*#मैं_जनक_नंदिनी.... 1️⃣*
मै वैदेही ! ................
श्रीविदेह राज की लाड़ली ....श्रीराजाधिराज श्रीरघुनाथ जी की प्रिया !
ओह ! ऋषि वाल्मीकि जी के आश्रम में हूँ ............यहाँ मेरे नाम से कोई परिचित नही है .........महर्षि को मैने कह दिया है .........मेरा नाम किसी को न बताया जाए .....तब से महर्षि नें मेरा नाम रख दिया है "वन देवी" ।
यहाँ सब लोग मुझे "वन देवी" ही कहते हैं ।
क्यों न बताया जाए ? क्यों छुपाऊँ मै अपना नाम !
ओह ! इसलिये कि मेरे प्राण सर्वस्व की यहाँ निन्दा होगी .....और ये निन्दा समाज में फैलती जायेगी .........और ये वैदेही कैसे चाहे ये !
क्या ! मुझे छोड़ दिया मेरे प्राण नें ?
वो मुझे छोड़ सकते हैं ?
हम दोनों एक हैं .............राम और सीता .............फिर कैसे कहूँ उन्होंने मुझे त्यागा ............नही ......नही ............।
मै गर्भ वती हूँ ...........अरे ! मैने ही तो उनसे कहा था ..........कि मुझे वन के सात्विक वातावरण में ......मै अपनें बालकों को जन्म देना चाहती हूँ ...........सो मेरे प्राण धन नें मेरे लिए व्यवस्था कर दी ।
इसमें त्यागना कहाँ से आया ? छोड़ना कहाँ से आया ।
नही जो ऐसा कहते हैं ........वो मेरे प्राण धन के प्रेम को जानते ही नही हैं ............वो मुझ से बहुत प्रेम करते हैं .....हाँ ....बहुत ।
हा हा हा हा हा हा हा ...............मै और वो अलग कहाँ है !
( इतनें में ही लेखनी गिर जाती है सीता जी के हाथों से और वो मूर्छित हो जाती हैं )
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( कुछ देर के बाद फिर सम्भालती हैं वैदेही अपनें आपको और लिखना फिर शुरू )
वो भयानक जंगल !.............जब मुझे लक्ष्मण छोड़ कर चले गए ।
ठीक ही किया लक्ष्मण नें भी .......मै लक्ष्मण की भी तो अपराधिनी हूँ ...
मारीच के प्रसंग में .......जब लक्ष्मण नें मुझे लाख समझाया था ....कि माँ ! वो भगवान हैं ......उनका कोई क्या बिगाड़ेगा .........वो काल के भी महाकाल हैं ............आप चिन्ता मत कीजिये .........मुझे जानें के लिए मत कहिये .....यहाँ अनेक राक्षस हैं ............कुछ भी हो सकता है ।
तब क्या मैने लक्ष्मण की बात मानीं .......?
नही मानीं ..........ओह ! कितना भला बुरा कहा मैनें लक्ष्मण को ।
हाय हाय ! ..........अपराधिनी हूँ मै लक्ष्मण की .......।
ठीक किया लक्ष्मण नें .....मुझे छोड़ कर चले गए गंगा के किनारे ।
अकेली मै ................रात हो रही थी ........मै गर्भ वती .........
कहाँ जा रहे हो लक्ष्मण ? मै यहाँ अकेली ?
हिलकियाँ छूट गयीं थीं बेचारे लक्ष्मण की ........वो भी क्या करे ......वो तो अपनें बड़े भाई का सेवक है ...सेव्य जो कहे सेवक वही तो करेगा ।
माँ ! माँ !
मेरे पैरों में गिर गया था ........और रोता ही जा रहा था ।
क्या हुआ तुम क्यों रोते हो लखन भैया !
बहुत देर तक तो वो बोल भी नही पाया ।
फिर अपनें आपको सम्भाला .......रथ में बैठा .........
क्या हुआ ? मै रथ में बैठनें जा रही थी ।
आपको प्रभु नें त्याग दिया है !
लक्ष्मण बहुत मुश्किल से ये बोल पाये थे ।
क्या ! क्या !
मै स्तब्ध थी........मै चेतना शून्य हो गयी थी ।
ये क्या कह रहे हो ? मै कुछ और बोल पाती कि तब तक लक्ष्मण चल दिया .....रथ लेकर ।
रात हो रही थी ...........भयानक जंगल था ।
झुंगुर की आवाज चारों दिशाओं से आरही थी ........मेरे बगल से होकर साँप गुजर रहे थे ........सिंह मेरे सामनें से जा रहा था .......मै डर रही थी .............।
कूद जाऊँ गंगा में ........एक क्षण के लिए मेरे मन में ये विचार आया ।
मै गंगा में कूद कर इस देह को ही समाप्त करना चाहती थी ........कि तभी मैने अपनें गर्भ को देखा ...........ओह ! इसमें मेरे प्राण रघुनाथ जी के अंश हैं ।
इन्हें कैसे नष्ट करूँ ......?
बैठ गयी ...........डर ........अपार दुःख ...............
इतनी पीड़ा तो मुझे .......उस समय भी नही हुयी थी ........जब रावण मुझे चुराकर ले गया था ........अरे ! मेरे "प्राण" नें तो मुझे नही छोड़ा था ना तब !
पर आज ...? ओह ! .................
मेरी हिलकियाँ बंध गयीं थीं उस समय .........।
मै वैदेही !
जनकपुर में जब चलती थी .....तो मेरे पिता विदेह राज मेरे लिए ......कमल फूल की पंखुड़ियाँ बिछवा देते थे ............कमल फूल के पराग मनों में बिछाये जाते थे ......मेरी सुकुमारी सिया कैसे जमीन पर चलेगी ..........पर आज ! ओह !
मै क्या करूँ !
पीड़ा इतनी हुयी ........कि धरती पर गिर ही पड़ी थी ......मै ।
बेटी ! पुत्री ! वो वात्सल्य से सनी आवाज मेरे कानों में गयी ....
कौन ! कौन ! मै डर गयी ......कौन है आप !
पर ये तो ऋषि थे ...... महर्षि वाल्मीकि ।
सम्भाला इन्होनें ......मुझे .......हाँ मेरे आँसुओं को सम्भाला और अपनी कमण्डलु में डाला .........और यही कहा ......सिया बेटी ! तेरे एक आँसू की बून्द भी अगर इस धरती में गिरी .........तो ये धरती रसातल में चली जायेगी ....
प्रलय ला देगी तेरी माँ ये धरती .................
मै क्या करूँ ? बोलिये ना महर्षि ! मै क्या करूँ ?
मैने बिलखते हुए उनसे कहा था ।
बेटी सिया ! चलो मेरे साथ , मेरे आश्रम में चलो ..............
मै किंकर्तव्य विमूढ़ सी चल दी ....महर्षि का स्नेह मेरे प्रति अगाध था .....मैने उनको देखते ही अनुभव किया ........मेरी ये दशा देखकर उनके भी आँसू बरसना चाहते थे ........वो भी दहाड़ मारकर रोना चाहते थे ...."हे राम ! तुमनें ये क्या किया ".......पर उन्होंने रोक लिया था अपनें आँसुओं को ....शायद यही आँसू उनके "रामायण" बनकर प्रकट हुए ।
मै चल रही थी उनके पीछे पीछे ............और वो मेरे पिता के रूप में आगे आगे चलते रहे ..............मुझे कुछ पता नही था ......।
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{◆मैं जनक_नंदिनी.... 2️⃣◆}
ये क्या हो गया !
ओह ! मेरे प्राणधन नें ये क्या किया ? क्यों किया ?
कितनें प्रश्न हैं मेरे मन में ......कौन देगा इनका उत्तर ?
कहते हैं एक धोबी के कहनें से मुझे छोड़ दिया मेरे "प्राणधन" नें ?
एक धोबी के कहनें से ? मेरा हृदय नही मानता ...........
मुझ सिया के लिये जिन श्रीरघुनाथ जी नें आकाश पाताल एक कर दिया था..........हाँ ........रावण मुझे जब चुराकर ले गया था ......तब मेरे लिये क्या नही किया मेरे प्राण नें ।
वानरों को जोड़ा, सागर में पुल बाँधा......रावण जैसे दुर्दांत असुर को मार गिराया ...........पर मै ये क्या सुन रही हूँ आज एक धोबी के कहनें से अपनी प्यारी सिया को छोड़ दिया !
अरे ! ये क्या ताल पत्र फिर से भीग गया ।
हाँ .....कल ही मुझे महर्षि वाल्मीकि कह रहे थे ............कि राजा बननें के बाद उसका निज जीवन समाप्त ही हो जाता है ..........।
फिर वह राजा प्रजा के लिये ही समर्पित होता है...........प्रजा ही उसके लिये सबकुछ है ......सब कुछ ।
बात मुझे ठीक लगी ये ..............तभी तो राजा बननें से पहले ......मेरे लिए क्या नही किया मेरे प्राण धन नें ...................
धर्म के साक्षात् रूप ही तो हैं मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी ........
वही अगर धर्म का पालन नही करेंगें तो फिर कौन करेगा ?
महर्षि ठीक कहते हैं ..................,
पर तार्किक दृष्टि से भले ही ये ठीक लगे .........पर
मेरा हृदय फटा जा रहा है ...........ये सोचकर की वैदेही ! तेरे राम नें तुझे छोड़ दिया ।
नही ................नही...............ये कैसे हो सकता है ...........
हा हा हा हा हा हा ..........पगली हूँ मै कुछ भी सोचती रहती हूँ .....
कहाँ छोड़ा है ?
क्या धर्म रूप श्री राम झूठ बोलते हैं ?
नही नही ..............श्री राम झूठ कैसे बोलेंगें !
फिर पवनसुत के हाथों भेजा गया वो सन्देश क्या झूठ था ?
कि हे प्रिया ! तुममें और मुझ में कोई भेद नही है ............हम दोनों एक हैं ..............ये बात तुम जानती ही हो ना !
हाँ ......प्राण धन ! मै सब जानती हूँ ..............तुम कैसे मुझे छोड़ सकते हो ...............!
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मुझ में सहन शीलता बहुत है ..............हाँ और सब कहते हैं ये सहनशीलता मेरी माँ के कारण मुझ में आई ।
मेरी माता धरती है ना ! मेरा जन्म धरती से हुआ है .........
मेरी सखी चन्द्रकला कितनें प्यार से बुलाती थी .....भूमिजा ..।
हाय ! अगर मै भूमि की पुत्री न होती ......तो शायद अभी तक मैने अपनें देह को त्याग दिया होता ............पर ।
भूमिजा ! ( सीता जी इसे कई बार दोहराती हैं )
पर मुझे तो विदेहजा, मैथिली , वैदेही, सीता, जानकी .........
मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में ..............विदेहराज जनक की पुत्री होनें का सौभाग्य मुझे मिला ।
ओह ! वो विदेह राज जिनके आगे बड़े बड़े योगी बड़ों से बड़े ज्ञानी तत्व की शिक्षा लेंने आते थे .........वो गद्दी ही थी ......हाँ मेरे पिता की गद्दी ............जो सिद्ध थी ........उसमें बैठनें वाले ......सब विदेह ही कहलाये......देहातीत .........सब को "विदेह" उपाधि ही मिल गयी थी.......पर मेरे पिता का नाम तो था ........श्री शीलध्वज .......जनक ।
उनके जैसा प्रजा वत्सल कौन होगा ? एक पुत्री का पिता के लिए पक्षपात नही है ये कहना ................
मेरी मिथिला में अकाल पड़ गया था ..............कई वर्षों से वर्षा ही नही हुयी थी ...........कहते हैं मेरे पिता का हृदय तड़फ़ उठा था ......प्रजा जल के बिना त्राहि त्राहि कर उठी थी ।
विदेह राज ! आप एक यज्ञ कीजिये .........और उस यज्ञ की समाप्ति पर स्वयं आप और महारानी सुनयना जी .....हल चलाइये ...
वर्षा होगी !
..............वेदज्ञ शास्त्रज्ञ ऋषियों की एक मण्डली नें मेरे पिता को सलाह दी थी ।
मेरे पिता नें सिर झुकाकर उन पूज्य ऋषियों की बात मान ली थी ।
यज्ञ भी हुआ ............और हल भी चला रहे थे मेरे पिता और मेरी माँ सुनयना .......।
पर वो हल एक स्थान पर रुक गया ............ओह !
बड़ा प्रयास करना पड़ा ...........हल का अग्र भाग किसी वस्तु में अटक गया था .............
खोदा गया .........धरती को खोदते गए ..................
और कहते हैं ................एक सुवर्ण का मोती माणिक्य से जड़ा हुआ ......एक सन्दुक था .............वो थोडा खुला हुआ ही था ......
उसमें से रोनें की आवाज आरही थी ......................
कहते हैं ...........उसमें मै थी .........हाँ मै भूमिजा !
सीता , मैथिली.....वैदेही ........जानकी ................
और कहते हैं .............मै कुछ ही पलों में माता सुनयना की गोद में थी ।
ओह ! तभी वर्षा होनें लगी थी.............घन घोर वर्षा............लोग नाच उठे ........और हाँ ............कहते हैं उस दिन मेरे पिता जनक जी बहुत नाचे थे .........सब नाचे थे ...............पूरी सृष्टि नाची थी ।
****************
वन देवी ! आपको महर्षि वाल्मीकि बुला रहे हैं .......
