Saturday, April 20, 2024

सखियो के श्याम 2

*सखियों के श्याम (2)*
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*🌹🌻ब्रह्म बिकानो प्रेम की हाट🌻🌹*

*'ऐ इला! सुन तो।'— धीमे स्वर में श्यामसुंदर ने कहा।*

*उनकी बात सुन मैं समीप गयी, तो उन्होंने एकान्त में चलने का संकेत किया। वहाँ चलकर कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले- 'मेरा एक काम है, करेगी ?' मैंने उत्सुकता से उनकी ओर देखा।*

*'अरी मुख में जिह्वा है उसका क्या अचार डालेगी?'– उन्होंने खीजकर कहा मैं हँस पड़ी- 'तुम खाओगे वह अचार?"*

*'मार खायेगी बंदरिया कहीं की!'वे खीजकर मुझे मुठ्ठी बांध मारने बढ़े, किंतु मैं शांत खड़ी रही तो उन्होंने भी हाथ नीचे कर लिया और समीप आकर बोले–‘करेगी ?’ व्यग्रता छिपाने के लिये वे मेरी चुनरी का छोर अपनी ऊंगली में लपेटने और खोलने लगे।*

*'करेगी! करेगी! क्या करेगी; दण्ड-बैठक कि मल्लयुद्ध ?' अब मेरे खीजने की बारी थी—‘न कुछ कहना, न सुनना! बस 'करेगी'। मेरे मुख में जिह्वा न सही, तुम्हारे तो है! फिर बोल क्यों नहीं फूट रहा ? घर में सारा काम - काज यों ही पड़ा है। मैया मारेगी, मैं चलूँ!' मैंने चलने का उपक्रम किया। 'मैं तेरे हाथ जोड़ूं सखी! नेक रुक जा। सचमुच श्याम ने सम्मुख आकर हाथ जोड़ दिये।*

*मैं अवाक् रह गयी- 'क्या काम है, कहो ?'*

*'इला!' उन्होंने बरसने को आतुर नयन उठाकर मेरी ओर देखा- 'आज प्रातः से अब तक ' श्रीजी' के दर्शन नहीं हुए।'*

*कुछ रुक-रुक कर उन्होंने पूछा- 'तू बरसाने जायेगी ?" 'हो आऊँगी, तुम संदेश कहो।।*

*'मेरी ओर से करबद्ध विनती करना मेरे सभी अपराध क्षमा करके श्रीकिशोरीजी इस अकिंचन को दर्शन दें।'*

*अपने सौभाग्य पर मैं फूली न समायी, किंतु ऊपर से पूछा- 'सुनो*

*श्यामसुंदर! मुझे घर में बहुत कार्य करना पड़ा है, मैया खीज रही होगी। इस पर भी मैं तुम्हारा कार्य करूँगी, किंतु तुम मुझे क्या दोगे?'*

*'मैं तुझको क्या दूँगा?' श्याम ने विवशता से इधर-उधर देखा— 'क्या दूँ सखी! तुझे देने योग्य तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।'*

*'यह क्या कहते हो ? व्रज में आने वाले सारे ऋषि-मुनी 'त्रिभुवन पति, परात्पर पुरुष, लक्ष्मीपति' जाने क्या-क्या कहकर तुम्हारी चर्चा करते हैं, सो ?"*

*'सो तो कहे सखी; पर वह सब तू लेगी ?" 'ना बाबा! मैं क्या करूँगी उसका ?"*

*'फिर ?"*

*'बिना कुछ लिये तो मैं काम करूँगी नहीं; यह निश्चय समझना!' 'अच्छा सखी! ऐसा कर, मेरे पास जो है उसमें से तुझे जो रुचे सो माँग ले।'*

*'तुम्हारे पास क्या है भला?' मैंने तुनक कर कहा-'एक कछनी, एक पिछौरी और लकुट-मुरली मैं क्या करूँगी इनका ?'*

