आज के विचार
!! राधाबाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( भूमिका )
16, 5, 2023
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बात आज की नही है करीब पाँच वर्ष पूर्व की है ...मेरे ऊपर श्रीजी की विशेष कृपा रही कि मुझे नारद भक्ति सूत्र और श्रीहित चौरासी के श्रवण का अवसर मिला ...वो भी पागल बाबा जैसे सिद्ध पुरुष के द्वारा । मुझे मित्र भी मिले तो शाश्वत और गौरांगी जैसे ।
हरि जी ! बरसाने चलोगे ? इन दिनों शाश्वत बरसाने ही वास कर रहा है ।
कल सुबह ही सुबह गौरांगी का फोन आया ....उसकी बात सुनकर मैं कोई उत्तर देता उससे पहले ही वो बोल पड़ी .....वैसे भी श्रीविष्णुप्रिया जी का पावन चरित्र आपने पूर्ण किया है ....इसके उपलक्ष्य में ही बरसाने चलो ...अब हरि जी ! कोई बहाना तो बनाना मत । मैं हाँ बोल दिया । पर गौरांगी के फोन रखने से पहले मैंने कहा - कल से क्या लिखूँगा वो विषय अभी तक तैयार नही है ।
हरि जी ! आप कब से विषय तैयार करने लगे ? आप तो कहते हो सब श्रीजी तैयार कर देती हैं मैं तो मात्र उसे उतार देता हूँ ...इस बात पर मैं चुप हो गया । और चलने का समय हम लोगों ने शाम के चार बजे रखा ।
मुझे कुछ पता था नही ....शाश्वत हमारी प्रतीक्षा में ही बैठा था “श्रीराधा बाग” में ।
( कभी बरसाना जायें तो इस स्थान का दर्शन अवश्य करें , यहाँ श्रीजी रात्रि में विहार करने आती हैं ...आपको अनुभव हो जाएगा )
श्रीजी के दर्शन पश्चात् हम लोग श्रीराधा बाग में गये ......वहीं शाश्वत बैठा हुआ था ....मुझ से गले मिला .....पूरा फक्कड़ हो गया है ...उसे देखकर मुझे रोमांच हुआ । कुछ देर हम बैठे रहे ध्यान करते रहे .....फिर गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद सुनाया ......
“जोई जोई प्यारो करै , सोई मोहिं भावै” ।
अद्भुत समय था वो ....स्थान यही था ...श्रीहित चौरासी का गायन गौरांगी करती थी फिर पागल बाबा उसका भाव समझाते थे ...नही नही समझाते नही थे अनुभव करा देते थे ....उस रस लोक में हमें पहुँचा देते थे ...बात पाँच वर्ष पूर्व की है ...मैं उन दिनों श्रीवृन्दावन से बरसाने आता जाता था और बाबा वहीं श्रीराधा बाग में हीं विराजे थे |
दूसरे ही दिन शाश्वत ने मुझ से कहा ....क्या हरि जी ! आप कल से बाबा के इस सत्संग की रिकोर्डिंग करवा दोगे ? मैंने कहा ...मेरे पास एक रिकोर्डर है ..उसमें मात्र आवाज आजाएगी । शाश्वत ने कहा ....चलेगा । दूसरे दिन मैं लेकर गया ...और बाबा के उस रस पूर्ण प्रवचन की रिकोर्डिंग आरम्भ कर दी । कुँज हैं वहाँ ....लता वृक्षों से आच्छादित वाटिका है वो ...कुआँ है वहाँ , उसका जल अमृत के समान है ...वो हम पीते थे ..उस जल को लेकर भी आते थे ....शाश्वत तो स्नान करता था ....बाबा उसे देखकर हंसते थे ।
हरि जी ! आप श्रीहित चौरासी पर क्यों नही लिखते ?
गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद पूरा कर लिया था ...उसके बाद उसने ये बात मुझ से कही थी ।
रिकोर्डिग तो होगी ना बाबा की ? शाश्वत ने ये और पूछ लिया ।
हाँ , होगी तो .....बस , फिर तो हरि जी ! आप लिखिये ....गौरांगी आनंदित हो गयी ।
मैं कुछ नही बोला .....क्यों की श्रीहित चौरासी पर लिखना कोई साधारण बात तो है नही.....श्रीजी की कृपा बिना ये सम्भव ही नही है । तभी एक बरसाने के पण्डा भी वहाँ आगये ...और उन्होंने पीछे से आकर मुझे श्रीजी की प्रसादी नीली चुनरी ओढ़ा दी ।
लो , अब तो कृपा भी हो गयी .....शाश्वत ने कहा । “इनपे तो श्रीजी की पूरी कृपा है”.....उन बरसाने के पण्डा ने ये और कह दिया । मैं अब तनाव में था .....मुझे इन दोनों ने तनाव दे दिया था .....यार ! श्रीहित चौरासी पर लिखना साधारण बात है क्या ? किसने कहा साधारण बात है ....पर हरि जी ! आपके ऊपर श्रीजी की कृपा है .....वही लिखवायेंगी । गौरांगी ने ये सब कहा ....शाश्वत भी खूब बोला .....पर मन में तो तनाव था ही .....ओहो ! हरि ! तू लिखेगा, श्रीहित चौरासी पर ?
मैं अब श्रीधाम वृन्दावन आगया था ।
मेरे पास बस श्रीहित चौरासी के पद हैं ...और पागल बाबा की रिकोर्डिंग । मैं सुनने लगा ...दस मिनट ही हुये होंगे कि आह ! सुनते सुनते मैं सहचरी भाव से भावित हो उस दिव्य वृन्दावन में प्रवेश कर गया था..........
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यन्त्री यहाँ सखियाँ हैं ...यन्त्र श्यामाश्याम हैं ...ये प्रेम की अद्भुत लीला है ....अन्य स्थानों में श्रीकृष्ण यन्त्री हैं और उनके जीव यन्त्र हैं ...पर यहाँ ऐसा नही है ...ये प्रेम है ..ये प्रेम की भूमि है ...इस प्रेम की भूमि श्रीवृन्दावन में प्रिया प्रियतम यन्त्र के समान बन गये हैं और इनकी संचालिका सखियाँ हैं ....वो जहां कहतीं हैं ये दोनों युगल वर वहीं चल देते हैं । दोनों युगल की सन्धि यही सखियाँ हैं .....प्रेम की विलक्षण रीति अगर देखनी है तो आओ श्रीवृन्दावन । देखो यहाँ ....श्रीराधा तो एक अद्भुत रस तत्व हैं जिनमें इतनी सामर्थ्य है कि ब्रह्म को अपने एक संकेत में नचा देती हैं ...वो ब्रह्म , वो परब्रह्म सखियों से प्रार्थना करता हुआ पाया जाता है कि - हे सखियों ! कृपा करके श्रीजी की चरण सेवा मुझ दास को भी मिले । पर सखियाँ अपना सुभाग श्याम सुन्दर को क्यों दें ? वो हंसते हुए श्याम सुन्दर के कोमल कपोल में हल्की प्रेम भरी चपत लगाते हुए “ना” कहकर चल देती हैं ।
प्रेम में पूज्य पूजक भाव का अभाव दिखाई देता है ....प्रेम में तो निरन्तर निकट रहने का सम भाव है ....अब जहां निरन्तर रहा जाता है वहाँ पूज्य पूजक भाव सम्भव नही है । सखियाँ वह तत्व हैं जो उस युग्म तत्त्व के निकट सदैव हैं ...सनातन हैं । इस प्रेम में संकोच ,लज्जा और भय भी प्रेम रूप ही बनकर दिव्य शोभा पा जाते हैं । भय नही है सखियों को ....इसलिए तो वह श्याम सुन्दर को जब श्रीराधा रानी के पास आते हुए देखती हैं तो कह देतीं हैं ......
किं रे धूर्त प्रवर निकटं यासि न प्राण सख्या ।( श्रीराधा सुधा निधि )
अर्थात् - क्यों रे धूर्त ! देखो , है किसी में हिम्मत , जो परब्रह्म को धूर्त कह दे ? पर ये श्रीवृन्दावन की सखियाँ हैं ....जो कहती हैं ओ धूर्त ! और धूर्त ही नही ...धूर्त प्रवर ! धूर्तों में भी श्रेष्ठ ! तू हमारी प्राण प्यारी श्रीराधा जू के निकट क्यों आ रहा है ? हाँ हम जानती हैं तू हमारी सखी श्रीराधा के वक्षस्थल को छूना चाहता है ...मत छूना । अगर छू लिया तो फिर तेरी ईश्वरता समाप्त हो जाएगी । तभी श्याम सुन्दर उस सखी के चरणों में गिर जाते हैं ....सखी ! मुझे इस ईश्वरता से मुक्ति दिला । और सखी ये सुनते ही तुरन्त आगे बढ़ती है और श्रीराधा रानी के चरण रज को लेकर श्याम सुन्दर के माथे पर रगड़ देती है ....बस फिर क्या था ...श्याम सुन्दर विशुद्ध प्रेम रस में डूब जाते हैं और उन्हें ईश्वरत्व से मुक्ति मिल जाती है । ओह ! अद्भुत प्रेम रस की बाढ़ आगई है इस श्रीवन में तो ।
ये है श्रीवृन्दावन रस .....इसमें श्रीराधा हैं , उनके प्रियतम श्याम सुन्दर हैं , सखियाँ हैं ...और इनका ये विलास चलता है ....चलता ही जाता है ।
ये प्रेम नगरी है ....यहाँ की रीत ही अलग है .....संसार जिसे धर्म मानता है वो यहाँ अधर्म है ...अपने से बड़े को “तू” कहना संसार में अधर्म है ...किन्तु इस प्रेम नगरी के संविधान में “आप” कहना अधर्म है । हंसना रोना है यहाँ, और रोना हंसना है इस राज्य में । मान करना ये आवश्यक है यहाँ ...रूठना मनाना यही रीत है यहाँ की । अधरों का रस अमृत है इस नगरी का । गाली देना प्रशंसा है और प्रशंसा गाली है .....क्या कहोगे ? कुछ नही , बस अनुभव करो । डूब जाओ । ये प्रेम है , ये प्रेम का पन्थ है ...यहाँ संभल कर चलना पड़ता है ।
“चरन धरत प्यारी जहाँ , लाल धरत तहँ नैंन”
ये विलक्षणता और जगह नही मिलेगी ।
मेरी प्यारी को कंटक न चुभें इसलिये लाल जू अपने पलकों की बुहारी बनाकर उस कुँज को बुहार डालते हैं ।
( इसके बाद पागल बाबा मौन हो जाते हैं और “राधा राधा” की मधुर ध्वनि सुनाई देती है जो गौरांगी गा रही थी )
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ये सब लिखते हुए मन में डर भी लग रहा था कि ....इस उच्चतम प्रेम रस को मुझे लिखना चाहिए या नही ? मन में आया कि वैसे भी लोग आज कल रासलीला को ही नही पचा पाते ...फिर ये तो दिव्य श्रीवृन्दावन की नित्य लीला रस है ....इसको लोगों ने नही समझा और गलत अर्थ लगा लिया तो ? मन में ये भी आया ...मैं लिख दूँ ..कि “जो साधक नही हैं वो इसे न पढ़ें” फिर मन में आया कि साधक तो सभी अपने को मानते हैं ....तब मुझे श्रीहित चौरासी का ये पद स्मरण आया .........
( जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसित श्यामा , कीरति विसद घनी । गावत श्रवननि सुनत सुखाकर , विस्व दुरित दवनी ।
आहा ! श्री हित हरिवंश जू कहते हैं - मेरे द्वारा गाये हुए श्यामा जू की कीर्ति जो पवित्र है और इससे भी अत्यधिक है ...इसका जो गान करेगा जो सुनेगा उसे परम सुख की प्राप्ति होगी ..और जो इन ( चौरासी ) के पद को जन जन में फैलायेगा उससे विश्व का पाप ताप समाप्त हो जाएगा ।
ये स्मरण में आते ही मुझे आनन्द आगया था ....कि इससे मंगल ही होगा ...व्यक्तिगत सुख की प्राप्ति होगी और विश्व का पाप ताप कम होगा । है ना प्रेम में ताक़त ? तो मेरे साधकों ! ये मैंने “राधाबाग में-श्रीहित चौरासी” आज से प्रारम्भ किया है ....दो तीन दिन और भूमिका में समय लूँगा ....फिर श्रीहित चौरासी के एक एक पद और उसकी व्याख्या । बड़ा रस आयेगा ....आप अवश्य पढ़िएगा ....इससे आपका मंगल ही मंगल होगा ।
आगे की चर्चा अब कल - ✍️श्री हरि शरण महाराज
हरि शरणम् गाछामि
श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधाबाग में - “श्रीहितचौरासी” !!
( भूमिका - 2 )
17, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“राधा बाग” जहां दर्शन होते हैं ...”एक प्राण दो देह” के ।
पागल बाबा ने अपने नेत्र खोल लिये अब । वो ध्यान में थे , वो सखी भाव से “नित्य श्रीवृन्दावन”में श्यामा श्याम की सेवा में लीन थे । कोयल की कुँहु से राधा बाग गूंज रहा था ...अनेक मोर पंख फैलाए हुए थे बस नाचने की उनकी तैयारी ही थी ....क्यों की श्याम घन नभ में छा गये थे ...गर्जने लगे थे मेघ ....चमक ने लगी थी चंचला ।
हाँ , मैं कुछ अस्थिर था ....किन्तु बाबा गौरांगी और शाश्वत स्थिर थे ....”भींग जायेंगे”...आनन्द आयेगा हरि जी ! गौरांगी चहकते हुए बोली थी । मुझे देखकर पागल बाबा गम्भीर ही बने रहे । मैंने सिर झुका लिया ...आज तो पूरे ही भीगेंगे । मैं अब तैयार था ....फिर भी ऊपर देखा वृक्ष लता घने हैं , तमाल का कुँज है ...इसमें से बूँदे कम ही पड़ेंगी गौरांगी ?
मेरी बात सुनकर अब पागल बाबा हंसे .....खूब हंसे ।
“रस मार्ग” क्या भक्ति मार्ग से अलग मार्ग है ?
अब शाश्वत ने ये प्रश्न किया था बाबा से ।
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“वह रस है” ( रसो वै स:) यह वेद वाक्य है । पागल बाबा कहना प्रारम्भ करते हैं ।
भक्ति मार्ग का जो सर्वोच्च शिखर है वो “रस मार्ग” है । भक्ति मार्ग से अलग नही है ये रसोपासना । किन्तु ये उसकी ऊँचाई है , ये भक्ति की ऊँचाई है ।
अब सुनो - भागवत में नवधा भक्ति का वर्णन है ....तो शुरुआत तो वहीं से होगी ...रस उपासकों को आरम्भ भक्ति से ही करना होगा । और उसका क्रम है ...श्रवण , कीर्तन , स्मरण , चरण सेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन । भक्ति ये है ...और भक्ति मार्ग “आत्म निवेदन” में जाकर विश्राम ले लेती है .....किन्तु समझने की बात ये है कि “रस मार्ग आत्मनिवेदन से प्रारम्भ होता है”......ये अद्भुत बात है इसकी । हमारी दिक्कत क्या है ....हम सीधे रसोपासना की बात करते हैं ....नही , पहले हमें नवधा भक्ति को स्वीकार करना होगा । और अपने आपको सौंप देना होगा । अब कुछ नही ....तू जो करे । तू जो कराये ।
( पागल बाबा यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं )
गौरांगी ! जिसकी चर्चा हम प्रेम भूमि में बैठकर करने वाले हैं ...”श्रीहित चौरासी” ये रसोपासना का मुख्य ग्रन्थ है । इसलिये इसकी शुरुआत कहाँ से होती बताओ ? गौरांगी बताती है ...”जोई जोई प्यारो करै सोई मोहि भावै”। बस ये प्रारम्भ है रसोपासना का । पूर्ण समर्पण हो गया , हम पूरे तुम्हारे हो गये , देह , मन , बुद्धि , और चित्त अहंकार ....सब कुछ तुम्हारा ।
देखो ! भक्ति प्रारम्भिक अवस्था है .....किन्तु ये रस मार्ग । रस यानि प्रेम ...ये विलक्षण मार्ग है .....ये भक्ति का फल है .....
भक्ति में द्वैत रहता है .....भक्त है तो भगवान है ....अब भगवान है तो उसमें ऐश्वर्य है ....और जहां ऐश्वर्य है वहाँ पूर्ण प्रेम का प्रकाश सम्भव नही है ...छ दिन के श्रीकृष्ण पूतना जैसी राक्षसी का संहार कर देते हैं । छ दिन के बालकृष्ण ने ....छ दिन के ने ? प्रश्न सहज उठता है तो समाधान इसका ये होता है कि - “वो भगवान हैं”। अब भगवान हैं तो दूरी है ....वहाँ प्रार्थना तो हो सकती है किन्तु प्रेम नही हो सकता । प्रेम के लिए अपनत्व चाहिये ....अपनापन चाहिये ....तो रसोपासना अपनत्व की साधना है ....इसमें श्यामसुन्दर भगवान नहीं हैं ...अपने हैं ...जैसे अपना कोई “प्रिय”हो । अब “प्रिय” भी इतना “प्रिय” कि उसे जो “प्रिय” लगे वो हमें भी “प्रिय” लगे ।
प्रेम की गति अटपटी है .......पागल बाबा आनंदित हो उठते हैं ।
प्रेम दो चाहता है ....एक प्रेमी और एक प्रियतम । दो बिना प्रेम बन ही नही सकता । प्रेम दो तैयार करता है ....फिर जब दो हो जाते हैं ....तो ये प्रेम तत्व उसके पीछे तब तक पड़ा रहता है जब तक दोनों को एक न बना दे । ( शाश्वत ये सुनते ही “वाह” कह उठता है )
प्रेम आत्मा की प्यास है .....प्रेम सब चाहते हैं .....सकल जहां , जीव जन्तु समस्त चराचर प्रेम को ही चाहते हैं ....प्रेम ही समस्त सृष्टि की प्यास है .....इसलिये जहां जिसको प्रेम मिलता है ...वो सब कुछ छोड़कर भाग जाता है ....है ना ? लड़की लड़के सब भाग जाते हैं ....बाबा हंसते हैं - तुम लाख समझाओ ...शास्त्र का उदाहरण दो ...माता पिता भगवान हैं उनकी बात मानों ...तुम समझाओ ...तुम समझाते हो ....नर्क स्वर्ग का डर दिखाते हो ...पर ये नही मानते । प्रेम के पीछे भाग जाते हैं । हाँ , उन्हें प्रेम का आभास मात्र मिलता है वहाँ ....प्रेम नही ...किन्तु आभास ही सही ....है तो प्रेम का ही .....इसलिये वो भाग जाते हैं ।
“प्रीति न काहूँ की कानि विचारे”
प्रेम कहाँ कुल ख़ानदान का विचार करती है ...विचार ही करे तो प्रेम ही क्या हुआ ?
( बाबा कुछ देर यहाँ एक मोर को देखते हैं जो अपने पंखों को फैला रहा था )
अच्छा सुनो , भक्ति के साधकों को “भक्त” कहते हैं ...किन्तु रस मार्ग के साधक को “रसिक” कहा जाता है ...भक्ति में जीव अंश ईश्वर अंशी ...ये द्वैत है । ये रहता है । किन्तु रसोपासक में सारे भेद मिट जाते हैं ....वहाँ केवल रस है...( बाबा मुस्कुराते हैं ) वहाँ सब रस है ...श्रीवृन्दावन रस है ...उस प्रेम वन के राजा श्यामसुन्दर रस हैं , वहाँ की महारानी श्रीराधा जू रस हैं ..सखियाँ रस हैं ....लता पत्र रस हैं ...यमुना में रस ही बह रहा है । इस वन के पक्षी रस हैं .....ये ताक़त रस की है ...जो सबको रस में ही डुबोकर मानता है ...और सबको रसमय बनाकर ही मानता है । अद्भुत है ये सब । अरे , वो रस जब छलकता है तो चारों ओर उसी का साम्राज्य हो जाता है । रस ही रस ...रसमय हो जाता है सब । इसकी जो उपासना करता है ...वो भी रस ही बन जाता है ....जैसे - चीनी को पानी में डाला ....अब चीनी कहाँ हैं ? वो तो शर्बत हो गया ना ! न चीनी है न पानी रह जाता है ...वो तो शर्बत हो गया । ऐसे इस प्रेम के मार्ग में धीरे धीरे जीव का जीवत्व समाप्त हो जाता है और ईश्वर का ईश्वरत्व भी समाप्त हो जाता है ....दोनों एक हो जाते हैं ....अपना अपना नाम अपना रूप सब खो बैठते हैं ।
अर्थात् - जब ईश्वर को अपने ईश्वरत्व की विस्मृति हो जाये और जीव , अपने जीव भाव को भूल जाये ....तब समझना ये प्रेम राज्य है । और ये प्रेम राज्य में ही सम्भव है ।
जीव अरु ब्रह्म ऐसैं मिलैं , जैसे मिश्री तोय । रस अरु रसिक तबै भलैं, नाम रूप सब खोय ।।
ईश्वर की ईश्वरता खो गयी ....बाबा कहते हैं - देखो इस प्रेमवन श्रीवृन्दावन में ......
यमुना जी बह रही हैं ...शीतल सुरभित पवन चल रहे हैं ....चारों ओर फूलों की फुलवारी है ....वहीं पर पद्मासन में विराजे हैं श्याम सुन्दर । अरे ! ये क्या कर रहे हैं , पास जाकर दर्शन किया तो चौंक गये ....अरे ये तो महायोगियों की तरह ध्यानस्थ हैं ...नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं ...पीताम्बरी अश्रुओं से भींग गयी है ....और निकट जाकर देखा तो ...उनके अरुण अधर हिल रहे हैं ...वो “राधा राधा राधा “ नाम का जाप कर रहे हैं ।
( इसके बाद राधा बाग में वर्षा शुरू हो गयी थी .....बाबा तो देहातीत हो गये थे ....गौरांगी ने गायन प्रारम्भ कर दिया था , शाश्वत ध्यान में चला गया था , मैं नाच रहा था ....वर्षा में भीगता हुआ , मेरा साथ उन राधा बाग के मोरों ने दिया .....सब “रस” था वहाँ , सब “रसिक” थे ।)
आगे की चर्चा अब कल - ✍️श्री हरि शरण महाराज
हरि शरणम् गाछामि
🙏श्री जी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( भूमिका - 3 )
18, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
उस दिव्य वृन्दावन में नायक कोई नही है.....न नायिका है.....कोई नही है ....फिर ये लीला कौन कर रहा है ? फिर ये श्रीकृष्ण कौन हैं ? फिर ये श्रीराधा रानी कौन हैं ? अरे भाई ! कल कह तो दिया था ....”रस” ही सब कर रहा है .....रस यानि प्रेम ....ये जो प्रेम देवता है ये सबसे बड़ा है ..इससे बड़ा और कोई नही है ...यही कृष्ण बन जाता है और यही श्रीराधा ..निकुँज यही बनता है सखियाँ बन कर यही प्रकट हो जाता है ...फिर लीला चलती है ...नव नव लीला ...श्याम सुन्दर नये नये ....हर क्षण नये ...श्रीराधा रानी नयी ...उनका रूप नया नया ...और हर क्षण नया ....सखियाँ नयी ...उनका रूप और सौन्दर्य उनकी चेष्टा नयी ...फिर कुँज नया ...कहने की आवश्यकता नही है ..क्षण क्षण में नवीनता ....लीला नयी ....श्रीवृन्दावन नया । उनके अन्दर से प्रकट नेह नयो ...राग रंग नयो ।
सब “रस” करवा रहा है .....सब कुछ रसमय है ।
पागल बाबा आनन्द से विराजे हैं ...राधा नाम उनके वक्ष में बृज रज से लिखा हुआ है .....तुलसी की माला कण्ठ में विराजमान है ...मस्तक में रज से तिलक किया है ...और एक सुन्दर सी बेला की प्रसादी माला धारण किए हुये हैं ...रस में डूबे हैं ....अभी अभी गौरांगी ने वीणा वादन से एक पद का गायन किया है । आज कुछ बरसाने के रसिक जन भी आगये हैं ....सब दूर दूर बैठे हैं ....सबने एक एक लता का आश्रय लिया है और नेत्र बन्दकर बाबा को सुनने की तैयारी में हैं ।
“श्रीराधा अद्भुत रस सिन्धु हैं ...जो लावण्य की विलक्षणता से परिपूर्ण हैं ....श्याम सुन्दर ....जो बड़े बड़े योगियों के ध्यान में नही आते वो श्रीराधा के बंक भृकुटी से ही मूर्छित हो जाते हैं ...तब श्रीराधा उनके पास जातीं हैं ....और अपनी केश राशि श्याम सुन्दर के ऊपर डाल देती हैं ...वो श्याम सुन्दर जिन्हें पाने के लिए बड़े बड़े योगिन्द़ लगे हैं किन्तु उनके ध्यान तक में ये नही आते ...वो यहाँ अपनी प्रिया के केश राशि में फंस गए हैं ....अरे ! देखो माई ! श्रीहित हरिवंश महाप्रभु इस झाँकी का दर्शन करते हुए आनंदित हो उठते हैं ....वो “श्रीहित चौरासी” जी के रचयिता हैं ....उन्होंने देखा है ...देखे बिना कोई इस तरह का रस काव्य लिख ही नही सकता ।
ये सहचरी हैं श्रीराधा जी की ...श्याम सुन्दर के अधरों में बजने वाली बाँसुरी हैं ...अजी , बाँसुरी के समान और कौन होगा प्रेमी ? बाँसुरी के समान और कौन होगा रसमय ? सारा का सारा रस तो बाँसुरी ही पी जाती है । प्रेमियों को धरा के अमृत से क्या प्रयोजन ? धरा का अमृत तो नाशवान है ....मिथ्या है ...अमृत तो अधरामृत में भरा हुआ है ...उसी अमृत को पी पी कर ये बाँसुरी मत्त हो गयी थी ...जब ये “रस मार्ग” भू पर प्रशस्त करने आयी ....तो रूप लिया “हित” का ।
हित , रस , नेह, .....ये सब “प्रेम” के पर्याय हैं ।
बाबा इतना बोलकर मत्त हो गये .....सब उसी रस में डूबे हुए हैं ।
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रसोपासना का केन्द्र श्रीवृन्दावन ही मूल है । यहाँ की आराध्या देवि श्रीराधारानी हैं ...बस श्रीराधारानी ....और आराधक सखियाँ ही मात्र नहीं हैं स्वयं श्याम सुन्दर भी हैं । अजी , ‘भी’ नही ....श्याम सुन्दर ‘ही’ हैं । “रसिक शेखर” .......श्याम सुन्दर को सखियों ने ये उपाधि दी है ...तो श्रीराधा अद्भुत रस तत्व हैं उनकी उपासना निरन्तर करने के कारण ही श्याम सुन्दर “रसिक शेखर” कहलाते हैं ...कहलाये ।
श्रीराधा रानी बस किंचित मुस्कुरा देती हैं ...तो श्याम सुन्दर सुख के अगाध सिन्धु में डूब जाते हैं ...और श्याम सुन्दर के सुख समुद्र में डूबते ही श्रीवन के मोर नृत्य करने लगते हैं कोकिल कुँहुँ की पुकार मचा देती हैं....शुक आदि पक्षी उन्मत्त हो जाते हैं ....लता पत्र झूम उठते हैं ।
और श्रीराधारानी जब थोडी भी रूठ जाती हैं तो श्यामसुन्दर दुःख के अपार सागर में डूब जाते हैं ...उनको इतना दुःख होता है जिसकी कोई सीमा नही ...और श्यामसुन्दर के दुखी होते ही मोर दुखी हो जाते हैं , कोकिल दुखी होकर मौन व्रत ले लेती हैं ...शुक आदि पक्षी और लता पत्र सब दुःख ही दुःख के सागर में डूबते चले जाते हैं ।
और ये दुःख सब क्षण में ही होता है ...और क्षण के लिए ही होता है । किन्तु वो क्षण भी युगों के समान लगते हैं ....ऐसा लगता है श्याम सुन्दर को कि - प्रलय आगया । वो रोते हैं ...वो मनाते हैं ....वो हा हा खाते हैं .....उस समय सब शान्त होकर देखते रहते हैं ...सखियाँ , मोर पक्षी लता पत्र आदि सब ....जब श्यामा जू नही मानतीं ...तब तो ....श्याम सुन्दर चले जाते हैं ...यमुना के किनारे , यमुना के किनारे जाकर बैठ जाते हैं ....नेत्रों को मूँद लेते हैं ....और अपनी श्रीराधा रानी का ध्यान करते हैं ...हृदय से ध्यान और मुख से उन्हीं के नाम का जाप ।
तब विलक्षण लीला घटती है ...श्रीराधा रानी के ही चरण नख से काम देव प्रकट होजाता है और ऐसे दुःख में डूबे श्याम सुन्दर को अपने बाणों से उनके हृदय को बेधता है । उफ़ !