एक आश्रम की सेविका नें आकर सीता जी को कहा ................
हाँ ...................अपनी लेखनी रखकर ताल पत्र को लपेटकर सीता जी गयीं ऋषि वाल्मीकि जी के पास ।
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ
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{◆मैं_जनक_नंदिनी.... 3️⃣◆}
मै वैदेही ! ................
महर्षि नें बुलवाया था ..............इसलिये गयी थी मै वहाँ ।
कह रहे थे ............मै रामायण लिख रहा हूँ ..............
पर क्यों ? मैने पूछा था ।
तब महर्षि वाल्मीकि नें मुझ से कहा.......नही सिया पुत्री ! मेरा और कोई उद्देश्य नही है रामायण लिखनें का.......बस यही उद्देश्य है कि जगत जानें की वैदेही सीता कितनी महान है !
मै महान हूँ ! हँसी आती है ..........अगर मै महान होती तो क्या प्रभु मुझे इस तरह से छोड़ते ? नही .............
मै कुछ नही बोली ...............सिर झुकाकर ही खड़ी रही .........
महर्षि मुझे खड़ा देखकर स्वयं खड़े हो गए थे ...........
फिर मेरे सिर में हाथ रखते हुये बोले थे .............पुत्री सिया !
मै चाहता हूँ ............ये रामायण पूरी हो ..........तुम कितनी निर्दोष हो ....ये बात इस विश्व् को समझ में आये .............ये विश्व तुम्हारी महानता तुम्हारे त्याग को समझे ।
कुछ भी बोले जा रहे थे महर्षि ...........मुझे अपनी बेटी मान लिया था ना .....तो अपनी बेटी का पक्षपात तो पिता करेगा ही। ।
पर ये कहा था महर्षि नें ............उस बात नें मुझे चौंका दिया ।
बेटी ! मै रामायण लिखूंगा .....और उस रामायण को तुम्हारे कोख के बालक राम की सभा में ........जब रघुनाथ जी बैठे होंगें ........और विश्व के प्रतिनिधि देव यक्ष नर नाग सब होंगें .......उस समय इस रामायण को गायेंगें तुम्हारे बालक ! और बतायेंगें कि उनकी माँ गंगा के समान ...........शायद गंगा से भी ज्यादा पवित्र हैं ।
महर्षि जब ये सब बोल रहे थे ........तब उनके चेहरे में आक्रोश भी था .....और पीड़ा भी थी ......आक्रोश मेरे राम के प्रति .......और पीडा मेरे कष्ट को लेकर ...............।
बेटी सीता ! इसका नाम ही होगा। रामायण ........वैसे देखा जाये तो ये सीतायन ही है ...........इसमें तुम्हारे ही चरित्र का वर्णन होगा ...विशेष ................ये कहते हुए महर्षि नें अपनें आँसू पोंछे थे ।
मैनें प्रणाम किया .........और अपनी कुटिया में लौट आई थी ।
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जनकपुर ! मिथिला ...................आहा !
मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में ..................
धरती में .............मिथिला वासी ही आनन्दित नही थे .........मेरी सखी चन्द्रकला कहती थी ..........कि सम्पूर्ण जगत ही, आस्तित्व ही प्रसन्न था ........मेरे पिता जनक जी नें क्या नही लुटाया ......
सब खुश थे ......सब आनन्दित थे ।
पर .............दूध मुझे कौन पिलाएगा ..............
मेरी माँ सुनयना जी को इसी बात की तो चिन्ता थी .........
मै रोये जा रही थी..........मैने अन्यों से ये बात सुनी .......कि मुझे भूख लग रही थी .......पर माँ सुनयना के वक्ष से दूध नही आरहा था ।
तभी .............मेरी जननी .........धरती माँ थीं .........उनको ही उपाय निकालना था ......तब एकाएक धरती से दूध की नदी बह चली........दूध मति ! हाँ उस नदी का नाम दूध मति था ।
आहा ! कितना आनन्द आता था ...........हम सब सखियाँ दूध मति के किनारे जाकर खूब खेलती थीं ...........मेरी सखियाँ !
चन्द्रकला , चारुशीला , पद्मा ....................
हम दिन भर खेलती रहतीं .........दूध मति के किनारे ही ।
कितनी मस्ती करती थीं हम सब सखियाँ ..................
माँ सुनयना तो बस मेरी चिन्ता में ही सूखी जातीं .........कहाँ गयी मैथिली ! कहाँ गयी मेरी लाली ! पर हम लोग सभी सखियाँ दिन भर खेलना..........बड़ी होती जा रही थी मै ।
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मेरे पिता एक धनुष को पूजते थे .....................
हाँ वो शिव धनुष था .................
मेरे पिता जनक जी भगवान शंकर जी के परम भक्त थे ।
उन्होंने तप किया था ......घोर तप ।
महादेव प्रसन्न हुए .......महादेव तो मेरे पिता से सदैव प्रसन्न ही रहे ।
आप मुझ पर प्रसन्न हों"
.......मेरे पिता नें और कुछ नही माँगा था ......बस आराध्य प्रसन्न हो .......इससे ज्यादा सच्चा साधक कुछ और माँगे भी तो क्या माँगे ?
हाँ ........वो रावण .....जो मुझे हरण करके ले गया था .....उसनें भी साथ साथ तप किया था ............डरता तो था मेरे पिता से रावण भी .....क्यों की मेरे पिता तेजवान थे .......अद्भुत शक्ति से सम्पन्न थे ...इसके साथ साथ ज्ञानवान और सत्यवान थे ।
इसलिये रावण चारों दिशाओं में विजय प्राप्त करनें के बाद भी उसनें जनकपुर मिथिला की ओर देखनें की हिम्मत भी नही की थी ।
हाँ .........मिथिला में अकाल पड़ता नही .......पर मिथिला में जो अकाल पड़ा .........वो रावण के कारण ही था ।
मेरे पिता की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति देखकर रावण चिढ़ता था ।
वो ब्राह्मण होकर भी उस स्थिति को पा नही सका ......पर मेरे पिता क्षत्रिय होकर भी उस ब्रह्म बोध को प्राप्त कर चुके थे .....नही नही ब्रह्म बोध को पा चुके थे नही ........अपितु पाकर भी अन्यों को बाँट भी रहे थे ...........।
साधुओं से चिढ़ता था .........मारता था .............और उनके रक्त को निकाल लेता था ............रावण ।
मेरे पिता जनक जी से ईर्श्या के कारण........उसनें साधू ऋषियों का रक्त एक कलसे में भरवा कर ........मिथिला की भूमि में गढवा दिया था ।
ये सोची समझी साजिश थी रावण की ............
पर मेरे पिता के ऊपर विशेष वरदहस्त था महादेव का ।
महादेव मेरे पिता से बड़ा प्रेम करते थे .............
इसलिये उन्होंने अपना शिव धनुष ही दे दिया था ................जाओ ! इसको रखो ......पूजो ! मंगल होगा ............।
मेरे पिता ले आये थे उस शिव धनुष को ........और अपनें पूजा गृह में स्थापित किया था .......।
बहुत भारी था वो धनुष .............उसे उठा पाना असम्भव ही था ।
मेरे ख्याल से तो जब से मेरे पिता भगवान शंकर से लेकर आये थे शिव धनुष ......तब से उसे पूजा गृह से किसी नें उठाया ही नही था ।
------------------
सखियों के साथ चली गयी मै उस दिन पूजा घर में ।
चलो ना जानकी ! दूध मति मैया ! तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं ।
मैने देखा था उस समय ............धनुष की पूजा होती थी .....अक्षत , फूल, चन्दन ये सब धनुष में नित्य चढ़ाये जाते थे ।
पर धनुष के नीचे ........इनका ढ़ेर लग गया था ।
पिता जी भी ना ! कम से कम साफ तो रखना चाहिए .............
मै बच्ची अपनें पिता को समझानें चली थी ।
उठा लिया था मैने एक हाथ से धनुष को ......और दूसरे हाथ से धनुष के नीचे की भूमि को साफ किया ............और धनुष रख दिया ।
मेरे पिता आये ............मै बगल में खड़ी हो गयी ....
पिता नें मुझे देखा ......मेरे माथे को चूमा ..........फिर धनुष के पास जैसे ही गए .........स्वच्छ स्थान !
इधर उधर देखा .............मै वहीं खड़ी थी .......वहाँ और कोई था भी नही ....किसी को इजाजत भी तो नही थी इस पूजा घर में आनें की ।
पुत्री सीता ! ये किसनें धनुष को उठाया ?
क्यों की बिना उठाये इस स्थान को स्वच्छ नही किया जा सकता ।
मैने सिर झुकाकर मुस्कुराते हुए कहा ......पिता जी ! मैने ।
तुमनें ? वो चौंक गए थे ..............तुम से उठ गया ये धनुष ।
हजारों सैनिक .......एक साथ मिलकर भी बड़ी मुश्किल से इसे उठा पाते हैं ........तुमनें उठा लिया ?
एक हाथ से ..........पिता जी ! मात्र एक हाथ से ।
इतना कहकर मै भागी .......हँसते हुए .................
मेरे पिता मुझे देखते रहे थे ...............देखते रहे ।
और हाँ ........रात्रि में ही मुझे पता चला कि पिता जी नें प्रतिज्ञा कर ली है ...जो शिव धनुष को तोड़ेगा ...........उसी को मेरी बेटी वरेगी ।
ये क्या प्रतिज्ञा कर ली थी मेरे पिता नें....मुझे उस समय ऐसा लगा था ।
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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{◆मैं जनक नंदिनी.... 4️⃣◆}
( माता_सीता_के_व्यथा_की_आत्मकथा)
मै_वैदेही ! ................
श्रीविदेह राज की लाड़ली ....श्रीराजाधिराज श्रीरघुनाथ जी की प्रिया !
कल के प्रसंग से आगे का ......
ओह ! मै वैदेही तो खो गयी ......अपनी जन्म भूमि को याद करते हुए ।
हाँ मेरी जन्म भूमि मिथिला है ही ऐसी .............
वहाँ के लोगों का प्रेम.......वहाँ के लोगों का स्नेह मै कैसे भूल पाऊँगी ।
ओह ! ये खबर क्या मेरे पिता जनक जी तक पहुंची होगी ?
कि प्रभु श्री राम नें मुझे इस तरह .............
नही नही ..........नही पहुंचनी चाहिये .......कितना कष्ट होगा उन्हें ।
और उससे भी बड़ी बात ये कि मेरे प्राण नाथ के प्रति कहीं कुछ गलत भावना न आजाये ..........मुझे इसी बात का डर लगता है ।
पर नही .....मेरे पिता जनक जी बहुत बुद्धिमान व्यक्तित्व हैं .......वो सब समझते हैं कि .....राजा का क्या कर्तव्य होता है .....राजा के लिए प्रजा ही सब कुछ होती है .................।
_____________
क्या लिखूँ ! समझ नही आता ...........अभी तो मेरे मन मस्तिष्क में बस जनकपुर ही है ..........मेरी प्यारी जन्मभूमि ।
मै बड़ी होती जा रही थी ........................
एक दिन मुझे ही तो मिले थे .......देवर्षि नारद जी महाराज ।
वाटिका में .....जब मै अपनी सखियों के साथ खेल रही थी ।
वैसे देवर्षि आते जाते रहते थे ....मेरे पिता जी के पास ।
कभी किसी ऋषि कुमार को पकड़ लाते ......और कहते मेरे पिता जी से .....कि इसका आत्म ज्ञान पक्का है की नही ?
मेरे पिता जी उस ऋषि कुमार की परीक्षा लेते ...............उत्तीर्ण हुआ या अनुत्तीर्ण हुआ .............और हाँ ....मेरे पिता जिसे उत्तीर्ण कर देते .....वो फिर पूर्ण आत्मज्ञानी ही होता ।
पर जिसमें कमी है .........उसको वो शिक्षा देते ........उपदेश देते ।
हँसी आती है उस दिन की बात याद करके .................
( कई दिनों के बाद सीता जी आज हँसती हैं .....एक घटना को याद करके )
उस ऋषि कुमार को देवर्षि नारद जी ही तो लाये थे .........हा हा हा हा ।
--------------------
हे विदेह राज ! ये एक ऋषि कुमार है .........इसनें आत्मज्ञान प्राप्त किया है .............और मार्ग में मुझे मिला ......तो मुझ से कहनें लगा .....मै आत्मज्ञानी हूँ ..........तब मैने इससे कहा था ........मिथिलापति विदेह जब तक तुम्हे आत्मज्ञानी नही कहेंगे.......तुम आत्मज्ञानी कैसे हो सकते हो ? नारद जी नें मेरे पिता से आकर कहा था ।
मेरे पिता जी हँसे थे ........ये क्या बात हुयी देवर्षि !
मै कौन होता हूँ किसी को भी आत्मज्ञानी का प्रमाणपत्र देनें वाला ।
हैं .....आप हैं ही उस उच्चकोटि के ज्ञानी ...................जिनको ये समझ है कि आत्मज्ञान कैसे प्राप्त होता है ....और हो जाता है तो उसके लक्षण क्या हैं ?