*'मैं तेरे पाँव पड़ूं इला!' सचमुच श्याम ने आगे बढ़कर मेरे पाँव छू लिये। 'कन्हाई तेरो ऋणी रहेगा। कहते-कहते उनका गला भर आया और मेरा हृदय उछल कर बाहर आ गिरने को हुआ।*

*किसी प्रकार अपने को सम्हाल कर कहा- 'मैं जा रही हूँ।' 'मैं सूर्यकुण्ड पर जा रहा हूँ।' उन्होंने पटके से नेत्र पोंछे और चल दिये। घर जाकर मैंने 'पवित्रा' की बछिया को खोलते हुए उसके कान में कहा—'बरसाने की ओर भाग जाना।*

*'अरी इला! यह बछिया कैसे छूट गयी ?' – मैया चिल्लाई। 'मैंने दूसरी ठौर बाँधने को खोली, तो भाग गयी; मैं अभी पकड़ लाती हूं' कहते हुए मैं बछिया के पीछे दौड़ी।*

*बरसाने के घाट पर विशाखा जीजी घड़े धो रही थी। समीप जाकर पूछा ' स्वामिनी जू कहाँ है जीजी ?'*

*'क्या बात है, आ रही हैं।'*

*'संदेश लाई हूँ!' मैंने धीरे से कहा; फिर जोर से बोली- 'बछिया दौड़ा-दौड़ा कर थका मारा जीजी! दयीमारी अब कैसी शांत खड़ी है तुम्हारे समीप।'*

*स्वामिनी जू सखियो से घिरी पधारीं; मैंने समीप जा चरणों पर सिर रखा। उन्होंने दोनों हाथ से उठाकर हृदय से लगा लिया। उस महाभाव वपु का स्पर्श पा मेरी चेतना लुप्त हो गयी ललिता जीजी ने चरणामृत के छींटे से चेत कराया।*

*मैं बछिया के गले में रज्जू बाँधती हुई सूर्यकुण्ड की ओर संकेत करके बोली- सखियों! सूर्यकुण्ड पर श्याम मेघ घुमड़ रहे हैं, शीघ्र चलो; अन्यथा वर्षा होने लगेगी।'*

*अहा! स्वामिनी जू ने समीप आ अपनी मुक्तामाल मेरे कण्ठ में पहनाकर कपोलों पर चुम्बन अंकित कर दिया। मैंने देखा मुक्ता के प्रत्येक दाने में श्यामसुन्दर की छवि अंकित है। सचमुच श्याम क्या देते मुझको ?*
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*जय जय श्री राधेश्याम*
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सखियो के श्याम 1

*सखियों_के_श्याम(1)*
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*🌹🌻उरहनो देन मिस गयी श्याम दरस को🌻🌹*

*'श्याम सलिले यमुने! यह श्याम रंग तुमने कहाँ से पाया ? कदाचित श्यामसुन्दरका चिंतन करते-करते तुम भी श्यामा हो गयी हो। ये लोल लहरिया तुम्हारे हृदयके उल्लास को प्रकट करती है; अवश्य ही नटनागर यहीं कहीं समीप ही हैं, कि तुम हर्ष-विह्वल हो उठी हो! कहाँ है; भला बताओगी मुझे ?"*

*'क्या कहूँ बहिन! घर में जी लगता ही नहीं; साँस जैसे घुट रही थी। जैसे-तैसे काम निपटा कर पानी भरने के मिस चली आयी हूँ। सुबह से श्याम के दर्शन नहीं हुए। समझाती हूँ मन को कि अभागे! तूने ऐसे कौन से पुण्य कमाये हैं कि नित्य दर्शन पा ही ले! पर समझता कहाँ है दयीमारा! यदि दर्शन हो भी जाय तो कहेगा 'एक बार और' 'एक बार और'। आह! इसकी यह एक बार कभी पूरी न होगी; और न यह मुझे चैन लेने देगा हतभागा। सौभाग्यशालिनी तो तुम हो श्रीयमुने! कि श्यामसुंदर तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते। यहाँ-वहाँ, कहीं-न-कहीं तुम्हारे समीप ही क्रीड़ा करते रहते हैं।'*