देखो , हित सखी क्या कह रही हैं .....आह !
“जाही विरंचि उमापति नाये , तापैं तैं वन फूल बिनाये । जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ, ताकौं तैं अधर सुधा रस चाख्यौ । तेरो रूप कहत नहिं आवै, श्रीहित हरिवंश कछुक जस गावै ।।”
अद्भुत ! जिसके आगे ब्रह्मा और शिव नमत हैं ....उनसे ये अपने श्रृंगार के लिए फूल बिनवाती हैं .....जिस रस को वेद भी नेति नेति ...यानि हम नही जानते , हम नही जानते , कहते हैं उसके अधर सुधा का ये नित्य पान करती हैं ......ओह ! इसका क्या वर्णन करें ? हित सखी कहतीं हैं ....ब्रह्म जिनके पीछे मृग की तरह भाग रहा है ....उस रूप का क्या वर्णन किया जाए ?
पागल बाबा के नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं ....वो मुस्कुरा रहे हैं .....
तभी श्रीराधारानी अपनी ललितादि सखियों के साथ यमुना के निकट आईं ....वहाँ अपने प्यारे को देखा ...वो मूर्छित हो गये हैं ....बस उनकी साँसें चल रही हैं । तुरन्त उनके पास जाकर अपने अधर उनके अधरों में धर दिये ....और मरे हुए को जैसे कोई अमृत पिलाये ऐसे ही श्रीराधा रानी ने अपने प्रिय को अधरामृत का पान कराया । अजी ! वो उठ गये ..श्रीजी मुसकुराईं ....बस फिर क्या था श्याम सुन्दर सुख के सागर में डूब गए ...सखियाँ आनंदित हो उठीं ....मोर नाच उठे ..कोयल ने कुँहुं करना शुरू कर दिया ....शुक आदि पक्षी झूम उठे ....क्यों की दोनों युगल अब एक दूसरे में खो गये थे ।
ये सब क्या है ? अचंभित हैं सब रसिक ।
पागल बाबा कहते हैं ....यही तो .....
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
नायक नही हैं न वहाँ कोई नायिका हैं ...न कृष्ण हैं न श्रीराधा हैं ...बस “रस” ही सब करवा रहा है और “रस” ही सब कर रहा है । अहो !
अब कल से “श्रीहित चौरासी” जी का आनन्द लेंगे ।
बाबा ने अन्तिम में कहा ।
आगे की चर्चा अब कल - ✍️हरि शरण जी महाराज
हरि शरणम् गाछामि 🙏श्री जी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “ श्रीहित चौरासी” !!
( “जोई जोई प्यारौ करै”- प्रेमी के चित्त की एकता )
19, 5, 2023
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गतांक से आगे -
सहचरी भावापन्न होकर प्रातः की वेला में बैठिये ...भाव कीजिये कि - आप श्रीवृन्दावन में हैं ....यहाँ चारों ओर लता पत्र हैं ....यमुना बह रही हैं ...दिव्य रस प्रवाहित हो रहा है ..जिससे मन अत्यधिक आनन्द का अनुभव कर रहा है .....नही नही आपको आनन्द में अभी बहना नही हैं ..आप तो सहचरी हैं ....सहचरी कभी भी अपना सुख ,अपना आनन्द नही देखती ...जो अपना सुख देखे वो तो इस “श्रीवृन्दावन रस” का अधिकारी ही नही है ..आपको ये बात अच्छे से समझनी है , हमारा सुख , जो हमारे प्रिया प्रियतम हैं उनको सुख देने में है ..यही इस रसोपासना का मूल सिद्धान्त है ।
राधा बाग आप प्रफुल्लित है ...हो भी क्यों नहीं ....प्रेम की गहन बातें आज प्रकट होने वालीं हैं ....वैसे प्रेम के गूढ़ रहस्य को इन बृज के लता पत्रों से ज़्यादा कौन समझेगा ? यहाँ की भूमि प्रेम से सींची गयी है .....युगल वर ने ही सिंचन किया है । प्रातः की वेला है ....सब प्रमुदित हैं.......पागल बाबा ध्यान में बैठे हैं .....गौरांगी वीणा के तारों को सुर में बिठा रही है ...शाश्वत बाग में पधारे साधकों को “श्रीहित चौरासी जी” बाँट रहा है ..ताकि वो सब भी साथ साथ में गायन करें । कुछ लोग बम्बई से आए हुए हैं ....कौतुक सा लगा तो राधा बाग में आगये ...पर शाश्वत ने उन्हें बड़े प्रेम से कहा ....ये सत्संग आप लोगों के लिए नही है .....क्यों ! हिन्दी में नही बोलेंगे महाराज जी ? इस पर शाश्वत का उत्तर था ...उनकी भाषा ही अलग है ...जिसे आप नही समझ पायेंगे । उन लोगों को भी कोई आपत्ति नही थी ...क्यों की वो लोग कौतुक देखने आये थे ...पर यहाँ कौतुक की बात नही ...प्राणों की बाज़ी लगाने की बात थी ...”जो शीश तली पर रख न सके वो प्रेम गली में आए क्यों “ ।
“आप लोग भी अगर पाश्चात्य की छूछी नैतिकता के तथाकथित विचार से बंधे हैं तो कृपा करके उठ जाइये” ..शाश्वत अन्यों को भी हाथ जोड़कर कहता है ......
“क्यों कि ये दिव्य प्रेम की ऊँची बात है “ ।
अब पागल बाबा नेत्र खोलकर गौरांगी की ओर देखते हैं ....उसे संकेत करते हैं ....कि श्रीहित चौरासी जी का प्रथम पद गायन करो ....और वीणा में अपने सुमधुर कण्ठ से गौरांगी गायन शुरू करती है ............पूरा राधा बाग झूम उठता है ।
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!! ध्यान !!
श्री श्री महाप्रभु हित हरिवंश जी द्वारा रचित श्रीहित चौरासी जी का पाठ करने से प्रेम राज्य में प्रवेश मिलता है .....इसलिये रसोपासना के साधकों को इसका पाठ करना ही चाहिये ....पर पाठ सिर्फ शब्दों को पढ़ना नही ......ये तो मात्र बेगारी भरना है ....कि नित्य पाठ करते हैं तो जल्दी जल्दी कर लें ....फिर थोड़ा घूम फिर आयें । नहीं । पहले ध्यान कीजिये ...एक बात स्मरण रखिए ...हर पद “श्रीहित चौरासी” का नयी झाँकी को प्रस्तुत करता है ...एक पद दूसरे पद से जुड़ा नही है ...हर पद अपने में पूर्ण है ...इसलिये हर पद का अपना ध्यान है .......इतना कहकर पागल बाबा हमें ध्यान की गहराईयों में ले जाते हैं ।
नेत्र बन्द कीजिये और भाव राज्य में प्रवेश .....
***** प्रेम भूमि श्रीवृन्दावन है ...प्रातः की वेला है ...वसन्त ऋतु है ...चारों ओर सुखद वातावरण है ...यमुना कल कल करती हुई बह रही हैं ...लता पत्र झूम रहे हैं ....पूरा श्रीवन नव नव पल्लवों से आच्छादित है ...लताओं में पुष्पों का भार कुछ ज़्यादा ही हो रहा है इसलिये वो झुक गये हैं । नाना प्रकार के कुँज हैं ....उन कुंजों की शोभा देखते ही बनती है ...कुँज के भीतर एक कुँज और है ....उसकी शोभा तो और अद्भुत है । उसी कुँज में प्रेम, माधुर्य और रस की स्वामिनी श्रीराधा रानी विराजमान हैं .....ये अभी उठीं ही हैं .....अरे ! श्याम सुन्दर भी विराजे हुये हैं .....स्वामिनी श्रीराधिका जू ने अपनी कोमल भुजा को श्याम सुन्दर के कण्ठ में लपेट दिया है । उनकी सुन्दर कुसुम शैया है ....तभी ....एक सुन्दरी सखी वहाँ आजाती है .....अरे ! इनको प्रणाम करो ...यही आपकी गुरु रूपा हैं ...यही “हित सजनी” हैं ......प्रेम में मत्त श्रीकिशोरी जी उस अपनी प्यारी सखी को देखती हैं ..और अपने निकट बुलाती हैं ..वो श्रीजी के निकट जाती हैं ..तो हमारी करुणामयी श्रीजी उन सखी को अपने निकट बिठाकर ...कुछ कहना चाहती हैं ..पर अत्यधिक प्रेम के कारण वो कह नही पातीं ..वो बार बार प्रयास करती हैं ..किन्तु इस बार तो वो कह ही देती हैं ।
मेरी प्यारी हित सजनी ! आहा , प्रेम रस से छकी श्रीजी ने अपनी सखी से कहा ....
“जोई जोई प्यारौ करै, सोई मोहिं भावै ,
भावै मोहिं जोई , सोई सोई करैं प्यारे ।
मोकौं तो भाँवती ठौर प्यारे के नैननि में ,
प्यारौ भयौ चाहैं मेरे नैंननि के तारे ।
मेरे तन मन, प्रानहूँ तें प्रीतम प्रिय ,
अपने कोटिक प्राण , प्रीतम मोसौं हारे ।
“श्रीहितहरिवंश” हंस हंसिनी साँवल गौर ,
कहौ कौन करै जल तरंगनि न्यारे ।। 1 |
आहा ! अपनी प्यारी सखी से प्रिया श्रीराधा जू कहती हैं ....अरी सखी ! प्यारे जो जो करते हैं ना , वो मुझे सब अच्छा लगता है .....बहुत अच्छा लगता है ...श्रीराधा रानी हित सखी का हाथ पकड़ लेती हैं ....अपने और निकट बिठाकर फिर कहती हैं ....प्यारे जो जो करते हैं ...सही ग़लत सब , मुझे बहुत अच्छा लगता है सखी ।
क्या वो ग़लत भी करते हैं प्रिया जू ? हित सखी पूछती हैं ....तब प्रिया श्रीराधा जू मुस्कुरा देती हैं और कहती हैं ..नही सखी ! मेरे प्रियतम बहुत प्रेम करते हैं मुझ से ....मुझे जो अच्छा लगता है मेरे प्यारे भी वही करते हैं ।
जैसे ? हित सखी गदगद होकर पूछ रही हैं ।
तो प्रिया जू उत्तर देती हैं ...जैसे - मुझे रहने का सुन्दरतम स्थान प्यारे के नयन लगते हैं ...तो वो भी मेरे नयनों की पुतरी बन जाना चाहते हैं ......आहा ! सखी ! और मैं क्या कहूँ ....प्यारे मुझे तन , मन प्राण से भी अधिक प्रिय हैं .....तो प्यारे ने मेरे ऊपर अपने कोटि कोटि प्राण न्यौछावर कर दिये हैं ....सखी इससे ज़्यादा मैं कुछ कह नही सकती .....अच्छा ! सखी ! इस बारे में कुछ तो तू बोल ....श्रीराधा जू ने जब अपनी हित सजनी से कुछ कहने के लिए कहा ....तो सखी इतना ही बोल सकी ....हे गोरी और हे श्याम ! आप दोनों दो थोड़े ही हैं ...एक हैं ...जब एक हैं तो देह , मन , और आत्मा अगर एकत्व की बात करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या ? मेरी भोरी प्रिया जू ! आप दोनों तो प्रेम पयोधि रूप मान सरोवर के हंस हंसिनी हो .....आप तो जल और तरंग की तरह एक हो ...अब हे श्रीराधिके ! आप ही बताओ ...क्या जल से तरंग को अलग किया जा सकता है ? या तरंग को जल से अलग कर सकती हो ? आप दोनों एक हो ।
आहा ! क्या वर्णन है .....”मैं जो चाहती हूँ प्यारे वही करते हैं ...और प्यारे जो करें वो मुझे अच्छा लगता है”.......पागल बाबा के नेत्रों से अश्रु बह चले .....दोनों एक दूसरे के लिए हैं ...श्रीराधा जी को अपने तन मन प्राण से भी ज़्यादा प्रिय हैं श्याम सुन्दर तो ....श्याम सुन्दर तो अपने प्राणों को ही श्रीराधा जी में वार चुके हैं .....पागल बाबा इससे ज़्यादा कुछ बोल नही पाये । हाँ इतना अवश्य बोले कि देखो ...दो चित्त की एकता ....यही है प्रेम , ....सब अच्छा लगे उसका ।
दोनों प्रेम हैं , और दोनों प्रेमी ...दोनों चातक हैं तो दोनों स्वाति बूँद । दोनों बादल तो दोनों बिजली ....दोनों ही कमल हैं और दोनों ही भ्रमर हैं ...दोनों ही लोहा हैं तो दोनों ही चुम्बक हैं ...दोनों आशिक़ हैं तो दोनों महबूब हैं ।
दो हैं , दिखते दो हैं .....पर हैं एक ।
“जोई जोई प्यारो करैं......”
फिर सबने एक बार और इस प्रथम पद का गान किया ।
आगे की चर्चा अब कल - ✍️हरि शरण महाराज हरि शरणम् गछामि
🙏श्रीजी मंजरी दास (श्रीजी सूर श्याम प्रिया मंजरी)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( प्रीति की अटपटी रीति -“प्यारे बोली भामिनी” )
20, 5, 2023
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गतांक से आगे -
प्रीत की रीत ही अटपटी है ...इसकी चाल टेढ़ी है ....ये सीधी चाल चल नही सकती ।
प्रियतम कब रूठ जाये पता नही ...किस बात पर रूठ जाये ये भी पता नही ...और प्रिय रूठे भी नही किन्तु प्रेमी को लगे की वो रूठा है ....अजी ! कुछ समझ में नही आता इस प्रेम मार्ग में तो ।
तो प्रेम में समझना कहाँ है ! इसमें तो डूबना है ....ना , डूबने पर हाथ पैर मारना निषेध है ...अपना कुछ भी प्रयास न करना ....बस डूब ही जाना । और जो डूबा वही पार है ...जिसने हाथ पैर मारे वो तो अभी प्रेम विद्यालय में ही नही आया है । प्रेम में तो ये हो - कल नही सुना ? - “जोई जोई प्यारो करैं, सोई मोहि भावैं” ....यही है वो विलक्षण प्रेम .....
पागल बाबा का आज स्वास्थ्य ठीक नही है ..हमें तो लगा कि ये बोल भी नही पायेंगे ...पर आज हम सबके सामने वो विराजे ..श्रीजी महल की प्रसादी भी ग्रहण की , प्रसादी माला श्रीजी मन्दिर के गोस्वामियों ने आकर धारण कराया। आह ! बाबा रस सिक्त हैं ...ये रस में ही डूबे हुए हैं ।
श्रीहित चौरासी जी पर बोल रहे हैं बाबा ...”प्रेम में वियोग को आवश्यक माना है समस्त प्रेम के आलोचकों ने ...वियोग से प्रेम पुष्ट होता है ....ये सर्वमान्य सा सिद्धांत दिया है ...मनोविज्ञान भी कहता है ...प्रियतम के साथ निकटता कुछ ज़्यादा हो जाये तो ...और बनी रहे तो प्रेम घटता जाता है ...और वियोग प्राप्त हो जाये तो प्रेम बढ़ता है । पर ये सिद्धांत “श्रीवृन्दावन रस” में लागू नही है ...यहाँ तो मिले ही हुए हैं ....और मिले रहने के बाद भी लगता है कि अभी मिले ही कहाँ ? ये बैचेनी कहाँ देखने को मिलती है बताओ ? संयोग में ही वियोग ....ये विलक्षण रस रीति कहाँ मिलती है ? मिले हैं ...अपनी कमल नाल की तरह सुरभित भुजाओं को प्रिया ने अपने प्रियतम के कन्धे में रख दिया है ..और आनन्द सिन्धु में डूब गयीं हैं ...तभी उन्हें ऐसा लगता है कि ये दूरी भी असह्य है ...हृदय से लग जाती हैं ...दोनों एक होने की चाह में तड़फ उठते हैं ...ये विलक्षणता है इस प्रेम में ....फिर यहाँ एक “हित तत्व” है ...जो प्रेम का ही एक रूप है ...वो इन दोनों के मध्य है ...वो सखी भाव से इनके भीतर चाह को प्रकट करने का कार्य करती है ....फिर दोनों एक होना चाहते हैं ...पर मध्य में सखी ( हित तत्व ) है वो एक होने नही देती ..क्यों की ‘दो’ ‘एक’ हो गये तो लीला आगे बढ़ेगी नही ...पर इतना ही नही ....जब दोनों दूर होते हैं तब ‘एक’ करने का प्रयास ये सखी ही करती है ...तो यहाँ संयोग वियोग दोनों चलते हैं ....यही प्रीत की अटपटी रीति है ....पागल बाबा मुस्कुराकर गौरांगी की ओर देखते हैं ...वो तो वीणा लेकर तैयार ही बैठी थी ...आज श्रीहित चौरासी जी के दूसरे पद का गान होगा ..और गौरांगी गा उठती है अपने मधुर कण्ठ से -
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“प्यारे बोली भामिनी , आजु नीकी जामिनी... भेंटि नवीन , मेघ सौं दामिनी ।।
मोंहन रसिक राइ री माई, तासौं जु मान करै... ऐसी कौन कामिनी ।।
श्रीहित हरिवंश श्रवन सुनत प्यारी । राधिका रवन सौं , मिली गज गामिनी ।। 2 ।
गौरांगी ने अद्भुत गायन किया ....अब बाबा इस पद का पहले ध्यान बताते हैं -
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!! ध्यान !!
शरद ऋतु है ....अभी अभी वर्षा हुयी है ....सन्ध्या की वेला बीत चुकी है ....यमुना में दिव्य नीला जल बह रहा है ....नाना प्रकार के कमल उसमें खिले हैं ...एक कमल को छूती हैं श्रीराधा रानी ....कमल को तोड़ना उनका उद्देश्य नही है ...फिर भी कमल उनके हाथों में आजाता है ...वो अनमनी सी हैं .....उन्हें स्वयं पता नही है कि हुआ क्या ?
हुआ ये था ...की अभी अभी निकुँज में शयन शैया तैयार कर रही थीं स्वयं श्रीजी ....पर उसी समय उनके प्रियतम आगये ....और श्रीजी का हाथ पकड़ कर बोले ....”आप रहने दो”...श्रीजी को प्यारे के स्पर्श से रोमांच हुआ ....वो स्तब्ध हो गयीं ......वो अपलक देखती रहीं ....श्याम सुन्दर ने शैया की सज्जा की ...सुन्दर सुन्दर पुष्पों से .....पर श्रीजी स्तब्ध हैं ....और जब शैया की सज्जा देखती हैं ...तब तो वो और मुग्ध हो .... मूर्तिवत् हो जाती हैं । श्याम सुन्दर कहते हैं ...प्यारी जू ! अब बताओ कैसी मैंने सज्जा की ? पर श्रीजी तो कुछ बोलती ही नही हैं ....चैतन्य की चैतन्यता श्रीजी आज जड़वत् हो गयी हैं ....श्याम सुन्दर ने उनसे कहा ...आप अब शैया पर विराजमान होईये । पर वो उस शयन कुँज से निकल जाती हैं और यमुना के तट पर जाकर बैठ जाती हैं ...इधर श्याम सुन्दर बहुत दुखी हैं ..वो सोच रहे हैं ..देखो , मैं चाहता हूँ मेरी प्यारी प्रसन्न हों , प्रसन्न रहें इसलिये सारी क्रियाएँ करता हूँ ..पर वो रूठ ही जाती हैं ...श्याम सुन्दर दुखी हो गये हैं ।
यमुना में उधर श्रीजी हैं ....कमल पुष्पों से खेल रही हैं .....तभी “हित सखी” वहाँ आजाती हैं ......वो सब समझ गयी हैं ....ये सब अत्यधिक प्रेम के कारण हो रहा है ....तब वो बड़े प्रेम से एक नील कमल लेती हैं और श्रीजी के चरणों में छुवा देती हैं ....श्रीजी चौंक जाती हैं वो ऊपर देखती हैं ....तो सामने सखी है .....सखी मुस्कुराते हुए वहीं बैठ गयी....और कुछ देर मौन रहने के बाद वो कहती है -
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हे भामिनी ! आपने ही तो कहा था कि मुझे इनका कुछ भी करना प्रिय लगता है ...फिर आज क्या हुआ ? सखी ने श्रीजी से पूछा ।
क्या हुआ ? भोली श्रीराधा रानी सखी से ही पूछती हैं , उन्हें तो कुछ पता भी नही है ।
यदि प्यारे श्याम सुन्दर ने अपने हाथों से शैया की सज्जा कर दी तो इसमें आप क्यों रूठ रही हो ?
मैं रूठी हूँ ? अब श्रीजी मन ही मन सोचती हैं ...मैं क्यों रूठूँगी ?
और स्वामिनी ! अगर उनकी कोई क्रिया आपको अच्छी नही लगे तो क्षमा कर दो उन्हें । देखो ! प्यारे बहुत दुखी हो गये हैं ....वो आकुल हैं ...वो बारम्बार बाहर देख रहे हैं ....आप कैसे मानोगी ये सोच रहे हैं ....वो आपको मनाने आते पर डर रहे हैं ....कि कहीं उस मनाने की बात से भी आप बुरा न मान जाओ ! हित सखी बड़े प्रेम से कहती हैं ....देखो प्यारी जू ! कितनी सुंदर रात्रि ( जामिनी ) है ....इस रात्रि में आप कहाँ अकेली बैठी हो ? जाओ , मिलो उनसे ....आप आकाश में चमकने वाली बिजली हो और वो श्याम घन ....आप ऐसे मिलो ..जैसे बिजली बादल से मिलती है और अपने आपको उसी में खो देती है ....आप भी खो जाओ ।
श्रीजी अभी भी नही उठीं ....न कोई हलचल उन्होंने की ....तो सखी फिर बोली -
आप मान कर रही हो ? वो भी रसिकों के राजा से ? नही ...उनसे मान मत करो ....वो प्रेम, रति, सुरति और प्रीति सबके जानकर हैं ...उनसे मान करे ऐसी कौन है इस जगत में ? आप जाओ उनके पास । ऐसे सुन्दर अवसर को मत गुमाओ । हित सखी के मुख से ये सुनते ही श्रीराधा जी फिर बोलीं ...पर हुआ क्या ? सखी बोली ...आप मान मत करो । “मान” ? सखी ! क्या प्यारे ने भी ये सोचा है कि मैं उनसे मान कर रही हूँ ? हाँ ....हित सखी ने जब कहा ...तब तो श्रीराधा रानी उठीं .....और दौड़ पड़ीं निकुँज की ओर ....उनकी चूनर यमुना में भींगी थी उनमे से जल गिर रहा था ...नूपुर की झंकार से निकुँज झंकृत हो गया था वो दौड़ रही थीं .....उन्हें तो मान ही नही हुआ था ...ये रूठी ही नहीं थीं ।
जब देखा मेरी प्रिया इधर आरही हैं ...तो श्याम सुन्दर आनंदित हो उठे ...वो सब कुछ भूल गये ..उन्हें तो सर्वस्व मिल गया । श्रीराधा उन्मत्त की भाँति दौड़ी जाती हैं और अपने प्रियतम को बाहु पाश में भर लेती हैं ...और धीरे धीरे दामिनी श्याम घन में खो जाती है ।
******जय जय श्रीराधे , जय जय श्री राधे , जय जय श्रीराधे********
दोनों हाथों को ऊपर करके बाबा रस समुद्र में डूबने की घोषणा करते हैं ।
बाबा इसके मौन हो गये ...उनके नेत्रों के कोर से अश्रु बह रहे थे ..फिर श्रीहित चौरासी जी के दूसरे इसी पद का गान होता है ..सब गौरांगी के साथ फिर गाते हैं । बाबा भाव राज्य में जा चुके हैं ।
“प्यारे बोली भामिनी , आजु नीकी जामिनी” ।
आगे की चर्चा अब कल - ✍️हरि शरण महाराज हरि शरणम् गाछामि
🙏श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी !!
