कि भोजन कर रहे निमाई शचि देवि को कुछ शान्त और सहज दिखाई दिये । तो अवसर जानकर शचि देवि ने अपने पुत्र से कहा .....निमाई ! ये सब तू क्या कर रहा है ! तू तो विद्वान है ....लोगों को उपदेश देता हुआ फिरता है ...फिर स्वयं पर बात आई तो ! निमाई ! मैं तो कुछ पढ़ी लिखी हूँ नहीं ....पर तू तो पढ़ा लिखा है .....क्या शास्त्र यही कहते हैं कि ग्रहस्थ होकर पत्नी आदि को नज़र अन्दाज़ कर देना चाहिए । क्या तेरा ये कर्तव्य नही है ! कि अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहे । मन का सारा ग़ुबार निकाल दिया था शचि देवि ने ।
तब सहज होकर निमाई बैठे ....और पहली बार मन्द मुस्कुराये ...अपने पुत्र की मुस्कुराहट पे शचिदेवि को लगा कि उसे अब सब कुछ मिल गया है ।
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माँ ! बैठ ना ! अपने सामने शचि देवि को बिठाया ...और कपिल भगवान की तरह निमाई भी अपनी माता को ज्ञान देने लगे । जीव दुखी है ....क्यों की कृष्ण को भूल गया है जीव । दुख का कारण ही ये है - मूल को हम लोग त्याग कर खण्डित संसार की ओर बढ़ते चले जाते हैं ।
निमाई बोल रहे थे ...तभी विष्णुप्रिया आगयीं ...और बाहर ही बैठ गयीं....अपने प्राणेश्वर के वचनों को वो भी सुनने लगीं थीं ।
माँ ! कृष्ण नाम लो ....कृष्ण नाम जो लेता है वो चाण्डाल भी हो तो भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ है ....और अगर ब्राह्मण हरि नाम से दूर है वो तो चाण्डाल के समान अपवित्र है । माँ ! कृष्ण नाम अग्नि है ....जो हमारे अनन्त जन्मों के पापों को जला देती है .....फिर निमाई हंसते हैं ...माँ ! जीव में इतनी शक्ति ही नही है कि वो इतना पाप कर सके कि एक कृष्ण नाम उसको भस्म ना कर सके । माँ ! कृष्ण बोलो , कृष्ण ही है गति कृष्ण ही हैं मति , कृष्ण ही हैं हमारे प्राण पति .....नेत्रों से अश्रु बहने लगे निमाई के .....माँ ! कृष्ण भक्ति के समान कुछ नही है ....कृष्ण भक्त की महिमा का कुछ वर्णन करके मैं सुना रहा हूँ ...उसे आप सुनो । कृष्ण भक्त जहां होता है वहाँ कलियुग का प्रभाव नही होता ....कलि प्रभाव को नगण्य कर देता है कृष्ण भक्त । कृष्ण भक्त काल के चक्र को तोड़ देता है ....काल स्वयं डरता है ...कृष्ण भक्त काल से लड़ जाता है ...ये महिमा ज्ञानियों में नही पाई जाती केवल भगवत् भक्तों में इस महिमा का दर्शन होता है । निमाई ये कहते हुए “हा कृष्ण” कहकर फिर मूर्छित हो गये थे । ओह !
शेष कल -
हरि शरणम्
[15/04, 1:23 pm] वृज रसिक लाड़ली दास: आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( पंचविंशति अध्याय: )
15, 4, 2023
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गतांक से आगे -
विष्णुप्रिया निमाई के द्वारा दिए गये उपदेश को सुन रही थी ....माता शचि देवि को उपदेश दिया था ...पर कृष्णविषयक उपदेश करते हुये निमाई मूर्छित हो गये थे ....मूर्छित तो ये पूर्व में भी होते रहे हैं ..जब से गयातीर्थ से आये हैं भाव में उन्मत्त होना और मूर्छित हो जाना ये निमाई के जीवन की सामान्य सी घटना थी । कोई “कृष्ण” कह देता तो ये सात्विक भाव से भर जाते और हुंकार भरते हुये मूर्छित हो जाते । पर आज कुछ अलग सा था ....गम्भीर उपदेश अपनी माता शचि को देकर निमाई गिर पड़े ....विष्णुप्रिया बाहर बैठी उपदेश सुन रही थी ...जब उसने देखा कि इस बार न तो निमाई ने कोई हुंकार भरी ....ना ही संकेत हुआ कि मूर्छित होने वाले हैं ...ये “कृष्ण” कहते हुये बस गिर गये और मूर्च्छा आगयी । बाहर बैठी विष्णुप्रिया भागी भीतर ....उसने अपने प्राणधन निमाई को गोद में रख लिया ....लाज भी नही की ...जल का छींटा देने लगी .....खुल कर रुदन कर रही थी प्रिया ...वो रोते हुये कह रही थी ......माँ ! मेरे प्राणेश्वर को क्या हुआ , देखो ना माँ ! ये कुछ बोल भी नही रहे ! मुख में जल डाल दिया ..सिर में जल और तैल मिलाकर मलने लगी ।
शचि देवि अपनी इस प्यारी सी बहु को इस तरह उन्माद में देख कर उनका हृदय रो उठा था ....निमाई का उन्माद क्या कम था जो अब प्रिया भी उन्मादिनी हो गयी थी । पर प्रिया आज अपने में नही थी .....वो अपने निमाई के सिर को सहलाते हुए बारम्बार शचिदेवि को कह रहीं थीं .....माँ ! मुझ से क्या अपराध बन गया कि मेरे प्रियतम मुझ से बात नही करते ...मेरी ओर देखते नहीं ....क्या मेरे कारण इनकी ये स्थिति बनी है ? कहीं मैं ही दोषी तो नही ?
उस बालिका के मुख से ये सब सुनकर शचि देवि के नयनों से अश्रु प्रारम्भ हो गये थे ।
प्रिया ! निमाई ने अपने नेत्र खोले ...प्रिया ने देखा .....उसे अतीव प्रसन्नता हुई ...वो उठी और अपनी सासु शचि देवि के गले से लग गयी । प्रिया ! निमाई ने फिर नाम लिया था । बेटी ! तुझे बुला रहा है निमाई । माँ ने भी आनंदित होकर अपनी बहु को कहा । गया तीर्थ से आने के बाद प्रथम बार निमाई ने अपनी इस अर्धांगिनी को पुकारा था ।
विष्णुप्रिया आई ......तू रोती बहुत है ! निमाई बोले । अब प्रसन्नता में रोते हुए प्रिया ने अपनी सासु माँ को देखा ....शचि देवि ने संकेत में कहा ...अभी बैठी रह उसके पास । प्रिया बैठी रही।
क्यों रोती हो ? अपने कर से प्रिया के कपोल में ढुरक रहे अश्रुओं को निमाई ने पोंछा । रोमांच हुआ प्रिया को .....निमाई के छुवन से प्रेम सिन्धु में डूब गयी प्रिया । निमाई मुस्कुराये और उठ गये ।
जाओ गौर ! तुया संग किसेर पीरिति ।
हे गौरांग ! जाओ ...मत मुस्कुराओ ...तुम तो मुस्कुरा रहे हो ...पर मेरे हृदय में क्या बीत रही है पता है ? अरे ! मेरे हृदय को तुमने समझा ही नही । तुम से कैसी प्रीति ?