*'बहुत विलम्ब हो गया, मैया डाँटेगी; पर तुम्ही बताओ श्रीयमुने! घड़ा तो भरा रखा है, इसे उठवाये कौन ? श्यामसुंदर होते तो उठवा देते, उठवा देते या फिर फोड़ ही देते; अरे कुछ तो करते! यह अभागा तो ज्यों-का-त्यों भरा रखा है। यहीं-कहीं तुम्हारे तट पर होंगे! कहो न उनसे कि मैं जल भर आयी हूँ, जरा घड़ा उठवा दें। इतनी कृपा कर दो न देवी तपनतनये! परोपकार के लिये ही तो तुमने यह पयमय वपु धारण किया है, मुझे भी कृपा कर अनुगृहीत करो।'*

*हाँ, सखियो! मेरी मैया मुझे साथ लेकर उलाहना देने नंदभवन गयी थी। जाते ही उसने पुकारा-'नन्दरानी! अपने पूत की करतूत देखो और देखो मेरी लाली को हाल।'*

*'कहा भयो बहिन!' कहती नन्दरानी बाहर आयीं- 'कहा है गयो ?" तुनक कर मैया बोली—‘लाली जल भरने गयी थी। कन्हाई से घड़ा उठवाने को कहा, तो घड़े-का-घड़ा फोड़ दिया; मुक्तामाल तोड़कर इसकी चुनरी भी फाड़ दी सो अलग! क्या कहें नन्दरानी! लगता है गोकुल छोड़कर कहीं अन्यत्र जाकर बसना पड़ेगा। तुम्हारे तो बुढ़ापे का पूत है, सो लाड़ दुलार की सीमा नहीं; माथे लेय के कंधे पर बिठायें, पर इस नित्य के उधम से हम तो अघा गयी है बाबा!'*

*'नेक रुको बहिन!' व्रजरानी हाथ जोड़कर बोली- 'कन्हाई तो तुम्ही सबका है। तुम सबके आशीर्वाद से ही इसका जन्म हुआ है। अपना समझकर तुम जो कहो, सो दंड देऊँ। बाहर खेलने गया है, तुम लाली को यहीं छोड़ जाओ, वह आयेगा तो इसके सामने ही उससे पूछूंगी।'*

*'तुम तो भोली हो नंदगेहिनी! तुम्हारा लाला भी कभी अपराध सिर आने देता है भला! तुम डाल-डाल, तो वह पात-पात फिरेगा।' मैया बोली। 'लाली को यहीं छोड़ जाओ, नीलमणि आता ही होगा। नंदरानी ने कहा। मेरी मैया मुझे वहीं बिठाकर चली गयी।*

*ब्रजेश्वरी ने मुझे नवीन वस्त्र धारण कराये, पकवान खिलाये और गोद में बिठाकर दुलारती हुई बोली- 'क्या करूँ बेटी! नीलमणि बड़ा चंचल है; तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी? आयेगा तो आज अवश्य मारूँगी उसे!'*

*मैंने भयभीत होकर सिर हिला दिया कि कहीं चोट नहीं आयी। मन में आया कहीं सचमुच मैया मार न बैठे अथवा पुनः बांध न दें! अपनी मैया की ना समझी पर खीज आयी; क्यों दौड़ी आयी यहाँ!*

*तभी बाहर बालकों का कोलाहल सुनायी दिया मैं सिकुड़ सिमट कर बैठ गयी।*

*'कन्हाई-रे-कन्हाई!'– मैया ने पुकारा। 'हाँ मैया!'- श्यामसुंदर दौड़ते हुए आये। 'क्या है मैया! यह कौन बैठी है, किसकी दुलहिन है ?'– उन्होंने एक साथ अनेकों प्रश्न पूछ डाले।*