( “प्रात समय दोऊ रस लम्पट” - दिव्य झाँकी )
21, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“मेरे दधि को हरि स्वाद न पायो “........
सूरदास जी ने एक पद में इस झाँकी का वर्णन किया है .....श्रीराधा रानी जा रही हैं दधि बेचने ...वैसे ये राजकुमारी हैं ये क्यों जाने लगीं दधि बेचने ....पर इनके हृदय में जो प्रेम श्याम सुन्दर के लिए हिलोरे ले रहा है ये उसी के लिए जा रही हैं ...पर श्याम सुन्दर को अभी आता नही है प्रेम कैसे किया जाता है ....ये तो बस अपने सखाओं के साथ हंगामा करना ही जानते हैं ....
हंगामा किया ..दधि की मटकी फोड़ दी दही खा लिया इधर उधर बिखेर दिया ..और चले गये ...
सूरदास जी कहते हैं - दुखी श्रीराधा अपनी सखियों से कहतीं हैं .....दधि का स्वाद नही पाया हरि ने । फिर कैसे स्वाद मिलता ? सखियाँ पूछती हैं ...तो श्रीराधा उत्तर देती हैं ....प्रेम का स्वाद लुटेरों को नही मिलता न हरण करने वालों को मिलता है ....सखी ! प्रेम का स्वाद तो समर्पण में मिलता है ...वह मिलेगा भूमिका परिवर्तन से ...पीताम्बरी देकर मेरी नीली चुनरी ओढ़ने से ..अपना श्याम रंग छोड़कर गौर रंग में रंगने से ...मोर मुकुट त्याग कर चंद्रिका धारण करने से ...जब अकुला उठें प्राण कि मुझे अपनी आत्मा से मिलना है ....तब प्रेम का प्राकट्य होता है सखी !
सूरदास जी ने इसका वर्णन किया है । अस्तु ।
प्रेम झीना झपटी नही है ...प्रेम जबरन होने वाला व्यापार नही है ...प्रेम तो आत्मा की गहराई तक जाकर एक झंझावात पैदा कर दे ..पूर्ण समर्पण है प्रेम । प्रेम होता है या नही होता ..होता है तो पूरा होता है ...नही तो होता ही नही है । आत्मा जब पुकार मचा दे ...मिलने की छटपटाहट , लगे कि वो मिलें या प्राण निकल जायें ..उस स्थिति में पहुँचकर जब मिलन होता है ....वो “रति केलि” कहलाता है । इसमें द्वैत से अद्वैत की यात्रा होती है ...दो , एक हो गये ...पर उस निकुँज में सखियाँ हैं ....जो ‘एक’ को फिर ‘दो’ बना देती हैं ....ये सखियाँ हैं .....ये भी समझना आवश्यक है कि - युगल से सखियाँ भी भिन्न नही हैं ...युगल का मन ही सखियाँ हैं । जैसे - भक्त न हो तो भगवान कहाँ से हों ? ऐसे ही रसोपासना में सखियाँ न हों तो तो ये युगल सरकार भी न हों । इसलिए इस रसोपासना में सखियाँ मुख्य भूमिका में हैं ....गुरु हैं । रसोपासना वालों को प्रातः ध्यान करते समय सबसे प्रथम गुरु सखी का ध्यान करना चाहिए ...आपको निकुँज दर्शन , आपको युगल सरकार के दर्शन , और उनके रति केलि का दर्शन ...यहाँ तक पहुँचना है तो इसके लिए सखियों को पकड़ो ...प्रथम उनका ही ध्यान करो ।
पागल बाबा आज कुछ विशेष प्रसन्न हैं ....वो राधा बाग के लताओं को बड़े प्रेम से देख रहे हैं ....एक मोर वृक्ष से उतर कर बाबा के पास आया ....बाबा उसे छूते हैं ...बड़ा प्रेम करते हैं .....वो मोर अपने पंख फैलाता है ....फिर उन पंखों को हिलाता है तो एक पंख उसका गिर जाता है ....गौरांगी मुस्कुराते हुये उठा कर अपने मस्तक में लगा लेती है । बाबा ये देखकर उसे गदगद भाव से प्रणाम करते हैं ....प्रणाम करते हुये उनके नेत्रों में दिव्यता झलक रही थी ।
श्रीहित चौरासी जी का आज तीसरा पद गायन करना है .....गौरांगी पद को देखती है ...मुस्कुराती है ....फिर नेत्र बन्द कर लेती है ....और मधुर कण्ठ से उसका गायन .......
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“प्रात समय दोऊ रस लम्पट , सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल । श्रम वारिज घन बिंदु वदन पर , भूषण अंगहिं अंग विकूल । कछु रह्यो तिलक सिथिल अलकावलि, वदन कमल मानौं अलि भूल । श्री हित हरिवंश मदन रँग रँगी रहे , नैंन बैंन कटि सिथिल दुकूल ।3 ।
पद का गायन जब पूरा हुआ तब पागल बाबा ने पहले इस पद का ध्यान बताया .....कराया ।
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!! ध्यान !!
प्रातः की वेला है .......सुन्दर सुरभित वायु बह रही है ....पक्षियों ने कलरव करना शुरू ही किया था कि सखियों ने उन्हें रोक दिया । क्यों की इनके कलरव से प्रिया प्रियतम के नींद में विघ्न पड़ जाता ....पक्षियों ने भी जब देखा कि सखियाँ उन्हें मना कर रही हैं और लता रंध्र से वो देख रही हैं .....तो पक्षी भी वहीं आगये .....उन्हें भी देखना है जो सखियाँ देख रही हैं ....चुप ! ललिता सखी मना करती हैं कि बोलना नही । पक्षी शान्त हो गये हैं ....ऋषि मुनि की तरह मौन । सखियों की दृष्टि युगल के जागने पर है ...उससे पहले ये उस शयन कुँज में प्रवेश नही करेंगीं । तभी शैया में हलचल हुई .....तो सखियों ने देखा कि प्यारे और प्यारी जाग गये हैं ......इनके जागते ही सखियाँ शयन कुँज में प्रवेश कर गयीं ......ओह ! इनके प्रवेश करते ही प्रिया जू अपने अंगों को नीली साड़ी से छुपाने लगीं......इस दिव्य झाँकी का दर्शन करते हुए “हित सजनी” आगे आईं और अन्य सखियों से कहने लगीं ।
हित सजनी जब बता रही थीं तब सखियाँ ही नहीं पूरा श्रीवन उनकी बातों को सुन रहा था ....लता पक्षी सब सुन रहे थे ....हित सजनी वर्णन करती है ......देखो देखो सखी !
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प्रातः की वेला में हमारे “रस लम्पट” युगल जाग गये हैं ......क्या कहा रस लम्पट ? निकुँज की सारी सखियाँ हित सजनी की बात सुनकर हंस दीं ......तो हित सखी बोलीं ....क्यों तुम्हें दिखाई नही दे रहा ? देखो .....दोनों ने रात भर विहार किया है ...सुरत सुख खूब लूटा है ...रति केलि मचाई है ....फिर भी तृप्त नही हुए ! देखो इनके नयनों में , अभी भी एक दूसरे में डूबने की प्रवल कामना इनके अन्दर है .....इसलिए सखी ! मैंने आज इन युगल को ये नाम दिया है ..”रस लम्पट”...ये सुनकर सारी सखियाँ हंस पड़ीं तो तुरन्त प्रिया जू ने अपने अस्त व्यस्त वस्त्रों को सम्भाल लिया .....तब हित सखी कहती हैं - देखो तो ....इसके श्रीअंग ! कैसी दिव्यता लग रही है ....लाल जू की माला प्रिया के कण्ठ में कैसे आई ? और देखो ! श्रीवन में शीतल हवा बह रही है ...और इनके मस्तक में ये मोतियों की तरह पसीने की बूँदे ! अरी ! ये सब प्रेम लीला का प्रमाण है ....अंग के गहने बदल गये हैं .....प्रिया जू का हार लाल जू के कण्ठ में है ...और लाल जी की माला प्रिया के कण्ठ में । तभी पक्षी गण आनंदित होकर कलरव करने लगते हैं ..जिसके कारण प्रिया जी और शरमा जाती हैं ।
सखी ! देख ....माथे में तिलक नही है ...प्रिया श्याम बिन्दु धारण करती हैं ..और श्याम सुन्दर लाल रोरी ....पर देखो ...दोनों के मस्तक में तिलक नही । ललिता सखी ने धीरे से कहा ...थोड़ा है ....बाकी पुछ गया है ......वही तो ....हित सखी मुस्कुराती हैं .....बार बार पसीने आने से वो तिलक बह गया......थोड़ा बहुत बचा है । ये कहते हुए कुछ देर के लिए सखियों की दृष्टि ठहर जाती है ...वो प्रातः की इस झाँकी का दर्शन करती हैं और सुध बुध खो देती हैं ...फिर अपने को सम्भालती हैं .....क्यों की यही सखियाँ हैं जो “रस केलि” की प्रेरक हैं ।
सखी ! देखो ...अपने आपको सम्भाला हित सखी ने ...फिर आगे वर्णन करने लगीं .....
श्रीराधा जू की अलकावलि तो देखो ....कैसी बिखरी हुई हैं ......पर शोभा दिव्य लग रही है ...सखी ! ऐसा लग रहा है बस देखते ही रहें । अरे अरे देखो ! अलकावलि पवन के बहने से इधर उधर हो रहें हैं ....अब तो वो कानों के कुण्डल में जाकर उलझ गये हैं ....सखी ! ऐसा लग रहा है कि ....कमल के पुष्प पर मानों भँवर बैठ गया हो ...और अपनी चंचलता को भूल गया हो....वो उड़ना ही नही चाहता अब । सारी सखियाँ मन्त्रमुग्ध होकर देख रही हैं बस ।
हित सजनी सबका ध्यान खींचती हुई कहती हैं .....आहा ! देखो तो प्यारे की पीताम्बरी और प्यारी की साड़ी दोनों ढीले हो गये हैं .....इतना ही नही ...अब इनके नेत्रों को फिर से देखो ...प्रेम और आनन्द के रंग से कैसे रंजित हो रहे हैं । ये मिले हैं ...मिले रहते हैं ...पर फिर भी इन्हें लगता है कि अभी तो मिले ही नही । सखी ! इसलिये ये रस लम्पट हैं .....कैसी प्रीत ! कि तृप्ति ही नहीं हैं ...पी लिया रस ..फिर भी प्यास बुझी नही ...और बढ़ गयी । ये कहते हुए हित सखी एक तिनका तोड़कर फेंक देती है ..ताकि प्रिया लाल के इस नित्य विहार को किसी की नज़र ना लगे ।
पागल बाबा की दशा विलक्षण हो गयी है .....इनकी आँखें रस मत्तता के कारण चढ़ गयीं हैं ।
कुछ देर बाद फिर इसी तीसरे पद का गायन किया जाता है .....सब गाते हैं .....
“प्रात समय दोऊ रस लम्पट , सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल”
आगे की चर्चा अब कल - ✍️हरि शरण महाराज
हरि शरणम् गछामि 🙏श्रीजी मंजरी दास (सूर श्याम प्रिया मंजरी)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( ये चकोरी सखियाँ - “आजु तौ जुवति तेरौ” )
22, 5, 2023
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गतांक से आगे -
ये निकुँज की सखियाँ हैं .......
विशुद्ध प्रेम ही इनमें भरा है .....जी ! शुद्ध प्रेम को “रति” भी कहते हैं ....जिसमें कोई उपाधि नही है ...ये समस्त उपाधियों से मुक्त हैं - रति , जो प्रेम का एक विशुद्ध रूप है ....ये शुद्ध माधुर्य पर आधारित है....और प्रेम , शुद्ध माधुर्य पर ही आधारित हो तो उसका रूप निखर कर आता है ।
माधुर्य का अर्थ समझ लीजिए ...सामान्य नर के समान जो लीला करे वो माधुर्य और ईश्वर के समान जो लीला करे ..वो ऐश्वर्य । आप का प्रियतम आपके जितने करीब होगा ...उसके प्रति रस उतना ही बढ़ेगा ....और ईश्वर की भावना आपके अन्दर आगयी तो फिर आप विशेष करीब नही हो पायेंगे ...वहाँ कुछ तो दूरी रहेगी रहेगी ...और दूरी बनी रही तो फिर अपनत्व आ नही पायेगा ..अपनत्व के बिना शुद्ध प्रेम सम्भव ही नही है ।
माधुर्य माधुर्य ही बना रहे ....उसमें किंचित भी “ईश्वर” भावना से आप भावित हो गये ...तो वो प्रेम “भक्ति” कहलायेगी ....जिसमें आपके प्रियतम भगवान के रूप में विराजे होंगे ....मैं एक ही बात को बार बार न दोहराऊँ कि.......विशुद्ध प्रेम में विशुद्ध माधुर्य ही चाहिए ...वहाँ किंचित भी “ऐश्वर्य” आगया तो वो शुद्ध रति नही होगी ।
फिर भक्ति में भक्त के स्वभाव अनुसार उपाधियाँ जुड़ती चली जाती हैं ....जैसे - किसी की भक्ति शान्त है ...तो वो “शान्ता रति” और किसी की भक्ति मधुर है तो “मधुरा रति”....वात्सल्य रस है तो “वात्सल्यारति”....आदि आदि । यशोदा जी की वात्सल्यारति है ...उनकी मधुर रति नही हो सकती ....हनुमान जी की दास्यारति है ...वो दास भाव से भावित हैं ...किन्तु हनुमान जी की वात्सल्यारति नही हो सकती । सखा हैं कृष्ण के मनसुख श्रीदामा आदि .....उनमें सख्यारति है ....सखा भाव है....किन्तु वो मधुर रस को नही पा सकते ।
अब सुनो , इन समस्त उपाधियों से मुक्त है ये “विशुद्ध प्रेम” ....क्यों की सखी वो तत्व है ...जिनमें स्त्री भाव और पुंभाव का पूर्ण अभाव है ....इनको जो जब जिस भाव की आवश्यकता पड़ती है ये वही भाव ओढ़ लेती हैं ...जैसे - श्री जी और श्याम सुन्दर विहार करते हुए जब थक जाते हैं ....तो ये सखियाँ तुरन्त वात्सल्य भाव ओढ़ कर इनके पास चली आती हैं और सुन्दर सुन्दर पकवान इन्हें पवाती हैं माता की तरह...कभी रात्रि में सुरत केलि मचाया हो युगल ने तब ये सख्य भाव ओढ़ लेती हैं ...और खूब छेड़ती हैं ....श्रीजी को छेड़ती हुए कुछ भी कहती हैं ....मित्र हैं उस समय ....कोई डर नही है ...अपनी सहेली से काहे का डर ? जब रास में नाचते हुए थक जाते हैं तो चरण दबाने की सेवा करते हुए ये दास्य भाव को ओढ़ लेती हैं ...और एक अद्भुत बात बताऊँ ! जब रात्रि की वेला - निभृत निकुँज में ये युगल सरकार मिलते मिलते एक हो जाते हैं तब ये सखियाँ भी अपनी सारी उपाधियों को त्याग कर युगल में ही लीन हो जाती हैं । तब अद्वैत घट जाता है ...आहा ! उस समय न श्याम न श्यामा न सखियाँ ...बस प्रेम ..विशुद्ध प्रेम तत्व।
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सुन्दर बाग है .....नाना पुष्प खिले हैं ...आज तो इस राधा बाग में गोवर्धन के कई कलाकार आये हैं ....जिनको बुलाया नही गया इन्होंने सुना कि यहाँ श्रीहित चौरासी जी के ऊपर बाबा का व्याख्यान हो रहा है ...और पद का गायन होता है ...तो सारंगी पखावज आदि लेकर ये सब चले आये हैं .....श्रोताओं में अब उत्साह बढ़ रहा है ....लोग अब बाग में भरने लगे हैं .....जहां उन्हें स्थान मिल जाता है वही बैठ जाते हैं ...अति आनन्द और उत्सव का वातावरण है ....सब उमंग में हैं ...और ये सोचकर और उत्साह सबका बढ़ रहा है कि ....अभी तो श्रीहित चौरासी जी में बहुत उत्सव , बहुत उत्साह , और उमंग आने वाला है ...गौरांगी सुन्दर माला बना रही है साथ वहाँ की सखियाँ भी दे रही हैं .....गौरांगी कह रही है ...”आजु गोपाल रास रस खेलत” ये पद जिस दिन आएगा न ....उस दिन राधा बाग में महारास करेंगे ...सब नाचेंगे ....”बाबा को भी नचायेंगे”....ये बात मैंने कही ....शाश्वत बोला ...वो तो तैयार ही हैं । चलो , जाओ यहाँ सब सखियाँ हैं ...छेड़ती हुयी गौरांगी बोली । शाश्वत बोला - निकुँज में कहाँ पुरुष का प्रवेश है ....तुम बिना दाढ़ी मूँछ की सखी हो हम लोग दाढ़ी मूँछ वाले सखी हैं । पागल बाबा आगये थे ...वो शाश्वत की बातों पर बहुत हंसे ....कुछ देर तक हंसते ही रहे ।
गौरांगी की माला तैयार हो गयी थी ....उसने श्रीजी को एक माला पहनाई ...दूसरी माला श्रीजी के चरणों से छुवा कर बाबा को पहनाई .....बाबा ने संकेत किया ....आज श्रीहित चौरासी जी के चौथे पद का गायन होगा .....शाश्वत धीरे से बताता रहा ...ये गोवर्धन से पधारे हैं सारंगी लेकर ये पखावज .....बाबा बहुत प्रसन्न होते हैं ....एक श्रीराधा बल्लभ के भक्त हैं जो इत्र और गुलाब जल लेकर आये हैं ...बाबा सबको प्रसादी बनाकर देने के लिए कहते हैं ....उस दिव्य वातावरण में ....श्रीहित चौरासी जी के पद का गायन शुरू हो जाता है ......
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आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ । पिय के संगम के सूचत सुख चैन ।।
आलस वलित बोल, सुरँग रँगे कपोल । विथकित अरुन उनींदे नैंन ।।
रुचिर तिलक लेस , किरत कुसुम केस । सिर सीमंत भूषित मानौं तैंन ।।
करुना करि उदार , राखत कछु न सार । दसन वसन लागत जब दैंन ।।
काहे कौं दुरत भीरु , पलटे प्रीतम चीर । बस किये श्याम सिखैं सत मैंन ।।
गलित उरसि माल , सिथिल किंकिनी जाल । श्री हित हरिवंश लता गृह सैन ।4।
आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ ...................
सब लोग गायन कर रहे थे .....अद्भुत रसमय वातावरण तैयार हो गया था ।
अब बाबा ध्यान करायेंगे ....सब लोगों ने वाणी जी रख दी ...नेत्र बन्द कर लिए और .......
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!! ध्यान !!
प्रातः की सुन्दर वेला है ....पवन अपनी मन्द गति से और शीतल बह रहे हैं ...भास्कर के उदित होने में अभी समय है ..किन्तु श्रीवन की भूमि चमक रही है ..लता पत्र झूम रहे हैं ..निकुँज के बाहर यमुना बह रही हैं ...उनमें कमल पुष्पों की भरमार है ...अभी खिले नही है खिलने वाले है ...किन्तु उनसे सुगन्ध निकल रही है ...जो श्रीवन को सुगन्धित बना रही है ...उनमें भौरें गुंजार करने लगे हैं ..पक्षियों ने चहकना प्रारम्भ कर दिया है ...उन के चहकने से वातावरण संगीतमय सा लग रहा है ..ये पक्षी भी विचित्र हैं शयन कुँज के आस पास ही इन्हें मंडराना है ..वहीं कलरव कर रहे हैं ।
श्रीश्याम सुन्दर और प्रिया जी जाग गयीं हैं ....सखियों ने दर्शन किये ....प्रिया जी अपने आपको सम्भालती हुई शैया से नीचे उतरती हैं .....हित सजनी आगे बढ़ी और श्रीजी को जब सम्भालने लगीं ..तब श्रीजी वहीं खड़ी हो गयीं, उनकी आँखें मत्त हैं ...वो सखी को देखकर मुस्कुराती हैं ..और संकेत में कहती हैं ....तू रहने दे ..मैं आगे आगे चलूँगी । और श्रीजी आगे आगे चल पड़ती हैं .....किन्तु उनकी चाल ! ...हित सजनी प्रिया जी को ऐसे मत्तता से चलते हुये जब देखती हैं ..तो पीछे ललितादि को देखकर मुस्कुरा जाती हैं ।
प्रिया जी चली जा रही हैं ....उनके चरण की महावर छूट गयी है ....उनके कण्ठ का हार टूटा हुआ है ...उनकी अलकावलियाँ उलझी हुई हैं.....पर ये कहीं खोई हुयी हैं ...और चली जा रही हैं श्रीवृन्दावन की अवनी पर ....इनके पीछे सखियों का दल है ...वो सब भी परमआनंदित हैं ....आगे चल रही हित सजनी सबको संकेत करती है ....तो सब हंस पड़ती हैं ...हंसने की आवाज प्रिया जी ने सुन ली है ...वो रुक जाती हैं ....और पूछती हैं ...क्या हुआ ? मन्द मुस्कुराते हुए सखी सिर हिलाकर कहती है ....नही, कुछ नही हुआ । नही कोई तो बात है ....प्रिया जी सब को देखती हैं ...समस्त सखियाँ पीछे हैं ...तब हित सखी कहती है ....ये आपके कपोल में चिन्ह ! ये सुनते ही प्रिया जी शरमा जाती हैं और कपोल को अपनी चुनरी से छुपा लेती हैं ...प्रिया जू ! क्या क्या छुपाओगी ? चाल , ढाल , अंग में लगे सुरत सुख के चिन्ह ...सब गवाही दे रहे हैं ......
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क्या बात है , नव यौवन से मत्त हमारी प्यारी सखी ! आज तो आपका मुखारविंद आनन्द से भरा है ...ये आपका मुखारविंद है ना यही बता रहा है कि प्रीतम के साथ आपने विहार किया ....विहार तो आपका नित्य है ..किन्तु आज कुछ विशेष है ।
हित सखी से ये सुनकर मुस्कुराते हुए सिर झुका लेती हैं श्रीराधिका ....
सखी कुछ नही बोलती वो अपनी प्राण प्यारी श्रीजी को देखती रहती है ....पर प्रिया जू परेशान हो जाती हैं कि ये बोल क्यों नही रही , अपनी “रति केलि” पर सुनना उन्हें अच्छा लग रहा था ...श्रीजी दृष्टि को ऊपर करती हैं और सखी की ओर जैसे ही देखती हैं ...सखी मुस्कुरा रही थी तो वो फिर दृष्टि तुरन्त नीचे कर लेती हैं , शरमाते हुए ।
कुछ नही है ऐसा तो ! श्रीजी शरमाते हुए कहती हैं ।
तो हित सखी हंसते हुए कहती है ......फिर आपकी बोली में इतना आलस क्यों है ? आपके गाल भी रँगे हुए है ...लाल लाल । नेत्र भी तो उनिंदे हैं ...ऐसा स्पष्ट लग रहा है कि रात्रि भर आप सोईं नही हैं ...या प्रीतम ने आपको सोने नही दिया ।
हट्ट ! ये कहते हुए श्रीप्रिया जू आगे बढ़ जाती हैं ....वो शरमा भी रही हैं और उन्हें ये सुनना अच्छा भी लग रहा है ।
आपके मस्तक का तिलक कहाँ हैं ? वेणी भी आपकी ढीली है प्रिया जू ! और अलकें भी उलझी लग रही हैं ....क्यों ? नयन मटकाते हुए सखी पूछती है ....और सिर के माथे का सिन्दूर तो पसीने में बह गया ....
कुछ नही , कुछ भी कहती हो तुम सब ?
मुझे चिढ़ाने में तुम को आनन्द आता है , है ना ? श्रीजी सखियों को कहती हैं ।
हाँ , आप उदार हो ....हम जानती हैं ...आप कितनी उदार हो ये हमें ज्ञात है .....आपसे कोई विनती करे तो आप अपना सब कुछ दे देती हो ...अपने तन मन प्राण सब कुछ ......
ये सुनते ही प्रिया जी फिर शरमा गयीं ....ये सखियों ने व्यंग किया था ।
वो आपके पुजारी हैं ना ....जो आपकी हर समय चरण वन्दन में ही लगे रहते हैं ......
कौन ? बड़े भोलेपन से श्रीजी पूछती हैं ।
सखियाँ हंसती हैं ....आप भोली हो , पर इतनी भी नहीं ।
देखो ....आपके अंगों में सुरत संग्राम के चिन्ह ....बड़े सुन्दर लग रहे हैं ...ये सुनते ही प्रिया जी अपने अंगों को फिर छिपाने लगती हैं और बोलीं - नही , ऐसा कुछ नही है ।
अच्छा , ऐसा कुछ नही है तो प्रिया जू ! हमें ये बताओ कि अपनी नीली चुनरी को छोड़कर ये पीताम्बरी कहाँ से आई ? प्रिया जी के पास अब कुछ नही था बोलने के लिये ...वो क्या बोलें ।
सखी फिर बोलना शुरू कर देती है ....प्रिया जी ! आपको नही पता तो मैं बात देती हूँ ...ये पीताम्बर वो ध्वजा है जो इस बात का प्रमाण है कि सौ सौ कामदेवों को हराने वाले परम वीर श्याम सुन्दर को आपने अपने वश में कर लिया है ।
प्रिया जी अब कुछ नही बोलतीं ....तो सखी कहती है....लो , गले की माला भी मसली हुई है .....और मैं आगे की बात बताऊँ ? तभी श्रीजी सखी की ओर बढ़ती हैं और हित सजनी के मुख पर अपनी उँगली रख कर कहती हैं ...”मत बोल” । तब हित सजनी संकेत में कहती है ...प्रिया जी ! ये सारे प्रमाण हैं कि रात में आप प्रीतम के साथ लता भवन में सोईं हैं ..हैं ना ? श्रीजी शरमा जाती हैं और दौड़कर हित सखी को अपने हृदय से लगा लेती हैं ।
पागल बाबा इसके बाद मौन हो जाते हैं ....वो इस लीला चिन्तन में देहातीत हो गये हैं ।
“आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ..........”
