Monday, August 2, 2021

मैं जनक नंदिनी सीता

मैं_जनक_नंदिनी....  1 

 

मै वैदेही ! ................

 

श्रीविदेह राज की लाड़ली ....श्रीराजाधिराज श्रीरघुनाथ जी की प्रिया !

 

  


ओह !   ऋषि वाल्मीकि जी  के आश्रम में हूँ ............यहाँ मेरे नाम से कोई परिचित नही है .........महर्षि को मैने कह दिया है .........मेरा नाम किसी को न बताया जाए .....तब से महर्षि नें मेरा नाम रख दिया है "वन देवी"

 

यहाँ सब लोग मुझे "वन देवी" ही कहते हैं  ।

 

क्यों न बताया जाए  ?    क्यों छुपाऊँ मै अपना नाम  !  

 

ओह !   इसलिये कि मेरे प्राण सर्वस्व की यहाँ निन्दा होगी .....और ये निन्दा  समाज में फैलती जायेगी .........और  ये  वैदेही कैसे चाहे ये !

 

क्या !     मुझे छोड़ दिया  मेरे प्राण नें  ?  

 

वो मुझे छोड़ सकते हैं  ?     

 

हम दोनों  एक हैं .............राम और सीता .............फिर कैसे कहूँ उन्होंने मुझे त्यागा ............नही ......नही ............।

 

मै गर्भ वती हूँ ...........अरे !  मैने ही तो उनसे कहा था ..........कि मुझे  वन के सात्विक वातावरण में  ......मै अपनें बालकों को जन्म देना चाहती हूँ ...........सो मेरे प्राण धन  नें मेरे लिए व्यवस्था कर दी ।

 

इसमें त्यागना कहाँ से आया  ?    छोड़ना कहाँ से आया ।

 

नही  जो ऐसा कहते हैं ........वो  मेरे प्राण धन के प्रेम को जानते ही नही हैं ............वो मुझ से बहुत प्रेम करते हैं .....हाँ ....बहुत  ।

 

हा हा हा हा हा हा हा ...............मै और वो अलग कहाँ है  !

 

( इतनें में ही  लेखनी गिर जाती है  सीता जी के हाथों से  और वो    मूर्छित हो जाती हैं )

 

--------------

 

( कुछ देर के बाद  फिर सम्भालती हैं  वैदेही अपनें आपको   और  लिखना फिर शुरू   )

 

वो भयानक जंगल !.............जब मुझे लक्ष्मण छोड़ कर चले गए  ।

ठीक ही किया  लक्ष्मण नें भी .......मै लक्ष्मण की भी तो अपराधिनी हूँ ...

 

मारीच के प्रसंग में .......जब   लक्ष्मण नें मुझे लाख समझाया था ....कि माँ !  वो भगवान हैं ......उनका कोई क्या बिगाड़ेगा .........वो काल के भी महाकाल हैं ............आप  चिन्ता मत कीजिये .........मुझे जानें के लिए मत कहिये .....यहाँ  अनेक राक्षस हैं ............कुछ भी हो सकता है ।

 

तब क्या मैने लक्ष्मण की बात मानीं .......?

नही मानीं ..........ओह !  कितना भला बुरा कहा मैनें लक्ष्मण को  ।

हाय हाय ! ..........अपराधिनी हूँ मै लक्ष्मण की .......।

 

ठीक किया लक्ष्मण नें .....मुझे  छोड़ कर चले गए  गंगा के किनारे ।

 

अकेली मै ................रात हो रही थी ........मै गर्भ वती  .........

कहाँ जा रहे हो   लक्ष्मण  ?    मै यहाँ अकेली ?  

 

हिलकियाँ छूट गयीं थीं  बेचारे लक्ष्मण की ........वो भी क्या करे ......वो तो अपनें बड़े भाई का  सेवक है ...सेव्य जो कहे  सेवक वही तो करेगा ।

 

माँ !  माँ !

 

  मेरे पैरों में गिर गया था ........और रोता ही जा रहा था ।

 

क्या हुआ  तुम क्यों रोते हो लखन भैया !   