*मैं तो लाज में डूबने लगी। मैया ने उसका हाथ पकड़कर कहा- 'आज तूने इसका घड़ा क्यों फोड़ दिया रे! मुक्तामाल तोड़ करके चुनरी भी फाड़ दी और अब पूछता हैं कि यह कौन है? दारीके! तेरे उधम और गोपियों के उलाहनों के मारे अघा गयी मैं तो!" 'नहीं तो मैया! मैं तो जानता तक नहीं कि यह कौन है! तू यह क्या कह रही हैं, मैंने तो इसे कभी देखा ही नहीं!'- श्यामसुंदर चकित स्वर में बोले ।*

*कभी नहीं देखा ?'– कहते हुए मैया ने अपने हाथ से मेरा मुख ऊपर उठा दिया। 'अरी मैया! यह तो इला है। ताली बजाते हुए वे मैया के गले से लटक गये।*

*'तू इसका नाम बदल दे।'*

*'क्यों रे?'– मैया ने चकित होकर पूछा।*

*'इला का क्या अर्थ है मैया ? वह पिलपिली सी इल्ली न? ना मैया, तू इसका नाम बदल दे।'*

*'अरे मेरे भोले महादेव! इला का अर्थ इल्ली नहीं, पृथ्वी होता है; पृथ्वी।'*

*'ऐं! पृथ्वी होता है मैया ?' कहकर श्यामसुंदर बड़े भोले आश्चर्य से कभी मुझे और कभी पृथ्वी को देखने लगे। मुझे हँसी आ गयी, तो मैया को भी बात याद आयी; पुनः पूछा-*

 *'तूने इसका घड़ा क्यों फोड़ा ?"*

*श्यामसुंदर हँस पड़े - 'मैया, तू क्या जाने यह तो बावरी है बावरी ! घाट पर बैठी बैठी अकेली जमुनाजी से बातें कर रही थी। मैं उधर गया पानी पीने को, तो देखा-सुना समीप जाकर पूछा तो बावरी की तरह देखे जाय। मैंने हाथ पकड़कर उठाया और घड़ा उठाकर इसके माथे पर रख दिया। तो देख मैया! इसने ऐसे कमर और देह फरफरायी कि घड़ा बेचारा क्या करता, पट्से गिरा और फूट गया।'*

*सखियों! श्यामसुंदर ने कमर और देह इस तरह हिलाई कि मैया और मैंने ही नहीं प्राङ्गण में खड़ी सभी गोपियों और दासियों ने भी मुख पल्लू से ढक लिये। किंतु श्यामसुंदर गम्भीर बने रहे- 'सुन मैया! मैंने इससे कहा-*

*क्यों री, यह क्या किया तूने! घड़ा फोड़ दिया, अब मेरे माथे आयेगी क्या बातें कर रही थी तू यहाँ बैठी बैठी? मेरी बात सुनकर मैया! इसने ऐसी दौड़ लगाई कि भिड़ गयी; मैं गिरते-गिरते बचा, पर मेरी वनमाला तो टूटकर इसके साथ ही चली गयी थोड़ी दूर जाकर सम्भवतः ठोकर खाकर गिर पड़ी होगी। वहीं इसकी माला टूटी होगी और चुनरी भी फट गयी होगी।'*

*'मैया! मैं तुझसे सच कहता हूँ, तू इसकी मैया से कहकर इसका ब्याह करा दे जल्दी से। यदि किसी को मालूम हो जायगा कि यह पगली है, तो इसका विवाह न हो पायेगा।'*

*सखियों! मेरे लिये वहाँ बैठे रहना कठिन हो गया, हँसी से पेट फटा जा रहा था। मैं उठते ही घर की ओर दौड़ पड़ी, तुमने देखी उनकी चतुराई।*
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*जय जय श्री राधेश्याम*
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बृज रस मदिरा रसोपासन 1

आज  के  विचार 1 https://www.youtube.com/@brajrasmadira ( चलहुँ चलहुँ  चलिये निज देश....) !! रसोपासना - भाग 1 !!  ***************************...