अन्तिम में फिर चौरासी जी के चौथे पद का गायन किया जाता है ।
आगे की चर्चा अब कल - ✍️हरि शरण महाराज हरि शरणम् गाछामि 🙏श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - श्रीहित चौरासी !!
( “आजु प्रभात लता मन्दिर में”- प्रीति विलास की दृष्टा )
23, 5, 2023
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गतांक से आगे -
वेदान्त कहता है ..दृष्टा बनो ...रसोपासना भी कहती है दृष्टा बनो ।
उस प्रीति विलास को निहारो ....प्रेम विलास तो उस ब्रह्म का सनातन से चल रहा है ...अपने से ही प्रकट कर अपनी आल्हादिनी से ही वो विहार करता है ...इन युगल की इच्छाशक्ति ये सखियाँ हैं ....ये इन युगल में इच्छा प्रकट करवाती है ...साधन जुटाती हैं ...केलि करने के लिए स्थान सजाती हैं ....जब सब तैयार जो जाता है ...तब ये दृष्टा बन कर खड़ी हो जाती हैं ।
है ना अद्भुत उपासना !
जो सखी भाव से भावित है उन्हें ही प्रवेश है इस उपासना में । सखी भाव यानि पूर्ण “तत्तसुख” भाव , “प्रियतम के सुख में अपना सुख खोजना”....हम श्याम सुन्दर को आलिंगन करें ? नही वो प्रिया जू को आलिंगन करें तो उन्हें इस में ज़्यादा सुख मिलेगा ...दोनों को सुख मिलेगा ..और युगल के साथ एकात्मता इतनी है इस सखियों की , कि युगल के सुख में ही ये सुखी हो जाती हैं । ये तो मात्र दर्शन करके तृप्त हैं ....दर्शन करके ही इन्हें वही सुख मिलता है जो सुख युगल को विहार करने पर प्राप्त होता है ।
देखना , दर्शन , बस सखियों को यही आता है ...सेवा और दर्शन .....और हाँ दर्शन भी वो ऐसे करती हैं ...कि युगल के विहार में विघ्न भी ना हो ....लता में छुप जायेंगी ....लता रंध्रों से देखेंगी ....फिर दूर हो जायेंगी ....ये अद्भुत प्रेम की उपासना है ....आइये इसमें डूबिए ।
और एक अद्भुत बात बताऊँ !
ये रस की उपासना है ....रसोपासना ।
ये कृष्णोपासना नही है , रामोपासना नही है ...ये शिवोपासना नही है ....इसमें कृष्ण राम शिव ये नही हैं ...यहाँ तो एक मात्र “रस” का ही खेल चल रहा है ...उसी का अनुभव करना है ....वही लीला करता है कराता है ....यहाँ उपास्य केवल “रस” है ...उपासना किसकी की जाती हैं यहाँ ...रस की । यहाँ राम कृष्ण शिव नही हैं ....यहाँ रस ही रस है ...रस का अर्थ तो पता ही होगा ! चलिये ये भी जान लीजिये कि संस्कृत में ‘रस’ का अर्थ है ! जिसका आस्वादन किया जाये उसे ‘रस’ कहते हैं ...कीजिए आस्वादन ....मन है ना , तो उसको चिन्मय श्रीवृन्दावन में लगा दीजिये .....फिर देखिये ....अन्तर चक्षु से देखिये ....वो आरहे हैं .....युगल सरकार आरहे हैं ....झूमते हुए आरहे हैं ......यही धीरे धीरे प्रकट हो जायेंगे ....फिर अंतर चक्षु की भी जरुरत नही रह जायेगी......बाहर भीतर वही रस नचाता थिरकता दिखाई देगा .....देखिये -
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इस “रस” में कैसे प्रवेश हो ? पूछा था एक सखी ने शाश्वत से ।
राधा बाग में अब पागल बाबा आने वाले हैं ...आज ये बरसाने की गहवर वन की परिक्रमा में चले गये ...इसलिये कुछ विलम्ब हो गया । रसिक लोग आये हैं ...वो अपने अपने स्थान पर बैठ गये हैं ....उस समय गौरांगी पुष्पों की रंगोली बना रही है । शाश्वत बैठा हुआ है और बाबा के आने की प्रतीक्षा कर रहा है ।
इस ‘रस’ में कैसे प्रवेश हो ? एक सखी जो दिल्ली की हैं उन्होंने पूछा था ।
चिन्तन से ...सतत चिन्तन से ...शाश्वत का उत्तर था ।
पर सतत चिन्तन सम्भव नही है ....तो फिर “श्रीधाम वास”करो .....ये भी कहना था शाश्वत का ।
उसी समय पागल बाबा आगये ....सबने प्रणाम किया उन्हें .....बाबा बैठ गये ....तो यही प्रश्न फिर उठाया ....बाबा भी यही बोले ....चिन्तन करो .....खूब चिन्तन करो ....पर चिन्तन नही बनता .....बाबा बोले ...फिर वाणी जी का पाठ करो ....उससे चिन्तन बन जायेगा । वाणी जी का पाठ ये अद्भुत है ..इससे वो लीला तुम्हारे सामने घूमेगी ....तुम धीरे धीरे रस में प्रवेश करते चले जाओगे । दिल्ली में वातावरण नही है इन सबका ! बाबा बोले ..फिर श्रीधाम आजाओ ...कुछ करना ही नही पड़ेगा ...यहाँ पड़े भी रहोगे तो सखियाँ तुम्हें उस रस में प्रवेश करा ही देंगीं । प्रश्नों की शृंखला बढ़ती देख ....शाश्वत बोला ....इन के प्रश्न कभी ख़त्म नही होंगे ...बाबा ! आप रस राज्य में हम सबको ले जाओ ।
बाबा ने श्रीहित चौरासी वाणी जी खोलने के लिए कहा ...आज पाँचवा पद है ...वीणा और सारंगी साथ साथ में बजेंगे ...और बज उठे ...पखावज की ताल में पद का गायन गौरांगी ने प्रारम्भ कर दिया .....
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आजु प्रभात लता मन्दिर में , सुख बरसत अति हरषि जुगल वर ।
गौर श्याम अभिराम रंग भरि ,
लटकि लटकि पग धरत अवनि पर ।
कुच कुमकुम रंजित मालावलि , सुरत नाथ श्रीश्याम धाम धर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत ,
चित्रित चतुर शिरोमणि निजु कर ।
दम्पति अति अनुराग मुदित कल ,
गान करत मन हरत परस्पर ।
श्री हित हरिवंश प्रसंसि परायन,
गायन अलि सुर देत मधुरतर । 5 ।
ये श्रीहित चौरासी जी का पाँचवाँ पद था , पद गायन से ही सब लोग झूम उठे थे ...गायन से पूरा राधा बाग प्रेम पूर्ण हो गया था ..अब बाबा इस पद का ध्यान बतायेंगे ....सबने वाणी जी बन्द करके रख दी है ।
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!! ध्यान !!
सुन्दर श्रीवृन्दावन है ... चारों ओर रस पूर्ण वातावरण है ...रसिकनी श्रीप्रिया जी सखियों के साथ हैं ....सब उनको रात्रि की बात पर छेड़ रही हैं ....अकेली पड़ गयीं प्रिया जी ...सखियाँ कुछ न कुछ बोल रही हैं ....तब श्रीराधा रानी चारों ओर देखती हैं ....तो उनको अपनी ओर आते हुए दिखाई देते हैं श्याम सुन्दर .....श्याम सुन्दर तेज गति से चलते हुए आरहे हैं ......आने में उनकी उत्सुकता इतनी दिखाई दे रही है कि मानों युगों से ये अपनी प्रिया से मिले ही नहीं हैं ।
सुन्दर सुन्दर सखियाँ ये देख लेती हैं ...अब प्रिया का ध्यान भी अपने प्यारे पर ही है ....सामने एक कुँज है ...बड़ा सुंदर कुँज है ...माधवी पुष्पों से निर्मित ये लता मन्दिर है ...इसमें सुगन्ध की वयार चल रही है ....मोर भीतर जा नही रहे उस लता मन्दिर के बाहर घूम रहे हैं ...मोर भी अनगिनत हैं ...तोता कोयल ये बीच बीच में बोल रहे हैं ...तो बड़ा ही मधुर लग रहा है ...सखियाँ चली गयीं .....क्यों की दोनों के मध्य में ये बाधक बनना नही चाहतीं ....किन्तु उसी लता कुँज के पीछे जाकर खडी हो गयीं ....सभी सखियाँ खड़ी हैं ...और शान्त भाव से वो देख रही हैं ....
श्याम सुन्दर नीली चुनरी कन्धे में डाले हुये हैं और पीताम्बरी श्रीकिशोरी जी ने । दोनों गले मिले ....बहुत देर तक मिलते ही रहे .....ये सखियाँ देख रही हैं और अपने नेत्रों से इस रस का पान कर रही हैं ....फिर धीरे धीरे लता मन्दिर में युगल सरकार पधारे ....पर उस समय उनकी जो शोभा थी वो एक प्रेम मत्तता की थी ।
ये देखकर लता रंध्र से हितसखी अन्य सखियों को बताती हैं ..........
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सखी ! देख आज तो प्रभात वेला में ही वर्षा हो रही है ....ये जो लता मन्दिर है ना ....इसमें सुख पूरा का पूरा बरस रहा है .....सुख की वर्षा हो रही है ....इन युगल को जो देख ले .... इस तरह प्रेम में डूबे हुए.....वो तो सुख के महासागर में गोता ही लगाता रहेगा ।
युगल को सब सखियाँ अपलक निहार रही हैं ......
अरे देखो , अभी तक तो प्रिया जू ही सुरत सुख के कारण झूम रही थीं पर ये लाल जू तो और उन्मत्त हो रहे हैं .....अभी तक सुरत सुख का आनन्द इनके हृदय से गया नही है ....रात्रि में पीया वो रस ....रसासव , वही इनकी चाल में दिखाई दे रही है ....देख तो , कैसे झूम झूम के ....लटक लटक के दोनों ही अपने पग इस श्रीवन की अवनि में रख रहे हैं .....आह ! हित सखी वर्णन कर रही है और मुग्ध है .....सब दर्शन कर रही हैं और रसासव अपने नयनों से पी रही हैं ।
माला देखो ....श्याम सुन्दर के कण्ठ में जो माला है ...उसे ध्यान से देखो .....हित सजनी कहती हैं .....क्यों सखी ! उस माला में ऐसा क्या है ? अन्य सखियों ने प्रश्न किया । सखी ! उस माला में केसर लगा हुआ है ...श्रीजी के वक्ष में जो केसर है ना उसमें ये माला मसली गयी है .... जब दोनों युगल मिले और सुरत संग्राम मचा तब ये माला भी धन्य हो गयी ...श्रीजी के वक्षस्थल की केसर प्रसादी इसे मिल गयी......और देखो देखो ...श्याम सुन्दर भी कितना प्रेम कर रहे हैं उस माला से ।
सब सखियाँ देखकर रोमांचित होती हैं .....वो सब कुछ भूल गयी हैं ......
तभी हित सजनी कहती हैं ......अब आगे देखो .....प्रिया जू के अंगों में सुन्दर चित्रावली बनाई है हमारे श्याम सुन्दर ने । हाँ ....सब सखियों ने देखे और मुस्कुराने लगीं ....नख से चित्र उकेरे हैं ...आहा ! इतना ही बोल सकीं सखियाँ .....तभी उस लता भवन के भँवरों ने गुंजार शुरू कर दिया ...उनके गुंजार से संगीतमय वातावरण का निर्माण हो गया था । भँवरों के गुंजार के साथ अब सखियों ने भी गीत गाने शुरू कर दिए .....श्याम सुन्दर सखियों को देखकर मुस्कुराए ...और उनके गायन की प्रसंसा करने लगे थे ....किन्तु श्रीजी शरमा रही थीं ।
अद्भुत झाँकी थी ये युगल और सखियों की ..........
पागल बाबा मौन हो गये ....अब बोलने के लिए कुछ था नही ......
गौरांगी ने फिर गायन किया श्रीहित चौरासी जी के पाँचवे इसी पद का ।
“आजु प्रभात लता मन्दिर में , सुख बरसत अति हरषि जुगल वर .......”
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - श्रीहित चौरासी !!
( रसिक अनन्य श्याम - “कौन चतुर जुवती प्रिया” )
24, 5, 2023
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गतांक से आगे -
हे कृष्ण ! तुम पूर्ण प्रेमी नही हो सकते ..क्यों की पूर्ण प्रेमी के लिए “अनन्य” होना आवश्यक है ।
रास लीला के मध्य में श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान हो गये थे ...गोपी गीत सुनाकर इन्हें प्रकट किया गोपियों ने...बहुत बातें हुईं ...दोनों के मध्य शास्त्रार्थ भी हुए. ..हार गये श्रीकृष्ण ...वो बोले ...सच्ची प्रेमिन तो तुम लोग हो ...प्रेम क्या है ये तुमने ही जाना है ।
“तुम प्रेम में पूर्णता पा भी नही सकते” ...दो टूक कह दिया था गोपियों ने ।
सिर झुका लिया श्रीकृष्ण ने ...तो गोपियाँ बोलीं ...प्रेम के लिए अनन्य होना आवश्यक है ...बिना अनन्यता के कोई प्रेमी बन ही नही सकता ...बन तो सकता है किन्तु अपूर्ण ही रहेगा ।
श्रीकृष्ण क्या बोलते ...वो चुप रहे ...क्यों की बात सही थी गोपियों की ।
हम हैं प्रेमिन ...हमने प्रेम के लिए सब कुछ त्याग दिया है ...सब कुछ । हमारे जीवन में सिर्फ तुम हो ...पर तुम्हारे जीवन में ? नाना भक्त हैं ....सबकी तुम्हें सुननी पड़ती है ....क्यों की तुम ईश्वर हो । हम लाख कहें तुमसे ....कि हम सिर्फ तुम्हारी है ....पर तुम नही कह सकते कि ....हम भी सिर्फ तुम्हारे हैं ।
हाँ रसिक हो तुम , तुम भ्रमर हो ....पर भ्रमर होना कोई बड़ी बात नही है ....जहाँ फूलों का पराग देखा वहीं बैठ गये ...पी लिया रस ...फिर उड़ चले । भक्तों का हृदय कमल है उसमें प्रेम का पराग देखा तो वहीं रुक गये ....फिर दूसरा भक्त ....अनन्त भक्त हैं सृष्टि में तुम्हारे ...देखो कृष्ण ! बड़ी बात है अनन्य होना । प्रेम राज्य में आदर भ्रमर का नही होता ...मछली का होता है चातक का होता है ....क्यों की ये अनन्य हैं ।
गोपियाँ बोलती जा रही थीं ,श्रीकृष्ण बैठ गये ...हाथ जोड़ लिये और कहा ..मुझे अनन्य बनना है ।
“इसके लिए तो ईश्वरत्व से मुक्ति पानी होगी”....आगे आकर ललिता सखी ने कहा ।
हाँ , मुझे ईश्वरत्व से ही मुक्ति चाहिये ...और तभी ललिता सखी ने श्रीराधा रानी के चरणों में लगी महावर अपनी उँगली में ली और श्याम सुन्दर के मस्तक में लगा दिया ...बस ये तभी से मुक्त हो गये ईश्वरत्व से ...ये निकुँज के श्याम सुन्दर ...रसिक तो थे ही अब अनन्य भी हो गये ।
अब ये श्रीराधा रानी के सिवाय किसी को नही देखते ...उन्हीं के रस में मत्त रहते हैं ...उन्हीं में मत्त रहते हैं ...तो ये विरोधाभास रसिक और अनन्य ...ये सिर्फ श्याम सुन्दर में हैं , अवतारी कृष्ण में नहीं ...निकुँज विलासी श्याम सुन्दर में ।
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आज वर्षा हुई ...अच्छी वर्षा हुई ....राधा बाग के वृक्ष लतायें ये भी नहा धोकर श्रीहित चौरासी जी के इस उत्सव के लिए तैयार हो गये ....रज की भीनी भीनी सुगन्ध आरही थी ...जो वातावरण को मन मोहक बना रही थी । गुलाब के फूल आज मथुरा से किसी ने भेजें हैं .....ढेर है ....किसने भेजे ये पता नही ....बस एक गाड़ी आई और फूलों से भरी चार बोरी डाल गयी ।
पागल बाबा बाग में ही हैं आज ....वो श्रीजी मन्दिर भी नही गये ...ध्यान में थे ....जब गौरांगी और शाश्वत फूलों के विषय में आपस में बातें कर रहे थे तो बाबा बोले ...फूल आगये ? अब इनको चारों ओर सजा दो ....वृक्षों की क्वाँरी बना दो ...और रंगोली भी ।
गौरांगी ने वही किया ......शाश्वत ने भी साथ दिया ....मैं तो बाबा के साथ ध्यान में ही था .....हाँ सजाते हुए देखने वाले दर्शक राधा बाग के मोर पक्षी आदि ही मात्र थे ।
लोग आये समय हो गया था .....सब आकर बैठ गये .....यहाँ कोई सट कर नही बैठता ....जिसको जहां रुचिकर लगे ....कोई कदम्ब के नीचे तो कोई तमाल के ....कोई मोरछली के नीचे तो कोई पारिजात के । सब उच्च स्थिति के हैं .....इस रस के जानकार है ।
बाबा को बाँसुरी अच्छी लगती है ....वो कल बोले भी थे ...वीणा और सारंगी दोनों तार के वाद्य हो गये ...एक बाँसुरी होती तो ! बस बाबा का कहना था कल ...तो आज एक लड़का आगया ...सुन्दर छोटी आयु का था ...केश घुंघराले ...शान्त गम्भीर । मैं बाँसुरी बजाऊँगा ...बाबा को प्रणाम करते हुए वो बैठ गया और सारंगी वाले से कहने लगा ...बाँसुरी निकाली ...बाबा की ओर देखकर मैं मुस्कुराया ... बाबा भी मुस्कुराये ....”श्रीजी सब व्यवस्था कर देती हैं” ..गौरांगी बोली ...और श्रीहित चौरासी जी का गायन प्रारम्भ हो गया । आज तो चौरासी जी के गायन के समय मन्द मन्द वर्षा भी होने लगी थी .....वो बड़ा सुखद लग रहा था...और दिव्य लग रहा था ।
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कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैंन ।
दुरवत क्यों अब दूरैं सुनी प्यारे , रंग में गहले चैंन में नैंन ।।
उर नख चंद विराने पट , अटपटे से बैंन ।
श्री हित हरिवंश रसिक , राधा पति प्रमथित मैंन ।6।
श्रीहित चौरासी जी के छटे पद का गायन था आज ...गायन हुआ ...सबने वाणी जी बन्द करके रख दी ...बाबा अब इसी पद का ध्यान करायेंगे ...सबने नेत्र बन्द कर लिये हैं ।
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!! ध्यान !!
लता मन्दिर अद्भुत है ....उसमें माधवी के जो पुष्प लगे हैं उसकी सुगन्ध वातावरण में फैल रही है ....अभी सूर्य उदित नही हुए हैं ....निकुँज के सूर्य और चन्द्रमा भी यही हैं ...भू पर उदित होने वाले सूर्य यहाँ के नही है ...ये दिव्य धाम है ...यहाँ सब दिव्य और चिन्मय है ...तो सूर्य अभी उदित नही हुये हैं ...जब तक सखियाँ नही चाहेंगी यहाँ कुछ नही होगा ...और सखियाँ भी तब चाहेंगी जब ये युगल चाहेंगे । दिव्य अद्भुत । सखियों ने लता मन्दिर के भीतर युगल को देखा ...लता रंध्रों से देखा ....रति सुख के चिन्ह इनके अंग पर देख ये सब आनन्द विभोर हो गयीं थीं ...पर भ्रमरों ने गान किया तो सखियों ने भी उनके गान में साथ दिया ...सखियों को गाता श्याम सुन्दर ने देख लिया उस रंध्र से ...जहां से सखियाँ निहार रही थीं ...मुस्कुराते हुये श्याम सुन्दर उस लता मन्दिर से बाहर आगये ...किन्तु श्रीजी नही आईं ....वो रात्रि के सुरत सुख का चिन्तन करते हुए मत्त थीं ....तुरन्त ललिता सखी लता मन्दिर में गयीं और श्रीराधा जू को सम्भाल लिया ।
किन्तु हित सखी श्याम सुन्दर के पीछे चली गयी...आज ये श्याम सुन्दर को छेड़ना चाहती है ....श्याम सुन्दर में अभी भी वही मत्तता है ...वो झूमते हुये चल रहे हैं .....उनके अंग में जो नीलांबर है वो अवनी पर गिर रहा है .....उनके गले की माला उनके कानों के कुण्डल में उलझ कर उसके फूल नीचे झर रहे हैं ...उनका वो नीला श्रीअंग ....जिसमें से सुगन्ध प्रकट हो रही है ....पर इनके अंग की सुगन्ध नही है .....इनके अंग से प्रिया जू के अंग की सुगन्ध आरही है ।
अब वो पीछे आने वाली हित सखी श्याम सुन्दर को छेड़ती है ........
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सुनो ! सुनो लालन !
एक सखी दौड़ती हुई श्याम सुन्दर के पास आती है ..वो मुस्कुरा रही है उसकी मुस्कुराहट में व्यंग है ...कुछ कटाक्ष है ..रहस्य से भरी मुस्कान देखकर श्याम सुन्दर भी रुक जाते हैं ।
सखी पास में आती है ..श्याम सुन्दर उसे देख रहे हैं ..नयनों के संकेत से ही पूछते हैं ..क्या बात है ?
तब सखी नयनों को मटकाते हुए कहती है - लाल ! कौन है वो ?
कौन ? श्याम सुन्दर उसी से प्रतिप्रश्न करते हैं ।
अब छुपाओ मत ....कौन है वो चतुर प्रेयसी जिससे तुम रात में चोरी चोरी मिलते हो ?
ये सुनते ही श्याम सुन्दर कुछ शरमा गये ....उन्होंने अपना सिर थोड़ा झुका लिया ।
नही , बड़े भोलेपन से उन्होंने अपना सिर हिलाया ।
फिर ये आँखिन की रँगाई ? प्यारे ! आँखें सब बोल देती हैं ....तुम्हारी ये आँखें जो लाल हो रही हैं ...ये इस बात का सूचक हैं कि किसी सुन्दर युवती ने तुम्हारे आँखों को रंग दिया है । वो सुख , वो आनन्द जो तुमने लूटा है वो तुम्हारी आँखों में सब दीख रहा है .....श्याम सुन्दर सखी की बात सुनकर फिर शरमा गये । सखी कुछ नही बोली तो श्याम सुन्दर ने कहा ...कमल पराग का कण उड़कर मेरी आँखों में चला गया था ...मैं मलने लगा तो लाल हो गया होगा ।
सखी हंसते हुए बोली ....फिर ये चित्र आपके वक्षस्थल में किसने उकेरे ? और ऐसा दिव्य लग रहा है ......जैसे अर्ध चन्द्रमा को आकाश में ही उकेर दिया हो । श्याम सुन्दर तुरन्त अपने आपको श्रीजी की नीलाम्बरी से छुपाने लगते हैं ...तो आगे बढ़कर सखी फिर हटा देती है नीलाम्बरी को ...और श्याम सुन्दर के वक्षस्थल को ध्यान से देखती हुई कहती है ....आहा ! किसी चतुर नायिका ने अपने नख से ये चित्र उकेरा है ....सच में तुम रसिक हो तो वो भी कोई परम रसिकनी ही होगी ....ऐ ! बताओ ना कौन है वो ? सखी फिर छेड़ती है । पर श्याम सुन्दर अब बोल नही पाते ...उन्हें रात्रि के विलास का स्मरण हो आया है ..वो उसी रति केलि का स्मरण कर मौन हो गये हैं ।
बलैयाँ लेती है हित सखी ...कहती है ...मैं अब ज़्यादा आपको परेशान नही करूँगी ...हे मेरे राधा पति ! हे रसिक ! तुम ही हो जो राधा के पति हो तो अनन्य हो ...रस के पियासे हो तो रसिक हो .....तुम काम देव से मथे गये हो ...अच्छे से मथे गये हो । हे राधा पति ! इसलिये मेरे सामने तुम बोलने में असमर्थ हो । इतना कहकर मुस्कुराते हुए वो हित सखी वहाँ से अपनी श्रीराधा रानी के पास चली जाती है ।
आहा !
। साँची कहौ इन नैनन रंग की , दीन्ही कहाँ तुम लाल रँगाई ।
जय जय श्री राधे ! जय जय श्री राधे ! जय जय श्रीराधे !
पागल बाबा रसोन्मत्त हो गये ...
गौरांगी ने फिर इसी चौरासी जी के छटे पद का गायन किया ।
कौन चतुर जुवती प्रिया , जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैन........