मेरे पिता जी हँसे थे .....खूब ठहाका लगाकर हँसे थे.......आप भी ना !
अच्छा ठीक है ............ऋषि कुमार ! बताओ तुमनें क्या सीखा है ....और किन किन शास्त्रों का अध्ययन किया है ?
मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ।
वो हँसा था ........आत्मज्ञान के लिए शास्त्र पढ़नें की जरूरत है क्या ?
नही ....बिल्कुल नही ............मेरे पिता जी नें कहा ।
फिर आप ये प्रश्न क्यों कर रहे हैं ?
ऋषि कुमार का अहंकार बोल रहा था ।
मेरे पिता इतनें में ही समझ गए थे कि ....ये कोई आत्मज्ञानी नही है ।
फिर भी उसे तो ये बताना आवश्यक ही था ........कि तुम्हारी स्थिति अभी आत्मज्ञानी बननें में कई कोसों दूर है .........।
अच्छा बताओ .......आत्मज्ञानी के लक्षण क्या है ?
मेरे पिता के इस प्रश्न का उत्तर उसनें दिया था ...............
जो देहातीत है .............देहातीत होना ही पहला लक्षण है आत्मज्ञानी का .......क्यों की देह तो मिथ्या है ............।
देवर्षि की और देखकर मुस्कुराये थे मेरे पिता ............उसका ये उत्तर सुनकर ।
आप हँस रहे हैं क्या मेरी बात सही नही है ?
उस ऋषि कुमार नें फिर ये बात कही थी ।
नही नही ......मै तो तुम्हारी बातों से बहुत प्रसन्न हूँ ..........हाँ ठीक कहा आपनें ......यही लक्षण हैं आत्मज्ञानी के ।
पर ..........मेरे पिता जनक जी रुक गए इतना कहकर ।
क्या पर ? ऋषि कुमार कुछ ज्यादा ही अहं से ग्रस्त था ।
नही मुझे ये देखना है कि तुम सच में आत्मज्ञानी हो ....या केवल आत्मज्ञान की बातें ही करते हो !
मेरे पिता जनक जी नें उस युवक से कहा ।
आप क्षत्रिय होकर मुझ ब्राह्मण को शिक्षा दे रहे हैं ?
तो क्या आत्मज्ञानी ब्राह्मण और क्षत्रियों में उलझता है कुमार ! क्या ये सब भी मिथ्या नही हैं , ब्राह्मण और क्षत्रिय ?
मेरे पिता के ये कहनें पर वो ऋषि कुमार चुप हो गया था ।
देवर्षि ! मै स्नान करनें जा रहा हूँ .....कमला नदी में ............
क्या ऋषि कुमार आप भी चलेंगें मेरे साथ ?
मेरे पिता जी नें जानबूझकर अब उसे ज्यादा ही सम्मान देना शुरू कर दिया था ...........नारद जी हँसे .....वो समझ गए थे ........कि ऋषि कुमार की परीक्षा शुरू हो चुकी है ।
हाँ .....अवश्य ! अवश्य चलूँगा मै आपके साथ ।
ऋषि कुमार नें कहा .....और मेरे पिता के साथ कमला नदी में स्नान करनें के लिए चल दिए थे ।
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आपनें किस से आत्मज्ञान प्राप्त किया ?
वो ऋषि कुमार मेरे पिता जी से पूछनें लगा था ।
महान ऋषि अष्टावक्र से ...............बस इतना ही बोले मेरे पिता ......और कमला नदी के तट में आचुके थे ..........।
दोनों ही बड़े आनन्दित होकर स्नान करनें लगे ।
महाराज ! महाराज ! दो सैनिक आये .......और प्रणाम करके स्नान कर रहे अपनें महाराज विदेह राज से उन्होंने ये कहा था ।
महाराज ! आपका महल जल रहा है .....आग लग गयी उसमें ।
मुस्कुराये थे मेरे पिता जी ...........कोई बात नही ...........ये सब तो मिथ्या है ..............कोई चिन्ता के भाव नही थे मेरे पिता के मुख मण्डल में उस समय ।
पर ये क्या ! वो कुमार ....ऋषि कुमार तो नदी से बाहर आगया .....और भागा ..............
मेरे पिता देखते रहे ........और हँसते रहे .........कमला नदी में स्नान करते रहे ।
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कहाँ गए थे ऋषि कुमार ?
बड़े प्रेम से मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ......जो नदी में नहाते हुए भागे थे महल की और !
आपके महल में आग लग गयी थी !
तो ? मेरे पिता नें पूछा था .....तो क्या हुआ महल तो मेरा था ....पर तुम क्यों भागे ........?
मै वहीँ आपके महल के पास ही अपना वस्त्र सुखा कर आया था ...
वस्त्र तुम तो ऋषि कुमार हो ...तपश्वी हो ....तुम्हारा क्या वस्त्र ?
नही .....मेरी लँगोटी सूख रही थी ........मैने अपनी लँगोटी सुखानें के लिए बाहर ही डाल दिया था ...वह जल न जाए इसलिये मै भागा था ।
मेरे पिता बहुत हँसे थे .........तुम आत्मज्ञानी हो ?
मुझे देखो कुमार ! मेरा महल जल रहा है ..........पर मै शान्त हूँ ......कोई बात नही ....महल तो मिथ्या है .........है ना ?
फिर तुम्हारी लँगोटी ! मुझे महल की परवाह नही .....तुम्हे अपनी एक लँगोटी !
( सीता जी ये लिखते हुए बच्चों की तरह निश्छल रूप से हँसती रहीं )
ऋषि कुमार ! बातों से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ........बातें बनानें से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ..........आत्मज्ञानी बनता है ......जब सत्य का बोध होता है .........तब लगता है .....कि सब कुछ तो मिथ्या है ...सत्य एक मात्र आत्मतत्व है ............और पता है ऋषि कुमार !
सत्य का अर्थ क्या है ?
सत्य का अर्थ है ........जो "है".............
कल भी , आज भी , और कल भी ..............जिसकी उपस्थिति सदैव है .....उसे ही कहते हैं ...सत्य ।
तुम बातें करते हो .......बड़ी बड़ी आत्मतत्व की .......और तुम्हारी दृष्टि टिकी है .....लँगोटी में !
मेरे पिता जी नें उस ऋषि कुमार को बड़े स्नेह से समझाया था ।
अब तो वो मेरे पिता के चरणों में ही था ............
मै समझ गया.......मुझे कुछ नही आता.......अब आप ही मुझे आत्मतत्व का ज्ञान दें .........ऋषि कुमार के अश्रु बह रहे थे , ये कहते हुए ।
मेरे पिता नें उन्हें आत्मज्ञान दिया था ।
ऐसे थे मेरे पिता जनक जी ...........
पर ......................(.लेखनी रुक गयी थी सीता जी की )
पर मेरे श्रीरघुनाथ जी को देखकर कितनें प्रेमी बन गए थे .....मेरे पिता ।
ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छूनें के बाद भी .........मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी को पहली बार जब उन्होंने देखा ........तो !
ओह .........फिर नेत्रों से अश्रु धार बह चले थे सीता जी के ....
ताल पत्र भींग रहा था ........तालपत्र में टप् टप् आँसू गिरनें लगे थे ।
( कुछ देर अपनें आपको सम्भाला था सीता जी नें )
हाँ .......मुझे उस दिन देवर्षि मिले वाटिका में .......तब मैने अपनी सखियों के सहित उनको प्रणाम किया था .............।
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{◆मैं जनक नंदिनी.... 5️⃣◆}
मै_वैदेही ! ................
(गौरांगी_का_स्वप्न )
मत बोल तू सीते सीते ! राम बोल ......"श्रीराम" बोल शुक !
कितना समझा रही हैं आज वैदेही .......पर ये शुक है कि मान ही नही रहा ..............देख ! शुक ! मै प्रसन्न होती हूँ जब कोई मेरे प्राणधन का नाम लेता है .........पर तू मेरा नाम ही क्यों बोले जा रहा है .....
पर ये तोता है कि मान ही नही रहा .............
चुप ! चुप ! ये महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ......कोई जनकपुर नही ।
जो तू "सीता सीता" कह रहा है .......मत कह ......मत कह ।
ये शुक भी विचित्र है ...........बचपन से ही पालित है श्रीकिशोरी जू की गोद में ये .............कोई साधारण तोता तो है नही ।
आगया है जनकपुर से यहाँ ..............कैसे आया !
अरे ! अपनें प्रेम का स्थान ये सब समझते हैं ..........फिर ये तो साक्षात् शुकदेव ही हैं .........आगया उड़ते हुए महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में .......अपनी आराध्या के पास ..........हाँ इनकी आराध्या सीता जी ही तो हैं ...........।
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हरि जी ! कितनी देर से ट्राई कर रही हूँ ......पर आपका फोन लग ही नही रहा .........वाह ! गौरांगी का फोन आया था मेरे पास .....जब मै कल ट्रेन में था ।
गौरांगी ! मै ट्रेन में हूँ ..........यहाँ नेटवर्क अच्छे से नही आरहा ।
आप आरहे हैं श्रीधाम वृन्दावन हरि जी !
गौरांगी की ख़ुशी उसकी खनकती आवाज से ही लग रही थी ।
हरि जी ! बात ये है कि ..........मै नौ दिन के अनुष्ठान में थी .......
अपनी प्राण प्रिया श्री जी की आराधना में ...............आज नवमी के दिन मेरा अनुष्ठान पूरा हुआ ।...........( फोन फिर कट गया )
इस बार मैनें ही उसे लगाया फोन ........हाँ बताओ गौरांगी ! क्या हुआ ?
हरि जी ! आज ही मैने आपके "आज के विचार" पढ़े ........सारे नौ दिन तक के विचार आज ही पढ़ डाले ।
पर "वैदेही की आत्मकथा" 4 भाग तक जो आपनें लिखी है ........
उफ़ ! .............कितना कष्ट सहा ना ! मेरी श्री सिया जू नें !
मै रो गयी पढ़ते हुये............मेरे आँसू नही रुक रहे थे ।
मन में आया मै आपसे कहूँ इतना दुखद वर्णन मत करो .......पर विरह ही तो प्रेम के प्राण है..........ये सोचकर मै चुप हो गयी ।
थक गयी थी .....शरीर में थकान सी होनें लगी थी ......शायद सिया जू के बारे में सोच कर ।
मुझे नींद आगयी .........मै सो गई ।
वैसे दिवा स्वप्न का कोई महत्व नही होता ऐसा कहते हैं .......पर जिस स्वप्न में किशोरी जी के दर्शन हों .........वह स्वप्न तो दिव्य है ही .......शायद जाग्रत से भी ज्यादा धन्यता है उस स्वप्न में .....क्यों की अपनी स्वामिनी जू के दर्शन जो हो रहे थे ।
गौरांगी बोले जा रही थी ।
मैने ही उसे कहा ........अब बताओ भी .......क्या देखा तुमनें गौरांगी ।
उसकी खनकती आवाज मेरे कानों में जा रही थी .....उसनें बताना शुरू किया ................जो उसनें सपना देखा था ।
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गंगा जी बह रही हैं ..........महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ..........
और सिया जू बैठी हैं .....अकेली ! मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।
तभी मैने देखा ............एक तोता बहुत सुन्दर तोता उड़ता हुआ सिया जू के पास आया ..............सीता जी तो लिख रही थीं .........ताल पत्र में ........अपनी आत्मकथा ।
आत्मकथा क्यों लिखेंगी सीता जी ! .....पर इस आत्मकथा के बहानें से वो अपनें प्राण धन श्री रघुनाथ जी का ही तो चिन्तन कर रही थीं ।
तभी मैने देखा हरि जी ! एक तोता उड़ता हुआ आया ........और सिया जू के चरणों में गिर गया ..................।
कौन ? चौंक कर उन्होंने अपने चरणों की ओर देखा...........
शुक ! तू !
और वो शुक अकेले नही आया था ......उसके साथ सारिका ( मैना )
भी आई थी .......पर वो दूर बैठी रही ...........अपनी सर्वेश्वरी की यह स्थिति देखकर वो भी अपनें आँसू बहा रही थी ।
पर तू यहाँ क्यों आया ? जा ना मिथिला ! क्यों आया है तू यहाँ ।
तोता कुछ नही बोला .....................
वो चाह रहा था कि पहले की तरह ही सिया जू मुझे अपनें हाथों में लें ....और अपनें निकट ले जाकर ............प्यार से कुछ बोलें ।
ये वही तोता तो था .........जब श्री किशोरी जी की विदाई हो रही थी विवाह के बाद में ...............जनक जी तक अपनें आपको सम्भाल नही पाये थे .......रोते ही जा रहे थे ......इतने बड़े ज्ञानी जनक .....पर आज इन्हें क्या हो गया था .......सुनयना माँ तो मूर्छित ही हो गयी थीं ।
तभी इसी तोते नें ........चिल्लाना शुरू किया था ......सीते ! सीते !
ओह ! विदेह राज और विचलित हो गए ............उन्होंने कहा ..........ये तोता अगर यहाँ रहा ......तो हमें जीनें नही देगा .........
ये हर समय ....सीते ! सीते ! का रट लगाएगा ............और हम कैसे रहेंगें .................