क्या सोच रही हो ? फिर निमाई ने प्रिया के कोमल करों का स्पर्श किया ।
सिर हिला दिया प्रिया ने ....”कुछ नही”।
मैं जा रही हूँ ...मुझे पड़ोस में कुछ काम है ....प्रिया ! निमाई को सम्भालना । ये कहते हुये शचि देवि थोड़ा मुसकुराईं ....वो अब प्रसन्न हैं ...बहुत प्रसन्न । एकान्त दिया था अपने बेटे बहु को शचि देवि ने । ताकि दोनों में प्रीत बढ़े ।
तभी ......
क्या निमाई प्रभु हैं ? दो तीन वैष्णव आगये थे ....वो बाहर आकर पूछ रहे थे ।
कोई आगन्तुक आये हैं ? निमाई ने पूछा। प्रिया ने जाकर देखा ...बाहर शचि देवि थीं वो कह रहीं थीं ..अभी नही , अभी जाओ ...कहाँ कहाँ से आजाते हैं ...मेरे बेटे को तुम लोग ही बिगाड़ते हो ।
तभी निमाई आगये ....शचि देवि को देखा तो निमाई बोले ...माँ ! तुम पड़ोस से बहुत शीघ्र आगईँ ?
शचि देवि बिना कुछ बोले भीतर चली गयीं .....और प्रिया को समझाने लगीं ...बेटी ! थोड़ा केश बना ले ...ये क्या साड़ी पहनी है ...सुन्दर सी पहन ...आँखों में कजरा लगा ...केश में गजरा लगा ....शरमा कर प्रिया अपने कक्ष में चली गयीं । वो आइने के सामने खड़ी हैं ....अपने अंगों को देखती हैं ...यौवन झांक रहा है प्रिया के अंगों से ....वो फिर अकेले शरमा जाती हैं ।
पहली बार निमाई ने उसे छुआ .....छुआ तो पहले भी था पर गया तीर्थ से आने के बाद ...ये पहली घटना थी ....मुस्कुराये मेरे प्राण ! अकेले हंसती है विष्णुप्रिया । मेरे अश्रुओं को उन्होंने पोंछा ! उन्हें मुझ से प्रेम है ...तभी तो मेरे कपोल का स्पर्श ! उसे बारम्बार रोमांच हो रहा है ....वो अपने केशों को संवार रही है ...बिन्दी लगा कर आइने में इतरा रही है ।
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भाई ! मैं तुम लोगों को एक सार की बात बताता हूँ .....रात्रि का समय बहुत अद्भुत होता है ...दिन में किया गया संकीर्तन और रात्रि में किया संकीर्तन ....दोनों में बहुत अन्तर होता है ...रात्रि का समय कितना सुन्दर शान्त होता है । हम उसे व्यर्थ सो कर गुज़ार देते हैं ....नही , आज से हम रात्रि में संकीर्तन करेंगे । बोलो , तुम लोग तैयार हो ?
जो वैष्णव आये थे मिलने उन्हीं को निमाई ये सब बता रहे थे ....वो लोग गदगद होकर प्रणाम करके जब चलने को हुये तो निमाई ने फिर कहा - आज से संकल्प करो कि ...रात्रि को हम व्यर्थ नही जाने देंगे ....रात भर संकीर्तन ! रात भर हरिनाम ! आहा ! रात भर उसे पुकारेंगे ! प्रेम की गंगा में रात भर उन्मत्त पड़े रहेंगे ...डूबे रहेंगे । और हाँ , रात्रि धन्य हो जाएगी ....वातावरण में हरि नाम व्याप्त हो जायेगा । ये कहकर उन वैष्णवों को निमाई ने विदा किया ।
आज रात्रि में निमाई संकीर्तन करेगा ...कहाँ ? शचि देवि ने निमाई की सारी बातें सुन ली थीं ।
पर रात्रि के लिए तो विष्णुप्रिया ! वो सज रही है !
शचि देवि ने देखा ......निमाई कन्धे में गमझा डाले निकल गये घर से ।
अब सन्ध्या भी जा रही है ...और रात्रि का आगमन हो रहा है ।
उफ़ ! इधर विष्णुप्रिया ने सेज में कुछ गुलाब की पंखुडियाँ भी बिखेर दीं हैं ।
शेष कल -
हरि शरणम्
✍️श्रीजी श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)
[16/04, 11:11 am] वृज रसिक लाड़ली दास:
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( षड् विंशति अध्यायः )
16, 4, 2023
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गतांक से आगे -
लेट गयी है विष्णुप्रिया अपने पर्यंक में ...और नाना कल्पनाओं में अपने को रंग लिया है ।
मेरे प्राणेश आयेंगे । आयेंगे ? हाँ क्यों नही आयेंगे ! मुझ से प्रेम करते हैं ...बहुत प्रेम करते हैं ...तभी तो मुझे कह रहे थे - मेरे कपोल के अश्रुओं को पोंछते हुए कि - तू रोती बहुत है ।
आप रुलाते हो ....हाँ , क्यों रुलाते हो ? दया नही आती ? आपको जगत पर दया आती है ...पूरे विश्व ब्रह्माण्ड पर अपनी कृपा बरसाते हो ...पर मुझ पर ? अपनी ही प्रिया पर इतनी कठोरता क्यों ?
वो फिर द्वार की ओर देखती है ....वे आयेंगे । उठकर खड़ी हो जाती है ...मुझे सोया हुआ देखेंगे तो चले जायेंगे ...इसलिये मुझे बैठ जाना चाहिये । प्रिया का हृदय आज बहुत तेजी से धड़क रहा है ....मेरे स्वामी मुझे छुएँगे । उफ़ ! उनकी छुअन मुझे मार देगी ।
रोमांच हो रहा है प्रिया को । नव यौवन खिल रहा है इसका । सुरभित अंग अंग है ...वो अपने अंगों को देखती है और स्वयं ही शरमा जाती है ।
द्वार किसी ने खटखटाया ....वो दौड़ी - मेरे प्राणेश आगये । पर नही ....द्वार खोला तो कोई नही था । वो बाहर देखती रही ....पर हवा के कारण द्वार हिला था । दुखी होकर भीतर आगई ...फिर बैठ गई ....द्वार बन्द तो करके आऊँ ...वो फिर उठी और द्वार बन्द कर ही रही थी कि ....”द्वार बन्द देखकर कहीं लौट गये मेरे प्रियतम तो ?
नही ...खुला ही छोड़ देती हूँ ....वो द्वार खुला छोड़ कर फिर आकर बैठ गई । हवा तेज चल रही है आज ....बिजली भी चमक रही है ...डर जाती है प्रिया बादलों की गर्जना से ।
आइये ना नाथ ! आइये , मुझे डर लग रहा है ...आज अकेले में मुझे डर लगेगा ....आपके उन गौर वक्ष में आपकी ये दासी अपना सर्वस्व न्योछावर करना चाहती है ...नाथ ! आइये ना ! प्रतीक्षा बढ़ती ही जा रही है ...एक एक क्षण अब इसे युगों समान लग रहे हैं । क्या नही आयेंगे ? मान जाग गया मन में ....न आयें...अब मैं भी आपसे बात नही करूँगी । उफ़ ! ये प्रेम देवता जो कराये वो कम ही है । अद्भुत मानिनी बन गयी कुछ ही समय में ....विष्णु प्रिया उठी और अपने कक्ष का द्वार लगा लिया .....लेट गयी ....शून्य में तांकती है ...फिर कुछ आहट हुई ....ध्यान से सुना उसने - कहीं उनके पदचाप तो नही ?