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( अभूत जोरी - “आजु निकुँज मंजु में खेलत”)
25, 5, 2023
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गतांक से आगे -
कुछ पुराना नही है निकुँज में , ना , जहां काल की गति नही है वहाँ नित नूतन तो है ही । सब कुछ नया है ....श्रीवन नया , यहाँ के लता वन नये ...उन लताओं के पल्लव नये ...उनमें खिले फूल नये ...उनमें गुंजार कर रहे भँवरे नये ...यमुना नयी ...श्रीवन की भूमि नयी ....सखियाँ नयी ....उन सखियों के वस्त्र नये ...उनका हास परिहास सब नया । अब यहाँ ध्यान देने की बात है कि यहाँ ये नूतनता हर क्षण में है ....क्षण क्षण में नवीन ।
श्याम सुन्दर नये ...उनकी गोरी श्यामा जू नयी ....उनका सौन्दर्य क्षण क्षण नया ।
आप निकुँज में युगल के दर्शन कर रहे हैं तभी एक क्षण के लिए आपकी पलकें झपकीं कि तभी उनका पूर्व का सौन्दर्य अब नही रहा ....उससे भी अधिक है .....सौन्दर्य का सागर आपके सामने लहरा रहा है ....ये नवीनता बनी ही रहती है .....यही अद्भुत है इस रस में ....यही विलक्षणता है इस रस की । यहाँ सब कुछ चिद्विलास ....यहाँ जड़ की सत्ता ही नही है .....यहाँ तो सिर्फ - रस है रस ।
वही रस बह रहा है ...वही नाच रहा है ....वही चल रहा है ...वही हंस रहा है ......वही वही है सर्वत्र । उसके सिवा और कोई नही , कुछ नही है । अद्भुत अनुपम है ये सब ।
ये रस कहाँ से मिलेगा ? कल मुझे एक ने बड़े भावुक हृदय से पूछा ।
मैंने कहा ....इस रस के लिए अभूत भूमि ये श्रीवृन्दावन ही है ...ये यहाँ मिलेगा । ये रस यहीं मिलेगा । बाहर आपको प्रयास करना पड़ेगा ....वातावरण बनाना पड़ेगा ...रस ऐसे ही थोड़े मिल जायेगा ! किन्तु श्रीवृन्दावन में कुछ नही करना है ....बस पड़े रहो ..किन्तु भरोसा उसका हो ....बस ..फिर देखना वो रस का दरिया तुम्हारे पास बहता हुआ आयेगा । तुम इस रस में गोता लगाना चाहते हो ? तो आओ ! यहाँ आओ ....निहारो सखी ! उज्ज्वल नीलमणि को ....आहा ! उज्ज्वल श्रीराधा रानी हैं और नीलमणि हमारे श्याम । फिर रस ही रस होगा .....रस में ही डूबते उबरते रहोगे। जय जय ।
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शान्त बैठे हैं आज पागल बाबा । राधा बाग में श्रीजी के कुछ चरण चिन्ह बाबा को दिखाई दिए ....तो उनको भाव आगया ...वो भाव में डूबे हैं ....चार घण्टे तक ये “हा राधा, हा राधा” कहते रहे ...उसके बाद अब ये शान्त हैं ...शून्य में देख रहे हैं ...आज ये बोल पायेंगे या नही ? शाश्वत पूछता है । गौरांगी कहती है अभी तो दो घण्टे हैं ....दो घण्टे में तो बाबा भाव राज्य से बाहर आजायेंगे । पुष्पों की भरमार है आज भी ...आस पास लोग पुष्प भेज देते हैं ...कुछ माली भी हैं जो बाबा के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं । वो भी लेकर आए हैं पुष्प । पुष्पों को सजा दिया गया है ..आज तो एक भक्त जल का फुहारा भी ले आया ...फुहारे से गुलाब जल निकल रहा है जिसके कारण बाग गमक रहा है ।
बाबा अब ठीक है .....उन्होंने जल पीया है ....फिर गौरांगी से कहा - ये जो कलाकार हैं इनके लिए एक एक माला की व्यवस्था करो ....और ये बृजवासी भी हैं ...इनको कुछ दक्षिणा भी मिलनी चाहिये .....उसी समय एक सेठ जी ने सौ रुपये की गड्डी बाबा के सामने रख दी । बाबा सेठ को ही बोले ...तुम बाँट दो।
लोग आरहे हैं ...सब मुस्कुराते हुए आते हैं ....सबके मुख पर श्रीहित चौरासी जी की चर्चा है । बैठ गये हैं सब लोग ....आज से कुछ राधा बाग से बाहर बैठेंगे ...क्यों की स्थान अब नही बचा है । सारंगी वीणा बाँसुरी पखावज में गौरांगी अब गायन करना आरम्भ कर देती है ...आज सातवें पद का गायन होगा और उसी पर चर्चा होगी ।
गौरांगी के मधुर कण्ठ के साथ कई कण्ठ गा उठे थे - श्रीहित चौरासी जी के सातवें पद को ।
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आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किशोर नवीन किशोरी ।
अति अनुपम अनुराग परस्पर , सुनि अभूत भूतल पर जोरी ।।
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर , नव कर्पूर पराग न थोरी ।
कोमल किशलय सैंन सुपेशल , तापर श्याम निवेसित गोरी ।।
मिथुन हास-परिहास परायन , पीक कपोल कमल पर झोरी ।
गौर श्याम भुज कलह मनोहर , नीवी बंधन मोचत डोरी ।।
हरि उर मुकुर विलोकि अपनपौ , विभ्रम विकल मान जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत , पिय प्रतिबिम्ब जनाइ निहोरि ।।
नेति नेति वचनामृत सुनि सुनि , ललितादिक देखत दुरी चोरी । श्री हित हरिवंश करत कर धूनन , प्रणय कोप मालावलि तोरी ।7 ।
इस पद में अद्भुत लीला है निकुँज की ...गौरांगी का प्रिय पद है ये ..इसने अतिउत्साह से इसका गायन किया है ।
अब बाबा इस पद का ध्यान बतायेंगे ....सब लोगों ने वाणी जी रख दी ...और नेत्र बन्द कर लिये ।
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।। ध्यान ।।
लता मन्दिर में ललिता सखी के साथ श्रीकिशोरी जी विराजी हैं ...उन्हें कुछ भान नही है ...पर बाहर जब अपने प्रियतम की आवाज सुनी तो वो तुरन्त उठ गयीं ...वो लता भवन से बाहर आकर देखने लगीं ...उस समय उनकी शोभा देखते ही बन रही थी ...स्वर्णमिश्रित गौर मुख कितना दमक रहा था उनका ....उनकी अलकें झूल रहीं थीं उनके गोरे कपोल में ....और उनकी वो नीली साड़ी का पल्लू श्रीवन की अवनी का स्पर्श कर रही थी ....उन्हें भान नही था....वो अपने प्यारे से अब मिलना चाहती हैं...कितना समय हो गया इनको मिले हुए ! ...यहाँ तो क्षण भी युग के समान लगता है ...वो बाहर आयीं ...तो देखा - हित सखी के साथ बतिया रहें हैं श्याम सुन्दर ...हित सखी उन्हें छेड़ रही है । श्याम सुन्दर को देखते ही ये दौड़ पड़ीं ....हित सखी ने देखा ...प्रिया दौड़ते हुए आरही हैं ...तो हित सखी वहाँ से हट गयी ।
दोनों युगल गले मिले ....प्रगाढ़ आलिंगन हुआ दोनों में । सब सखियां देख रही हैं ...वो अपने नयनों को धन्य बना रही हैं ...धीरे धीरे दोनों अलग हुए ...फिर सामने एक दिव्य कुँज है ....इसी कुँज में अपनी प्रिया को लेकर श्याम सुन्दर प्रवेश कर गये । पीछे से सखियां आयीं ....चलती हुयी लता छिद्रों के पास पहुँचीं....फिर वहाँ से ये सब देखने लगीं ....वो कुँज दिव्य था ...नाना प्रकार के पुष्प उसमें खिले थे ....कुँज की धरती स्फटिक मणि की थी ....कुँज में झालर झूल रहे थे ...कोई झालर तो कंचन मणि का था ...कोई झालर मोतियों के थे ...कोई पन्ना के थे ....एक मोतियों के झालर को श्याम सुन्दर पकड़ते हैं तो वो टूट जाते हैं और बिखर पड़ते हैं ...उस समय जो शोभा बनती है अवनी की ....वो अकथनीय है । भीतर ही एक सुन्दर फूलों की फुलबारी है ...उसमें सारे फूल हैं ....उन्हीं फूलों से सुगन्ध की वयार चल पड़ी है । मतवाले भ्रमर कहाँ पीछे रहने वाले थे ...वो गुन गुन करके , गायन करने लगे ....उनका साथ देने के लिए कोयली भी कुहुँ कुहुँ करने लगी .....मोर नृत्य कर उठे ....तभी युगल ने सामने देखा ...कमल दल से किसी ने आसन बना दिया है ....सज्जा उस आसन की देखने जैसी है ...युगल वहीं गये और जाकर बैठ गये .....बैठते ही इन दोनों ने एक दूसरे को देखना प्रारम्भ किया .....बस फिर क्या था .......
सखियाँ लता छिद्रों से देख रही हैं ......और हित सखी उसी का वर्णन कर रही हैं .........
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सखी ! आज प्यारी और प्यारे दोनों नवल निकुँज में खेल रहे हैं ....तो कुँज भी नवल है ....और खेल भी नवल है ....अजी ! खेलने वाले किशोर भी नवल हैं और खिलाने वाली किशोरी भी नवल है। देखो तो कितने सुन्दर लग रहे हैं दोनों खेलते हुए ....खेल रहे हैं ....अनुराग का खेल खेल रहे हैं । अनुराग भरा हुआ है दोनों में ...तो वो अनुपम है ...उसकी कोई उपमा नही है । और इसका दर्शन केवल श्रीवृन्दावन में ही होता है ..जहां अनुराग उन्मत्त होकर नाच उठता है ...सखी ! ऐसी भूमि कोई दूसरी है नही , इस भूतल पर ही नही है । हंसती है सखी और कहती है ...क्या कहूँ ! न श्रीवृन्दावन जैसी भूमि है कोई , न ऐसी जोरी है कोई ...ये दोनों हैं अभूत हैं ...हुए नही हैं । हित सखी देखकर आनंदित है । वो सबको गदगद होकर बता रही हैं ...सब सुन भी रही हैं और देख भी रही हैं ।
जिस पर ये विराजे हैं ना ...वो कोमल कोमल कमल दल से तैयार किया हुआ आसन है ...सखी ! देख तो कितने शोभायमान लग रहे हैं दोनों । इस कमल दल के आसन में बैठकर इनकी शोभा भी अद्वितीय लग रही है ।
ये कहते हुए हित सखी हंस दी ...अन्य सखियों ने पूछा ...आप हंस क्यों रही हो ? हित सखी बोली - इनके कपोल में देखो ...लाल लाल चिन्ह से बन गए हैं ना ...ये पान के पीक की लाली है । ये लाली कितनी अच्छी लग रही है ।
सखी ! देखो, अब दोनों हंस रहे हैं ...एक दूसरे को हंसा रहे हैं ...और हँसाते हुए एक दूसरे को छेड़ भी रहे हैं ...इस छेड़ने के कारण रस उन्मत्त हो गया है ....रति कलह मच गया है ...दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं ...जब श्याम सुन्दर अपना हाथ छुड़ाते हैं तब श्याम सुन्दर हंस पड़ते हैं ...जब प्रिया जू अपना हाथ छुड़ाती हैं तो वो खिलखिला पड़ती हैं ..इनके खिलखिलाने से निकुँज खिलखिला रहा है । श्याम सुन्दर बार बार कटि बन्धन खोलने का प्रयास करते हैं ...तो श्रीराधा जू उनका हाथ हटा देती हैं ...और रोष प्रकट करने का स्वाँग दिखाती हैं ।
श्याम सुन्दर के हृदय में स्फटिक की माला है ....उसमें श्रीराधा रानी को अपनी ही छवि दिखाई देती है ....बस फिर क्या था अपनी ही छवि देखकर ही श्रीराधा मानिनी हो उठती हैं....उन्हें मान हो गया । श्याम सुन्दर ने देखा ये क्या ! अभी तक तो सब ठीक था फिर एकाएक ये क्या हुआ ? प्रिया को मनाने लगे ...पर ये तो रूठ गयीं हैं ...अब श्याम सुन्दर परेशान हो उठे ....वो अपनी प्रिया के चिबुक को छूते हुए बोले ....कारण तो बताओ ? मुझ से अपराध क्या हुआ ? श्रीराधा जी बोलीं - तुम्हारे वक्षस्थल में ये सौत कौन है ? झूठ कहते थे तुम कि मैं ही तुम्हारे हृदय में हूँ ...अब बताओ , ये कौन है ? ये सुनते ही श्याम सुन्दर मुस्कुराए ....और बड़े प्रेम से अपने हृदय से लगाकर प्यारी को कहा ...आप ही हो ...आपने अपने आपको नही पहचाना ? किन्तु श्रीजी कहती हैं....नहीं , नहीं ...ये मैं नही हूँ । श्याम सुन्दर बारम्बार समझाते हैं पर श्रीराधिका जी नही मानतीं अब उनका कोप बढ़ता जा रहा है .....और इसी रोष में वो उस स्फटिक की माला तोड़ देती हैं .....माला के टूटते ही श्रीराधिका को स्व प्रतिबिम्ब दिखाई देना बन्द हो जाता है ....वो बिखरे फटिक को देखती हैं तब वो समझ जाती हैं ...और ,और मन्द मुस्कुराते हुए अपने प्यारे को हृदय से लगा लेती हैं ।
ये प्रेम की अद्भुत लीला है ......इतना कहकर पागल बाबा मौन हो गये थे ।
गौरांगी ने अन्तिम में श्रीहित चौरासी जी का सांतवा पद एक बार फिर गाया ।
“आजु निकुँज मंजु में खेलते , नवल किशोर नवीन किशोरी”
आगे की चर्चा कल -
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हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( जब हितसखी ने कहा -“अति ही अरुण तेरे नैंन री” )
26, 5, 2023
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गतांक से आगे -
कौन है वो जो इस “अद्वैत”को भी द्वैत बनाने में तुला है ?
कौन है वो जो इस आत्माराम में भी दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा कर रहा है ?
कौन है वो जो इस पूर्णानन्द को भी अपूर्ण बनाने में लगा है ?
जी , इसका एक ही उत्तर है .....”हित सखी”।
साधकों ! परमात्मा की दो प्रकार की सृष्टि है ......एक जीवार्थ और एक आत्मार्थ ।
जीवार्थ - यानि जो जीव हैं उनके लिए परमात्मा की सृष्टि ...और दूसरी है आत्मार्थ ......यानि अपने लिए सृष्टि । श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं ...वो अपने लिए , अपने आनन्द के लिए सृष्टि करते हैं तो सबसे प्रथम “श्रीवृन्दावन” को प्रकट करते हैं ...भई ! आपको रस लेना है ...उसी रस को रास बनाना है तो स्थान तो चाहिये ...इसलिये वो प्रथम स्थान की सृष्टि करते हैं .....फिर उसके बाद वो अपनी आत्मा को प्रकट करते हैं .....वो श्रीराधा के रूप में होती हैं ....दोनों मिलते हैं ...आनन्द और रस का मिलन हुआ , सुख बरसा , पर जो सोचा था वो नही हुआ । प्रेम सिन्धु में जो तरंगे नित नवीन उठती रहें ....ये कैसे हो ?
रास , ये एक में तो असम्भव ही है ....दो में मिलन हो सकता है ....किन्तु रास तो दो में भी सम्भव नही है ...उसके लिए मण्डली चाहिये ...तो क्या किया जाए ! तब ब्रह्म ने अपने ही भीतर विराजमान “हित तत्व” को आकार दिया ...उन्हें प्रकट किया ।
“हित” का अर्थ प्रेम होता है ....हित - साधारण शब्दों में “भला” के लिए प्रयोग किया जाता है ....दूसरे की भलाई की भावना जो है - उसे “हित” कहते हैं ।
अब ये हिततत्व ऐसा प्रेमतत्व था ...जो सर्वभावेन अपने प्रिय के ही विषय में , उनके सुख में , उनके आनन्द की व्यवस्था में ही लगा रहता था । इनके बिना सम्भव ही नही है कि वो ब्रह्म और उनकी आल्हादिनी अपनी लीला को प्रस्तुत कर पाते । इसलिये ब्रह्म ने अपने रस को बढ़ाने के लिए अपने से ही इस हिततत्व को प्रकट किया था । और यही हिततत्व “हित सखी” के रूप में प्रकट हो गयीं । ये ब्रह्म और आल्हादिनी की प्रेरयिता हैं ....इन पूर्णानन्द में भी आकर्षण प्रकट करने वाली कोई हैं तो वो हैं - हित सखी । जो नाना रंगों को , जो नाना रसों को दिखाकर प्रेरित करती हैं कि ...मिलो , प्रेरित करती हैं कि विलसो...प्रेरित करती हैं कि तुम पूर्ण कहाँ हो ? उस पूर्णानन्द को विस्मृति करा देती हैं कि तुम अपूर्ण हो ...ये हिततत्व का चमत्कार है ।
प्रेम में अपने आपको भूलना ये भी आवश्यक है । अपनी महिमा को अगर तुम समझते रहे कि मैं ये हूँ , कि मैं वो हूँ ...तो प्रेम का पूर्ण होना सम्भव नही है ...प्रेम में तो स्व माहात्म्य की विस्मृति आवश्यक है । ये हितसखी दोनों को ही दोनों के स्वरूप को भुलवा देती है ...श्याम सुन्दर भूल जाते हैं कि मैं परब्रह्म हूँ और श्रीराधा भूल जाती हैं कि मैं सर्वोच्च सत्ता की परम शक्ति हूँ ...ये विस्मृति प्रेम राज्य में आवश्यक है ...ये विस्मृति नही होगी तो प्रेम का पुष्प खिलेगा नही । इसलिये इन युगल के विहार में “हित सखी” की प्रधानता है । ये विलास , रास , महारास ये सब हित सखी का ही सुन्दर प्रबन्ध है ....चलिये अब आनन्द लीजिये उस प्रेमराज्य का ...जहां श्याम सुन्दर हैं उनकी प्रिया हैं और मध्य में हित सखी है ...जो दोनों को मिलाना भी चाहती है और नही भी । ये अद्भुत रस केलि है । और स्मरण रहे - “यही सनातन है” ।
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आज पागलबाबा बहुत हंस रहे हैं .... ये हंसते हैं तो बालकों की तरह हंसते हैं ...खिलखिलाते हुये हंसते हैं । इनके साथ राधा बाग भी हंस रहा है ....गौरांगी मेरी ओर देखती है ...वो भी हंस रही थी ।
आज बड़े हंस रहे हैं बाबा ,आप तो ? शाश्वत गम्भीर है इसलिये ये प्रश्न भी उसी ने किया ।
बाबा के हंसते हुए अब अश्रु बहने लगे थे ...बाबा सामान्य बात या संसारी बात में हंसते नही हैं ...इनकी स्थिति बहुत ऊँची है ...पर ये अपनी स्थिति किसी को दिखाते भी तो नही है ।
“डर गये ...डर गये”.....बाबा स्वयं ही बोल उठे ।
कौन डरा ? क्यों डरा ? गौरांगी ने प्रश्न किया ।
“लालन डर गये”.....बाबा की आँखें मत्त हैं ।
लालन क्यों डर गये ? अब ये मेरा प्रश्न था ।
लालन दवे पाँव आरहे थे श्रीजी के पास ...श्रीजी पर्यंक में लेटी थीं ....श्रीजी को डराने के लिए आरहे थे ....किन्तु जब उन्होंने श्रीराधा रानी की चोटी पर्यंक से नीचे लटकी हुई देखी ....तो साँप समझ कर डर गये ...और भाग गये ...बाहर जाकर उन्होंने दूसरी साँस ली । ये कहते हुए पागल बाबा फिर हंस रहे थे ।
ओह ! तो ये लीला राज्य में थे .....और इनके सामने ये लीला आज प्रकट हुयी थी .....
हम बाबा को निहार रहे थे .....गदगद भाव से उन्हें देख रहे थे ...बाबा समझ गये कि अब ये लोग मुझे महिमामण्डित करेंगे ...इनके मन में “मैं” आजाऊँगा । ये सोचकर बाबा तुरन्त गम्भीर हो गये ...बोले ...श्रीहित चौरासी जी कहाँ हैं ? आज तो आठवाँ पद है ...गाओ ।
शाश्वत ने कहा ....बाबा ! अभी आधा घण्टा और है ...लोग आजाएँ ।
बाबा बोले ...लोग आते रहेंगे ...हम तो श्रीजी को सुना रहे हैं ना ? ले आओ वाणी जी और गान करो .....बाबा की आज्ञा , तुरन्त वाणी जी लाई गयी ....और आठवें पद का गायन गौरांगी ने जैसे ही आरम्भ किया ....रसिक जन दौड़े दौड़े आने लगे .....और राधा बाग में श्रीहित चौरासी जी का ये पद गूंज उठा । आठवाँ पद । shri ji ashok academy <shrijiashokacademy@gmail.com> | Sun, Jun 11, 2023 at 6:08 PM | To: thebrajbhav@gmail.com | आज के विचार
!! राधाबाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( भूमिका )
16, 5, 2023
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बात आज की नही है करीब पाँच वर्ष पूर्व की है ...मेरे ऊपर श्रीजी की विशेष कृपा रही कि मुझे नारद भक्ति सूत्र और श्रीहित चौरासी के श्रवण का अवसर मिला ...वो भी पागल बाबा जैसे सिद्ध पुरुष के द्वारा । मुझे मित्र भी मिले तो शाश्वत और गौरांगी जैसे ।
हरि जी ! बरसाने चलोगे ? इन दिनों शाश्वत बरसाने ही वास कर रहा है ।
कल सुबह ही सुबह गौरांगी का फोन आया ....उसकी बात सुनकर मैं कोई उत्तर देता उससे पहले ही वो बोल पड़ी .....वैसे भी श्रीविष्णुप्रिया जी का पावन चरित्र आपने पूर्ण किया है ....इसके उपलक्ष्य में ही बरसाने चलो ...अब हरि जी ! कोई बहाना तो बनाना मत । मैं हाँ बोल दिया । पर गौरांगी के फोन रखने से पहले मैंने कहा - कल से क्या लिखूँगा वो विषय अभी तक तैयार नही है ।
हरि जी ! आप कब से विषय तैयार करने लगे ? आप तो कहते हो सब श्रीजी तैयार कर देती हैं मैं तो मात्र उसे उतार देता हूँ ...इस बात पर मैं चुप हो गया । और चलने का समय हम लोगों ने शाम के चार बजे रखा ।
मुझे कुछ पता था नही ....शाश्वत हमारी प्रतीक्षा में ही बैठा था “श्रीराधा बाग” में ।
( कभी बरसाना जायें तो इस स्थान का दर्शन अवश्य करें , यहाँ श्रीजी रात्रि में विहार करने आती हैं ...आपको अनुभव हो जाएगा )
श्रीजी के दर्शन पश्चात् हम लोग श्रीराधा बाग में गये ......वहीं शाश्वत बैठा हुआ था ....मुझ से गले मिला .....पूरा फक्कड़ हो गया है ...उसे देखकर मुझे रोमांच हुआ । कुछ देर हम बैठे रहे ध्यान करते रहे .....फिर गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद सुनाया ......
“जोई जोई प्यारो करै , सोई मोहिं भावै” ।
अद्भुत समय था वो ....स्थान यही था ...श्रीहित चौरासी का गायन गौरांगी करती थी फिर पागल बाबा उसका भाव समझाते थे ...नही नही समझाते नही थे अनुभव करा देते थे ....उस रस लोक में हमें पहुँचा देते थे ...बात पाँच वर्ष पूर्व की है ...मैं उन दिनों श्रीवृन्दावन से बरसाने आता जाता था और बाबा वहीं श्रीराधा बाग में हीं विराजे थे |
दूसरे ही दिन शाश्वत ने मुझ से कहा ....क्या हरि जी ! आप कल से बाबा के इस सत्संग की रिकोर्डिंग करवा दोगे ? मैंने कहा ...मेरे पास एक रिकोर्डर है ..उसमें मात्र आवाज आजाएगी । शाश्वत ने कहा ....चलेगा । दूसरे दिन मैं लेकर गया ...और बाबा के उस रस पूर्ण प्रवचन की रिकोर्डिंग आरम्भ कर दी । कुँज हैं वहाँ ....लता वृक्षों से आच्छादित वाटिका है वो ...कुआँ है वहाँ , उसका जल अमृत के समान है ...वो हम पीते थे ..उस जल को लेकर भी आते थे ....शाश्वत तो स्नान करता था ....बाबा उसे देखकर हंसते थे ।
हरि जी ! आप श्रीहित चौरासी पर क्यों नही लिखते ?
गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद पूरा कर लिया था ...उसके बाद उसने ये बात मुझ से कही थी ।
रिकोर्डिग तो होगी ना बाबा की ? शाश्वत ने ये और पूछ लिया ।
हाँ , होगी तो .....बस , फिर तो हरि जी ! आप लिखिये ....गौरांगी आनंदित हो गयी ।
मैं कुछ नही बोला .....क्यों की श्रीहित चौरासी पर लिखना कोई साधारण बात तो है नही.....श्रीजी की कृपा बिना ये सम्भव ही नही है । तभी एक बरसाने के पण्डा भी वहाँ आगये ...और उन्होंने पीछे से आकर मुझे श्रीजी की प्रसादी नीली चुनरी ओढ़ा दी ।
लो , अब तो कृपा भी हो गयी .....शाश्वत ने कहा । “इनपे तो श्रीजी की पूरी कृपा है”.....उन बरसाने के पण्डा ने ये और कह दिया । मैं अब तनाव में था .....मुझे इन दोनों ने तनाव दे दिया था .....यार ! श्रीहित चौरासी पर लिखना साधारण बात है क्या ? किसने कहा साधारण बात है ....पर हरि जी ! आपके ऊपर श्रीजी की कृपा है .....वही लिखवायेंगी । गौरांगी ने ये सब कहा ....शाश्वत भी खूब बोला .....पर मन में तो तनाव था ही .....ओहो ! हरि ! तू लिखेगा, श्रीहित चौरासी पर ?
मैं अब श्रीधाम वृन्दावन आगया था ।
मेरे पास बस श्रीहित चौरासी के पद हैं ...और पागल बाबा की रिकोर्डिंग । मैं सुनने लगा ...दस मिनट ही हुये होंगे कि आह ! सुनते सुनते मैं सहचरी भाव से भावित हो उस दिव्य वृन्दावन में प्रवेश कर गया था..........
