Friday, August 9, 2024

बृज रस मदिरा रसोपासन 1

आज  के  विचार 1
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( चलहुँ चलहुँ  चलिये निज देश....)

!! रसोपासना - भाग 1 !! 

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प्रियतम तो सच्चे  "वही" हैं.......उन्हीं  प्रियतम की लगन में जो "खुदी" को जला दे ......वह सखी धन्य है ।

चलिये !    अपनें देश चलिये ......ये देश अपना नही है .....ये तो किसी का नही है ......अरे !  ये  है ही नही  ...ये तो भ्रम मात्र  है   ।

वो देश .......जहाँ प्रेम ही प्रेम है .......वह देश ......जहाँ   प्रेम के नरेश  श्रीश्यामसुन्दर और महारानी श्रीराधारानी विराजमान हैं ।

वह देश ......जहाँ  स्वसुख वान्छा  की  दूर दूर  तक गन्ध भी नही है ।

वह देश ....जो अपना है.......जहाँ सब अपनें हैं ।

वह देश .........जहाँ प्रेम की नदी सदा बहती रहती  है    ।

"प्रेम"   आहा !  कितना सुन्दर शब्द है.....मिश्री सी घुल जाती है ।

अनिर्वचनीय तत्व है ये......सच में  इसे पानें के बाद  कुछ और पानें की कामना ही नही रहती........ये मन बड़ा  लालची है ........पर प्रेम  में इतनी ताकत है कि  इस लालची मन को पूर्ण तृप्त करके ही ये दम लेता है ।

चलिये .......छोड़िये  इस देश को....कुछ नही रखा यहाँ ........उस देश में चलिये  जहाँ  रस ही रस है .......रस का  सिन्धु  उमड़ घुमड़ रहा  है.... ..रस के ही  घन  श्रीश्याम और श्रीराधा   जहाँ  छाई हुयी हैं.........सब कुछ जहाँ  रस है .........रस ही आकार लेकर लीला कर  रहा है ।

रस ही  सखियाँ ....रस ही   वन ....रस ही वृक्ष ....रस ही यमुना  ।

रस ही नाना रूपों में  दिखाई देता है यहाँ ......रस ही ....एक गौर और श्याम बन विराजमान है  ।

पर  ये दो नही ....एक हैं ........जैसे  जल और तरंग  ।

अब अगर व्याख्या करनी हो ....तो जल की   व्याख्या अलग होगी और  तंरग की अलग .......पर  क्या  जल और तंरग दो हैं  ? 

छोडो ......इस सब  गहरे  सिद्धान्त को .........तुम तो चलो  ।

जहाँ की पृथ्वी .........दिव्य सुवर्ण मय है ........मणि मण्डित के   जहाँ  दिव्य दिव्य   खम्भे लगे हैं .......हवा चलती है  तो  वहाँ की रज  कपूर की तरह उड़ती है.......यमुना  कंकण के आकार की हैं ........मध्य में  दिव्य  श्री वृन्दावन है ..........इसी को नित्य निकुञ्ज कहते हैं  ।

सब कुछ प्रेमपूर्ण है यहाँ .................

अकारण,  एकरस , अनुराग ही प्रमाणिक प्रेम कहलाता है ।

उस देश में  स्वाभाविक प्रेम है ........स्वार्थ रहित प्रेम है ......निश्चल प्रेम है ........वहाँ   सर्वत्र प्रेम ही प्रेम है   ।

चलिये  उस  देश में............प्रेम के देश में   ।

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आँखें बन्द कीजिये !

........दिव्य श्रीधाम वृन्दावन  है  ।

मणि माणिक्य से खचित भूमि है  यहाँ की............प्रणाम कीजिये  और  बड़े प्रेम से   बोलिये  -  श्री वृन्दावन  !      मन ही मन बोलिये  ।

नही नही ,    ऐसे कैसे प्रवेश मिलेगा  उस दिव्य श्रीधाम में  ।

वहाँ की नित्य सखियों  की पहले कृपा  आवश्यक है...........उनके बिना  आपका प्रवेश नही हो पायेगा ........वन्दन कीजिये  पहले सखियों को ।

युगल सरकार की अष्ट सखियाँ हैं........चलिये ध्यान करते हैं ।

सबसे पहले  -  "श्रीरंगदेवी जु" ..........इनकी कृपा प्राप्त हो ......इनके चरणों में प्रणाम कीजिये.........इनका  रँग गोरा  है .........ये  बहुत सुन्दर है ........नीली  साडी पहनती हैं ये .........ये  "श्रीजी" के  पक्ष की हैं ...........ये वीणा बहुत सुन्दर बजाती हैं   ...इनके साथ    इनकी भी   अष्ट सखियाँ हैं ........जो इनकी सेवा में रहती हैं .........इन सबको प्रणाम कीजिये ...........इनके चरण  रज को माथे से लगाइये  ।