नही .....बिगाड़ दिया सजा हुआ वो बिस्तर .....मान बढ़ गया प्रिया का ।
अब नही , अब तो वे आयें ...द्वार खटखटायें फिर भी न खोलूँगी ।
क्यों खोलूँ ? मेरे से आपका क्या मतलब ? आप तो बड़े कठोर हो ...सो गये ? तो जाओ सो जाओ ...मुझे भी कोई मतलब नही है ....मैं भी सो रही हूँ ....इतना कहकर विष्णुप्रिया करवट बदल कर सोने लगती है ....तभी फिर ....हवा के कारण द्वार हिलता है .....वो बेचारी फिर उठती है ...दौड़ पड़ती है द्वार की ओर .....पर नही ...अरे ! निमाई यहाँ कहाँ हैं .....वो तो कीर्तन करने गये हैं आज से रात्रि में उनका संकीर्तन चलेगा । रात भर वो नाचते रहे ....”हरि बोल” कहकर उछलते रहे ....और इधर बेचारी विष्णुप्रिया ने पूरी रात करवट बदल बदल कर बिता दी ।
भोर होने को है .....विष्णुप्रिया उठी ...आज कुछ बिलम्ब हो गया उठने में ....भोर से कुछ पूर्व ही तो इस प्रिया को झपकी आई थी ....तभी उठना पड़ गया ।
शचि माँ गंगा नहाने गयीं हैं ....प्रिया अपने केशों को बाँध लेती है ....साड़ी का पल्लू कमर में खोंस लेती है ...और आँगन-घर की सफाई ...कि तभी ....निमाई आगये ....चौंकी प्रिया ...आप घर में नही थे ? निमाई की आँखें लाल हैं ...प्रिया देखती है - इसे रुष्ट होने का हक़ है ।
नही , मैं घर में नही था .....निमाई ने कहा ।
कहिये फिर कहाँ से आरहे हैं ? ये आपकी आँखें अरुण कैसे हैं ? आपका देह अलसाया हुआ क्यों है ? कहाँ रात बिता कर आये हैं ? बोलिये ? हे स्वामी ! आपसे कैसी प्रीति ?
इस देह को किसने छुआ ? बोलिये ? वो कौन रसवती है...जिसके साथ रात बिता कर आये हो ? जाओ पहले गंगा नहा कर आओ ।
निमाई ने विष्णुप्रिया का ऐसा रूप देखा नही था ....वो देखते रह गये ।
विष्णुप्रिया को इकटक देखने के बाद निमाई मुस्कुराये ....ओह! इन गौरांग की इसी मुस्कुराहट में तो जादू है ....सारी शिकायतें समाप्त हो गयीं ......
हे प्रिया ! इस तरह रुष्ट मत हो ....और तुम्हारे इन कमल समान मुख से ऐसे कटु वचन शोभा नही दे रहे । मैं तो रात्रि भर कृष्ण नाम संकीर्तन में मग्न था ....हाँ मुझे कृष्ण नाम रूपी मदिरा ने मत्त कर दिया ...रात भर मत्त था ....उसी के परिणाम स्वरूप ये मेरे नेत्र अरुण लग रहे हैं । मैं क्या करूँ ?
ये कहते हुये निमाई ने अपनी प्रिया को हृदय से लगा लिया । ओह ! विष्णुप्रिया का मान समाप्त हो गया था । उसके हृदय में आनन्द की हिलोरें अब चल पड़ीं थीं ।
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अकेले अकेले कृष्ण नाम मदिरा छकते हो ...गलत बात है स्वामी ! क्या इस दासी को कभी नही चखाओगे ? प्रिया ने ये बात कही ...तो निमाई बोले ...ओह ! तो कल ही कृष्ण लीला हम लोग कर रहे हैं ...यहीं पास में ....तुम माँ के साथ आना ।
लीला में आप भी कुछ बनेंगे ? प्रिया ने हास्य में पूछा ।
हाँ , मुस्कुराते हुए निमाई बोले ....पर तुम मुझे पहचान नही पाओगी ?
मैं नही पहचानूँगी ? लाखों में पहचान लुंगी आपको ।
निमाई मुस्कुराते हुये भीतर चले गये ....पर आप बनेंगे क्या ? प्रिया ने पूछा ।
देख लेना ...अभी बताऊँगा तो फिर पहचान ही जाओगी ।
आप तो स्त्री भेष धारण करना अच्छे लगोगे .....विष्णुप्रिया खूब हंसी ।
जैसे ? निमाई ने पूछा ।
जैसे - श्रीराधारानी .....प्रिया ने जैसे ही ये कहा .....
हा राधे ! हा राधे ! कहते हुए निमाई फिर भावावेश में आगये थे ।
शेष कल -
हरि शरणम्
✍🏼 श्याम प्रिया दास ( श्रीजी मंजरी दास)
[17/04, 12:54 pm] वृज रसिक लाड़ली दास:
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तविंशति अध्याय: )
17, 4, 2023
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गतांक से आगे -
रात्रि में आज कृष्ण लीला का आयोजन होगा ....ये आयोजन शचि देवि की बहन के घर में है ....चन्द्रशेखर आचार्य ये शचि देवि के बहनोई लगते हैं ...पड़ोस में ही हैं ...इनके ही घर में विष्णुप्रिया जा सकती हैं ....शायद इसलिये निमाई ने इनके यहाँ लीला रखी है ।
प्रिया ! तू तैयार है ?
रात्रि के आठ बज गये हैं ...नौ बजे से लीला प्रारम्भ है ...शचि देवि ने विष्णुप्रिया से पूछा ....हाँ , माँ ! मैं तैयार हूँ ...पर कान्चना भी कह रही है कि लीला मुझे भी देखनी है , माँ ! उसे भी ले चलूँ ? हाँ , क्यों नही ...वैसे भी गाँव के सभी लोगों को निमन्त्रण दिया गया है ....बुद्धिवंत कायस्थ तो निमाई का परम भक्त है ...आयोजन का सारा खर्चा उसने ही तो किया है....शचि देवि ने आयोजन के विषय में प्रिया को सब बता दिया था ।
प्रिया ! मैं कैसी लग रही हूँ ? चहकते हुये सुन्दर साड़ी पहन कर कान्चना आगयी थी ।
सुन्दर तो तू है ही....ये कहते हुये फिर प्रिया के गले लग गयी थी ।
नही सखी ! तू भी बहुत सुन्दर लग रही है ...
प्रिया ने कान्चना के चिबुक में हाथ रखते हुये कहा था ।
चलो अब , नही तो देरी हो जाएगी ..और सुना है बहुत भीड़ हो रही हो रही है...इस लीला में । शचि देवि ने कहा और वो चलीं ...तो ये दोनों भी शचिदेवि के साथ चल दीं थीं ।
सुना है - तेरे ‘वे’ लीला में अभिनय करने वाले हैं ?