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यन्त्री यहाँ सखियाँ हैं ...यन्त्र श्यामाश्याम हैं ...ये प्रेम की अद्भुत लीला है ....अन्य स्थानों में श्रीकृष्ण यन्त्री हैं और उनके जीव यन्त्र हैं ...पर यहाँ ऐसा नही है ...ये प्रेम है ..ये प्रेम की भूमि है ...इस प्रेम की भूमि श्रीवृन्दावन में प्रिया प्रियतम यन्त्र के समान बन गये हैं और इनकी संचालिका सखियाँ हैं ....वो जहां कहतीं हैं ये दोनों युगल वर वहीं चल देते हैं । दोनों युगल की सन्धि यही सखियाँ हैं .....प्रेम की विलक्षण रीति अगर देखनी है तो आओ श्रीवृन्दावन । देखो यहाँ ....श्रीराधा तो एक अद्भुत रस तत्व हैं जिनमें इतनी सामर्थ्य है कि ब्रह्म को अपने एक संकेत में नचा देती हैं ...वो ब्रह्म , वो परब्रह्म सखियों से प्रार्थना करता हुआ पाया जाता है कि - हे सखियों ! कृपा करके श्रीजी की चरण सेवा मुझ दास को भी मिले । पर सखियाँ अपना सुभाग श्याम सुन्दर को क्यों दें ? वो हंसते हुए श्याम सुन्दर के कोमल कपोल में हल्की प्रेम भरी चपत लगाते हुए “ना” कहकर चल देती हैं ।
प्रेम में पूज्य पूजक भाव का अभाव दिखाई देता है ....प्रेम में तो निरन्तर निकट रहने का सम भाव है ....अब जहां निरन्तर रहा जाता है वहाँ पूज्य पूजक भाव सम्भव नही है । सखियाँ वह तत्व हैं जो उस युग्म तत्त्व के निकट सदैव हैं ...सनातन हैं । इस प्रेम में संकोच ,लज्जा और भय भी प्रेम रूप ही बनकर दिव्य शोभा पा जाते हैं । भय नही है सखियों को ....इसलिए तो वह श्याम सुन्दर को जब श्रीराधा रानी के पास आते हुए देखती हैं तो कह देतीं हैं ......
किं रे धूर्त प्रवर निकटं यासि न प्राण सख्या ।( श्रीराधा सुधा निधि )
अर्थात् - क्यों रे धूर्त ! देखो , है किसी में हिम्मत , जो परब्रह्म को धूर्त कह दे ? पर ये श्रीवृन्दावन की सखियाँ हैं ....जो कहती हैं ओ धूर्त ! और धूर्त ही नही ...धूर्त प्रवर ! धूर्तों में भी श्रेष्ठ ! तू हमारी प्राण प्यारी श्रीराधा जू के निकट क्यों आ रहा है ? हाँ हम जानती हैं तू हमारी सखी श्रीराधा के वक्षस्थल को छूना चाहता है ...मत छूना । अगर छू लिया तो फिर तेरी ईश्वरता समाप्त हो जाएगी । तभी श्याम सुन्दर उस सखी के चरणों में गिर जाते हैं ....सखी ! मुझे इस ईश्वरता से मुक्ति दिला । और सखी ये सुनते ही तुरन्त आगे बढ़ती है और श्रीराधा रानी के चरण रज को लेकर श्याम सुन्दर के माथे पर रगड़ देती है ....बस फिर क्या था ...श्याम सुन्दर विशुद्ध प्रेम रस में डूब जाते हैं और उन्हें ईश्वरत्व से मुक्ति मिल जाती है । ओह ! अद्भुत प्रेम रस की बाढ़ आगई है इस श्रीवन में तो ।
ये है श्रीवृन्दावन रस .....इसमें श्रीराधा हैं , उनके प्रियतम श्याम सुन्दर हैं , सखियाँ हैं ...और इनका ये विलास चलता है ....चलता ही जाता है ।
ये प्रेम नगरी है ....यहाँ की रीत ही अलग है .....संसार जिसे धर्म मानता है वो यहाँ अधर्म है ...अपने से बड़े को “तू” कहना संसार में अधर्म है ...किन्तु इस प्रेम नगरी के संविधान में “आप” कहना अधर्म है । हंसना रोना है यहाँ, और रोना हंसना है इस राज्य में । मान करना ये आवश्यक है यहाँ ...रूठना मनाना यही रीत है यहाँ की । अधरों का रस अमृत है इस नगरी का । गाली देना प्रशंसा है और प्रशंसा गाली है .....क्या कहोगे ? कुछ नही , बस अनुभव करो । डूब जाओ । ये प्रेम है , ये प्रेम का पन्थ है ...यहाँ संभल कर चलना पड़ता है ।
“चरन धरत प्यारी जहाँ , लाल धरत तहँ नैंन”
ये विलक्षणता और जगह नही मिलेगी ।
मेरी प्यारी को कंटक न चुभें इसलिये लाल जू अपने पलकों की बुहारी बनाकर उस कुँज को बुहार डालते हैं ।
( इसके बाद पागल बाबा मौन हो जाते हैं और “राधा राधा” की मधुर ध्वनि सुनाई देती है जो गौरांगी गा रही थी )
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ये सब लिखते हुए मन में डर भी लग रहा था कि ....इस उच्चतम प्रेम रस को मुझे लिखना चाहिए या नही ? मन में आया कि वैसे भी लोग आज कल रासलीला को ही नही पचा पाते ...फिर ये तो दिव्य श्रीवृन्दावन की नित्य लीला रस है ....इसको लोगों ने नही समझा और गलत अर्थ लगा लिया तो ? मन में ये भी आया ...मैं लिख दूँ ..कि “जो साधक नही हैं वो इसे न पढ़ें” फिर मन में आया कि साधक तो सभी अपने को मानते हैं ....तब मुझे श्रीहित चौरासी का ये पद स्मरण आया .........
( जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसित श्यामा , कीरति विसद घनी । गावत श्रवननि सुनत सुखाकर , विस्व दुरित दवनी ।
आहा ! श्री हित हरिवंश जू कहते हैं - मेरे द्वारा गाये हुए श्यामा जू की कीर्ति जो पवित्र है और इससे भी अत्यधिक है ...इसका जो गान करेगा जो सुनेगा उसे परम सुख की प्राप्ति होगी ..और जो इन ( चौरासी ) के पद को जन जन में फैलायेगा उससे विश्व का पाप ताप समाप्त हो जाएगा ।
ये स्मरण में आते ही मुझे आनन्द आगया था ....कि इससे मंगल ही होगा ...व्यक्तिगत सुख की प्राप्ति होगी और विश्व का पाप ताप कम होगा । है ना प्रेम में ताक़त ? तो मेरे साधकों ! ये मैंने “राधाबाग में-श्रीहित चौरासी” आज से प्रारम्भ किया है ....दो तीन दिन और भूमिका में समय लूँगा ....फिर श्रीहित चौरासी के एक एक पद और उसकी व्याख्या । बड़ा रस आयेगा ....आप अवश्य पढ़िएगा ....इससे आपका मंगल ही मंगल होगा ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि
श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधाबाग में - “श्रीहितचौरासी” !!
( भूमिका - 2 )
17, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“राधा बाग” जहां दर्शन होते हैं ...”एक प्राण दो देह” के ।
पागल बाबा ने अपने नेत्र खोल लिये अब । वो ध्यान में थे , वो सखी भाव से “नित्य श्रीवृन्दावन”में श्यामा श्याम की सेवा में लीन थे । कोयल की कुँहु से राधा बाग गूंज रहा था ...अनेक मोर पंख फैलाए हुए थे बस नाचने की उनकी तैयारी ही थी ....क्यों की श्याम घन नभ में छा गये थे ...गर्जने लगे थे मेघ ....चमक ने लगी थी चंचला ।
हाँ , मैं कुछ अस्थिर था ....किन्तु बाबा गौरांगी और शाश्वत स्थिर थे ....”भींग जायेंगे”...आनन्द आयेगा हरि जी ! गौरांगी चहकते हुए बोली थी । मुझे देखकर पागल बाबा गम्भीर ही बने रहे । मैंने सिर झुका लिया ...आज तो पूरे ही भीगेंगे । मैं अब तैयार था ....फिर भी ऊपर देखा वृक्ष लता घने हैं , तमाल का कुँज है ...इसमें से बूँदे कम ही पड़ेंगी गौरांगी ?
मेरी बात सुनकर अब पागल बाबा हंसे .....खूब हंसे ।
“रस मार्ग” क्या भक्ति मार्ग से अलग मार्ग है ?
अब शाश्वत ने ये प्रश्न किया था बाबा से ।
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“वह रस है” ( रसो वै स:) यह वेद वाक्य है । पागल बाबा कहना प्रारम्भ करते हैं ।
भक्ति मार्ग का जो सर्वोच्च शिखर है वो “रस मार्ग” है । भक्ति मार्ग से अलग नही है ये रसोपासना । किन्तु ये उसकी ऊँचाई है , ये भक्ति की ऊँचाई है ।
अब सुनो - भागवत में नवधा भक्ति का वर्णन है ....तो शुरुआत तो वहीं से होगी ...रस उपासकों को आरम्भ भक्ति से ही करना होगा । और उसका क्रम है ...श्रवण , कीर्तन , स्मरण , चरण सेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन । भक्ति ये है ...और भक्ति मार्ग “आत्म निवेदन” में जाकर विश्राम ले लेती है .....किन्तु समझने की बात ये है कि “रस मार्ग आत्मनिवेदन से प्रारम्भ होता है”......ये अद्भुत बात है इसकी । हमारी दिक्कत क्या है ....हम सीधे रसोपासना की बात करते हैं ....नही , पहले हमें नवधा भक्ति को स्वीकार करना होगा । और अपने आपको सौंप देना होगा । अब कुछ नही ....तू जो करे । तू जो कराये ।
( पागल बाबा यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं )
गौरांगी ! जिसकी चर्चा हम प्रेम भूमि में बैठकर करने वाले हैं ...”श्रीहित चौरासी” ये रसोपासना का मुख्य ग्रन्थ है । इसलिये इसकी शुरुआत कहाँ से होती बताओ ? गौरांगी बताती है ...”जोई जोई प्यारो करै सोई मोहि भावै”। बस ये प्रारम्भ है रसोपासना का । पूर्ण समर्पण हो गया , हम पूरे तुम्हारे हो गये , देह , मन , बुद्धि , और चित्त अहंकार ....सब कुछ तुम्हारा ।
देखो ! भक्ति प्रारम्भिक अवस्था है .....किन्तु ये रस मार्ग । रस यानि प्रेम ...ये विलक्षण मार्ग है .....ये भक्ति का फल है .....
भक्ति में द्वैत रहता है .....भक्त है तो भगवान है ....अब भगवान है तो उसमें ऐश्वर्य है ....और जहां ऐश्वर्य है वहाँ पूर्ण प्रेम का प्रकाश सम्भव नही है ...छ दिन के श्रीकृष्ण पूतना जैसी राक्षसी का संहार कर देते हैं । छ दिन के बालकृष्ण ने ....छ दिन के ने ? प्रश्न सहज उठता है तो समाधान इसका ये होता है कि - “वो भगवान हैं”। अब भगवान हैं तो दूरी है ....वहाँ प्रार्थना तो हो सकती है किन्तु प्रेम नही हो सकता । प्रेम के लिए अपनत्व चाहिये ....अपनापन चाहिये ....तो रसोपासना अपनत्व की साधना है ....इसमें श्यामसुन्दर भगवान नहीं हैं ...अपने हैं ...जैसे अपना कोई “प्रिय”हो । अब “प्रिय” भी इतना “प्रिय” कि उसे जो “प्रिय” लगे वो हमें भी “प्रिय” लगे ।
प्रेम की गति अटपटी है .......पागल बाबा आनंदित हो उठते हैं ।
प्रेम दो चाहता है ....एक प्रेमी और एक प्रियतम । दो बिना प्रेम बन ही नही सकता । प्रेम दो तैयार करता है ....फिर जब दो हो जाते हैं ....तो ये प्रेम तत्व उसके पीछे तब तक पड़ा रहता है जब तक दोनों को एक न बना दे । ( शाश्वत ये सुनते ही “वाह” कह उठता है )
प्रेम आत्मा की प्यास है .....प्रेम सब चाहते हैं .....सकल जहां , जीव जन्तु समस्त चराचर प्रेम को ही चाहते हैं ....प्रेम ही समस्त सृष्टि की प्यास है .....इसलिये जहां जिसको प्रेम मिलता है ...वो सब कुछ छोड़कर भाग जाता है ....है ना ? लड़की लड़के सब भाग जाते हैं ....बाबा हंसते हैं - तुम लाख समझाओ ...शास्त्र का उदाहरण दो ...माता पिता भगवान हैं उनकी बात मानों ...तुम समझाओ ...तुम समझाते हो ....नर्क स्वर्ग का डर दिखाते हो ...पर ये नही मानते । प्रेम के पीछे भाग जाते हैं । हाँ , उन्हें प्रेम का आभास मात्र मिलता है वहाँ ....प्रेम नही ...किन्तु आभास ही सही ....है तो प्रेम का ही .....इसलिये वो भाग जाते हैं ।
“प्रीति न काहूँ की कानि विचारे”
प्रेम कहाँ कुल ख़ानदान का विचार करती है ...विचार ही करे तो प्रेम ही क्या हुआ ?
( बाबा कुछ देर यहाँ एक मोर को देखते हैं जो अपने पंखों को फैला रहा था )
अच्छा सुनो , भक्ति के साधकों को “भक्त” कहते हैं ...किन्तु रस मार्ग के साधक को “रसिक” कहा जाता है ...भक्ति में जीव अंश ईश्वर अंशी ...ये द्वैत है । ये रहता है । किन्तु रसोपासक में सारे भेद मिट जाते हैं ....वहाँ केवल रस है...( बाबा मुस्कुराते हैं ) वहाँ सब रस है ...श्रीवृन्दावन रस है ...उस प्रेम वन के राजा श्यामसुन्दर रस हैं , वहाँ की महारानी श्रीराधा जू रस हैं ..सखियाँ रस हैं ....लता पत्र रस हैं ...यमुना में रस ही बह रहा है । इस वन के पक्षी रस हैं .....ये ताक़त रस की है ...जो सबको रस में ही डुबोकर मानता है ...और सबको रसमय बनाकर ही मानता है । अद्भुत है ये सब । अरे , वो रस जब छलकता है तो चारों ओर उसी का साम्राज्य हो जाता है । रस ही रस ...रसमय हो जाता है सब । इसकी जो उपासना करता है ...वो भी रस ही बन जाता है ....जैसे - चीनी को पानी में डाला ....अब चीनी कहाँ हैं ? वो तो शर्बत हो गया ना ! न चीनी है न पानी रह जाता है ...वो तो शर्बत हो गया । ऐसे इस प्रेम के मार्ग में धीरे धीरे जीव का जीवत्व समाप्त हो जाता है और ईश्वर का ईश्वरत्व भी समाप्त हो जाता है ....दोनों एक हो जाते हैं ....अपना अपना नाम अपना रूप सब खो बैठते हैं ।
अर्थात् - जब ईश्वर को अपने ईश्वरत्व की विस्मृति हो जाये और जीव , अपने जीव भाव को भूल जाये ....तब समझना ये प्रेम राज्य है । और ये प्रेम राज्य में ही सम्भव है ।
जीव अरु ब्रह्म ऐसैं मिलैं , जैसे मिश्री तोय । रस अरु रसिक तबै भलैं, नाम रूप सब खोय ।।
ईश्वर की ईश्वरता खो गयी ....बाबा कहते हैं - देखो इस प्रेमवन श्रीवृन्दावन में ......
यमुना जी बह रही हैं ...शीतल सुरभित पवन चल रहे हैं ....चारों ओर फूलों की फुलवारी है ....वहीं पर पद्मासन में विराजे हैं श्याम सुन्दर । अरे ! ये क्या कर रहे हैं , पास जाकर दर्शन किया तो चौंक गये ....अरे ये तो महायोगियों की तरह ध्यानस्थ हैं ...नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं ...पीताम्बरी अश्रुओं से भींग गयी है ....और निकट जाकर देखा तो ...उनके अरुण अधर हिल रहे हैं ...वो “राधा राधा राधा “ नाम का जाप कर रहे हैं ।
( इसके बाद राधा बाग में वर्षा शुरू हो गयी थी .....बाबा तो देहातीत हो गये थे ....गौरांगी ने गायन प्रारम्भ कर दिया था , शाश्वत ध्यान में चला गया था , मैं नाच रहा था ....वर्षा में भीगता हुआ , मेरा साथ उन राधा बाग के मोरों ने दिया .....सब “रस” था वहाँ , सब “रसिक” थे ।)
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍🏼श्री जी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( भूमिका - 3 )
18, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
उस दिव्य वृन्दावन में नायक कोई नही है.....न नायिका है.....कोई नही है ....फिर ये लीला कौन कर रहा है ? फिर ये श्रीकृष्ण कौन हैं ? फिर ये श्रीराधा रानी कौन हैं ? अरे भाई ! कल कह तो दिया था ....”रस” ही सब कर रहा है .....रस यानि प्रेम ....ये जो प्रेम देवता है ये सबसे बड़ा है ..इससे बड़ा और कोई नही है ...यही कृष्ण बन जाता है और यही श्रीराधा ..निकुँज यही बनता है सखियाँ बन कर यही प्रकट हो जाता है ...फिर लीला चलती है ...नव नव लीला ...श्याम सुन्दर नये नये ....हर क्षण नये ...श्रीराधा रानी नयी ...उनका रूप नया नया ...और हर क्षण नया ....सखियाँ नयी ...उनका रूप और सौन्दर्य उनकी चेष्टा नयी ...फिर कुँज नया ...कहने की आवश्यकता नही है ..क्षण क्षण में नवीनता ....लीला नयी ....श्रीवृन्दावन नया । उनके अन्दर से प्रकट नेह नयो ...राग रंग नयो ।
सब “रस” करवा रहा है .....सब कुछ रसमय है ।
पागल बाबा आनन्द से विराजे हैं ...राधा नाम उनके वक्ष में बृज रज से लिखा हुआ है .....तुलसी की माला कण्ठ में विराजमान है ...मस्तक में रज से तिलक किया है ...और एक सुन्दर सी बेला की प्रसादी माला धारण किए हुये हैं ...रस में डूबे हैं ....अभी अभी गौरांगी ने वीणा वादन से एक पद का गायन किया है । आज कुछ बरसाने के रसिक जन भी आगये हैं ....सब दूर दूर बैठे हैं ....सबने एक एक लता का आश्रय लिया है और नेत्र बन्दकर बाबा को सुनने की तैयारी में हैं ।
“श्रीराधा अद्भुत रस सिन्धु हैं ...जो लावण्य की विलक्षणता से परिपूर्ण हैं ....श्याम सुन्दर ....जो बड़े बड़े योगियों के ध्यान में नही आते वो श्रीराधा के बंक भृकुटी से ही मूर्छित हो जाते हैं ...तब श्रीराधा उनके पास जातीं हैं ....और अपनी केश राशि श्याम सुन्दर के ऊपर डाल देती हैं ...वो श्याम सुन्दर जिन्हें पाने के लिए बड़े बड़े योगिन्द़ लगे हैं किन्तु उनके ध्यान तक में ये नही आते ...वो यहाँ अपनी प्रिया के केश राशि में फंस गए हैं ....अरे ! देखो माई ! श्रीहित हरिवंश महाप्रभु इस झाँकी का दर्शन करते हुए आनंदित हो उठते हैं ....वो “श्रीहित चौरासी” जी के रचयिता हैं ....उन्होंने देखा है ...देखे बिना कोई इस तरह का रस काव्य लिख ही नही सकता ।
ये सहचरी हैं श्रीराधा जी की ...श्याम सुन्दर के अधरों में बजने वाली बाँसुरी हैं ...अजी , बाँसुरी के समान और कौन होगा प्रेमी ? बाँसुरी के समान और कौन होगा रसमय ? सारा का सारा रस तो बाँसुरी ही पी जाती है । प्रेमियों को धरा के अमृत से क्या प्रयोजन ? धरा का अमृत तो नाशवान है ....मिथ्या है ...अमृत तो अधरामृत में भरा हुआ है ...उसी अमृत को पी पी कर ये बाँसुरी मत्त हो गयी थी ...जब ये “रस मार्ग” भू पर प्रशस्त करने आयी ....तो रूप लिया “हित” का ।
हित , रस , नेह, .....ये सब “प्रेम” के पर्याय हैं ।
बाबा इतना बोलकर मत्त हो गये .....सब उसी रस में डूबे हुए हैं ।
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रसोपासना का केन्द्र श्रीवृन्दावन ही मूल है । यहाँ की आराध्या देवि श्रीराधारानी हैं ...बस श्रीराधारानी ....और आराधक सखियाँ ही मात्र नहीं हैं स्वयं श्याम सुन्दर भी हैं । अजी , ‘भी’ नही ....श्याम सुन्दर ‘ही’ हैं । “रसिक शेखर” .......श्याम सुन्दर को सखियों ने ये उपाधि दी है ...तो श्रीराधा अद्भुत रस तत्व हैं उनकी उपासना निरन्तर करने के कारण ही श्याम सुन्दर “रसिक शेखर” कहलाते हैं ...कहलाये ।
श्रीराधा रानी बस किंचित मुस्कुरा देती हैं ...तो श्याम सुन्दर सुख के अगाध सिन्धु में डूब जाते हैं ...और श्याम सुन्दर के सुख समुद्र में डूबते ही श्रीवन के मोर नृत्य करने लगते हैं कोकिल कुँहुँ की पुकार मचा देती हैं....शुक आदि पक्षी उन्मत्त हो जाते हैं ....लता पत्र झूम उठते हैं ।
और श्रीराधारानी जब थोडी भी रूठ जाती हैं तो श्यामसुन्दर दुःख के अपार सागर में डूब जाते हैं ...उनको इतना दुःख होता है जिसकी कोई सीमा नही ...और श्यामसुन्दर के दुखी होते ही मोर दुखी हो जाते हैं , कोकिल दुखी होकर मौन व्रत ले लेती हैं ...शुक आदि पक्षी और लता पत्र सब दुःख ही दुःख के सागर में डूबते चले जाते हैं ।
और ये दुःख सब क्षण में ही होता है ...और क्षण के लिए ही होता है । किन्तु वो क्षण भी युगों के समान लगते हैं ....ऐसा लगता है श्याम सुन्दर को कि - प्रलय आगया । वो रोते हैं ...वो मनाते हैं ....वो हा हा खाते हैं .....उस समय सब शान्त होकर देखते रहते हैं ...सखियाँ , मोर पक्षी लता पत्र आदि सब ....जब श्यामा जू नही मानतीं ...तब तो ....श्याम सुन्दर चले जाते हैं ...यमुना के किनारे , यमुना के किनारे जाकर बैठ जाते हैं ....नेत्रों को मूँद लेते हैं ....और अपनी श्रीराधा रानी का ध्यान करते हैं ...हृदय से ध्यान और मुख से उन्हीं के नाम का जाप ।
तब विलक्षण लीला घटती है ...श्रीराधा रानी के ही चरण नख से काम देव प्रकट होजाता है और ऐसे दुःख में डूबे श्याम सुन्दर को अपने बाणों से उनके हृदय को बेधता है । उफ़ !
देखो , हित सखी क्या कह रही हैं .....आह !
“जाही विरंचि उमापति नाये , तापैं तैं वन फूल बिनाये । जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ, ताकौं तैं अधर सुधा रस चाख्यौ । तेरो रूप कहत नहिं आवै, श्रीहित हरिवंश कछुक जस गावै ।।”
अद्भुत ! जिसके आगे ब्रह्मा और शिव नमत हैं ....उनसे ये अपने श्रृंगार के लिए फूल बिनवाती हैं .....जिस रस को वेद भी नेति नेति ...यानि हम नही जानते , हम नही जानते , कहते हैं उसके अधर सुधा का ये नित्य पान करती हैं ......ओह ! इसका क्या वर्णन करें ? हित सखी कहतीं हैं ....ब्रह्म जिनके पीछे मृग की तरह भाग रहा है ....उस रूप का क्या वर्णन किया जाए ?
पागल बाबा के नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं ....वो मुस्कुरा रहे हैं .....
तभी श्रीराधारानी अपनी ललितादि सखियों के साथ यमुना के निकट आईं ....वहाँ अपने प्यारे को देखा ...वो मूर्छित हो गये हैं ....बस उनकी साँसें चल रही हैं । तुरन्त उनके पास जाकर अपने अधर उनके अधरों में धर दिये ....और मरे हुए को जैसे कोई अमृत पिलाये ऐसे ही श्रीराधा रानी ने अपने प्रिय को अधरामृत का पान कराया । अजी ! वो उठ गये ..श्रीजी मुसकुराईं ....बस फिर क्या था श्याम सुन्दर सुख के सागर में डूब गए ...सखियाँ आनंदित हो उठीं ....मोर नाच उठे ..कोयल ने कुँहुं करना शुरू कर दिया ....शुक आदि पक्षी झूम उठे ....क्यों की दोनों युगल अब एक दूसरे में खो गये थे ।
ये सब क्या है ? अचंभित हैं सब रसिक ।
पागल बाबा कहते हैं ....यही तो .....
“नायक तहाँ न नायिका , रस करवावत केलि”
नायक नही हैं न वहाँ कोई नायिका हैं ...न कृष्ण हैं न श्रीराधा हैं ...बस “रस” ही सब करवा रहा है और “रस” ही सब कर रहा है । अहो !
अब कल से “श्रीहित चौरासी” जी का आनन्द लेंगे ।
बाबा ने अन्तिम में कहा ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍️श्री जी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “ श्रीहित चौरासी” !!