नही ...........इस तोता और मैना को ......सीता के साथ ही भेज दो ......अवध ...................।
सुवर्ण का पिंजरा ही सीता जी की डोली में रख दिया था .........
अपनें हाथों में ही लेकर चलीं थीं श्री किशोरी जी ।
कितनें प्यार से पाला था इसे ...............फिर उस वात्सल्यमयी सीता जी को ये तोता कैसे भूल जाता ...........।
अवध में भी साथ ही रहता था ये तोता ..............
विचित्र निष्ठा थी इसकी .....किशोरी जी के प्रति ........
राम भद्र कुछ अपनें हाथों से खिलाते.......तो ये नही खाता ......ये तो अपनी स्वामिनी सिया जू के हाथों से ही खाता और पीता था ।
पर घटना घट गयी थी अवध में ..........की वनवास जाना पड़ेगा अब प्रभु श्री राम को ........तब तो श्री किशोरी जी भी जाएँगी ।
उस समय जब चलनें लगीं सीता जी राम जी के साथ .......
फिर इस तोते नें करुण क्रन्दन किया ......सीते ! सीते ! सीते !
दौड़कर उस तोते को अपनें वक्ष से लगा लिया किशोरी जी नें ।
शुक ! तू जा ..........मिथिला में जा ........वहीँ जाकर रह ........
पर आप मिथिला में नही हो ......तोता बोलता था ।
शुक ! मेरे हृदय में मिथिला है .....मेरे हृदय में जनकपुर है ......
तो मै कैसे दूर हो सकती हूँ जनकपुर से बता !
( अपना स्वप्न सुनाते हुए रो रही थी गौरांगी )
तू जा !
पर मै आपके साथ जाऊँगा ........जहाँ आप जाओगी !
नही .................मेरी बात मान ले .....जिद्द मत कर ।
ओह ! जब तोता नही माना ....तब अपनी सौगन्ध दिला दी उसे ।
रोता हुआ...........कुछ नाराज सा .........उड़ गया था वो तोता ।
उसनें पीछे मुड़कर भी नही देखा अपनी स्वामिनी को भी .....ज्यादा ही रूठ गया था .........वो उड़ता रहा ।
सिया जू उसे देखती रहीं ................अपनें आँसू पोंछती रहीं ।
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तू यहाँ क्यों आगया अब ?
महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ये तोता आज आगया था ....जनकपुर से ।
सीता जी नें रोते हुए उसे अब अपने हाथों में लिया ।
शुक ! क्या चाहते हो ! क्यों मुझे दुःख दे रहे हो ....जाओ ना !
मै आपको दुःख दे रहा हूँ ..............नही ......अगर मेरे यहाँ आनें के कारण आपको दुःख हो रहा है ....तो मै यहीं गंगा जी में कूद कर अपने इस शरीर को त्याग दूँगा ...............पर अब मुझे जानें के लिए मत कहिये ........मै आपका शुक हूँ .......सिर्फ आपका शुक हूँ ।
मुझे आपके पास रहना है .........आप इस तरह से हैं यहाँ ! ओह !
इतनें बड़े महल की राजकुमारी..........आज ऐसे ?
वो शुक पक्षी फिर अपनें आँखों से आँसू बहानें लगा था ।
मै आपके साथ ही रहूंगा......चाहे आप किसी भी रूप में ...रहें ...जहाँ भी रहें मै आपको अब छोड़नें वाला नही हूँ ।
मुझे अपनें चरणों में रख लीजिये ........अब मत छोड़िये .........
किसी भी रूप में ......आप मुझे मत छोड़िये ।
मै आपकी लीलाओं का गान करूँगा ............मै आपके दिव्य पावन चरित्र को सुनाऊंगा ...........जगत को सुनाऊंगा ............पर आपके चरणों के निकट रह कर ........इतना कहकर फिर वो शुक चुप हो गया ......एक क्षण के लिए जगत जननी के साँस अटक गए .....कहीं तीव्र विरह के ताप से इसनें प्राण तो नही छोड़ दिए ।
अपनें कोमल और वात्सल्य से भरे हाथ शुक पक्षी के ऊपर फेरनें लगीं थीं सीता जी ........
तोता अब प्रसन्न था ...............।
आप मुझे नही छोड़ेगीं अब .........कहिये !
नही छोडूंगी तुम्हे मेरे प्यारे शुक ! किशोरी जी नें कहा ।
दूसरे अवतार में भी ! शुक कोई साधारण पक्षी तो था नही ......उसे तो सब पता था ............कि किशोरी जी अब द्वापर में श्री राधा का रूप लेकर आनें वाली हैं .......और श्री राम ....श्री कृष्ण के रूप में ।
हाँ ...हाँ ........मै तुम्हे उस अवतार में भी अपनें साथ रखूंगी ........खुश !
किशोरी जी के इतना कहते ही .......वो तो किशोरी जी के हाथों में ही नाचनें लगा था ..........
पर ये लीला क्यों ? इस तरह विरह ..........और वो भी अपनें ही प्राण से .........ये क्या लीला है ? शुक नें पूछा था ।
मेरे स्वामी ......चाहते हैं .....कि जगत में मेरा ही यश हो .........सीता नें कितना त्याग किया .............ये जगत कहे ...........भले ही स्वयं को जगत गलत मानें .....उन्हें इस बात की परवाह कहाँ है ।
मेरे प्राण श्री राम यही तो सदैव चाहते रहे हैं .............मुझे बहुत ऊँचा रखकर .....स्वयं भले ही निन्दा के पात्र बनें .....उन्हें इस बात से कोई मतलब नही है ........शुक ! तुम तो जानते हो ना !
जानता हूँ ....जानता हूँ .....जानता हूँ ................कितना खुश था वो तोता अब ..................यही तोता तो शुकदेव हैं .........
हाँ ....किशोरी जी द्वारा पालित लालित...........शुकदेव !
भागवत की कथा हो .....या उसमें रामायण गाई गयी हो ......वो सब किशोरी जी नें ही सिखाया था इसे ..................ये शुकदेव ही हैं ।
मेरे मन नें ये कहना शुरू कर दिया था.....तभी मेरा ये स्वप्न टूट गया ।
गौरांगी नें कहा .........मै उठी ..............मुझे बहुत रोना आरहा था ।
तब हरि जी ! मैने आपको फोन लगाया ...............
मैने भी अपनें आँसू पोंछे ........और कहा गौरांगी ! सच है ये स्वप्न दिव्य है ........शुकदेव ही हैं .........जो किशोरी जी के प्रिय हैं ....ये वही शुकदेव हैं......जिन्होनें भागवत की कथा गाई ..........।
किशोरी जी ही इसे सिखाती रहीं.........पढ़ाती रहीं ।
कब तक आयोगे श्री धाम वृन्दावन हरि जी !
मैने कहा .....गौरांगी ! मेरी ट्रेन लेट है .........7 घण्टे लेट ।
रात में ही पहुंचूंगा .................।
कुञ्ज में आओगे ना कल ?
हाँ ....आऊंगा ना ......कुञ्ज में नही आऊंगा तो कहाँ जाऊँगा गौरांगी ।
मेरे इतना कहते ही ....फोन कट गया था ।
मै काफी देर तक इस बारें में सोचता रहा ...........गौरांगी की वो भाव मयी स्थिति विलक्षण थी.....उसी भाव स्थिति नें ही.....|
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{ मैं_जनक_नंदिनी.... 6️⃣ ,}
कुमार आये हैं....... .....शत्रुघ्न कुमार ।
बहुत रोये ......मेरे पैरों को भिगो दिया अपनें आँसुओं से ।
मैने कुशा आसन मै उनको बैठनें के लिए कहा ।
पर कुमार बार बार कह रहे थे ........हम रघुवंशी दोषी हैं .......हमसे महत् अपराध हुआ है । ..........लो जल पीयों पहले कुमार !
मैने जल लाकर दिया .......और कुछ कन्द मूल फल भी ।
पर मेरे पैरों में ही दृष्टि लगाये रहे शत्रुघ्न कुमार ।
कुछ तो बोलो कुमार ? मैने फिर पूछा ।
क्या बोलनें लायक हम रघुवंशी अब रह गए हैं ।
गंगा से भी पावनि आप हैं भाभी माँ ! फिर क्यों आपके साथ ऐसा किया हम लोगों नें ...............
भैया राम ! अब वो न किसी के भैया हैं ......न किसी के पिता .....न किसी के पति ........वो मात्र अब एक नीरस सम्राट रह गए हैं ..........कुमार का आक्रोश मुझे देखकर ही जागा था ।
हाँ माँ ! वो मात्र एक सम्राट के जीवन को जी रहे हैं ......उनके लिए अपनी निजी जिन्दगी कोई अर्थ नही रखती .............कुमार आँसू बहाते जा रहे थे और बोलते जा रहे थे ।
आपकी ये दशा ! ओह !
श्रुतकीर्ति कैसी है कुमार ?
मेरे इस प्रश्न पर कुमार शत्रुघ्न की फिर हिलकियाँ छूट गयीं थीं ।
आपको अपना दुःख नही बताना ! आप अपनें दुःख को कितना छुपा सकतीं हैं .........ओह ! सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं आप तो ।
अच्छा ! बताओ ना इस तरफ आनें का कारण ?
मेरे इस प्रश्न पर अपनें आँसू पोंछे थे कुमार नें .......फिर कहा .......चक्रवर्ती सम्राट श्री राम का आदेश है कि मथुरा में लवणासुर का मै वध करके आऊँ........उन्हीं के आज्ञा का मूक पालक हूँ मै तो !
कुमार नें मुझ से कहा भाभी माँ ! यहाँ से जा रहा था मथुरा के लिए .....
तभी महर्षि वाल्मीकि का मैनें आश्रम देखा ..............महर्षि के चरणों में वन्दन करनें के लिये ही आया था ..........चरण वन्दन किया तब महर्षि नें मुझ से इतना ही कहा ..................सम्राट श्री राम कैसे हैं ?
मैने कहा ..........सकुशल हैं ।
तब महर्षि के नयन सजल थे ..........उन्होंने इतना ही कहा .........वैदेही को क्यों छोड़ा ?
मै क्या बोलता ...................मै चुप रहा माँ ।
मैने ही फिर पूछा था ..........आगे क्या कहा महर्षि नें ।
उन्होंने इतना ही कहा .........अवध श्रापित हो गया है ।
मै चौंक गया था ......क्या भाभी माँ नें श्राप दे दिया अयोध्या को ?
नही ...श्राप नही दिया .........श्राप देना नही पड़ता कुमार शत्रुघ्न ।
कोई सरल अत्यंत सहज निष्पाप व्यक्ति का हृदय अगर तुम्हारे कारण दुःखी हो जाता है .......तो श्राप देना नही पड़ता ........आस्तित्व ही उसे श्राप दे देता है ...............अवध अब वीरान ही रहेगा .............जब तक वैदेही को न्याय न मिले ।
मै हँसी .............वो मुझे अपनी पुत्री मानते हैं ना कुमार ! इसलिये ये सब बोल रहे होंगें............नही तो प्रभु श्री राम से कुछ गलत हो ही नही सकता ..........वो भला गलती कर सकते हैं !
अरे ! चक्रवर्ती हैं ........अखिल भूमण्डल के अधिपति हैं ..श्री राम ....
मेरे जैसी कितनी दासियाँ होती हैं। सम्राटों की ..........एक दासी को छोड़ दिया तो क्या हुआ !
मेरे इस बात को सुनते ही फिर आँसू बहनें लगे थे ..........आँसुओं के साथ ध्वनि भी निकल रही थीं .........वह ध्वनि पूरे वन प्रदेश को ध्वनित कर रही थी ..............
चारों ओर से हिरण , हिरणियाँ , वृक्षों में मोर ...अन्य पक्षी ...........अरे! यहाँ तक की हिंसक प्राणी सिंह रीछ व्याल ये सब भी आगये थे .....पर ये भी कुमार के क्रन्दन को सुनकर आँसू बहा रहे थे ।
अब जाओ तुम कुमार ! मथुरा यहाँ से दूर है ................जाओ !
मैने इतना कहकर कुमार को भेज दिया था ।
वो लड़खड़ाते हुए उठे ...........मुझे प्रणाम किया ............फिर अपनें रथ की और ......................पर फिर एक बार मुड़कर मेरी ओर देखा था .............
"मेरे प्राण कैसे हैं कुमार" ? ......ये बात मैने चिल्लाकर पूछी थी ।
इस प्रश्न नें अंदर तक झकझोर दिया था कुमार को .......
मै भी ये प्रश्न पहले ही पूछना चाह रही थी ............पर ।
इस दासी को याद तो करते हैं ना मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी ?
कुमार के हाथों से रक्त निकलनें लगा था .............क्यों की मेरे इस प्रश्न को सुनकर रथ में रखे तलवार को अपनी हथेलियों से दवा दिया था कुमार नें .............हाथों से रक्त और आँखों से आँसू ।
आप सच में सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं भाभी माँ !
आपको कोई शिकायत नही है .......किसी से कोई शिकायत नही है ! ओह ! ।
आप जैसी सहन शीलता इस विश्व व्रह्माण्ड में किसी के पास नही होगी ..........कुमार और भी बहुत कुछ बोलना चाहते थे .......पर मैने ही उन्हें भेज दिया ।
लौटकर अपनी कुटिया में आगयी .........................