कान्चना ने धीरे चलते हुए प्रिया के कान में कहा । प्रिया ने मुस्कुराते हुए ‘हाँ’ कहा..फिर शरमा कर उसे चुप रहने का संकेत भी किया ।
कान्चना खूब हंसी ...बोली - बहुत आनन्द आएगा । तू तो बहुत खुश हो रही होगी ।
हंसते हुए धीरे से विष्णुप्रिया ने कान्चना के कान में कहा ....वो कह रहे थे ...तुम मुझे पहचान नही पाओगी ....क्यों ! वो तो इतने लम्बे हैं ....हजारों की भीड़ में भी वो ही सबसे ऊपर दीखेंगे ...कान्चना के मुख से ये सुनते ही प्रिया बहुत हंसी ...बहुत हंसी...जब तक उस लीला मंचन के स्थान पर नही पहुँचे तब तक ये हंसती ही रही । ए छोरियों ! अब चुप करो ज़्यादा मत हंसो ....शचि देवि ने जब देखा दोनों खें खें किए जा रही हैं ...तो शान्त रहने के लिए कहा ।
प्रिया ने कान्चना को चुप कराया ...और लीला स्थल में जाकर दोनों बैठ गयीं ...आचार्य चन्द्रशेखर जो मौसा लगते हैं निमाई के ....उन्होंने आगे का स्थान दिया विष्णुप्रिया और कान्चना को ....शचि देवि अपनी बहन से कुछ व्यावहारिक बातें करके वो भी प्रिया के साथ ही आकर बैठ गयीं थीं ।
सुन्दर सज्जा है ....सुना है पूर्व बंगाल से कारीगर बुलाये गये थे ....केले के स्तम्भ से कारीगरी हुई थी मंच की ......आम्र के कोमल पत्तों की कारीगरी देखते ही बनती थी ....मध्य मध्य में गुलाब जल का भी छिड़काव हो रहा था ....तभी पाँच बड़े बड़े मशाल लेकर लोग आगये ....इससे प्रकाश अब पूर्ण हो गया था .....वीणा ,मृदंग , बाँसुरी झाँझ आदि लेकर मंच पर कलाकार बैठ गए थे ।
विष्णुप्रिया बहुत खुश है ...वो बारम्बार कान्चना को कुछ न कुछ दिखा रही है ....वो देख ! वीणा ...ये वीणा वादक बहुत सुन्दर वीणा बजाता है .....तूने कहाँ सुना ? प्रिया ने कान्चना को शरमा कर उत्तर दिया ...मेरे विवाह में यही तो आया था । तभी -
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हे नवद्वीप वासियों ! ये दुर्लभ क्षण आपके सामने शीघ्र उपस्थित होने वाला है .....”कृष्ण लीला”....ये सौभाग्य है हम लोगों का कि पण्डित निमाई जो अब मात्र पण्डित नही हैं ...एक भाव जगत के उच्च शिखर पर विराजमान सिद्ध पुरुष बन गये हैं ........
संचालन महोदय की बात पर पूरे नवद्वीप वासियों ने करतल ध्वनि की ।
कान्चना खूब ताली बजा रही है ....और प्रिया को भी ताली बजाने के लिए प्रेरित कर रही है ...पर अपने प्राणेश्वर का नाम आते ही ये शरमा गयी है ....ताली नही बजाती ।
“उन्हीं भाव सिद्ध निमाई के द्वारा लिखित ये लीला है .....
तो आप लोग तैयार हैं ! इस कृष्ण लीला का आनन्द लेने के लिए !”
संचालन महोदय पूछते हैं ....तो हजारों लोग एक साथ उत्तर देते हैं ....’हाँ’....कान्चना खड़ी होकर मत्त हो ...’हाँ’....वो भी कहती है ...उसे देखकर विष्णुप्रिया खूब हंस रही है ।
तो दर्शन कीजिए ... ये है अद्भुत लीला ...कृष्ण लीला ।
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मैं हूँ ....गोलोक धाम का कोतवाल ......
ये थे हरिदास ...जो निमाई के परम प्रिय थे ...बड़ी बड़ी मूँछें लगाकर हाथ में लाठी लेकर .....मूँछे मटकाते हुए ये मंच पर आये पर आते ही धोती में उलझ गये और गिर पड़े ...सारे दर्शन हंसे थे ....कान्चना ताली मारकर हंस रही है .....खूब हंस रही है ...वो प्रिया को भी हंसने के लिए कह रही है ...प्रिया इधर उधर देखती है ....फिर संकेत में कहती है ...लोग देख रहे हैं हमें ..कान्चना , ज़्यादा मत हंस । तू भी ना प्रिया ! बस लोगों को ही देखती रह ...देख । सामने देख सखी ।
उठ गए थे हरिदास ...फिर लाठी से संभलकर बोले ...मैं हूँ गोलोक धाम का कोतवाल ।
अब देखो ....प्रभु श्रीश्यामसुन्दर का इस धरा धाम में अवतरण....
तभी पर्दा लग गया .....
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मुझे पृथ्वी पर जाना ही होगा .....क्यों की सब ब्रह्मा शंकर आदि मुझ से प्रार्थना कर रहे हैं ....पृथ्वी में हा हाकार मच गया है .......सिंहासन में विराजमान में हैं श्रीश्याम सुन्दर ....वो अपने सखाओं से कह रहे हैं । तो आपके साथ हम भी जायेंगे पृथ्वी में । हाँ हाँ तुम सब तो मेरे अपने सखा हो ...तुम्हारे बिना लीला बनेगी ही नही ....मधुर स्वर में श्याम सुन्दर बोले थे ।
तभी ....सामने से श्रीराधारानी अपनी ललितादि सखियों के साथ वहीं प्रकट हो गयीं ......
आहा ! श्रीराधारानी कितनी सुन्दर लग रहीं थीं ....गौरांगी ...तपते कुन्दन की तरह ..बड़े बड़े नेत्र ...लम्बी सुन्दर सी चोटी जिसमें फूल लगे हैं ।
क्यों अवतार लेना चाहते हो प्यारे ? मधुर आवाज में श्रीराधारानी ने पूछा था ।
उठकर खड़े हो गये श्याम सुन्दर , अपने सिंहासन में विराजमान किया ....फिर हाथ जोड़कर बोले ...हे स्वामिनी ! आप सब जानती हो ...पृथ्वी में हाहाकार मच गया है आसुरी शक्ति बढ़ रही है ..उसके नाश के लिए ही मैं जा रहा हूँ ।
मुसकुराईं श्रीराधिका ....प्यारे ! आप के एक भृकुटी विलास से अनेकानेक सृष्टियां बन जाती है, और बिगड़ जातीं हैं ....आपके संकल्प से सब कुछ हो जाता है ...फिर मात्र आसुरी शक्ति के विनाश के लिए आपका पृथ्वी पर जाना ...कुछ समझ न आया !
तभी श्याम सुन्दर ने श्रीजी का हाथ पकड़ा और .........