( “जोई जोई प्यारौ करै”- प्रेमी के चित्त की एकता )
19, 5, 2023
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गतांक से आगे -
सहचरी भावापन्न होकर प्रातः की वेला में बैठिये ...भाव कीजिये कि - आप श्रीवृन्दावन में हैं ....यहाँ चारों ओर लता पत्र हैं ....यमुना बह रही हैं ...दिव्य रस प्रवाहित हो रहा है ..जिससे मन अत्यधिक आनन्द का अनुभव कर रहा है .....नही नही आपको आनन्द में अभी बहना नही हैं ..आप तो सहचरी हैं ....सहचरी कभी भी अपना सुख ,अपना आनन्द नही देखती ...जो अपना सुख देखे वो तो इस “श्रीवृन्दावन रस” का अधिकारी ही नही है ..आपको ये बात अच्छे से समझनी है , हमारा सुख , जो हमारे प्रिया प्रियतम हैं उनको सुख देने में है ..यही इस रसोपासना का मूल सिद्धान्त है ।
राधा बाग आप प्रफुल्लित है ...हो भी क्यों नहीं ....प्रेम की गहन बातें आज प्रकट होने वालीं हैं ....वैसे प्रेम के गूढ़ रहस्य को इन बृज के लता पत्रों से ज़्यादा कौन समझेगा ? यहाँ की भूमि प्रेम से सींची गयी है .....युगल वर ने ही सिंचन किया है । प्रातः की वेला है ....सब प्रमुदित हैं.......पागल बाबा ध्यान में बैठे हैं .....गौरांगी वीणा के तारों को सुर में बिठा रही है ...शाश्वत बाग में पधारे साधकों को “श्रीहित चौरासी जी” बाँट रहा है ..ताकि वो सब भी साथ साथ में गायन करें । कुछ लोग बम्बई से आए हुए हैं ....कौतुक सा लगा तो राधा बाग में आगये ...पर शाश्वत ने उन्हें बड़े प्रेम से कहा ....ये सत्संग आप लोगों के लिए नही है .....क्यों ! हिन्दी में नही बोलेंगे महाराज जी ? इस पर शाश्वत का उत्तर था ...उनकी भाषा ही अलग है ...जिसे आप नही समझ पायेंगे । उन लोगों को भी कोई आपत्ति नही थी ...क्यों की वो लोग कौतुक देखने आये थे ...पर यहाँ कौतुक की बात नही ...प्राणों की बाज़ी लगाने की बात थी ...”जो शीश तली पर रख न सके वो प्रेम गली में आए क्यों “ ।
“आप लोग भी अगर पाश्चात्य की छूछी नैतिकता के तथाकथित विचार से बंधे हैं तो कृपा करके उठ जाइये” ..शाश्वत अन्यों को भी हाथ जोड़कर कहता है ......
“क्यों कि ये दिव्य प्रेम की ऊँची बात है “ ।
अब पागल बाबा नेत्र खोलकर गौरांगी की ओर देखते हैं ....उसे संकेत करते हैं ....कि श्रीहित चौरासी जी का प्रथम पद गायन करो ....और वीणा में अपने सुमधुर कण्ठ से गौरांगी गायन शुरू करती है ............पूरा राधा बाग झूम उठता है ।
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!! ध्यान !!
श्री श्री महाप्रभु हित हरिवंश जी द्वारा रचित श्रीहित चौरासी जी का पाठ करने से प्रेम राज्य में प्रवेश मिलता है .....इसलिये रसोपासना के साधकों को इसका पाठ करना ही चाहिये ....पर पाठ सिर्फ शब्दों को पढ़ना नही ......ये तो मात्र बेगारी भरना है ....कि नित्य पाठ करते हैं तो जल्दी जल्दी कर लें ....फिर थोड़ा घूम फिर आयें । नहीं । पहले ध्यान कीजिये ...एक बात स्मरण रखिए ...हर पद “श्रीहित चौरासी” का नयी झाँकी को प्रस्तुत करता है ...एक पद दूसरे पद से जुड़ा नही है ...हर पद अपने में पूर्ण है ...इसलिये हर पद का अपना ध्यान है .......इतना कहकर पागल बाबा हमें ध्यान की गहराईयों में ले जाते हैं ।
नेत्र बन्द कीजिये और भाव राज्य में प्रवेश .....
***** प्रेम भूमि श्रीवृन्दावन है ...प्रातः की वेला है ...वसन्त ऋतु है ...चारों ओर सुखद वातावरण है ...यमुना कल कल करती हुई बह रही हैं ...लता पत्र झूम रहे हैं ....पूरा श्रीवन नव नव पल्लवों से आच्छादित है ...लताओं में पुष्पों का भार कुछ ज़्यादा ही हो रहा है इसलिये वो झुक गये हैं । नाना प्रकार के कुँज हैं ....उन कुंजों की शोभा देखते ही बनती है ...कुँज के भीतर एक कुँज और है ....उसकी शोभा तो और अद्भुत है । उसी कुँज में प्रेम, माधुर्य और रस की स्वामिनी श्रीराधा रानी विराजमान हैं .....ये अभी उठीं ही हैं .....अरे ! श्याम सुन्दर भी विराजे हुये हैं .....स्वामिनी श्रीराधिका जू ने अपनी कोमल भुजा को श्याम सुन्दर के कण्ठ में लपेट दिया है । उनकी सुन्दर कुसुम शैया है ....तभी ....एक सुन्दरी सखी वहाँ आजाती है .....अरे ! इनको प्रणाम करो ...यही आपकी गुरु रूपा हैं ...यही “हित सजनी” हैं ......प्रेम में मत्त श्रीकिशोरी जी उस अपनी प्यारी सखी को देखती हैं ..और अपने निकट बुलाती हैं ..वो श्रीजी के निकट जाती हैं ..तो हमारी करुणामयी श्रीजी उन सखी को अपने निकट बिठाकर ...कुछ कहना चाहती हैं ..पर अत्यधिक प्रेम के कारण वो कह नही पातीं ..वो बार बार प्रयास करती हैं ..किन्तु इस बार तो वो कह ही देती हैं ।
मेरी प्यारी हित सजनी ! आहा , प्रेम रस से छकी श्रीजी ने अपनी सखी से कहा ....
“जोई जोई प्यारौ करै, सोई मोहिं भावै ,
भावै मोहिं जोई , सोई सोई करैं प्यारे ।
मोकौं तो भाँवती ठौर प्यारे के नैननि में ,
प्यारौ भयौ चाहैं मेरे नैंननि के तारे ।
मेरे तन मन, प्रानहूँ तें प्रीतम प्रिय ,
अपने कोटिक प्राण , प्रीतम मोसौं हारे ।
“श्रीहितहरिवंश” हंस हंसिनी साँवल गौर ,
कहौ कौन करै जल तरंगनि न्यारे ।। 1 |
आहा ! अपनी प्यारी सखी से प्रिया श्रीराधा जू कहती हैं ....अरी सखी ! प्यारे जो जो करते हैं ना , वो मुझे सब अच्छा लगता है .....बहुत अच्छा लगता है ...श्रीराधा रानी हित सखी का हाथ पकड़ लेती हैं ....अपने और निकट बिठाकर फिर कहती हैं ....प्यारे जो जो करते हैं ...सही ग़लत सब , मुझे बहुत अच्छा लगता है सखी ।
क्या वो ग़लत भी करते हैं प्रिया जू ? हित सखी पूछती हैं ....तब प्रिया श्रीराधा जू मुस्कुरा देती हैं और कहती हैं ..नही सखी ! मेरे प्रियतम बहुत प्रेम करते हैं मुझ से ....मुझे जो अच्छा लगता है मेरे प्यारे भी वही करते हैं ।
जैसे ? हित सखी गदगद होकर पूछ रही हैं ।
तो प्रिया जू उत्तर देती हैं ...जैसे - मुझे रहने का सुन्दरतम स्थान प्यारे के नयन लगते हैं ...तो वो भी मेरे नयनों की पुतरी बन जाना चाहते हैं ......आहा ! सखी ! और मैं क्या कहूँ ....प्यारे मुझे तन , मन प्राण से भी अधिक प्रिय हैं .....तो प्यारे ने मेरे ऊपर अपने कोटि कोटि प्राण न्यौछावर कर दिये हैं ....सखी इससे ज़्यादा मैं कुछ कह नही सकती .....अच्छा ! सखी ! इस बारे में कुछ तो तू बोल ....श्रीराधा जू ने जब अपनी हित सजनी से कुछ कहने के लिए कहा ....तो सखी इतना ही बोल सकी ....हे गोरी और हे श्याम ! आप दोनों दो थोड़े ही हैं ...एक हैं ...जब एक हैं तो देह , मन , और आत्मा अगर एकत्व की बात करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या ? मेरी भोरी प्रिया जू ! आप दोनों तो प्रेम पयोधि रूप मान सरोवर के हंस हंसिनी हो .....आप तो जल और तरंग की तरह एक हो ...अब हे श्रीराधिके ! आप ही बताओ ...क्या जल से तरंग को अलग किया जा सकता है ? या तरंग को जल से अलग कर सकती हो ? आप दोनों एक हो ।
आहा ! क्या वर्णन है .....”मैं जो चाहती हूँ प्यारे वही करते हैं ...और प्यारे जो करें वो मुझे अच्छा लगता है”.......पागल बाबा के नेत्रों से अश्रु बह चले .....दोनों एक दूसरे के लिए हैं ...श्रीराधा जी को अपने तन मन प्राण से भी ज़्यादा प्रिय हैं श्याम सुन्दर तो ....श्याम सुन्दर तो अपने प्राणों को ही श्रीराधा जी में वार चुके हैं .....पागल बाबा इससे ज़्यादा कुछ बोल नही पाये । हाँ इतना अवश्य बोले कि देखो ...दो चित्त की एकता ....यही है प्रेम , ....सब अच्छा लगे उसका ।
दोनों प्रेम हैं , और दोनों प्रेमी ...दोनों चातक हैं तो दोनों स्वाति बूँद । दोनों बादल तो दोनों बिजली ....दोनों ही कमल हैं और दोनों ही भ्रमर हैं ...दोनों ही लोहा हैं तो दोनों ही चुम्बक हैं ...दोनों आशिक़ हैं तो दोनों महबूब हैं ।
दो हैं , दिखते दो हैं .....पर हैं एक ।
“जोई जोई प्यारो करैं......”
फिर सबने एक बार और इस प्रथम पद का गान किया ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गछामि
✍️श्रीजी मंजरी दास (श्रीजी सूर श्याम प्रिया मंजरी)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( प्रीति की अटपटी रीति -“प्यारे बोली भामिनी” )
20, 5, 2023
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गतांक से आगे -
प्रीत की रीत ही अटपटी है ...इसकी चाल टेढ़ी है ....ये सीधी चाल चल नही सकती ।
प्रियतम कब रूठ जाये पता नही ...किस बात पर रूठ जाये ये भी पता नही ...और प्रिय रूठे भी नही किन्तु प्रेमी को लगे की वो रूठा है ....अजी ! कुछ समझ में नही आता इस प्रेम मार्ग में तो ।
तो प्रेम में समझना कहाँ है ! इसमें तो डूबना है ....ना , डूबने पर हाथ पैर मारना निषेध है ...अपना कुछ भी प्रयास न करना ....बस डूब ही जाना । और जो डूबा वही पार है ...जिसने हाथ पैर मारे वो तो अभी प्रेम विद्यालय में ही नही आया है । प्रेम में तो ये हो - कल नही सुना ? - “जोई जोई प्यारो करैं, सोई मोहि भावैं” ....यही है वो विलक्षण प्रेम .....
पागल बाबा का आज स्वास्थ्य ठीक नही है ..हमें तो लगा कि ये बोल भी नही पायेंगे ...पर आज हम सबके सामने वो विराजे ..श्रीजी महल की प्रसादी भी ग्रहण की , प्रसादी माला श्रीजी मन्दिर के गोस्वामियों ने आकर धारण कराया। आह ! बाबा रस सिक्त हैं ...ये रस में ही डूबे हुए हैं ।
श्रीहित चौरासी जी पर बोल रहे हैं बाबा ...”प्रेम में वियोग को आवश्यक माना है समस्त प्रेम के आलोचकों ने ...वियोग से प्रेम पुष्ट होता है ....ये सर्वमान्य सा सिद्धांत दिया है ...मनोविज्ञान भी कहता है ...प्रियतम के साथ निकटता कुछ ज़्यादा हो जाये तो ...और बनी रहे तो प्रेम घटता जाता है ...और वियोग प्राप्त हो जाये तो प्रेम बढ़ता है । पर ये सिद्धांत “श्रीवृन्दावन रस” में लागू नही है ...यहाँ तो मिले ही हुए हैं ....और मिले रहने के बाद भी लगता है कि अभी मिले ही कहाँ ? ये बैचेनी कहाँ देखने को मिलती है बताओ ? संयोग में ही वियोग ....ये विलक्षण रस रीति कहाँ मिलती है ? मिले हैं ...अपनी कमल नाल की तरह सुरभित भुजाओं को प्रिया ने अपने प्रियतम के कन्धे में रख दिया है ..और आनन्द सिन्धु में डूब गयीं हैं ...तभी उन्हें ऐसा लगता है कि ये दूरी भी असह्य है ...हृदय से लग जाती हैं ...दोनों एक होने की चाह में तड़फ उठते हैं ...ये विलक्षणता है इस प्रेम में ....फिर यहाँ एक “हित तत्व” है ...जो प्रेम का ही एक रूप है ...वो इन दोनों के मध्य है ...वो सखी भाव से इनके भीतर चाह को प्रकट करने का कार्य करती है ....फिर दोनों एक होना चाहते हैं ...पर मध्य में सखी ( हित तत्व ) है वो एक होने नही देती ..क्यों की ‘दो’ ‘एक’ हो गये तो लीला आगे बढ़ेगी नही ...पर इतना ही नही ....जब दोनों दूर होते हैं तब ‘एक’ करने का प्रयास ये सखी ही करती है ...तो यहाँ संयोग वियोग दोनों चलते हैं ....यही प्रीत की अटपटी रीति है ....पागल बाबा मुस्कुराकर गौरांगी की ओर देखते हैं ...वो तो वीणा लेकर तैयार ही बैठी थी ...आज श्रीहित चौरासी जी के दूसरे पद का गान होगा ..और गौरांगी गा उठती है अपने मधुर कण्ठ से -
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“प्यारे बोली भामिनी , आजु नीकी जामिनी... भेंटि नवीन , मेघ सौं दामिनी ।।
मोंहन रसिक राइ री माई, तासौं जु मान करै... ऐसी कौन कामिनी ।।
श्रीहित हरिवंश श्रवन सुनत प्यारी । राधिका रवन सौं , मिली गज गामिनी ।। 2 ।
गौरांगी ने अद्भुत गायन किया ....अब बाबा इस पद का पहले ध्यान बताते हैं -
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!! ध्यान !!
शरद ऋतु है ....अभी अभी वर्षा हुयी है ....सन्ध्या की वेला बीत चुकी है ....यमुना में दिव्य नीला जल बह रहा है ....नाना प्रकार के कमल उसमें खिले हैं ...एक कमल को छूती हैं श्रीराधा रानी ....कमल को तोड़ना उनका उद्देश्य नही है ...फिर भी कमल उनके हाथों में आजाता है ...वो अनमनी सी हैं .....उन्हें स्वयं पता नही है कि हुआ क्या ?
हुआ ये था ...की अभी अभी निकुँज में शयन शैया तैयार कर रही थीं स्वयं श्रीजी ....पर उसी समय उनके प्रियतम आगये ....और श्रीजी का हाथ पकड़ कर बोले ....”आप रहने दो”...श्रीजी को प्यारे के स्पर्श से रोमांच हुआ ....वो स्तब्ध हो गयीं ......वो अपलक देखती रहीं ....श्याम सुन्दर ने शैया की सज्जा की ...सुन्दर सुन्दर पुष्पों से .....पर श्रीजी स्तब्ध हैं ....और जब शैया की सज्जा देखती हैं ...तब तो वो और मुग्ध हो .... मूर्तिवत् हो जाती हैं । श्याम सुन्दर कहते हैं ...प्यारी जू ! अब बताओ कैसी मैंने सज्जा की ? पर श्रीजी तो कुछ बोलती ही नही हैं ....चैतन्य की चैतन्यता श्रीजी आज जड़वत् हो गयी हैं ....श्याम सुन्दर ने उनसे कहा ...आप अब शैया पर विराजमान होईये । पर वो उस शयन कुँज से निकल जाती हैं और यमुना के तट पर जाकर बैठ जाती हैं ...इधर श्याम सुन्दर बहुत दुखी हैं ..वो सोच रहे हैं ..देखो , मैं चाहता हूँ मेरी प्यारी प्रसन्न हों , प्रसन्न रहें इसलिये सारी क्रियाएँ करता हूँ ..पर वो रूठ ही जाती हैं ...श्याम सुन्दर दुखी हो गये हैं ।
यमुना में उधर श्रीजी हैं ....कमल पुष्पों से खेल रही हैं .....तभी “हित सखी” वहाँ आजाती हैं ......वो सब समझ गयी हैं ....ये सब अत्यधिक प्रेम के कारण हो रहा है ....तब वो बड़े प्रेम से एक नील कमल लेती हैं और श्रीजी के चरणों में छुवा देती हैं ....श्रीजी चौंक जाती हैं वो ऊपर देखती हैं ....तो सामने सखी है .....सखी मुस्कुराते हुए वहीं बैठ गयी....और कुछ देर मौन रहने के बाद वो कहती है -
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हे भामिनी ! आपने ही तो कहा था कि मुझे इनका कुछ भी करना प्रिय लगता है ...फिर आज क्या हुआ ? सखी ने श्रीजी से पूछा ।
क्या हुआ ? भोली श्रीराधा रानी सखी से ही पूछती हैं , उन्हें तो कुछ पता भी नही है ।
यदि प्यारे श्याम सुन्दर ने अपने हाथों से शैया की सज्जा कर दी तो इसमें आप क्यों रूठ रही हो ?
मैं रूठी हूँ ? अब श्रीजी मन ही मन सोचती हैं ...मैं क्यों रूठूँगी ?
और स्वामिनी ! अगर उनकी कोई क्रिया आपको अच्छी नही लगे तो क्षमा कर दो उन्हें । देखो ! प्यारे बहुत दुखी हो गये हैं ....वो आकुल हैं ...वो बारम्बार बाहर देख रहे हैं ....आप कैसे मानोगी ये सोच रहे हैं ....वो आपको मनाने आते पर डर रहे हैं ....कि कहीं उस मनाने की बात से भी आप बुरा न मान जाओ ! हित सखी बड़े प्रेम से कहती हैं ....देखो प्यारी जू ! कितनी सुंदर रात्रि ( जामिनी ) है ....इस रात्रि में आप कहाँ अकेली बैठी हो ? जाओ , मिलो उनसे ....आप आकाश में चमकने वाली बिजली हो और वो श्याम घन ....आप ऐसे मिलो ..जैसे बिजली बादल से मिलती है और अपने आपको उसी में खो देती है ....आप भी खो जाओ ।
श्रीजी अभी भी नही उठीं ....न कोई हलचल उन्होंने की ....तो सखी फिर बोली -
आप मान कर रही हो ? वो भी रसिकों के राजा से ? नही ...उनसे मान मत करो ....वो प्रेम, रति, सुरति और प्रीति सबके जानकर हैं ...उनसे मान करे ऐसी कौन है इस जगत में ? आप जाओ उनके पास । ऐसे सुन्दर अवसर को मत गुमाओ । हित सखी के मुख से ये सुनते ही श्रीराधा जी फिर बोलीं ...पर हुआ क्या ? सखी बोली ...आप मान मत करो । “मान” ? सखी ! क्या प्यारे ने भी ये सोचा है कि मैं उनसे मान कर रही हूँ ? हाँ ....हित सखी ने जब कहा ...तब तो श्रीराधा रानी उठीं .....और दौड़ पड़ीं निकुँज की ओर ....उनकी चूनर यमुना में भींगी थी उनमे से जल गिर रहा था ...नूपुर की झंकार से निकुँज झंकृत हो गया था वो दौड़ रही थीं .....उन्हें तो मान ही नही हुआ था ...ये रूठी ही नहीं थीं ।
जब देखा मेरी प्रिया इधर आरही हैं ...तो श्याम सुन्दर आनंदित हो उठे ...वो सब कुछ भूल गये ..उन्हें तो सर्वस्व मिल गया । श्रीराधा उन्मत्त की भाँति दौड़ी जाती हैं और अपने प्रियतम को बाहु पाश में भर लेती हैं ...और धीरे धीरे दामिनी श्याम घन में खो जाती है ।
******जय जय श्रीराधे , जय जय श्री राधे , जय जय श्रीराधे********
दोनों हाथों को ऊपर करके बाबा रस समुद्र में डूबने की घोषणा करते हैं ।
बाबा इसके मौन हो गये ...उनके नेत्रों के कोर से अश्रु बह रहे थे ..फिर श्रीहित चौरासी जी के दूसरे इसी पद का गान होता है ..सब गौरांगी के साथ फिर गाते हैं । बाबा भाव राज्य में जा चुके हैं ।
“प्यारे बोली भामिनी , आजु नीकी जामिनी” ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि
✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी !!
( “प्रात समय दोऊ रस लम्पट” - दिव्य झाँकी )
21, 5, 2023
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गतांक से आगे -
“मेरे दधि को हरि स्वाद न पायो “........
सूरदास जी ने एक पद में इस झाँकी का वर्णन किया है .....श्रीराधा रानी जा रही हैं दधि बेचने ...वैसे ये राजकुमारी हैं ये क्यों जाने लगीं दधि बेचने ....पर इनके हृदय में जो प्रेम श्याम सुन्दर के लिए हिलोरे ले रहा है ये उसी के लिए जा रही हैं ...पर श्याम सुन्दर को अभी आता नही है प्रेम कैसे किया जाता है ....ये तो बस अपने सखाओं के साथ हंगामा करना ही जानते हैं ....
हंगामा किया ..दधि की मटकी फोड़ दी दही खा लिया इधर उधर बिखेर दिया ..और चले गये ...
सूरदास जी कहते हैं - दुखी श्रीराधा अपनी सखियों से कहतीं हैं .....दधि का स्वाद नही पाया हरि ने । फिर कैसे स्वाद मिलता ? सखियाँ पूछती हैं ...तो श्रीराधा उत्तर देती हैं ....प्रेम का स्वाद लुटेरों को नही मिलता न हरण करने वालों को मिलता है ....सखी ! प्रेम का स्वाद तो समर्पण में मिलता है ...वह मिलेगा भूमिका परिवर्तन से ...पीताम्बरी देकर मेरी नीली चुनरी ओढ़ने से ..अपना श्याम रंग छोड़कर गौर रंग में रंगने से ...मोर मुकुट त्याग कर चंद्रिका धारण करने से ...जब अकुला उठें प्राण कि मुझे अपनी आत्मा से मिलना है ....तब प्रेम का प्राकट्य होता है सखी !
सूरदास जी ने इसका वर्णन किया है । अस्तु ।
प्रेम झीना झपटी नही है ...प्रेम जबरन होने वाला व्यापार नही है ...प्रेम तो आत्मा की गहराई तक जाकर एक झंझावात पैदा कर दे ..पूर्ण समर्पण है प्रेम । प्रेम होता है या नही होता ..होता है तो पूरा होता है ...नही तो होता ही नही है । आत्मा जब पुकार मचा दे ...मिलने की छटपटाहट , लगे कि वो मिलें या प्राण निकल जायें ..उस स्थिति में पहुँचकर जब मिलन होता है ....वो “रति केलि” कहलाता है । इसमें द्वैत से अद्वैत की यात्रा होती है ...दो , एक हो गये ...पर उस निकुँज में सखियाँ हैं ....जो ‘एक’ को फिर ‘दो’ बना देती हैं ....ये सखियाँ हैं .....ये भी समझना आवश्यक है कि - युगल से सखियाँ भी भिन्न नही हैं ...युगल का मन ही सखियाँ हैं । जैसे - भक्त न हो तो भगवान कहाँ से हों ? ऐसे ही रसोपासना में सखियाँ न हों तो तो ये युगल सरकार भी न हों । इसलिए इस रसोपासना में सखियाँ मुख्य भूमिका में हैं ....गुरु हैं । रसोपासना वालों को प्रातः ध्यान करते समय सबसे प्रथम गुरु सखी का ध्यान करना चाहिए ...आपको निकुँज दर्शन , आपको युगल सरकार के दर्शन , और उनके रति केलि का दर्शन ...यहाँ तक पहुँचना है तो इसके लिए सखियों को पकड़ो ...प्रथम उनका ही ध्यान करो ।
पागल बाबा आज कुछ विशेष प्रसन्न हैं ....वो राधा बाग के लताओं को बड़े प्रेम से देख रहे हैं ....एक मोर वृक्ष से उतर कर बाबा के पास आया ....बाबा उसे छूते हैं ...बड़ा प्रेम करते हैं .....वो मोर अपने पंख फैलाता है ....फिर उन पंखों को हिलाता है तो एक पंख उसका गिर जाता है ....गौरांगी मुस्कुराते हुये उठा कर अपने मस्तक में लगा लेती है । बाबा ये देखकर उसे गदगद भाव से प्रणाम करते हैं ....प्रणाम करते हुये उनके नेत्रों में दिव्यता झलक रही थी ।
श्रीहित चौरासी जी का आज तीसरा पद गायन करना है .....गौरांगी पद को देखती है ...मुस्कुराती है ....फिर नेत्र बन्द कर लेती है ....और मधुर कण्ठ से उसका गायन .......
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“प्रात समय दोऊ रस लम्पट , सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल । श्रम वारिज घन बिंदु वदन पर , भूषण अंगहिं अंग विकूल । कछु रह्यो तिलक सिथिल अलकावलि, वदन कमल मानौं अलि भूल । श्री हित हरिवंश मदन रँग रँगी रहे , नैंन बैंन कटि सिथिल दुकूल ।3 ।
पद का गायन जब पूरा हुआ तब पागल बाबा ने पहले इस पद का ध्यान बताया .....कराया ।
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!! ध्यान !!
प्रातः की वेला है .......सुन्दर सुरभित वायु बह रही है ....पक्षियों ने कलरव करना शुरू ही किया था कि सखियों ने उन्हें रोक दिया । क्यों की इनके कलरव से प्रिया प्रियतम के नींद में विघ्न पड़ जाता ....पक्षियों ने भी जब देखा कि सखियाँ उन्हें मना कर रही हैं और लता रंध्र से वो देख रही हैं .....तो पक्षी भी वहीं आगये .....उन्हें भी देखना है जो सखियाँ देख रही हैं ....चुप ! ललिता सखी मना करती हैं कि बोलना नही । पक्षी शान्त हो गये हैं ....ऋषि मुनि की तरह मौन । सखियों की दृष्टि युगल के जागने पर है ...उससे पहले ये उस शयन कुँज में प्रवेश नही करेंगीं । तभी शैया में हलचल हुई .....तो सखियों ने देखा कि प्यारे और प्यारी जाग गये हैं ......इनके जागते ही सखियाँ शयन कुँज में प्रवेश कर गयीं ......ओह ! इनके प्रवेश करते ही प्रिया जू अपने अंगों को नीली साड़ी से छुपाने लगीं......इस दिव्य झाँकी का दर्शन करते हुए “हित सजनी” आगे आईं और अन्य सखियों से कहने लगीं ।
हित सजनी जब बता रही थीं तब सखियाँ ही नहीं पूरा श्रीवन उनकी बातों को सुन रहा था ....लता पक्षी सब सुन रहे थे ....हित सजनी वर्णन करती है ......देखो देखो सखी !