क्यों न हो कुमार मुझ में सहनशीलता ! मै भूमिजा जो हूँ ।
मेरी माँ भूमि है .............मै भूमि की पुत्री हूँ ।
कितना करते हैं हम लोग भूमि के ऊपर ..........उसको खोदते हैं ........उसपर मल विसर्जन करते हैं .......पर क्या कभी शिकायत की ...मेरी माँ नें ............फिर पुत्री में वही गुण तो आयेगे ही ना .......
मैने मन ही मन कहा ....................।
फिर बैठ गयी .............ताल पत्र और लेखनी लेकर ............सिंदूर और अनार के लकड़ी की लेखनी और स्याही बनाई थी .....
उसी से फिर लिखनें लग गयी अपनी आत्मकथा ।
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जनकपुर में राजाओं का आना शुरू हो गया था ...........पिनाक जो तोड़ेगा उसे सीता मिलेगी ..........बस इसी आस से युवा राजा ही नही प्रौढ़ राजा भी आरहे थे .......सब लोग आते ही धनुष को देखना चाहते थे । धनुष पिनाक .........हाँ ठीक कहा था देवर्षि नारद जी नें ये धनुष चिन्मय है ।
कितना भारी हो जाता था ! ......राजा ताल ठोक कर पिनाक के पास जाते थे .............पर उठानें की बात तो दूर गयी वो धनुष को हिला भी नही पाते ।
इस तरह नित नए नए राजा आते गए ...................एक दिन !
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रावण और वाणासुर दोनों आगये थे ..................इनके आनें की सूचना मेरे पिता जी को दो दिन पहले ही मिल गयी .....तभी से मेरे पिता चिंतित दीख रहे थे ।
मैने सुनयना माँ से ये कहते सुना कि - महारानी ! बाणासुर तो मुझे अपना बड़ा भाई मानता है ................मुझे गुरुभाई मानता है ...........इसलिये वो पिनाक उठानें की सोच भी नही सकता .........वो अवश्य मेरे कार्य में सहयोग करनें आरहा है ........पर ये दशानन ! ये महादुष्ट है ...........चिन्ता मुझे यही है कि कहीं रावण पिनाक को तोड़नें के लिए आगे बढ़ा .......और उससे पिनाक टूट गया तो ? मेरी पुत्री राक्षस के यहाँ जायेगी !...........नही ।
तब मेरी माँ सुनयना नें मेरे पिता को समझाया था .............अब ये बात पक्की हो गयी है कि पिनाक धनुष चिन्मय है ..........वह जड़ नही है ।
इसलिये रावण के हाथों ये स्वयं नही टूटेगा ...........आप देख लेना स्वामी ! मेरी माँ ने समझाया था ।
पर ये क्या रावण और बाणासुर तो दूसरे दिन ही आ धमके थे ।
मेरे पिता के चरण छूए बाणासुर नें ........बड़े गुरुभाई कहकर ................जय शंकर की ! अहंकार में भरा रावण यही बोला था मेरे पिता से ।
मेरे पिता ने भी जय शंकर! कहकर सम्मान किया था ........अतिथि का सम्मान होना ही चाहिए ........ ..मेरे पिता का ये स्वभाव ही है ।
कोई सेवा बताओ गुरुभाई ! बड़े प्रेम से कहा .......बाणासुर नें मेरे पिता जी से कहा ................पर रावण बोल उठा .........पिनाक कहाँ है ?
मेरे पिता चिंतित हो उठे .............बताओ जनक ! कहाँ है पिनाक ! मै भी देखना चाहता हूँ उस धनुष को .............रावण बोल रहा था ।
ले गए थे पिता जी रावण को उस पूजा स्थल में जहाँ पिनाक रखा था ।
पर ये कुछ दी देर बाद मुझे बुलानें के लिए सेविकाएं आयीं ...........आप चलिए राजकुमारी जी !
मेरी माँ सुनयना नें रोना शुरू कर दिया था .......उन्हें लगा रावण नें धनुष को तोड़ दिया ..........इसलिये अब प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे वर माला रावण को ही पहनानी होगी ।
आप जल्दी चलिए महाराज नें शीघ्र बुलाया है आपको ........दासी नें फिर कहा ।
मेरी सखियाँ भी उदास हो गयीं थीं ............वो मुझे ले जानें के पक्ष में ही नही थीं ...........पर उस समय मुझे देवर्षि की बात का स्मरण हो आया कि पिनाक चिन्मय है ।
मै गयी अपनी अष्ट सखियों के साथ ..................ओह ! ये क्या ! धनुष में तो रावण की ऊँगली फंस गयी थी ..........पिनाक को उठानें के चक्कर में उठा तो नही पाया पर कुछ ही उठा था धनुष ..... फिर गिर गया था .............तब रावण की ऊँगली फंस गयी थी ।
वो चिल्ला रहा था .................उसको असहनीय पीड़ा हो रही थी ................
जैसे ही मै गयी ...............मै समझ गयी ..........मेरी सखियाँ तो मारे ख़ुशी के उछलना चाहती थी ..........पर मैने ही उन्हें रोक दिया ।
पुत्री सीता ! इस धनुष को उठा दो ......दशानन को बड़ा कष्ट हो रहा है ..............मैने पहली बार रावण को देखा ...........काला था ........काजल की तरह काला .......पर शरीर उसका बलिष्ठ लग रहा था ......बड़ी बड़ी मूंछे थीं उसकी .......आँखें ऐसी थीं जैसे अंगार उगल रही हों .....लाल ।
मै गयी .............रावण के पास ...............उसनें मुझे देखा था ...............मैने एक ही हाथ से उठा दिया पिनाक...................रावण नें अपनी ऊँगली निकाल ली ......
काफी सहलाता रहा पहले तो अपनी ऊँगली .........फिर मेरी ओर देखा था ................देख कर चौंक गया ।
भगवती ! हे माँ ! हे जगदम्ब ! पता नही क्या क्या बड़बड़ानें लगा था ................मेरे पिता और मेरी सखियों नें सोचा ऊँगली की पीड़ा के कारण रावण ज्यादा बोल रहा है ..........वो बोलता रहा ..............
मेरे पिता जनक जी नें मेरी सखियों को इशारा किया ..........ले जाओ पुत्री सीता को ...।
मै जब चली .........तब रावण पीछे से चिल्लाया .............मेरा उद्धार नही करोगी भगवती ! तुम्हे मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा ...........आपको मेरी लंका में अपनें चरण रखनें ही पड़ेंगें ............इस रावण का उद्धार आपके ही द्वारा होगा ................।
मै कल तक चिंतित था कि दशानन तेरा कल्याण कैसे होगा ? पर आज मुझे मेरे कल्याण का मार्ग मिल गया ...........
तुझे ही इस रावण का कल्याण करना है वैदेही !..............ये कहते हुए अट्टहास किया था रावण नें ........और वहाँ से चला गया ।
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{ मैं_जनक_नंदिनी.... 7️⃣ }
रावण गया .................तब जाकर मेरे पिता और मेरे परिवार नें राहत की साँस ली थी ......वैसे रावण कुछ कर सकता नही ........पर तनाव तो दे ही देता .........।
बाणासुर को जब ये पता चला था ..............कि रावण के कारण जनक परिवार दुःखी था ........वो तुरन्त बोला ......गुरु भाई ! मुझे क्यों नही बताया आपनें .............अरे ! रावण मेरे सामनें क्या है !
बाणासुर नें हृदय से गुरुभाई का नाता निभाया ............।
मेरे स्वयम्वर में बाणासुर स्वयं उपस्थित रहा था ।
हाँ......अब मै जो लिखनें जा रही हूँ........सीता यहीं से शुरू होती है ।
शाम का समय था .........कार्तिक लगनें में बस दो दिन ही तो बचे थे ।
शरद पूर्णिमा आने वाली थी ...............नवरात्रि अभी गयी ही थी ।
दीया जलानें का क्रम राजमहल में दशमी से ही शुरू हो गया था ।
उस समय .............मेरे पिता जनक जी आये ..............पर उनकी दशा विलक्षण थी ।
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क्या हुआ बताइये ना !
मेरे पिता की दशा ऐसी थी ......जिसको देखकर मेरी माँ भी कुछ समझ नही पा रही थी कि इन्हें हो क्या गया है !
मै भी शान्ति से चली गई थी ........अपनें पिता जी को देखनें ।
क्या हुआ ? आप तो गम्भीर थे ..........फिर ये आपको क्या हो गया ?
आप की मुस्कुराहट आपके चेहरे से जा ही नही रही ........!
अरे ! अरे ! सम्भल के .............................
मेरी माँ सुनयना नें पिता जी को सम्भाला था ...............
आप तो ऐसे लड़खड़ा रहे हैं .......जैसे कोई प्रेम में डूब जाए ।
मेरी माँ नें पिता जी को उलाहना दिया था ।
विवाह का प्रसंग शुरू हो गया था ......जनकपुर में ।
इसलिये मेरी सखियों को नित्य उत्सुकता बनी ही रहती ........
हम लोग शाम के समय .......पिता जी के कक्ष में चले जाते .....और किसी और बहानें से उनकी बातें सुनते........आज भी मेरी सहेलियाँ मुझे ले गयीं ........क्या पता किसी राजकुमार नें धनुष तोड़ दिया हो ।
मेरे पिता जी मुस्कुराये .........हाँ प्रेम हो गया है ...............
इस तरह की भाषा कभी बोलते नही थे मेरे पिता जी ।
उनके रूप से प्रेम .....उनके अलौकिक सौंदर्य से प्रेम.......आहा !
कितनें सुन्दर हैं .........वो राजकुमार !
राजकुमार ? मेरी माँ सुनयना नें चकित हो पूछा ।
हाँ अयोध्या के राजकुमार.................बड़े ही सुन्दर हैं देवी !
मेरी माँ को बताते हुए ......... मेरे पिता जी नें कहा था ।
किसके साथ हैं वो राजकुमार ?
ऋषि विश्वामित्र के साथ .................और पता है देवी सुनयना ! उन छोटे से दीखनें वाले राजकुमार नें तड़का को मार गिराया ।
सुबाहु और मारीच, इन सबका भी उद्धार किया मेरे प्रभु नें ।
मेरे पिता जी हँसे थे ......खूब हँसे .............फिर अपनें आपको सम्भालते हुए बोले .........महारानी ! इतनें सुन्दर राजकुमार मैनें तो नही देखे थे ।
बड़े भाई साँवले हैं ........और छोटे भाई गौरवर्णी हैं ।
पर आपको वो मिले कहाँ ? माँ सुनयना नें पूछा ......।
मैने ऋषि शतानन्द जी के कहनें से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पास भी अपनी निमन्त्रण पत्रिका भिजवाई थी .........
देवी सुनयना ! मुझे सूचना मिली कि महर्षि विश्वामित्र आरहे हैं ।
मै तुरन्त चला .........पर मेरे साथ शतानन्द जी भी साथ हो लिए थे ।
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देवी ! नगर के पास ही एक बगीचा है ना ! उसी बगीचे में ठहरे हैं विश्वामित्र जी .......मुझे तो यही सूचना थी .........मै वहाँ पर गया ।
सुचना सही थी ................पुरानें बरगद वृक्ष के नीचे बैठे थे बाबा विश्वामित्र ।
ये सारी बातें मै अपनी सहेलियों के साथ सुन रही थी ।
आप कैसे हैं ? यात्रा सकुशल हुयी ना ? आपनें मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया हे भगवन् ! मै धन्य हो गया .....बस यही बातें मै कह ही रहा था कि ......................
की ? क्या हुआ फिर महाराज !
देवी सुनयना ! तभी मेरे सामनें अखिल सौंदर्य निलय ..मानों सौंदर्य ही आकार लेकर प्रकट हो गया हो ..............
ऐसे सुन्दर दो राजकुमार आये ............मै यन्त्रवत् उन्हें देखते ही उठ खड़ा हो गया ...........मुझे खड़ा देख शतानन्द जी खड़े हो गए ।
हम सब को खड़ा देख.......वैसे ही यन्त्रवत् ऋषि विश्वामित्र जी भी खड़े हुए.......पर बाबा विश्वामित्र नें तुरन्त कहा......ओह ! ये ? ये तो विदेह राज ! मेरे शिष्य हैं ।
ये आपके पुत्र हैं ऋषि ? ये प्रश्न उचित नही था मेरा ........पर मै अपनें वश में कहा था .........मै तो उन राजकुमारों को ही देखकर मन्त्रमुग्ध हो गया था ।
ये क्या कह रहे हैं आप विदेह राज ?
हम बाबाओं के कोई पुत्र होता है क्या ?
मैने मुस्कुराके कहा ........नही ! आप तब भी तो बाबा थे ......जब आपकी शकुन्तला हुयी थी ............।
देवी ! मै अपनें आपमें ही नही था .....................
फिर मैने विश्वामित्र जी से पूछा ..................ऋषि ! ये बालक फिर कौन है ? किसी राजा के पुत्र हैं ?
इसका भी उत्तर उनसे न लेकर मै तीसरा ही प्रश्न करनें लगा था ।
ओह ! कहीं निराकार ही साकार रूप लेकर तो नही आया ?