 

बहुत देर तक तो वो बोल भी नही पाया  ।

 

फिर अपनें आपको सम्भाला .......रथ में बैठा .........

 

क्या हुआ  ?    मै रथ में   बैठनें जा रही थी   ।

 

आपको  प्रभु नें  त्याग  दिया है  ! 

 

  लक्ष्मण बहुत मुश्किल से ये बोल पाये थे ।

 

क्या !   क्या !  

 

   मै स्तब्ध थी........मै  चेतना शून्य हो गयी थी ।

 

ये क्या कह रहे हो ?    मै कुछ और बोल पाती  कि     तब तक लक्ष्मण चल दिया .....रथ लेकर  ।

 

रात हो रही थी ...........भयानक जंगल था   ।

 

झुंगुर की आवाज  चारों दिशाओं से  आरही थी ........मेरे बगल से होकर  साँप गुजर रहे थे ........सिंह  मेरे सामनें से जा रहा था .......मै डर रही थी .............।

 

कूद जाऊँ  गंगा में ........एक क्षण के लिए मेरे मन में ये विचार आया ।

 

मै गंगा में कूद कर इस देह को ही समाप्त करना चाहती थी ........कि  तभी मैने अपनें  गर्भ को देखा ...........ओह ! इसमें  मेरे प्राण रघुनाथ जी  के अंश हैं ।

 

इन्हें कैसे नष्ट करूँ ......? 

 

बैठ गयी ...........डर ........अपार दुःख ...............

 

इतनी पीड़ा तो मुझे .......उस समय भी नही  हुयी  थी ........जब  रावण मुझे चुराकर ले गया था ........अरे !  मेरे "प्राण" नें तो मुझे नही  छोड़ा था ना तब !

 

पर आज ...?      ओह ! .................

 

मेरी हिलकियाँ बंध गयीं थीं उस समय .........।

 

मै वैदेही !  

 

     जनकपुर में  जब चलती थी .....तो मेरे पिता विदेह राज  मेरे लिए ......कमल  फूल की  पंखुड़ियाँ बिछवा देते थे ............कमल फूल के पराग मनों में  बिछाये जाते थे ......मेरी  सुकुमारी सिया कैसे  जमीन पर चलेगी ..........पर आज  !     ओह ! 

 

मै क्या करूँ  !    

 

    पीड़ा इतनी हुयी ........कि  धरती पर गिर ही पड़ी थी ......मै  ।

 

बेटी !   पुत्री !       वो वात्सल्य से सनी आवाज मेरे कानों में गयी ....

कौन !  कौन !      मै डर गयी ......कौन है आप   !

पर  ये तो  ऋषि थे ...... महर्षि  वाल्मीकि  ।

 

सम्भाला इन्होनें ......मुझे .......हाँ मेरे आँसुओं को  सम्भाला  और  अपनी  कमण्डलु में डाला .........और यही कहा ......सिया बेटी ! तेरे एक आँसू की बून्द भी अगर इस   धरती में गिरी  .........तो  ये धरती  रसातल में चली जायेगी ....

 

प्रलय ला  देगी  तेरी माँ  ये धरती .................

 

मै  क्या करूँ  ?   बोलिये ना   महर्षि !    मै क्या करूँ ?

 

मैने बिलखते हुए उनसे  कहा था ।

 

बेटी सिया !   चलो मेरे साथ  ,  मेरे आश्रम में चलो  ..............

 

मै किंकर्तव्य विमूढ़  सी  चल दी ....महर्षि का स्नेह  मेरे प्रति अगाध था .....मैने  उनको देखते ही अनुभव किया ........मेरी ये दशा देखकर  उनके भी आँसू बरसना चाहते थे ........वो भी दहाड़ मारकर रोना चाहते थे ...."हे राम ! तुमनें ये क्या किया ".......पर  उन्होंने  रोक लिया था  अपनें आँसुओं को ....शायद यही आँसू  उनके "रामायण" बनकर प्रकट हुए ।

 

मै चल रही थी उनके पीछे पीछे ............और वो मेरे पिता  के रूप में  आगे आगे    चलते रहे ..............मुझे  कुछ पता नही था ......।

 

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सखि नामावली