अब दूसरी सखी हैं ......"श्री सुदेवी जु"........ये श्याम सुन्दर के पक्ष की हैं .......इनका रँग कुछ साँवला सा है ........ये  मृदंग बजानें में निपुण हैं ...........पीली रँग की ये साडी पहनती हैं.......इनके साथ भी इनकी अष्ट सखियाँ हैं  जो इनकी सेवा में रहती हैं  ......इनको भी प्रणाम कीजिये ।

तीसरी सखी हैं......"श्रीललिता जु" ........  दिव्य गोरोचन की तरह कांति हैं इनके मुखमण्डल में .........ये श्रीजी की निज सखी हैं ..........ये बड़े प्रेम से बाँसुरी वादन करती हैं ......और  प्रिया जु को रिझाती हैं  ।

इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं.........जो इनकी सेवा में रहती हैं .......इन सब को प्रणाम कीजिये ।

चौथी सखी हैं ...  "श्रीविशाखा जु" .......ये  युगल सरकार के मन की बात को तुरन्त समझ जाती हैं.....विद्युत की तरह इनकी अंग कांति है ।

मृदंग ये बड़ा सुन्दर बजाती हैं......ये  श्यामसुन्दर की प्रिय सखी हैं ।

इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं.....सबको प्रणाम कीजिये  ।

पांचवीं सखी हैं -  "श्रीचम्पकलता जु"....... आकाश की तरह  इनका रँग है ........ये  अत्यन्त सुन्दरी और शान्त सखी हैं ......विशेष इन्हें आनन्द आता है   युगल सरकार को चँवर ढुरानें में  ।

ये सारंगी बजाती हैं........श्रीजी को इनकी सारंगी बहुत प्रिय है  ।

इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं .......इन्हें भी प्रणाम कीजिये   ।

छटी सखी हैं -   "श्रीचित्रा जु"....इनकी अंग कांति है ...केशर की तरह ।

ये सितार बजाती हैं........और चित्र बहुत सुन्दर काढती हैं  ।

इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं  ......प्रेम से वन्दन कीजिये इन्हें ।

सातवीं सखी हैं  -   "श्रीतुंगविद्या जु".......इनका रँग श्रीजी की तरह ही है.......पीला परिधान पहनती हैं ये ........ये गाती बहुत मधुर हैं ।

अष्ट सखियाँ इनकी भी सेवा में निरन्तर लगी रहती हैं .......इनको प्रणाम कीजिये  ।

और आठवीं सखी हैं  -  "श्रीइन्दुलेखा जु"......इनको प्रिया प्रियतम दोनों का प्रेम प्राप्त है .......गौर वर्णी हैं ये.........मंजीरा बजाती हैं ......लाल रँग की साड़ी इन्हें प्रिय है .....क्यों की "श्रीजी" नें इन्हें एक बार कहा था  कि  लाल रँग का परिधान इन्दु !  तुम्हे सुन्दर लगता है .....बस उसी दिन से ये  लाल परिधान ही पहननें लग गयीं  ।

साधकों !     ये सखियाँ वेद की ऋचाएं हैं ....ये सखियाँ  चिद् शक्ति हैं ......चिदाम्बा शक्ति  ही ये सखियाँ ,  भिन्न भिन्न रूपों में  ब्रह्म और आल्हादिनी की सेवा में उपस्थित हैं .........इसलिये इनको प्रणाम करना आवश्यक है ........तभी इस दिव्य निकुञ्ज में प्रवेश आपको मिलेगा  ।

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सखी भाव  धारण कीजिये  ।

ये बहुत ऊँची वस्तु है .......सखी भाव  ।

वेदो  नें स्पष्ट कह दिया है ..........ब्रह्म ही एक मात्र पुरुष है ।

बाकी सब  उस "ब्रह्म पुरुष" की नारीयाँ हैं.....रसोपासना हमें बताती हैं कि  सखी भाव के बिना  उस प्रेम नगरी में  हमारा प्रवेश सम्भव नही है ।

अहंकार पुरुष है .....और समर्पण सखी..........सब कुछ  हमारे  प्रिया प्रियतम  जु हैं.........ये भाव..........हाँ  ये भाव  ही हमें  उस निकुञ्ज का अधिकारी बनाता है........क्यों की उस  "प्रेम देश"  में अहंकार का प्रवेश   वर्जित है  ।

ये अद्भुत रहस्यवाद है ..........इसको कृपा करके   बुद्धि का विषय मत बनाइये ..........आप का निज रूप सखी है ............यही सच्चाई है ......आपका निज देश  श्री वृन्दावन धाम है ......सनातन श्रीवृन्दावन .....नित्य श्री वृन्दावन ............जहाँ प्रेम नदी निरन्तर बह रही है .....हमें वहीं  जाना है ........क्यों की हम मूल वहीं के निवासी हैं  ।

सखी भाव धारण करके ध्यान कीजिये   ।

श्री वृन्दावन का ........प्रातः  के  श्रीधाम वृन्दावन  का  ।

शेष   "रस चर्चा"  कल .......

Harisharan

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बृज रस मदिरा रसोपासन 1

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