वेद जिसका वर्णन करते करते थक जाते हैं ..............वही ब्रह्म तो रूप धारण करके नही आया ?
मै उन्हें देखता जा रहा था ...............अपलक नेत्रों से ...........देवी ! वो राजकुमार असीम सौंदर्य के धनी थे ।
ऋषि विश्वामित्र ! मै आपको विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ .........मै ज्ञानी हूँ ........मै परिपक्व ज्ञानी हूँ ............नाम, रूप ये सब मुझे प्रभावित नही कर सकते ..........पर आज मेरे साथ ये क्या हो रहा है ।
मन तो मिथ्या है .......मै तो "अमना" स्थिति में पहुँचा हुआ ज्ञानी हूँ ।
पर आज मुझे मेरा मन ही विचलित कर रहा है ............पता नही कैसे ?
मेरा मन बार बार इनके रूप माधुरी का पान करना चाहता है ..........
देवी ! वो साँवले हैं ....................
मेरी सखी नें मुझे इधर छेड़ा ......किशोरी जी ! वो सांवले हैं ।
फिर मेरे पिता बोले ..........सुनयना रानी ! उनकी घुंघराली लेटें ........उनके मुख मण्डल पर बार बार आरही थी ..............ऐसा लग रहा था ............भौरें फूलों पर मंडरा रहे हैं ।
राम ! इनका नाम है राम ..................सुनयना मैया नें भी अपनें मुँह से कहा .........राम ! सखियों नें भी जब नाम सुना तो उन्होंने भी कहा .......आहा ! राम ! ........मै तो राम राम की रट अपनें हृदय में लगा ही रही थीं ...........
देवर्षि नारद जी नें इसी नाम के बारे में बताया था ना !
देवी सुनयना ! ऋषि विश्वामित्र नें मुझसे कहा ................
अयोध्या के राजा चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी........उनके पुत्र हैं ये ....बड़े पुत्र हैं राम ......और छोटे पुत्र हैं इनका नाम है लक्ष्मण ।
ये देखनें में सुकुमार लगते हैं .........पर ये महावीर हैं ..........आपको तो पता ही है ना .........ताड़का .......जो समस्त राक्षस जाति की रक्षिका थी ...........उसको इन्होंनें मार गिराया ।
मैने राजा दशरथ जी से इन्हें मांगा था .........क्यों की विदेह राज ! मेरे यज्ञ में ताड़का और मारीच सुबाहु.......ये सब विध्न डालते रहते थे ।
पर चक्रवर्ती जी नें मुझे निराश न किया .....और अपनें दो पुत्र दे दिए मुझे ।
मेरी कुटिया में आकर इन्होनें ताड़का का वध किया ......और मारीच सुबाहु का भी उद्धार किया ।
पर हे विदेह राज ! शिव धनुष पिनाक देखनें की राम को बड़ी उत्सुकता थी .....इसलिये मै इन्हें यहाँ भी ले आया ।
ठीक किया ऋषि आपनें ...............इनको ले आये ।
पर आप यहाँ नही रुकेंगें ..................आपके लिए मै दूसरी व्यवस्था करता हूँ .................मेरे पिता जनक जी नें कहा था ।
मेरी माँ को यही बतानें लगे थे..........वो अपनी पुत्री जानकी के लिए मैने जो महल बनवाया था ना ........उसी महल में मैने ऋषि विश्वामित्र और उनके साथ में आये राम लक्ष्मण को ठहरा दिया ।
मेरी सखी चन्द्रकला मुझे देखकर आँखें मटकानें लगी थी .....।
मुझे लाज लग रही थी .....................
मेरे पिता जी अब शयन करनें जा रहे थे ..................पर उनके मुँह से अब बार बार यही शब्द निकल रहे थे .........राम ! राम ! राम !
मेरी सब सखियाँ दुष्ट हैं .....महादुष्ट हैं .............मुझे छेड़नें के लिए .....सिर्फ राम न कहकर .......सीता राम ....सीता राम ......कहकर मुझे चिढानें लगी थीं ।
उनसे धनुष न टूटेगा ..................मैने भी अपनें कक्ष की ओर बढ़ते हुए कहा था अपनी सखियों से ...........
क्यों क्यों क्यों ? क्यों नही टूटेगा धनुष श्री राम से ।
सुना नही .........वो बहुत कोमल हैं ...........पिता जी नें कहा अभी ।
तो मेरी प्यारी जानकी ! तुम ही तोड़ देना .........और नाम लगा देना राम नें तोडा है ..............ऐसा कहकर सब हँसनें लगी थीं ।
हट्ट ! ऐसा थोड़े ही होता है ?
सब होता है ............जब राम धनुष के पास जाएँ .......तब तुम पिनाक धनुष की प्रार्थना कर लेना ......कि हे पिनाक ! आप हल्के हो जाओ ।
सिया जू ! आपनें ही तो कहा है ना ...कि पिनाक चिन्मय है जड़ नही ।
मैने नही कहा ......देवर्षि नारद जी नें कहा था ।
पर पिनाक चिन्मय है ना ? चन्द्रकला नें पूछा ।
हाँ .......चिन्मय तो है पिनाक धनुष ..............
तब तो आपकी बात मान ही लेगा पिनाक ...........।
अब जाओ तुम लोग .................मै सोऊँगी ...........
मैने अपनी सखियों से हँसते हुए कहा ।
आपको आज नींद आएगी ...............शरद पूर्णिमा आरही है .......देखो देखो .............क्या राम ऐसे ही हैं चाँद की तरह .......!
तुम जाओ यहां से .....................मैने सखियों को भगाया ।
और मै लेट गयी थी ...........राम ..... राम ........कितनें सुन्दर हैं ....मेरे राम ! पिता जी कह रहे थे ..........वो ऐसे लगते हैं जैसे सुन्दरता ही आकार लेकर आगया हो .......ओह !
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वन देवी ! आप बड़ी देर से "राम राम" कह रही हैं .........सम्राट राम का नाम आप क्यों ले रही हैं ?
ओह ! सामनें आकर बैठ गयी थीं .............वो आश्रम की सेविका.............।
तुरन्त लेखनी बन्द कर दी .............सीता जी नें ............ताल पत्र को लपेट कर रख दिया ।
महर्षि भी लिखते रहते हैं .........और आप भी .............वो तो रामायण लिख रहे हैं ......आप क्या लिख रही हैं वन देवी !
मै क्या लिखूंगी ....................बस ऐसे ही ................
वन देवी ! अब तो दो महिनें ही बचे हैं ..........
किसके लिए दो महिनें बचे हैं ? मैने पूछा ।
आपके पुत्र होंगें .........और वो बूढी माई कह रही थी ......दो पुत्र होंगें आपके ...............सेविका बोलती चली गईं ।
पर आज सीता जी का ध्यान पूरा ............जनकपुर में ही था ।
उस समय के जनकपुर में .......जब श्री राम आये थे ......पिनाक को देखनें ...............
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{ मैं_जनक_नंदिनी.... 8️⃣ }
श्री राघवेन्द्र के जनकपुर में आये हुए आज दो दिन होनें को आये ........
मेरी सखियाँ बहुत चतुर थीं............जहाँ रुके हैं श्री राम वहीं पर कुछ सेविकाएँ और सेवक जो थे....उन्हीं से जानकारी ले लेती थीं ।
सिया जू ! पता है आज राजकुमार नगर भ्रमण के लिए निकल रहे हैं !
मेरी प्रिय सखी चारुशीला नें मुझे बताया था .........ये सखी मेरी चतुर है और बुद्धिमान भी है ।
उसी नें मुझे बताया था ..........कि श्री राम नगर भ्रमण के लिए निकल रहे हैं ।
कैसे हैं ? मै इतना ही पूछ पाई ।
देख लेना .................चारुशीला नें मटकते हुए कहा ।
सुन्दर हैं ?
हूं ...........पर आपसे कम ही हैं ...........ये बात भी चारुशीला नें ही कही थी ।
देखो ! किशोरी जी !......नगर भ्रमण में जब राजकुमार निकलेंगें ना ...तब हम सभी सखियाँ उनको देखनें के लिए जायेंगी .........
मै नही जाऊँगी !..................ये बात मैने इसलिये कही थी ताकि मेरी सखियाँ ये कहें कि अरे ! आप नही जाओगी तो कैसे होगा ?
पर दुष्ट हैं मेरी सखियाँ .........कहनें लगीं ..............आप कहती तब भी हम आपको न ले जाते ..............
फिर हमारी किशोरी जी कहाँ देखेंगीं श्री राम को ? ये बात चन्द्रकला नें पूछा था .................।
देखो ! हमारी किशोरी जी श्री राम को देखेंगी पुष्पवाटिका में ।
क्या वो आयेंगें पुष्प वाटिका ? ये प्रश्न अब मैनें किया था ।
हाँ आयेंगें ..........क्यों की मैने सुना था ...........कि सुबह पूजा के लिए गुरु विश्वामित्र जी को पुष्प चाहिए ............अपनें गुरु की सेवा के लिए पुष्प तो वाटिका में ही मिलेंगें ........तब आप देख लेना ।
पर सखी ! मुझे नगर की हर बात बताना ...........कि उन्हें देखकर लोग क्या कह रहे हैं ...............और जनकपुर को देखकर राजकुमार क्या कह रहे हैं ? सीता जी नें कहा ।
वो जिस मार्ग से गुजरेंगें हम सब उन मार्ग में पड़नें वाले झरोखे में खड़ी रहेंगीं ............अच्छे से दर्शन हो जायेंगें....फिर आपको उनके बारे में विस्तार से बता भी देंगीं ।
मेरी सखी पद्मा नें ये बात कही थी ।
मैने इतना ही कहा ...............ठीक है ।
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दो राजकुमार आ रहे हैं .................बहुत सुन्दर है ..............सुन्दर कहना भी कम लग रहा है ..........
ये सारी बातें मुझे चारुशीला नें बाद में बताया था ।
नगर को बड़े ध्यान से देख रहे थे वे दोनों .............कितना सजा धजा नगर है ना ये लखन ? छोटे भाई से बीच बीच में पूछ भी रहे थे ।
छोटे छोटे बालक बड़े राजकुमार के पास में गए थे
......आप को हम नगर घुमा दें .......?
यहाँ के महल को देखेंगें आप ?
यहाँ पिनाक धनुष भी है.......आप जैसे क्षत्रिय ही उसे देख सकते हैं ।
बालकों नें हाथ पकड़ ही लिया था ........बड़े राजकुमार का ।
जवान लोग थोड़े दूर खड़े हैं ........और वृद्ध लोग उनसे भी दूर हैं ...पर सबकी नजर राजकुमारों पर ही थी ।
भीड़ लग गयी थी जनकपुर में .................
सब लोग दौड़ रहे थे उन अयोध्या के राजकुमारों को देखनें ............
जो जहाँ था वही से दौड़ा था ................
कोई कोई तो ऐसे भाग रहे थे ......जैसे कोई खजाना लुट रहा हो ।
इतनें सुन्दर राजकुमार !
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मेरी तीन सखियाँ एक झरोखे में जाकर खड़ी हो गयी थीं .........
चारुशीला, पद्मा और चन्द्रकला..........वहाँ पहले से ही कई युवतियाँ थीं .......जो आरहे राजकुमार को देखनें के लिए उत्सुक थीं ।
बड़ा हल्ला हो रहा है कि कोई राजकुमार आरहे हैं ?
अब कुछ तो बोलना ही था ..............इसलिये मेरी एक सखी वहाँ खड़ी अन्य युवतियों से पूछ रही थीं ।
हाँ सुना है .....बड़े सुन्दर हैं .........दो भाई हैं ............बड़े भाई सांवले रँग के हैं .......और दूसरे भाई गौर वर्ण के हैं ।
तभी ...........अरे ! देखो ! देखो ! वो आगये ............वो आगये ।
सब सखियाँ देखनें लगीं थीं ............
एक सखी तो ऊपर से नीचे देखनें में इतनी तन्मय हो गई कि गिर ही पड़ती ...............पर अन्य युवतियों नें उसे सम्भाला ।
ओह ! ये तो यहाँ से दिखाई दे नही रहे ...............
क्यों की ऊपर से तो श्री राम का शीश ही दिखाई दे रहा था ।
अब क्या करें ? सारी सखियां चिंतित हो उठी थीं .........
चलो ! नीचे चलती हैं .............पर दूसरी सखी नें कहा .......जब तक हम नीचे जायेंगी ......तब तक तो ये राजकुमार आगे बढ़ जायेंगें ........!
तभी ! एक युवती जो मालिन थी ...........उसी के घर के छज्जे में हम लोग खड़ी थीं ............वो फूलों की टोकरी लेकर जा रही थी .....बाजार ............फूल बेचनें ।
हम सब सखियाँ खुश हो गयीं .............
नही ......नही ......मै नही दूंगी ये फूल ...........वो मालिन चिल्लाई ।
अरी चुप ! तू जितना कमाएगी ...उससे कई गुना ज्यादा हम देंगी इसका मोल ..........
बस फिर क्या था मालिन खुश हो गई ..............चार पाँच डलिया फूलों की थीं उसके पास .............हम नें सब ले लीं .........