यहाँ कोई नही हैं ....न कोई सखा न कोई परिकर ....हाँ , मेरी प्यारी ! अब बताओ ।
मुसकुराईं श्रीराधिका जू .....प्यारे ! क्या लीला करनी है मुझ से न छुपाओ ।
सिर झुकाया श्याम सुन्दर ने .....और मौन हो गये ।
पास में जाकर अपने हृदय से लगा लिया श्यामा जू ने ......प्यारे ! कुछ तो बोलो ।
लम्बी श्वास लेकर श्याम सुन्दर ने कहा ....आप तो मेरी आल्हादिनी हो ...आपसे कुछ छुपा नही है ....हे राधिके ! आसुरी शक्ति का नाश तो मैं मात्र यहीं संकल्प से भी कर सकता हूँ ...किन्तु मेरे अवतार का मुख्य प्रयोजन ...श्याम सुन्दर कुछ देर मौन रहकर फिर बोले ...”बड़े बड़े योगी, सिद्ध, ज्ञानी जन ....योग तप व्रत आदि कर करके अपने हृदय को शुष्क बना बैठे हैं उनके हृदय में प्रेम की धारा बहाने के लिए मैं अवतार ले रहा हूँ “ हे प्यारी ! जगत में प्रेम ही है सार ...किन्तु लोग प्रेम को भूल रहे हैं ....जहां प्रेम की कमी होती है ...वहाँ द्वेष ईर्ष्या आदि का प्राबल्य हो जाता है ...इन्हीं द्वेष ईर्ष्या आदि की आड़ में आसुरी शक्ति अपना काम करना शुरू कर देती है । श्रीराधारानी ने मुस्कुराकर श्याम सुन्दर को देखा ....श्याम सुन्दर के नेत्रों में करुणा थी , अपार करुणा .....श्रीराधारानी ने दौड़कर अपने हृदय से लगा लिया श्याम सुन्दर को ...पर प्यारी ! आपके बिना प्रेम का प्रसार कहाँ सम्भव है ? तो ? श्रीजी ने पूछा । आप को भी चलना होगा । श्रीकिशोरी जी मुसकुराईं .....हाँ हाँ , मैं तो चलूँगी ही ....क्यों की आपके बिना मेरा भी यहाँ कहाँ मन लगेगा ।
तो हम चलें ? श्याम सुन्दर ने श्रीकिशोरी जी के कर को पकड़ा और ..........
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पूरे नवद्वीप वासी इस अद्भुत लीला को देखकर गदगद हैं ...श्रीराधारानी का अब उन्मुक्त नृत्य होता है .......
कितनी सुन्दर हैं ना श्रीराधारानी ....विष्णुप्रिया आनंदित होकर कान्चना के कान में कहती हैं ।
कान्चना ने मुस्कुराकर कहा ....देखा , तुम्हारे पति सच कह रहे थे ...तुम पहचान नही पाईं ना ?
क्या ! विष्णुप्रिया चौंकी .....ये मेरे प्राणेश्वर हैं ? और क्या ? प्रिया ने पीछे मुड़कर शचि देवि की ओर देखा ...वो पहचान गयीं थीं ....संकेत में शचिदेवि ने मुस्कुराकर प्रिया को कहा ..हाँ ..ये निमाई तो है । बस अब तो प्रिया के आनन्द का कोई ठिकाना नही है ....वो गदगद होकर देख रही है अपने नाथ को । और इसके नाथ नाच रहे हैं .....दिव्य नृत्य है ये ।
इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया जिसका उद्देश्य था विशुद्ध प्रेम का प्रसार ।
संचालक ने पर्दा गिरने के बाद ये वक्तव्य दिया , और श्रीकृष्ण लीला ने यहीं विश्राम ले लिया ।
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सुबह के चार बज गये हैं ....लीला की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुये और निमाई के प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व का माहात्म्य गाते हुये नवद्वीप वासी अपने अपने घर लौट रहे थे ।
तेरे निमाई ! कान्चना पेट पकड़ कर हंस रही है ......पर कुछ भी कह सुन्दर तो लग रहे थे ....नही नही सुन्दर ही नही .....कान्चना कुछ सोचती है....फिर कहती है ...अति सुन्दर ...इससे ज़्यादा कुछ शब्द मेरे मुख में आ नही रहे । हाय ! क्या पतले पतले गुलाबी अधर ...अत्यंत गौर मुख ...क्षीण कटी ....हाय ! कान्चना के मुख से ये सब सुनते हुये विष्णुप्रिया बोल पड़ी ...अरी चुप हो जा अब । चल ...तू अपने घर जा और मैं अपने । कान्चना की हंसी फूटी ....
विष्णुप्रिया ने अपने घर में प्रवेश किया ....शचिदेवि अभी घर पर आई नहीं हैं ।
विष्णुप्रिया ने जैसे ही घर प्रवेश किया ...श्रीराधा भेष में निमाई ! अपने प्राणेश्वर को श्रीराधिका के रूप में देखकर विष्णुप्रिया झूम उठी .....निमाई अभी भी श्रीराधा भाव में भावित हैं । वो प्रिया को देखकर बस मुस्कुराये ....और दौड़कर मन्दिर में चले गये ...विष्णुप्रिया भी उनके पीछे भागी ....एक विग्रह है ...भगवान श्रीकृष्ण का विग्रह .....निमाई विग्रह के पीछे जाकर नयन मूँद देते हैं ......मैं , मैं तुम्हारी श्रीराधा । पहचाना ?
विष्णुप्रिया निमाई के इस रूप को देखकर मुग्ध है ....वो आनन्द से भर गयी है ....कोई घर में है नही ....प्रिया मुस्कुराते हुये दौड़ी ...और अपने इस निमाई को हृदय से लगा लिया । निमाई भी श्रीराधा भाव में हैं ....इसलिये वो भी प्रिया को हृदय से लगाये रहे । प्रिया बहुत प्रसन्न है आज ।
शेष कल -
हरि शरणम्
✍🏼श्याम प्रिया दास ( fb श्रीजी मंजरी दास)
[18/04, 11:26 am] वृज रसिक लाड़ली दास:
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( अष्टाविंशति अध्याय: )
18, 4, 2023
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गतांक से आगे -
मैं ऐसे नही जाऊँगी पृथ्वी लोक ! प्यारे , मुझे पृथ्वी लोक ले जाना है तो साथ में श्रीवृन्दावन , गिरिराज पर्वत यमुना ये सब भी जायेंगे ....तभी मैं पृथ्वी लोक जाऊँगी ।
मैं श्रीवृन्दावन के बिना रह नही सकती ....मैं यमुना के बिना कैसे रहूँगी ....मुझे ये सुन्दर सुन्दर कुँज चाहिये ।
हुआ ये कि निमाई श्रीराधिका के भेष में ही थे ....भेष में ही नही उसी भाव में स्थिर थे ....विष्णुप्रिया को जैसे ही हृदय से लगाया तो उन्हें ये बात स्फुरण हुई । इसलिये श्रीराधा का ही आवेश इनको आगया ।
मैं श्रीवृन्दावन जाऊँगी ...क्यों की श्रीवृन्दावन मेरे प्राण हैं ....
