*सखियों के श्याम (2)*
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*🌹🌻ब्रह्म बिकानो प्रेम की हाट🌻🌹*
*'ऐ इला! सुन तो।'— धीमे स्वर में श्यामसुंदर ने कहा।*
*उनकी बात सुन मैं समीप गयी, तो उन्होंने एकान्त में चलने का संकेत किया। वहाँ चलकर कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले- 'मेरा एक काम है, करेगी ?' मैंने उत्सुकता से उनकी ओर देखा।*
*'अरी मुख में जिह्वा है उसका क्या अचार डालेगी?'– उन्होंने खीजकर कहा मैं हँस पड़ी- 'तुम खाओगे वह अचार?"*
*'मार खायेगी बंदरिया कहीं की!'वे खीजकर मुझे मुठ्ठी बांध मारने बढ़े, किंतु मैं शांत खड़ी रही तो उन्होंने भी हाथ नीचे कर लिया और समीप आकर बोले–‘करेगी ?’ व्यग्रता छिपाने के लिये वे मेरी चुनरी का छोर अपनी ऊंगली में लपेटने और खोलने लगे।*
*'करेगी! करेगी! क्या करेगी; दण्ड-बैठक कि मल्लयुद्ध ?' अब मेरे खीजने की बारी थी—‘न कुछ कहना, न सुनना! बस 'करेगी'। मेरे मुख में जिह्वा न सही, तुम्हारे तो है! फिर बोल क्यों नहीं फूट रहा ? घर में सारा काम - काज यों ही पड़ा है। मैया मारेगी, मैं चलूँ!' मैंने चलने का उपक्रम किया। 'मैं तेरे हाथ जोड़ूं सखी! नेक रुक जा। सचमुच श्याम ने सम्मुख आकर हाथ जोड़ दिये।*
*मैं अवाक् रह गयी- 'क्या काम है, कहो ?'*
*'इला!' उन्होंने बरसने को आतुर नयन उठाकर मेरी ओर देखा- 'आज प्रातः से अब तक ' श्रीजी' के दर्शन नहीं हुए।'*
*कुछ रुक-रुक कर उन्होंने पूछा- 'तू बरसाने जायेगी ?" 'हो आऊँगी, तुम संदेश कहो।।*
*'मेरी ओर से करबद्ध विनती करना मेरे सभी अपराध क्षमा करके श्रीकिशोरीजी इस अकिंचन को दर्शन दें।'*
*अपने सौभाग्य पर मैं फूली न समायी, किंतु ऊपर से पूछा- 'सुनो*
*श्यामसुंदर! मुझे घर में बहुत कार्य करना पड़ा है, मैया खीज रही होगी। इस पर भी मैं तुम्हारा कार्य करूँगी, किंतु तुम मुझे क्या दोगे?'*
*'मैं तुझको क्या दूँगा?' श्याम ने विवशता से इधर-उधर देखा— 'क्या दूँ सखी! तुझे देने योग्य तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।'*
*'यह क्या कहते हो ? व्रज में आने वाले सारे ऋषि-मुनी 'त्रिभुवन पति, परात्पर पुरुष, लक्ष्मीपति' जाने क्या-क्या कहकर तुम्हारी चर्चा करते हैं, सो ?"*
*'सो तो कहे सखी; पर वह सब तू लेगी ?" 'ना बाबा! मैं क्या करूँगी उसका ?"*
*'फिर ?"*
*'बिना कुछ लिये तो मैं काम करूँगी नहीं; यह निश्चय समझना!' 'अच्छा सखी! ऐसा कर, मेरे पास जो है उसमें से तुझे जो रुचे सो माँग ले।'*
*'तुम्हारे पास क्या है भला?' मैंने तुनक कर कहा-'एक कछनी, एक पिछौरी और लकुट-मुरली मैं क्या करूँगी इनका ?'*
*'मैं तेरे पाँव पड़ूं इला!' सचमुच श्याम ने आगे बढ़कर मेरे पाँव छू लिये। 'कन्हाई तेरो ऋणी रहेगा। कहते-कहते उनका गला भर आया और मेरा हृदय उछल कर बाहर आ गिरने को हुआ।*
*किसी प्रकार अपने को सम्हाल कर कहा- 'मैं जा रही हूँ।' 'मैं सूर्यकुण्ड पर जा रहा हूँ।' उन्होंने पटके से नेत्र पोंछे और चल दिये। घर जाकर मैंने 'पवित्रा' की बछिया को खोलते हुए उसके कान में कहा—'बरसाने की ओर भाग जाना।*
*'अरी इला! यह बछिया कैसे छूट गयी ?' – मैया चिल्लाई। 'मैंने दूसरी ठौर बाँधने को खोली, तो भाग गयी; मैं अभी पकड़ लाती हूं' कहते हुए मैं बछिया के पीछे दौड़ी।*
*बरसाने के घाट पर विशाखा जीजी घड़े धो रही थी। समीप जाकर पूछा ' स्वामिनी जू कहाँ है जीजी ?'*
*'क्या बात है, आ रही हैं।'*
*'संदेश लाई हूँ!' मैंने धीरे से कहा; फिर जोर से बोली- 'बछिया दौड़ा-दौड़ा कर थका मारा जीजी! दयीमारी अब कैसी शांत खड़ी है तुम्हारे समीप।'*
*स्वामिनी जू सखियो से घिरी पधारीं; मैंने समीप जा चरणों पर सिर रखा। उन्होंने दोनों हाथ से उठाकर हृदय से लगा लिया। उस महाभाव वपु का स्पर्श पा मेरी चेतना लुप्त हो गयी ललिता जीजी ने चरणामृत के छींटे से चेत कराया।*
*मैं बछिया के गले में रज्जू बाँधती हुई सूर्यकुण्ड की ओर संकेत करके बोली- सखियों! सूर्यकुण्ड पर श्याम मेघ घुमड़ रहे हैं, शीघ्र चलो; अन्यथा वर्षा होने लगेगी।'*
*अहा! स्वामिनी जू ने समीप आ अपनी मुक्तामाल मेरे कण्ठ में पहनाकर कपोलों पर चुम्बन अंकित कर दिया। मैंने देखा मुक्ता के प्रत्येक दाने में श्यामसुन्दर की छवि अंकित है। सचमुच श्याम क्या देते मुझको ?*
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*जय जय श्री राधेश्याम*
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