और उन राजकुमारों के ऊपर डालनें लगीं.......ये उपाय था सिया जू ! हम लोगों का ....ताकि हम उन राजकुमारो को देख सकें ।
मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं ............हम लोगों नें फूल गिरानें शुरू किये ..........तो उन दो राजकुमारों नें ऊपर की ओर देखा ........बस हमेँ तो उनके दर्शन हो गए ...........इतनें सुन्दर कि सुन्दरता की सीमा !
उनके वो नशीले नयन ...........कटीले नयन ..............जो देखे वो मर ही जाए ......ऐसे सुन्दर ......सिया जू !
हम फूल बरसाती जा रही थीं .....................वो हमारी और देखते जाते थे ....और मुस्कुराते जाते ।
सिया जू ! क्या कहें उनकी हँसी तो और मादक थी ।
तभी उस घर की दो तीन बूढी माताएं आगयी ...................
ये कौन हैं .......? बड़े सुन्दर राजकुमार लग रहे हैं ?
एक बूढी माता नें दूसरी से पूछा ..............।
ये बाबा विश्वामित्र के साथ आये हैं .................राम नाम है इन बड़े का ....और लखन है छोटे का .........राजा दशरथ के पुत्र हैं ये दोनों ।
अरी हमारी तो प्रार्थना है विधाता से .....कि इनके ही साथ हमारी जानकी का विवाह हो जाए ।
हमारे सबरे पुण्य इनको ही मिल जाएँ .....................
ये बताते हुए मेरी सखी पद्मा कितनी हँस रही थी ...........
सिया जू ! तब दूसरी माता नें कहा .......पर पिनाक ये तोड़ पायेंगें ? इतनें कोमल हैं ये राजकुमार .......और पिनाक धनुष तो बड़ा ही कठोर और भारी है .......ये नही तोड़ पायेंगें ..........
तब दूसरी कहती ..............क्या पता इनको देखकर हमारे राजा जनक अपनी प्रतिज्ञा ही तोड़ दें ...........!
नही ...........हमारे राजा, बात के तो पक्के हैं ..........वो अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ेंगें ..........
ये सुनकर पहली वाली माता चुप हो जाती ...........और बाद में यही कहती ...........हम ही क्या सारा जनकपुर नगर ही यह चाहेगा कि इनके साथ ही हमारी लाड़ली जानकी का विवाह हो .....।
सिया जू ! तभी हमनें देखा ..........वो अब जा रहे हैं ............तेज़ चाल से चलनें लगे थे .........
हमनें ये सब देखा ..........तो अंतिम फूलों का एक गुच्छा फेंका उन बड़े राजकुमार के ऊपर ........और ये कहते हुए फेंका .....
"फूल, पुष्प वाटिका में मिलते हैं.........कल वहीं आजाना ......
और हाँ....अहंकार मत करना....हमारी राजकुमारी तुमसे भी सुन्दर है "
ऐसा क्यों कहा ! मैने उस चारुशीला की बच्ची को डाँटा .......तू ऐसे कुछ भी कैसे बोल देती है ...........
अरी ! मेरी प्यारी किशोरी जू ! कुछ नही होगा ..............उन बड़े राजकुमार नें मेरी ओर देखा ........और मुस्कुरा दिए थे ......चारु शिला नें हँसते हुए ये बात कही ।
सच ! चारुशीले ! वो कैसे लग रहे थे ! मै पूछ रही थी .......चारुशीला से .................
कल मिल लेना ..................और हाँ .....कल शरद पूर्णिमा भी है ......
एक तरफ आकाश का चन्द्र और दूसरी तरफ धरती में उतरा ये श्री राम चन्द्र !..........
खूब हँसी मेरी सखियाँ ............मैने सोनें का नाटक करके आँखें बन्द कर ली थी ........।
पर मुझे नींद कहा आएगी .........नही आई ......
मै तो कल की प्रतीक्षा में थी ..............पुष्प वाटिका की ।
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{◆मैं_जनक_नंदिनी.... 9️⃣●}
पता नही क्यों मेरी नींद दो तीन दिन से उड़ ही गयी थी ........
मै जनकपुर में उन दिनों कहाँ सोती थी .............
झरोखे से चन्द्रमा की चाँदनी छिटक रही थी.....मै वहीं लेटी हुयी थी ।
अजीब स्थिति थी मेरी उन दिनों ...............आँखें खोलूं तो आकाश चन्द्र दिखाई देता .....और बन्द करूँ तो श्रीरामचन्द्र ।
सखियों नें मुझे जो जो बताया .......उसी के आधार पर मेरा मन श्री राम के स्वरूप को गढ़ रहा था .............श्री राम ! आहा !
( एक लम्बी साँस लेती हैं ....सीता जी )
पता नही इस नाम में ऐसी क्या शक्ति है ..............लगता तो ऐसा है कि ये कोई साधारण नाम न होकर ...............कोई सिद्ध मन्त्र है ।
वो अयोध्या के राजकुमार ..........................
क्या है ऐसा इन राजकुमार में........जो मै केवल नाम मात्र सुनकर उनका वर्णन सुनकर - अपना हृदय दे बैठी हूँ ............।
अब रही राजकुमार की बात .......तो जब से मेरे पिता जनक जी ने प्रतिज्ञा की है ............कि जो पिनाक की प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा ....उसे ही मै अपनी बेटी दूँगा ।
देश विदेश के राजा , राजकुमार .....सब तो आरहे हैं मेरे पिता की प्रतिज्ञा सुनकर ...............
पर राजकुमार आएं गयें ...........सीता को क्या परवाह !
हाँ "बेचारा" जरूर मेरे मुख से निकलता था ...................
और मन में उन राजकुमारों के प्रति ............दया भी आजाती थी ये सोचकर कि बेचारे पिनाक को तोड़ नही पाये ।
अकारण मुस्कुराना , अकारण आँसुओं का आजाना ...........ये सब प्रेम के ही तो लक्षण हैं ................क्या मुझे प्रेम हो गया ? सीता जी डरती हैं ...........नही नही .........
ये चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है ..........मेरे राम भी ऐसे ही होंगें ।
ऐसा चिन्तन चलता ही रहा सुबह के 4 बजे तक .................
फिर तो उठना ही था ........सो मै उठ गयी .....और स्नानादि से निवृत्त होकर ..........अपनें माता पिता के पास आई ।
मेरी लाड़ली ! अब तुम बगीचे में जाओ .....पुष्प वाटिका में ।
वहाँ जाकर गौरी मन्दिर में भगवती का पूजन करना .......
और हाँ ...............जो चाहिये माँग लेना .............आज तुम्हारी इच्छा पूरी होगी ही ...................
मैने सिर झुकाकर बात मान ली.......पुष्प वाटिका मै चलनें के लिए ।
-------------------
मेरी पुष्प वाटिका ..................बहुत सुन्दर वाटिका है ।
उस बाग़ के बीचों बीच ......एक सुन्दर सरोवर है ..........
उसी में जाकर मेरी बहनें ..........उर्मिला, माण्डवी, श्रुतकीर्ति, मेरी सखियां पद्मा , चारुशीला, चन्द्रकला इत्यादि सबनें जल का सेचन किया था .........फिर गयीं गौरी भगवती का पूजन करनें ।
बड़े अनुराग से पूजन किया था गिरिजा भगवती का ................अपनी आराध्या को भोग भी लगाया था ...........फिर आरती की ।
सिया जू ! देखिये ना ! वो सखी कैसी दौड़ी दौड़ी आरही है ।
मैने दूर से देखा था उस सखी को ........उसकी साँसें फूली हुयी थीं ....वो लड़खड़ा भी रही थी ......वो कहाँ गिर पड़ेगी ये भी पता नही ।
अब जैसे तैसे हमारे पास आगयी थी ..................
उसकी दशा ! विचित्र दशा बना ली थी उस सखी नें ।
उसके नेत्रों से आँसू बह रहे थे ............उसका शरीर काँप रहा था .......लाल मुख मण्डल हो गया था उसका ......पर मुस्कुरा रही थी ।
अरे ! तेरी ये दशा कैसे हुयी ? सखी क्या हुआ ?
मेरी सखियों नें ये प्रश्न एक साथ कर दिए थे ...........।
राजकुमार आये हैं ? वही राजकुमार जिन्होनें नगर में हल्ला मचा रखा है ........वही अयोध्या के राजकुमार ............जिनका नाम है राम ....और छोटे का नाम है लक्ष्मण ..............।
ओह ! मेरा हृदय धक्क कर गया ..................उस सखी की जो दशा थी वो तो थी ही .....पर अब मेरी दशा बिगड़नें वाली थी ।
मैने तुरन्त अपनी प्रिय सखी चन्द्रकला को आगे किया ............
मै उसके पीछे हो गयी .............मै अपना प्रेम प्रकट नही करना चाहती थी .......प्रेम जितना छुपा रहे उतना ही अच्छा होता है ..........।
मेरी सखियां चली थीं .......और मै अपनें हृदय को सम्भाले चुपचाप चल रही थी ..................।
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आप नही जा सकते बाग़ में ...................वो माली भी विचित्र था .....रोक दिया था राजकुमारों को बाग़ में प्रवेश करनें से ।
देखो ! भद्र ! हमें जानें दो ...........हमें विलम्ब हो रहा है ........गुरु जी के लिये फूल लेनें हैं ...........और पूजा समाप्त हो गई तो फूल ले जानें का मतलब क्या हुआ !
हे राजकुमार ! पहली बात तो ये है कि ये बाग़ पुरुषों का नही है ....
ये मात्र महिलाओं का ही बाग़ है ....इसमें मात्र महिलाओं का ही प्रवेश है .......इसलिये आपको जानें के लिये हम कैसे कहें ।
हे भद्र ! बगीचा तो आप मालियों का ही होता है ......आप ही इन पौधों को सींचते हैं ...........अपने पुत्रों की तरह इनका सम्भाल करते हैं .....इसलिये नियम तो आपके ही चलेंगें इस बाग़ में ...........
हे भद्र ! आप हमें जानें की अनुमति दें.....श्री राम नें ये बात कही थी ।
हम सब देख रही थीं ..............झुरमुट में से .....मुझे श्रीराम का मुखारविन्द नही दिखाई दे रहा था ..........हाँ उन दोनों की वार्ता अवश्य सुनाई दे रही थी ।
आप बहुत कोमल हैं .........हे राजकुमार ! कांटे गढ़ जायेंगें ..........
और इतना ही नही ..........आपके मुखारविन्द को ही फूल समझ कर कहीं भौरें आपके मुख मण्डल पर मंडरानें लगे तो ?
मुस्कुराये थे श्री राम ...........मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं .....मै तो आँखें बंदकर खड़ी रही .....मेरा हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा था ।
हे वाटिका के रक्षक ! हमें जानें दो ................
भैया ! आप भी इस व्यक्ति को इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं ......राजा की आज्ञा है ..........हम कहीं भी जा आ सकते हैं .......फिर इस आदमी से बहस की आवश्यकता ही क्या ?
नही लखन ! वाटिका का राजा तो ये माली ही होता है ..............
आहा ! कितनी मधुर आवाज ! और कितनी सही बात !
मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं ...................मै श्री राम की बातों को सुन रही थी ...........इतनी मिठास तो मधु में भी नही होती ।
अच्छा ! आप जाइए ...............माली नें मुस्कुराते हुए कहा ।
पर .......आप सरोवर में मत उतरियेगा ........कमल को लेनें के लिए .......काँटे हैं ....और कीचड़ भी है .................थोड़ी सावधानी से ।
धन्यवाद ! सिर झुकाकर माली का धन्यवाद किया श्री राम नें ।
ओह ! कितनी नम्रता ....विनम्रता ....................
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मैने देखा...............वो मेरे सामनें थे .....और मै उनके सामनें .......।
मै जड़वत् हो गई थी....................और वो भी मुझे अपलक नयनों से देखे जा रहे थे ।
उनके वो नयन ! कटीले नयन !
उनका वो मुख चन्द्र ..........साँवरा ...........उनके वो घुँघराले बाल ।
उनकी वो विशाल भुजाएं ....................हाथों में फूलों के दोना .....जिसमें गुलाब , गेंदा....जूही, पारिजात.......कमल ये सब भरे हुए थे .........पीला वस्त्र धारण किया था....... रेशमी पीला ।
मै तो देखती ही रह गयी..............पलकें न मेरी गिर रहीं थीं न उनकी ...............सारी सखियां मुझे छोड़ कर कहाँ गयीं मुझे पता नही ......बस हम दोनों ही थे वहाँ ।
थोड़ी देर के बाद उनके छोटे भाई कहीं से मोर के पंख को ले आये थे .....और वो जब माथे में अपनें बड़े भाई के पंख लगानें लगे ......तब उन्हें भी देह भान हुआ ....और मुझे भी ।
लखन ! ये है जानकी ! ..................
कौन जानकी भैया ? ..........मुस्कुराते हुए लखन नें पूछा था ।
जिसनें कारण ये समूचा जनकपुर सज रहा है .......देश विदेश के राजा महाराजा आये हुये हैं ......इन्हीं जानकी के स्वयंवर के लिए ही तो ।
पिनाक जो तोड़ देगा ना लखन ! उन्हीं के साथ इन राजकुमारी का विवाह होगा ..............।
वो बोले जा रहे थे .............मै उनको देखे जा रही थी ............मै मन्त्र मुग्ध सी थी .............मै सब कुछ भूल गयी थीं ।
पर लक्ष्मण ! मेरा मन चंचल हो रहा है .............पता नही क्यों ?