सखी ! तू कुछ बोलती क्यों नही है ? निमाई ने प्रिया को झकझोरा ...बेचारी प्रिया ...जैसे तैसे तो अपने प्रियतम निमाई का सुखद आलिंगन पा रही थी । तभी निमाई को ये आवेश आगया था ।
शचिदेवि ने आकर सम्भाला ...निमाई तो मूर्छित ही हो गये थे । शचि देवि ने निमाई की साड़ी उतार दी ...काजल पोंछ दिया ...माथे की बिन्दी हटा दी ....केश जो जूड़ा बने थे उन्हें बिखेर दिया ...धोती पहना दिया । पर विष्णुप्रिया का दाहिना अंग फड़क रहा है ....ये शुभ नही है ...इसलिये ये डर रही है । माँ ! माँ ! दाहिना अंग का फड़कना अशुभ है क्या ? ....शचिदेवि ने अपनी इस भोली बहु को देखा ...इसकी आँखों में भय था .....दाहिना अंग तो शचिदेवि का भी फड़क रहा है .....पर ये कहे किससे ? बहु को भी कह देगी कि मेरा भी दाहिना अंग फड़क रहा है तो ये और भयभीत हो जाएगी ।
माँ ! आपके ज्येष्ठ पुत्र ने भी सन्यास लिया था ?
ये प्रश्न आज विष्णुप्रिया क्यों कर रही है ? शचि देवि का हृदय काँप गया ...
शचि देवि क्या बोले ....वो सच नही बोल सकती ..शचिदेवि ये नही कह सकती कि बेटी ! इसी तरह उस दिन भी मेरा दाहिना अंग फड़का था जब विश्वरूप ने सन्यास लिया था ।
प्रिया ! ये प्रश्न क्यों कर रही हो ? शचि देवि ने पूछा ।
नही,
मैं कल कृष्ण लीला में ये बात सुन रही थी कि आपके ज्येष्ठ पुत्र ने भी सन्यास लिया था और ........
और क्या ? बोल और क्या प्रिया ? कि अब आपके इन पुत्र की बारी है । शून्य नेत्रों से प्रिया अपनी सासु माँ को बोलती है .....वो इस समय अपने में नही है ....भयभीत है ...बहुत भयभीत है ....ये प्रश्न करते हुये ये काँप रही है ......शचिदेवि ने तुरन्त विष्णुप्रिया को पकड़ कर अपनी छाती से लगा लिया .....प्रिया ! ऐसे अशुभ बोली मत बोल ....निमाई सन्यास नही लेगा ।
रोते हुये शचि देवि प्रिया को यही कह रही थीं । पर शचि देवि का हृदय भी आज क्यों कह रहा है कि निमाई सन्यास लेगा । क्यों ?
तभी -
श्रीवृन्दावन , श्रीवृन्दावन , श्रीवृन्दावन ...निमाई उठे हैं ....
उनके अन्त:करण में श्रीवृन्दावन छा गया है ...वो बारम्बार यही नाम पुकार रहे हैं ।
वो गिरीगोवर्धन , वो यमुना , वो वन कुँज ....वो मेरा श्रीवृन्दावन । वो श्रीवृन्दावन जहां मेरे कृष्ण रास करते हैं ....माँ ! मुझे वहीं जाना है ....मुझे आज्ञा दो माँ ! मुझे जाने दो । निमाई अपने माता के चरणों में गिर गये हैं ....वो बारम्बार प्रार्थना कर रहे हैं । ये देखकर विष्णुप्रिया कोने में जाकर रो रही है ....पर निमाई शान्त नही हुये ....मुझे अब श्रीवृन्दावन भेज दो ...मुझे अब श्रीवृन्दावन जाने दो ....निमाई की यही रट है ....सम्भालती है शचि देवि , पर हा वृन्दावन , हा वृन्दावन कहते हुये निमाई फिर मूर्छित हो जाते हैं ।
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रात्रि की वेला हुई ...संकीर्तन आज मुरारी गुप्त के यहाँ है ...ये भी निमाई के परम भक्त हैं ।
मुरारी गुप्त के यहाँ भक्त लोग जुटने लगे थे ...पर निमाई नही आये ...तो मुरारी स्वयं गये , घर में निमाई की स्थिति बड़ी विलक्षण बनी हुई थी सात्विक भाव के सभी लक्षण निमाई में विद्यमान थे ।
मुरारी को देखते ही शचि माता ने कहा ...मुरारी ! अब तुम्हीं सम्भालो ...इस निमाई का उन्माद तो दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है । अब वृन्दावन जाऊँगा कह रहा है । मुरारी ने सम्भाला निमाई को ...और कुछ देर में वो सम्भल भी गये ।
मुरारी निमाई को लेकर अपने घर आये ....भक्तों का जमावड़ा बना हुआ था ....निमाई को देखते ही ...हरि बोल , हरि बोल , हरि बोल ....मृदंग और झाँझ भक्तों के बज उठे थे ।
संकीर्तन की ध्वनि से निमाई को आनन्द आया ....वो उछलने लगे ....वो मुट्ठी बाँध कर हुंकार भरने लगे । निमाई की स्थिति विचित्र थी ।
ये सब दो घड़ी भर ही चल पाया ....कि निमाई धरती पर मूर्छित हो गिर गये ।
सब लोग जल का छींटा मुख में देने लगे थे ....पर आज निमाई “कृष्ण” ना कहकर “वृन्दावन वृन्दावन” कह रहे थे .....उठकर बैठ गये .....स्थिति दयनीय है इस समय निमाई की....उनके अन्दर दैन्यता का उदय हो गया था ......मुझे वृन्दावन जाना है ...आहा ! मुझे वृन्दावन में प्रवेश करना है ...मुझे गिरी गोवर्धन का स्पर्श करना है ...मुझे यमुना में डुबकी लगानी है ....मुझे कृष्ण वहीं मिलेंगे ....हाँ वो मुझे वृन्दावन में ही मिलेंगे । वृन्दावन , जो प्रेम की भूमि है ...वृन्दावन जो भावमय देश है ....वृन्दावन जो भक्ति कि पावन धरा है ....वहाँ किसी धर्म का पालन नही किया जाता वहाँ केवल प्रेम धर्म है ...वहाँ का प्रेम धर्म ही सभी धर्मों पर आरूढ़ है ....क्या आवश्यकता है अन्य धर्मों की जब प्रेमधर्म हो तो .....ये धर्म , निमाई अपने यज्ञोंपवीत को दिखाते हैं - ये धर्म है स्मार्त धर्म , पर प्रेम धर्म के आगे ये कुछ नही है .....निमाई आवेश में हैं ....और आवेश में ही वो अपने यज्ञोंपवीत को तोड़ देते हैं ....इसकी क्या आवश्यकता , प्रेम धर्म के आगे ये कुछ नही है .....मैं ब्राह्मण नही हूँ ....निमाई हुंकार भरते हैं ...मैंने तोड़ दी जनेऊ ...नही नही मैं क्षत्रिय भी नही हूँ ....मैं वैश्य कहाँ हूँ ....ना शूद्र हूँ ....निमाई आवेश में फिर कहते हैं ....मैं ब्रह्मचारी भी नही ....मैं गृही भी नही ....मैं न वानप्रस्थाश्रम में हूँ ...और न सन्यासी ।
निमाई प्रभु ! फिर आप क्या हैं ? भक्तों ने पूछा ।
उठे निमाई नेत्रों अश्रु फिर बह चले .....मैं तो श्रीराधा के पति के भक्तों का दास हूँ ...नही नहीं उनके दासों का भी दास हूँ ।
ये कहते हुये निमाई सबके पैर छूने लगे थे ......सबसे आशीर्वाद माँग रहे थे श्रीवृन्दावन जाने का ।
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आकाश में बादल गर्जना कर रहे हैं .....प्रिया ! लगता है कुछ अनहोनी होने वाली है .....देख इस तरह बादल कभी गरजे नही थे ...वर्षा होगी आज तू कपड़े उठा ले ....शचि देवि ने अपनी बहु से कहा । शचि देवि की बहु विष्णुप्रिया का हृदय आज काँप रहा है ....उनकी दाहिनी आँखें अभी भी फड़क ही रही हैं । विष्णुप्रिया कपड़े उठा लेती है .....और नीचे आजाती है .......ओह ! इस शियार को भी अभी रोना था ! विष्णुप्रिया चारों ओर देखती है । शियार इसी के घर की मुँह करके रो रहा है ....वर्षा भी तो ...आज की वर्षा ऐसी लग रही है ...मानों आकाश रो रहा है ....पर क्यों ? अज्ञात कुछ घटने वाला है !