ऐसा आज तक नही हुआ ................हम रघुवंशी हैं लक्ष्मण ! हमारा मन हमारे वश में हुआ करता है ........पर आज मुझे ये क्या हो रहा है ।
मेरा मन बार बार इन राजकुमारी को देखनें का क्यों कर रहा है !
मेरा मन कह रहा है ......इन्हें देखता रहूँ .......इनको देखते हुए मै इनमें खो जाऊँ ...........नही नही ........लक्ष्मण ! ये कोई लौकिक सुन्दरता नही है ..........ये अलौकिक सुन्दरता है .....अलौकिक ।
अब मैने अपनी आँखें बन्द कर ली थीं ................मै डर गई थी ......कि कहीं आनन्द की अतिरेकता में मेरे प्राण न निकल जाएँ ..........
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सिया जू ! वो राजकुमार तो गए ................
जैसे ही मैने इतना सुना ................मेरी बन्द आँखें खुल गयीं .......
वो नही थे वहाँ ..........मै घबड़ाई .......इधर उधर देखनें लगी ।
तभी .........एक लता रन्ध्र से मैने देखा फूल तोड़ रहे हैं ...दोनों राजकुमार ..............
मै देखती रही ...........मुग्ध होती रही ।
तभी एक सखी नें ऐसी बात कह दी.....मेरी चिन्ता शुरू हो गयी थी ।
सिया जू ! देखो ! उन राजकुमार के माथे से पसीनें निकल रहे हैं .......
फिर सब हँसनें लगीं थीं ................फूल तोड़ते समय पसीनें आरहे हैं ......और जब पिनाक तोड़ेंगें तब ?
इनसे नही तोडा जाएगा पिनाक ...........देखो तो कितनें कोमल हैं ।
मैने जैसे ही ये सब सुना ...मै दौड़ी ......गिरिजा भगवती के मन्दिर में ।
मैने अपना माथा रख दिया था भगवती गिरिजा के चरणों में ...........
मेरे नेत्रों के जल नें ही चरणों का अभिषेक कर दिया था .........भगवती के चरणों का ।
माँ ! मेरी आज एक प्रार्थना सुन लो.....ये बड़े राजकुमार श्री राम मुझे वर के रूप में मिलें........मेरी इतनी आस पूरी कर दो माँ !
हे शिव की हृदयेश्वरी ! हे गिरिवर की राजदुलारी ! हे गजवदन की माते ! हे जगत जननी ! हे मात भवानी ! मेरे ऊपर कृपा करो ....मेरे ऊपर अनुग्रह करो ..........
मै हृदय से प्रार्थना कर रही थी ........कि तभी .....
मेरा बायाँ अंग फड़कनें लगा था .............
गिरिजा भगवती के विग्रह से ..........माला टूट के गिरी .....और सीधे मेरे गले में .........मैने सिर उठाया...........तो विग्रह मुस्कुरा रही थी ।
मै ख़ुशी के मारे झूम उठी थी ..................क्यों की जो माँगा था वो मुझे भगवती नें दे दिया था ................मै चली थी अब अपनें भवन की ओर ..........पर अब मेरा हृदय मेरे पास नही था .....वो तो ले जा चुके थे .....वो अयोध्या के बड़े राजकुमार ............उफ़ ।
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{◆मैं_जनक_नंदिनी.... 1️⃣0️⃣◆}
क्या हो गया है मुझे ..............जब से पुष्प वाटिका से आई हूँ ........मन ही नही लग रहा .........लगता है मन को वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ले गए हैं ...............।
कभी छोटी छोटी बातों में हँसी आती है तो कभी किसी वस्तु को देखकर ही खो जाती हूँ .............किसी के पास बैठा नही जाता ।
माँ सुनयना आती थीं ..........उनके आते ही मै ऐसे उठ जाती जैसे मेरी कोई चोरी पकड़ी गयी हो ..............
हाँ उर्मिला जरूर कह रही थी कि जीजी ! आपको क्या हुआ ?
आप क्यों इतनी खोई खोई हो ...............
मै कहाँ खोई हूँ..........मै ठीक तो हूँ........तू बेकार की बातें करती हैं ......मैने उर्मिला को भी अपनें कक्ष से भगा दिया था .........
क्या करूँ ? कुछ समझ में नही आरहा ..............
हाथों में फूल के दोना पकड़े वो बड़े राजकुमार ! आहा !
अरे ! आज शरद पूर्णिमा है ...............ये पूर्णिमा का चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है .................पूर्ण चन्द्र ।
मेरे प्राण श्री राम की तरह ...................
मै स्वयं ही सोचती थी ............और स्वयं ही लजाती थी ।
पिता जी नें ठीक किया क्या प्रतिज्ञा करके ?
नही ......ठीक नही किया ............मेरी सखियाँ कह रही थीं कि फूलों को तोड़नें में भी उनको पसीनें आरहे थे ............तब वह पिनाक कैसे उठा पायेंगें ...........और उठाना ही मात्र तो नही है ना .......उठाकर प्रत्यञ्चा भी तो चढ़ानी है ..........
ओह ! कितनें कोमल हैं वे तो !
वो दिन भी कितना बेकार दिन था ........जब मै पूजा घर में चली गई थी .....न जाती तो ठीक रहता .......न मै पिनाक उठाती .....और न मेरे पिता जी प्रतिज्ञा ही करते ।
क्या तोड़ नही सकते पिता जी अपनी प्रतिज्ञा ?
नही ...........पिता जी अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ सकते .......चाहे कुछ भी हो जाए .................
मै उन दिनों अपनें आपसे ही बातें करनें लगी थी..........क्या करती किसी को बतानें में लाज जो आती थी ।
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ओह ! देवर्षि ! आप मेरे अन्तःपुर में ?
विचित्र हैं देवर्षि नारद जी ......इनको कहीं रोक टोक नही है ......
ये परम वीतराग , परोपकारी देवर्षि को भला कौन रोक सकता है ।
ये आगये थे मेरे ही अन्तःपुर में .........................
मै घबडा कर उठ गयी ................और देवर्षि को प्रणाम किया ।
तभी मेरे पिता जी और मेरी माता दोनों ही दौड़े मेरे अन्तःपुर की ओर .........उन्होंने भी प्रणाम किया ।
देवर्षि हँस रहे थे .........देवर्षि आज बहुत प्रसन्न थे ।
देवर्षि ! कहीं मैने प्रतिज्ञा करके कुछ गलत तो नही किया ?
ये प्रश्न मेरे पिता जी नें किया था ।
मैने जोश में आकर प्रतिज्ञा कर तो दी....पर आज तक कितनें राजकुमार और राजा आकर चले गए ........किसी से पिनाक हिला तक नही ।
देवर्षि कभी भी स्पष्ट बोलते ही नही .....इनको तो पहेली देनें में बड़ा आनन्द आता है .....अब पहेली सुलझाते रहो ।
राजन् ! आप जोश में भला कोई काम कर सकते हो ?
आप ज्ञानी शिरोमणि हो.......फिर ज्ञानी तो सदैव होश में ही रहता है ।
और रही बात आपके द्वारा प्रतिज्ञा करनें की ......तो राजन् ! हम सब तो उस आस्तित्व करों के द्वारा संचालित यन्त्र मात्र हैं ..........
आस्तित्व कभी गलत नही करता ............उससे कभी गलत होता ही नही है ...........राजन् ! मत सोचो कि तुमनें किया है ..........तुमसे करवाया गया है ......इसमें भला है ......सबका भला है .........
निश्चिन्त रहो राजन् ! .......निश्चिन्त रहो ...........
इतना कहकर देवर्षि मेरी और मुड़े ............और मुस्कुराये ।
वैदेही ! एक बात कहूँगा .........पुष्प उद्यान में जाकर अगर वहाँ कोई हमें प्रिय लगनें लगे ..........और हम वहाँ से बेचैनी ले आएं ........तब समझना ....तुम्हारा जीवन साथी तुम्हे मिल गया है ।
मैने सिर उठाया ...............और इशारे में ही पूछा .......क्या वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ?
हाँ .......वही राजकुमार ! इतना कहकर देवर्षि चले गए .......
मुझे इतनी ख़ुशी हो रही थी कि...... उस समय लग रहा था ..........मै नाचूँ , मै उछलूँ ..मै दुनिया को बताऊँ कि मेरे हृदय के "रमण" मुझे मिल गए है ।
एकान्त मिले ........और मै बस उन्हीं के बारे में सोचती रहूँ ।
माँ सुनयना मेरे लिये भोजन लेकर आयीं थीं .............पर भूख कहाँ है .........मेरी भूख मिट चुकी थी .................
दिन का समय बहुत मुश्किल से गुजरा था .........रात में चन्द्रमा और तपानें लगा था मुझे ......उसकी चाँदनी मुझे छेड़ रही थी ।
क्या ये आग एक तरफ ही लगी है ?
नही नही .....................कोहवर कुञ्ज में मुझे सारी बातें बताई थीं मेरे प्राण प्रियतम नें ........अपनी हथेलियों में मेरे मुख को सम्भाले प्रियतम नें मुझे वो सारी बातें बताई थीं ...........जब पुष्प वाटिका से गए थे ......अपनें गुरु जी के पास .......उन्हीं नें सुहाग की सेज में ये सारी बातें बताई थीं .............
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उन्होंने मुझे कहा था ................प्यारी ! पुष्प वाटिका में मैने तुम्हे देखा ...............ओह ! ऐसा सौंदर्य मैनें नही देखा था ..........अद्भुत सौंदर्य था .............।
लक्ष्मण और हम लौट तो आये ..............और गुरु जी को पुष्प भी दे दिया ...........पर हम दोनों ही अपना अपना हृदय छोड़ आये थे ।
मैने उस कोहवर कुञ्ज में पूछा था ........आपनें तो मुझे अपना हृदय दिया ....पर लक्ष्मण भैया नें ?
उर्मिला को ...............ये कहते हुए नाथ बहुत हँसे थे ।
मेरी भी हँसी निकल गयी थी ..................हाँ वो मेरे साथ ही थी पुष्प वाटिका में ................।
पर आपको कैसे पता चला ? मैने पूछा था ।
तब मुझे मेरे "प्राण" नें बताया था ...............
जब हम दोनों गए फूल लेकर और गुरु जी के सामने रख दिया था .......और प्रणाम किया ......तब उनके मुख से आशीर्वाद निकला ....
"तुम दोनों के मनोरथ सफल हों"
तब लक्ष्मण नें हँसते हुए कहा था .........मेरा कोई मनोरथ नही हैं ......मनोरथ तो भैया के हैं !
नही ........मनोरथ तुम्हारे भी हैं ..............बोलो नही है ?
तब शरमाकर सिर झुका लिया था लक्ष्मण नें ।
मुझे बड़ा आनन्द आया .........कौन ?
उर्मिला ? क्यों की मुझे थोडा थोडा सन्देह हो गया था ।
उर्मिला का नाम सुनते ही और लजा गया था मेरा लखन ।
सीते ! क्या बताऊँ ..........तुम्हे देखनें के बाद उस दिन ...........
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रात्रि में हम दोनों भाई छत में सो रहे थे ..............
उस दिन शरद पूर्णिमा थी ................
लक्ष्मण मेरे साथ ही था ...........काफी देर तक मै चन्द्रमा को देखता रहा .................फिर मैने लक्ष्मण से पूछा ...........
लक्ष्मण !
जी भैया !
लक्ष्मण ! ये चन्द्रमा मेरी सिया के मुख की तरह है ना !
हाँ भैया !
पर नही ...........लम्बी साँस लेते हुए मैने करवट बदली थी ।
इस चन्द्रमा में तो दाग़ है ........पर मेरी सिया के मुख में कोई दाग नही ।
है ना लक्ष्मण ?
फिर कुछ देर बाद मैने पूछा - तुम सो तो नही गए ?
नही भैया !
लक्ष्मण ! मेरी सिया के मुख चन्द्र के आगे ये चन्द्रमा कितना दरिद्र लग रहा है ना ! ...........कहाँ मेरी सिया की सुन्दरता ! और कहाँ ये दाग कलंक वाला चन्द्रमा ? मेरी सिया में कोई कलंक नही है ।
ये सारी बातें मुझे कोहवर कुञ्ज में मेरे प्रियतम नें बताई थी ।
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अगर सीता में कोई कलंक नही है ......तो उस धोबी के सामने क्यों नही आप कह सके ........कि मेरी सीता में कोई कलंक नही है ?
फिर आँसुओं की धारा बह चली थी .............वैदेही के ।
ओह ! तुम्हारे पुत्र मेरे कोख में पल रहे हैं ..............मै सुनती रहती हूँ .......ये दोनों ही लड़ते रहते हैं ..............अपनें पैर पटकते हैं .......
वो दिन ! और आज का दिन !
हाय विधाता ...................................
लेखनी रख दी सीता जी नें .......और तालपत्र को मोड़कर रख दिया ....
अब कुछ देर रोयेंगीं ये ..............जब तक स्वयं महर्षि वाल्मीकि न आजायें चुप करानें .........तब तक ...................
शेष_चरिञ__अगले_भाग_में..........
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