जगत का भले ही मंगल हो .....पर विष्णुप्रिया के लिए तो अब अमंगल ही था ।
शेष कल -
हरि शरणम्
✍️श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
[19/04, 10:48 am] वृज रसिक लाड़ली दास:
आज के विचार
!! परम वियोगिनी - श्रीविष्णुप्रिया !!
( नवविंशति अध्याय:)
19, 4, 2023
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गतांक से आगे -
पिता जी !
विष्णुप्रिया के यहाँ आज सनातन मिश्र जी आये हैं ...विष्णुप्रिया उनको देखती ही दौड़ पड़ती है ।
अपने हृदय से लगाकर भावुक हो उठते हैं सनातन मिश्र जी ....शचि देवि आदर करके जल आदि देती हैं .....वो प्रणाम करके बस मुस्कुरा देते हैं । निमाई नही दिखाई दे रहे ? सनातन मिश्र जी अपने जामाता से भी मिलना चाहते थे ....वो तो आज सुबह ही पण्डित श्रीवास जी के यहाँ चला गया है । शचि देवि कहती हैं । कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं मिश्र जी ....फिर अपनी बेटी विष्णुप्रिया के सिर में हाथ रखके कहते हैं ....अगर आप इसे आज्ञा दें तो कुछ दिन के लिए घर ले जाऊँ ? इसकी माता चार पाँच दिनों से इसी का नाम लेकर पुकार रही है ।
शचि देवि प्रिया के निकट आती हैं .....फिर कहती हैं इसके बिना तो ये घर भी सूना हो जायेगा ....पर हाँ , आप इसे कुछ दिनों के लिए ले जायें । शचि देवि ने प्रिया को जाने के लिए कहा । किन्तु माँ ! वो आयेंगे तब ....उनकी आज्ञा ? विष्णुप्रिया को चुप कर दिया शचि देवि ने और कहा ....दो दिन अपने माता पिता के साथ भी बिता लो ....इन्हें भी अच्छा लगेगा और तू भी खुश रहेंगी । विष्णुप्रिया कुछ नही बोली .....शचि देवि ने फिर कह कह कर प्रिया को मायके भेज ही दिया । सनातन मिश्र जी अपनी लाड़ली को ले आये हैं अपने घर । किन्तु विष्णुप्रिया का मन नही लग रहा यहाँ ।
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हे सन्यासीवर ! आपके दर्शन पाकर ये निमाई धन्य हो गया ।
क्या चाहते हो ? उन पूज्य सन्यासी ने निमाई की आँखों में आँखें डालकर पूछा था ।
“कृष्ण दर्शन”....निमाई के नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े । श्रीकृष्ण के दर्शन चाहता हूँ ....और कुछ नही चाहिये .....कुछ नही .....वे श्याम सुन्दर ....जो मुरलीमनोहर हैं .....उनके दर्शन करा दो ...हे पूज्य चरण ! जीवन में कृष्ण नही तो और क्या ? कृष्ण ही मिलें इसके लिए ये निमाई कुछ भी करने के लिए तैयार है । ये कहते हुए निमाई की आँखें चढ़ने लगीं इन्हें रोमांच होने लगा .....पसीने छूटने लगे ......देह कंपित हो उठा । ओह ! वो सन्यासी भी चकित हो गये ...निमाई के देह से जो प्रेम की ऊर्जा प्रकट हो रही थी .....उस ऊर्जा ने सन्यासी केशव भारती को भी अपने आग़ोश में ले लिया था ।
जी , इनका नाम था केशव भारती ....सन्यासी थे किन्तु भक्त थे ...परम भक्त .....कृष्ण की भक्ति ने ही इन्हें सन्यासी बनाया था ...ये भक्ति के मार्ग के ही थे ...हाँ , उस प्रेमाभक्ति को छुपाने के लिए ही इन्होंने गैरिक वस्त्रों का आश्रय लिया था ,ताकि इनके कृष्णप्रेम को कोई समझ न सके ।
आज निमाई को देखा तो इन्हें बड़ा सुख मिला .....शुरुआत में तो निमाई को इन्होंने एक सामान्य भावुक भक्त ही समझा था ....पर जब देह के अंग देखे ...तो उन्हें लगा कि ये तो कोई दिव्य पुरुष है ...रोते निमाई का हाथ इन्होंने क्या पकड़ा ....इन्हें प्रेम की उफान मारती ऊर्जा का अनुभव होने लगा । निमाई को छूते ही ये सन्यासी भी भक्त रूप में आगये थे , इनके नेत्र भी सजल हो गये थे ।
कौन हो तुम ?
बोलो , कौन हो तुम ? क्या भक्तराज प्रह्लाद हो ? या श्रीशुकदेव ? सन्यासी श्रेष्ठ के ये पूछते ही निमाई तो उनके चरणों में अपना मस्तक पटकने लगे थे । मैं भक्तराज प्रह्लाद ! मैं परम भागवत श्रीशुकदेव ? कैसा विनोद करते हैं आप ! हे यतिराज ! मैं तो तुच्छ जीव हूँ ...आप मेरी तुलना किससे कर रहे हैं ? मैं तो तिनके से भी छुद्र हूँ ....नीच , पापी हूँ ....अधम से भी अधम हूँ ....
नही....तुम असाधारण हो ....तुम भगवान हो ....भगवान सामान्य रूप से अवतरित हुये हैं ....निमाई कुछ बोलना चाह रहे थे .....किन्तु सन्यासीवर ने उनके मुख में अपना हाथ रख दिया ....यही नम्रता , यही विनम्रता प्रेम के लिए आवश्यक है ....झुकता है प्रेमी ...वो अपने को दीन हीन मानता है ....अहंकार पूर्ण गलित होने पर ही तो प्रेम का प्राकट्य होता है ....ये सहज है ....प्रेमी दीन हीन नही ...प्रेमी तो सम्राटों का सम्राट है ....उसके आगे ब्रह्मा की पदवी भी तुच्छ है ....हे निमाई ! मैं भी तुम को पाकर धन्य हुआ । उठ गये वो सन्यासी और अपने हृदय से लगा लिया निमाई को ....अब ये दोनों ही प्रेमाश्रुओं से भींग गये थे ।
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बेटी ! मैंने कल एक दुस्वप्न देखा था ....महामाया देवि विष्णुप्रिया से बोलीं - तू दुखी थी ....तू इधर उधर भाग रही थी ....लोगों से सहायता माँग रही थी ....तेरा पति मुझे दिखाई दिया ....जो मुंडित केश था ...गैरिक वस्त्र धारण करके भिक्षा माँग रहा था ....लाखों लोग उसके पीछे थे ....वो लाखों की भीड़ तेरे पति की जयजयकार कर रही थी ....पर तू इधर उधर भाग रही थी ....लोगों को कह रही थी कि मेरे पति मुझे दिला दो ...पर कोई तेरी बात नही सुन रहा था । अपने सपने की बात कहकर महामायादेवि रोने और अश्रुपात करने लगीं ..विष्णुप्रिया भी रोना चाहती है पर वो अपने अश्रुओं को पी लेती है और अपनी माता महामाया देवि से कहती है ....तुम बेकार में परेशान हो रही हो ....ऐसा कुछ नही है । तो प्रिया ! क्या ये सच नही है कि निमाई के बड़े भाई ने सन्यास ले लिया था ?
विष्णुप्रिया कुछ नही बोली ....प्रिया ! मुझे तेरी बहुत चिन्ता लग रही है ....बेटी ! सच सच बता निमाई तुझ से प्रेम करता है ना ? माँ ! तुम भी ना ....बता बेटी ! मैंने सुना है गया तीर्थ से आने के बाद वो बदल गया है ? रात रात भर जागकर कीर्तन करता है ? रोता है ? मूर्छित होता है ?
विष्णुप्रिया कुछ नही बोलती ....अब वो मौन है ।
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हे यतिराज ! आप मेरे यहाँ भिक्षा ग्रहण करें । दोनों ही एक दूसरे को छोड़ना नही चाहते । केशव भारती और निमाई अब एक दूसरे में रम रहे हैं । दोनों ही परम भागवत हैं ।
“चलो” ....उसी समय सन्यासी महोदय निमाई के साथ चल दिये ।
माँ ! माँ !
देखो हमारे भाग्य से ऐसे परम भागवत सन्यासी घर में पधारे हैं ये आज हमारे यहाँ ही भिक्षा लेंगे ।
ऊपर से लेकर नीचे तक शचि देवि ने देखा उन सन्यासी को ...सन्यासी वस्त्र से ही शचि देवि को चिढ़ है ...डर है ...बड़ा बेटा सन्यासी बनकर चला गया था ...कारण यही है ।
आप मेरे कक्ष में चलिये ...निमाई अपने कक्ष में ले गये सन्यासी को ...और द्वार बन्द कर लिया ।
भोजन बनाती हैं शचिदेवि ....पर मन काँप रहा है ....डर रही हैं .....इनकी इच्छा है कि ये सुनें दोनों बात क्या कर रहे होंगे ? कहीं मेरा बेटा निमाई सन्यासी तो नही हो जायेगा ? शचि देवि के पास कोई नही है जिससे वो ये सब बातें बता सकें ....हाँ , शचि देवि को अपनी बहन याद आई ...चंद्रशेखर आचार्य की पत्नी इनकी सगी बहन ही तो हैं ....और पड़ोस में ही हैं । शचि देवि गई और जाकर अपनी बहन को ले आई ....।
देख ना ! चार घण्टे हो गये ....अभी तक भीतर ही हैं दोनों ....क्या बात कर रहे होंगे ! कहीं सन्यास न ले ले निमाई ! तू बोल बहन ! तुझे क्या लगता है ? शचि देवि की बहन गईं और कान लगाकर निमाई के कक्ष से आती आवाज सुनने लगीं ...शचि देवि ने भी यही किया ।
तोमार मत वेश आमि कबे जे धरिब ?
यही शब्द सुन लिए शचि देवि ने .....भीतर निमाई कह रहे थे केशव भारती से कि ...आपके समान मैं भेष कब धारण करूँगा ?
ये सुनते ही शचि देवि का हृदय काँप गया ....उनके नेत्रों से फिर अश्रुधार बह चले थे ।
कुछ समय बाद निमाई और वो सन्यासी बाहर आये ....निमाई ने भिक्षा दिया ...बड़े ही प्रेम से निमाई द्वारा दी गयी भिक्षा सन्यासी ने ग्रहण किया । और वहाँ से प्रस्थान ।
निमाई !
गंगा घाट तक छोड़कर आए थे निमाई इन सन्यासी को .....घर आये तो मौसी और माँ दोनों के नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ।
निमाई ! तुम्हारी माता शचि देवि कुछ पूछना चाहती हैं ......मौसी ने कहा था ।
हाँ माँ ! निमाई ने अपनी माता की ओर देखा ....
निमाई को देखते ही माता फूट फूट कर रो पड़ीं .....निमाई ने समझाया शान्त किया फिर पूछा ...बताओ माता ! क्या बात है ?
निमाई ! एक बात बता ....तू सन्यास तो नही लेगा ना ?
ये सुनते ही निमाई अपराधी की तरह अपना मस्तक झुका लेते हैं .....वो कुछ नही बोलते ।
शचि देवि का रुदन प्रारम्भ हो गया .....तू बोल , तू बोलता क्यों नही है ?
माँ ! मैं अपने में ही नही हूँ ....क्या बोलूँ ? मुझे तो कृष्ण नचा रहे हैं ...वो जैसा कहेंगे वो जैसा करेंगे ...मैं वही करूँगा । ओह ! कितनी निर्दयता से निमाई बोल गये थे ।
तो तू सन्यास लेगा ? शचि देवि ने फिर पूछा ।
मैंने कहा ना , माँ !
कृष्ण जो करें वही होगा ...मैं अपने में नही हूँ .....निमाई सिर झुकाकर ही बोल रहे थे ।
माँ का रुदन अब चीत्कार में बदल रहा था .....निमाई ने अपनी माता को सांत्वना देने के लिए इतना अवश्य कहा ....जो भी करूँगा ...भैया विश्वरूप की तरह नही करूँगा ....माँ ! तुझे पहले बता करके तुझ से आज्ञा लेकर के ही करूँगा ।
इतना कहकर निमाई घर से संकीर्तन के लिए चले गये थे ।
शचि देवि को उनकी बहन ने समझाया ...निमाई ऐसा कुछ नही करेगा ....वो माता का परम भक्त है ...आप जो कहोगी वो मानेगा । इस बात से कुछ सांत्वना मिली थी शचि देवि को ।
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माँ ! ये दाहिनी आँख क्यों फड़कती है ?
बेचारी विष्णुप्रिया अपनी माता महामाया देवि से पूछ रही है ।
शेष कल -
हरि शरणं
✍🏼श्याम प्रिया दास (श्रीजी मंजरी दास)