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प्रातः की वेला में हमारे “रस लम्पट” युगल जाग गये हैं ......क्या कहा रस लम्पट ? निकुँज की सारी सखियाँ हित सजनी की बात सुनकर हंस दीं ......तो हित सखी बोलीं ....क्यों तुम्हें दिखाई नही दे रहा ? देखो .....दोनों ने रात भर विहार किया है ...सुरत सुख खूब लूटा है ...रति केलि मचाई है ....फिर भी तृप्त नही हुए ! देखो इनके नयनों में , अभी भी एक दूसरे में डूबने की प्रवल कामना इनके अन्दर है .....इसलिए सखी ! मैंने आज इन युगल को ये नाम दिया है ..”रस लम्पट”...ये सुनकर सारी सखियाँ हंस पड़ीं तो तुरन्त प्रिया जू ने अपने अस्त व्यस्त वस्त्रों को सम्भाल लिया .....तब हित सखी कहती हैं - देखो तो ....इसके श्रीअंग ! कैसी दिव्यता लग रही है ....लाल जू की माला प्रिया के कण्ठ में कैसे आई ? और देखो ! श्रीवन में शीतल हवा बह रही है ...और इनके मस्तक में ये मोतियों की तरह पसीने की बूँदे ! अरी ! ये सब प्रेम लीला का प्रमाण है ....अंग के गहने बदल गये हैं .....प्रिया जू का हार लाल जू के कण्ठ में है ...और लाल जी की माला प्रिया के कण्ठ में । तभी पक्षी गण आनंदित होकर कलरव करने लगते हैं ..जिसके कारण प्रिया जी और शरमा जाती हैं ।
सखी ! देख ....माथे में तिलक नही है ...प्रिया श्याम बिन्दु धारण करती हैं ..और श्याम सुन्दर लाल रोरी ....पर देखो ...दोनों के मस्तक में तिलक नही । ललिता सखी ने धीरे से कहा ...थोड़ा है ....बाकी पुछ गया है ......वही तो ....हित सखी मुस्कुराती हैं .....बार बार पसीने आने से वो तिलक बह गया......थोड़ा बहुत बचा है । ये कहते हुए कुछ देर के लिए सखियों की दृष्टि ठहर जाती है ...वो प्रातः की इस झाँकी का दर्शन करती हैं और सुध बुध खो देती हैं ...फिर अपने को सम्भालती हैं .....क्यों की यही सखियाँ हैं जो “रस केलि” की प्रेरक हैं ।
सखी ! देखो ...अपने आपको सम्भाला हित सखी ने ...फिर आगे वर्णन करने लगीं .....
श्रीराधा जू की अलकावलि तो देखो ....कैसी बिखरी हुई हैं ......पर शोभा दिव्य लग रही है ...सखी ! ऐसा लग रहा है बस देखते ही रहें । अरे अरे देखो ! अलकावलि पवन के बहने से इधर उधर हो रहें हैं ....अब तो वो कानों के कुण्डल में जाकर उलझ गये हैं ....सखी ! ऐसा लग रहा है कि ....कमल के पुष्प पर मानों भँवर बैठ गया हो ...और अपनी चंचलता को भूल गया हो....वो उड़ना ही नही चाहता अब । सारी सखियाँ मन्त्रमुग्ध होकर देख रही हैं बस ।
हित सजनी सबका ध्यान खींचती हुई कहती हैं .....आहा ! देखो तो प्यारे की पीताम्बरी और प्यारी की साड़ी दोनों ढीले हो गये हैं .....इतना ही नही ...अब इनके नेत्रों को फिर से देखो ...प्रेम और आनन्द के रंग से कैसे रंजित हो रहे हैं । ये मिले हैं ...मिले रहते हैं ...पर फिर भी इन्हें लगता है कि अभी तो मिले ही नही । सखी ! इसलिये ये रस लम्पट हैं .....कैसी प्रीत ! कि तृप्ति ही नहीं हैं ...पी लिया रस ..फिर भी प्यास बुझी नही ...और बढ़ गयी । ये कहते हुए हित सखी एक तिनका तोड़कर फेंक देती है ..ताकि प्रिया लाल के इस नित्य विहार को किसी की नज़र ना लगे ।
पागल बाबा की दशा विलक्षण हो गयी है .....इनकी आँखें रस मत्तता के कारण चढ़ गयीं हैं ।
कुछ देर बाद फिर इसी तीसरे पद का गायन किया जाता है .....सब गाते हैं .....
“प्रात समय दोऊ रस लम्पट , सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल”
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गछामि ✍️श्रीजी मंजरी दास (सूर श्याम प्रिया मंजरी)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( ये चकोरी सखियाँ - “आजु तौ जुवति तेरौ” )
22, 5, 2023
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गतांक से आगे -
ये निकुँज की सखियाँ हैं .......
विशुद्ध प्रेम ही इनमें भरा है .....जी ! शुद्ध प्रेम को “रति” भी कहते हैं ....जिसमें कोई उपाधि नही है ...ये समस्त उपाधियों से मुक्त हैं - रति , जो प्रेम का एक विशुद्ध रूप है ....ये शुद्ध माधुर्य पर आधारित है....और प्रेम , शुद्ध माधुर्य पर ही आधारित हो तो उसका रूप निखर कर आता है ।
माधुर्य का अर्थ समझ लीजिए ...सामान्य नर के समान जो लीला करे वो माधुर्य और ईश्वर के समान जो लीला करे ..वो ऐश्वर्य । आप का प्रियतम आपके जितने करीब होगा ...उसके प्रति रस उतना ही बढ़ेगा ....और ईश्वर की भावना आपके अन्दर आगयी तो फिर आप विशेष करीब नही हो पायेंगे ...वहाँ कुछ तो दूरी रहेगी रहेगी ...और दूरी बनी रही तो फिर अपनत्व आ नही पायेगा ..अपनत्व के बिना शुद्ध प्रेम सम्भव ही नही है ।
माधुर्य माधुर्य ही बना रहे ....उसमें किंचित भी “ईश्वर” भावना से आप भावित हो गये ...तो वो प्रेम “भक्ति” कहलायेगी ....जिसमें आपके प्रियतम भगवान के रूप में विराजे होंगे ....मैं एक ही बात को बार बार न दोहराऊँ कि.......विशुद्ध प्रेम में विशुद्ध माधुर्य ही चाहिए ...वहाँ किंचित भी “ऐश्वर्य” आगया तो वो शुद्ध रति नही होगी ।
फिर भक्ति में भक्त के स्वभाव अनुसार उपाधियाँ जुड़ती चली जाती हैं ....जैसे - किसी की भक्ति शान्त है ...तो वो “शान्ता रति” और किसी की भक्ति मधुर है तो “मधुरा रति”....वात्सल्य रस है तो “वात्सल्यारति”....आदि आदि । यशोदा जी की वात्सल्यारति है ...उनकी मधुर रति नही हो सकती ....हनुमान जी की दास्यारति है ...वो दास भाव से भावित हैं ...किन्तु हनुमान जी की वात्सल्यारति नही हो सकती । सखा हैं कृष्ण के मनसुख श्रीदामा आदि .....उनमें सख्यारति है ....सखा भाव है....किन्तु वो मधुर रस को नही पा सकते ।
अब सुनो , इन समस्त उपाधियों से मुक्त है ये “विशुद्ध प्रेम” ....क्यों की सखी वो तत्व है ...जिनमें स्त्री भाव और पुंभाव का पूर्ण अभाव है ....इनको जो जब जिस भाव की आवश्यकता पड़ती है ये वही भाव ओढ़ लेती हैं ...जैसे - श्री जी और श्याम सुन्दर विहार करते हुए जब थक जाते हैं ....तो ये सखियाँ तुरन्त वात्सल्य भाव ओढ़ कर इनके पास चली आती हैं और सुन्दर सुन्दर पकवान इन्हें पवाती हैं माता की तरह...कभी रात्रि में सुरत केलि मचाया हो युगल ने तब ये सख्य भाव ओढ़ लेती हैं ...और खूब छेड़ती हैं ....श्रीजी को छेड़ती हुए कुछ भी कहती हैं ....मित्र हैं उस समय ....कोई डर नही है ...अपनी सहेली से काहे का डर ? जब रास में नाचते हुए थक जाते हैं तो चरण दबाने की सेवा करते हुए ये दास्य भाव को ओढ़ लेती हैं ...और एक अद्भुत बात बताऊँ ! जब रात्रि की वेला - निभृत निकुँज में ये युगल सरकार मिलते मिलते एक हो जाते हैं तब ये सखियाँ भी अपनी सारी उपाधियों को त्याग कर युगल में ही लीन हो जाती हैं । तब अद्वैत घट जाता है ...आहा ! उस समय न श्याम न श्यामा न सखियाँ ...बस प्रेम ..विशुद्ध प्रेम तत्व।
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सुन्दर बाग है .....नाना पुष्प खिले हैं ...आज तो इस राधा बाग में गोवर्धन के कई कलाकार आये हैं ....जिनको बुलाया नही गया इन्होंने सुना कि यहाँ श्रीहित चौरासी जी के ऊपर बाबा का व्याख्यान हो रहा है ...और पद का गायन होता है ...तो सारंगी पखावज आदि लेकर ये सब चले आये हैं .....श्रोताओं में अब उत्साह बढ़ रहा है ....लोग अब बाग में भरने लगे हैं .....जहां उन्हें स्थान मिल जाता है वही बैठ जाते हैं ...अति आनन्द और उत्सव का वातावरण है ....सब उमंग में हैं ...और ये सोचकर और उत्साह सबका बढ़ रहा है कि ....अभी तो श्रीहित चौरासी जी में बहुत उत्सव , बहुत उत्साह , और उमंग आने वाला है ...गौरांगी सुन्दर माला बना रही है साथ वहाँ की सखियाँ भी दे रही हैं .....गौरांगी कह रही है ...”आजु गोपाल रास रस खेलत” ये पद जिस दिन आएगा न ....उस दिन राधा बाग में महारास करेंगे ...सब नाचेंगे ....”बाबा को भी नचायेंगे”....ये बात मैंने कही ....शाश्वत बोला ...वो तो तैयार ही हैं । चलो , जाओ यहाँ सब सखियाँ हैं ...छेड़ती हुयी गौरांगी बोली । शाश्वत बोला - निकुँज में कहाँ पुरुष का प्रवेश है ....तुम बिना दाढ़ी मूँछ की सखी हो हम लोग दाढ़ी मूँछ वाले सखी हैं । पागल बाबा आगये थे ...वो शाश्वत की बातों पर बहुत हंसे ....कुछ देर तक हंसते ही रहे ।
गौरांगी की माला तैयार हो गयी थी ....उसने श्रीजी को एक माला पहनाई ...दूसरी माला श्रीजी के चरणों से छुवा कर बाबा को पहनाई .....बाबा ने संकेत किया ....आज श्रीहित चौरासी जी के चौथे पद का गायन होगा .....शाश्वत धीरे से बताता रहा ...ये गोवर्धन से पधारे हैं सारंगी लेकर ये पखावज .....बाबा बहुत प्रसन्न होते हैं ....एक श्रीराधा बल्लभ के भक्त हैं जो इत्र और गुलाब जल लेकर आये हैं ...बाबा सबको प्रसादी बनाकर देने के लिए कहते हैं ....उस दिव्य वातावरण में ....श्रीहित चौरासी जी के पद का गायन शुरू हो जाता है ......
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आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ । पिय के संगम के सूचत सुख चैन ।।
आलस वलित बोल, सुरँग रँगे कपोल । विथकित अरुन उनींदे नैंन ।।
रुचिर तिलक लेस , किरत कुसुम केस । सिर सीमंत भूषित मानौं तैंन ।।
करुना करि उदार , राखत कछु न सार । दसन वसन लागत जब दैंन ।।
काहे कौं दुरत भीरु , पलटे प्रीतम चीर । बस किये श्याम सिखैं सत मैंन ।।
गलित उरसि माल , सिथिल किंकिनी जाल । श्री हित हरिवंश लता गृह सैन ।4।
आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ ...................
सब लोग गायन कर रहे थे .....अद्भुत रसमय वातावरण तैयार हो गया था ।
अब बाबा ध्यान करायेंगे ....सब लोगों ने वाणी जी रख दी ...नेत्र बन्द कर लिए और .......
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!! ध्यान !!
प्रातः की सुन्दर वेला है ....पवन अपनी मन्द गति से और शीतल बह रहे हैं ...भास्कर के उदित होने में अभी समय है ..किन्तु श्रीवन की भूमि चमक रही है ..लता पत्र झूम रहे हैं ..निकुँज के बाहर यमुना बह रही हैं ...उनमें कमल पुष्पों की भरमार है ...अभी खिले नही है खिलने वाले है ...किन्तु उनसे सुगन्ध निकल रही है ...जो श्रीवन को सुगन्धित बना रही है ...उनमें भौरें गुंजार करने लगे हैं ..पक्षियों ने चहकना प्रारम्भ कर दिया है ...उन के चहकने से वातावरण संगीतमय सा लग रहा है ..ये पक्षी भी विचित्र हैं शयन कुँज के आस पास ही इन्हें मंडराना है ..वहीं कलरव कर रहे हैं ।
श्रीश्याम सुन्दर और प्रिया जी जाग गयीं हैं ....सखियों ने दर्शन किये ....प्रिया जी अपने आपको सम्भालती हुई शैया से नीचे उतरती हैं .....हित सजनी आगे बढ़ी और श्रीजी को जब सम्भालने लगीं ..तब श्रीजी वहीं खड़ी हो गयीं, उनकी आँखें मत्त हैं ...वो सखी को देखकर मुस्कुराती हैं ..और संकेत में कहती हैं ....तू रहने दे ..मैं आगे आगे चलूँगी । और श्रीजी आगे आगे चल पड़ती हैं .....किन्तु उनकी चाल ! ...हित सजनी प्रिया जी को ऐसे मत्तता से चलते हुये जब देखती हैं ..तो पीछे ललितादि को देखकर मुस्कुरा जाती हैं ।
प्रिया जी चली जा रही हैं ....उनके चरण की महावर छूट गयी है ....उनके कण्ठ का हार टूटा हुआ है ...उनकी अलकावलियाँ उलझी हुई हैं.....पर ये कहीं खोई हुयी हैं ...और चली जा रही हैं श्रीवृन्दावन की अवनी पर ....इनके पीछे सखियों का दल है ...वो सब भी परमआनंदित हैं ....आगे चल रही हित सजनी सबको संकेत करती है ....तो सब हंस पड़ती हैं ...हंसने की आवाज प्रिया जी ने सुन ली है ...वो रुक जाती हैं ....और पूछती हैं ...क्या हुआ ? मन्द मुस्कुराते हुए सखी सिर हिलाकर कहती है ....नही, कुछ नही हुआ । नही कोई तो बात है ....प्रिया जी सब को देखती हैं ...समस्त सखियाँ पीछे हैं ...तब हित सखी कहती है ....ये आपके कपोल में चिन्ह ! ये सुनते ही प्रिया जी शरमा जाती हैं और कपोल को अपनी चुनरी से छुपा लेती हैं ...प्रिया जू ! क्या क्या छुपाओगी ? चाल , ढाल , अंग में लगे सुरत सुख के चिन्ह ...सब गवाही दे रहे हैं ......
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क्या बात है , नव यौवन से मत्त हमारी प्यारी सखी ! आज तो आपका मुखारविंद आनन्द से भरा है ...ये आपका मुखारविंद है ना यही बता रहा है कि प्रीतम के साथ आपने विहार किया ....विहार तो आपका नित्य है ..किन्तु आज कुछ विशेष है ।
हित सखी से ये सुनकर मुस्कुराते हुए सिर झुका लेती हैं श्रीराधिका ....
सखी कुछ नही बोलती वो अपनी प्राण प्यारी श्रीजी को देखती रहती है ....पर प्रिया जू परेशान हो जाती हैं कि ये बोल क्यों नही रही , अपनी “रति केलि” पर सुनना उन्हें अच्छा लग रहा था ...श्रीजी दृष्टि को ऊपर करती हैं और सखी की ओर जैसे ही देखती हैं ...सखी मुस्कुरा रही थी तो वो फिर दृष्टि तुरन्त नीचे कर लेती हैं , शरमाते हुए ।
कुछ नही है ऐसा तो ! श्रीजी शरमाते हुए कहती हैं ।
तो हित सखी हंसते हुए कहती है ......फिर आपकी बोली में इतना आलस क्यों है ? आपके गाल भी रँगे हुए है ...लाल लाल । नेत्र भी तो उनिंदे हैं ...ऐसा स्पष्ट लग रहा है कि रात्रि भर आप सोईं नही हैं ...या प्रीतम ने आपको सोने नही दिया ।
हट्ट ! ये कहते हुए श्रीप्रिया जू आगे बढ़ जाती हैं ....वो शरमा भी रही हैं और उन्हें ये सुनना अच्छा भी लग रहा है ।
आपके मस्तक का तिलक कहाँ हैं ? वेणी भी आपकी ढीली है प्रिया जू ! और अलकें भी उलझी लग रही हैं ....क्यों ? नयन मटकाते हुए सखी पूछती है ....और सिर के माथे का सिन्दूर तो पसीने में बह गया ....
कुछ नही , कुछ भी कहती हो तुम सब ?
मुझे चिढ़ाने में तुम को आनन्द आता है , है ना ? श्रीजी सखियों को कहती हैं ।
हाँ , आप उदार हो ....हम जानती हैं ...आप कितनी उदार हो ये हमें ज्ञात है .....आपसे कोई विनती करे तो आप अपना सब कुछ दे देती हो ...अपने तन मन प्राण सब कुछ ......
ये सुनते ही प्रिया जी फिर शरमा गयीं ....ये सखियों ने व्यंग किया था ।
वो आपके पुजारी हैं ना ....जो आपकी हर समय चरण वन्दन में ही लगे रहते हैं ......
कौन ? बड़े भोलेपन से श्रीजी पूछती हैं ।
सखियाँ हंसती हैं ....आप भोली हो , पर इतनी भी नहीं ।
देखो ....आपके अंगों में सुरत संग्राम के चिन्ह ....बड़े सुन्दर लग रहे हैं ...ये सुनते ही प्रिया जी अपने अंगों को फिर छिपाने लगती हैं और बोलीं - नही , ऐसा कुछ नही है ।
अच्छा , ऐसा कुछ नही है तो प्रिया जू ! हमें ये बताओ कि अपनी नीली चुनरी को छोड़कर ये पीताम्बरी कहाँ से आई ? प्रिया जी के पास अब कुछ नही था बोलने के लिये ...वो क्या बोलें ।
सखी फिर बोलना शुरू कर देती है ....प्रिया जी ! आपको नही पता तो मैं बात देती हूँ ...ये पीताम्बर वो ध्वजा है जो इस बात का प्रमाण है कि सौ सौ कामदेवों को हराने वाले परम वीर श्याम सुन्दर को आपने अपने वश में कर लिया है ।
प्रिया जी अब कुछ नही बोलतीं ....तो सखी कहती है....लो , गले की माला भी मसली हुई है .....और मैं आगे की बात बताऊँ ? तभी श्रीजी सखी की ओर बढ़ती हैं और हित सजनी के मुख पर अपनी उँगली रख कर कहती हैं ...”मत बोल” । तब हित सजनी संकेत में कहती है ...प्रिया जी ! ये सारे प्रमाण हैं कि रात में आप प्रीतम के साथ लता भवन में सोईं हैं ..हैं ना ? श्रीजी शरमा जाती हैं और दौड़कर हित सखी को अपने हृदय से लगा लेती हैं ।
पागल बाबा इसके बाद मौन हो जाते हैं ....वो इस लीला चिन्तन में देहातीत हो गये हैं ।
“आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ..........”
अन्तिम में फिर चौरासी जी के चौथे पद का गायन किया जाता है ।
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍️श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - श्रीहित चौरासी !!
( “आजु प्रभात लता मन्दिर में”- प्रीति विलास की दृष्टा )
23, 5, 2023
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गतांक से आगे -
वेदान्त कहता है ..दृष्टा बनो ...रसोपासना भी कहती है दृष्टा बनो ।
उस प्रीति विलास को निहारो ....प्रेम विलास तो उस ब्रह्म का सनातन से चल रहा है ...अपने से ही प्रकट कर अपनी आल्हादिनी से ही वो विहार करता है ...इन युगल की इच्छाशक्ति ये सखियाँ हैं ....ये इन युगल में इच्छा प्रकट करवाती है ...साधन जुटाती हैं ...केलि करने के लिए स्थान सजाती हैं ....जब सब तैयार जो जाता है ...तब ये दृष्टा बन कर खड़ी हो जाती हैं ।
है ना अद्भुत उपासना !
जो सखी भाव से भावित है उन्हें ही प्रवेश है इस उपासना में । सखी भाव यानि पूर्ण “तत्तसुख” भाव , “प्रियतम के सुख में अपना सुख खोजना”....हम श्याम सुन्दर को आलिंगन करें ? नही वो प्रिया जू को आलिंगन करें तो उन्हें इस में ज़्यादा सुख मिलेगा ...दोनों को सुख मिलेगा ..और युगल के साथ एकात्मता इतनी है इस सखियों की , कि युगल के सुख में ही ये सुखी हो जाती हैं । ये तो मात्र दर्शन करके तृप्त हैं ....दर्शन करके ही इन्हें वही सुख मिलता है जो सुख युगल को विहार करने पर प्राप्त होता है ।
देखना , दर्शन , बस सखियों को यही आता है ...सेवा और दर्शन .....और हाँ दर्शन भी वो ऐसे करती हैं ...कि युगल के विहार में विघ्न भी ना हो ....लता में छुप जायेंगी ....लता रंध्रों से देखेंगी ....फिर दूर हो जायेंगी ....ये अद्भुत प्रेम की उपासना है ....आइये इसमें डूबिए ।
और एक अद्भुत बात बताऊँ !
ये रस की उपासना है ....रसोपासना ।
ये कृष्णोपासना नही है , रामोपासना नही है ...ये शिवोपासना नही है ....इसमें कृष्ण राम शिव ये नही हैं ...यहाँ तो एक मात्र “रस” का ही खेल चल रहा है ...उसी का अनुभव करना है ....वही लीला करता है कराता है ....यहाँ उपास्य केवल “रस” है ...उपासना किसकी की जाती हैं यहाँ ...रस की । यहाँ राम कृष्ण शिव नही हैं ....यहाँ रस ही रस है ...रस का अर्थ तो पता ही होगा ! चलिये ये भी जान लीजिये कि संस्कृत में ‘रस’ का अर्थ है ! जिसका आस्वादन किया जाये उसे ‘रस’ कहते हैं ...कीजिए आस्वादन ....मन है ना , तो उसको चिन्मय श्रीवृन्दावन में लगा दीजिये .....फिर देखिये ....अन्तर चक्षु से देखिये ....वो आरहे हैं .....युगल सरकार आरहे हैं ....झूमते हुए आरहे हैं ......यही धीरे धीरे प्रकट हो जायेंगे ....फिर अंतर चक्षु की भी जरुरत नही रह जायेगी......बाहर भीतर वही रस नचाता थिरकता दिखाई देगा .....देखिये -
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इस “रस” में कैसे प्रवेश हो ? पूछा था एक सखी ने शाश्वत से ।
राधा बाग में अब पागल बाबा आने वाले हैं ...आज ये बरसाने की गहवर वन की परिक्रमा में चले गये ...इसलिये कुछ विलम्ब हो गया । रसिक लोग आये हैं ...वो अपने अपने स्थान पर बैठ गये हैं ....उस समय गौरांगी पुष्पों की रंगोली बना रही है । शाश्वत बैठा हुआ है और बाबा के आने की प्रतीक्षा कर रहा है ।
इस ‘रस’ में कैसे प्रवेश हो ? एक सखी जो दिल्ली की हैं उन्होंने पूछा था ।
चिन्तन से ...सतत चिन्तन से ...शाश्वत का उत्तर था ।
पर सतत चिन्तन सम्भव नही है ....तो फिर “श्रीधाम वास”करो .....ये भी कहना था शाश्वत का ।
उसी समय पागल बाबा आगये ....सबने प्रणाम किया उन्हें .....बाबा बैठ गये ....तो यही प्रश्न फिर उठाया ....बाबा भी यही बोले ....चिन्तन करो .....खूब चिन्तन करो ....पर चिन्तन नही बनता .....बाबा बोले ...फिर वाणी जी का पाठ करो ....उससे चिन्तन बन जायेगा । वाणी जी का पाठ ये अद्भुत है ..इससे वो लीला तुम्हारे सामने घूमेगी ....तुम धीरे धीरे रस में प्रवेश करते चले जाओगे । दिल्ली में वातावरण नही है इन सबका ! बाबा बोले ..फिर श्रीधाम आजाओ ...कुछ करना ही नही पड़ेगा ...यहाँ पड़े भी रहोगे तो सखियाँ तुम्हें उस रस में प्रवेश करा ही देंगीं । प्रश्नों की शृंखला बढ़ती देख ....शाश्वत बोला ....इन के प्रश्न कभी ख़त्म नही होंगे ...बाबा ! आप रस राज्य में हम सबको ले जाओ ।
बाबा ने श्रीहित चौरासी वाणी जी खोलने के लिए कहा ...आज पाँचवा पद है ...वीणा और सारंगी साथ साथ में बजेंगे ...और बज उठे ...पखावज की ताल में पद का गायन गौरांगी ने प्रारम्भ कर दिया .....
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आजु प्रभात लता मन्दिर में , सुख बरसत अति हरषि जुगल वर ।
गौर श्याम अभिराम रंग भरि ,
लटकि लटकि पग धरत अवनि पर ।
कुच कुमकुम रंजित मालावलि , सुरत नाथ श्रीश्याम धाम धर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत ,
चित्रित चतुर शिरोमणि निजु कर ।
दम्पति अति अनुराग मुदित कल ,
गान करत मन हरत परस्पर ।
श्री हित हरिवंश प्रसंसि परायन,
गायन अलि सुर देत मधुरतर । 5 ।
ये श्रीहित चौरासी जी का पाँचवाँ पद था , पद गायन से ही सब लोग झूम उठे थे ...गायन से पूरा राधा बाग प्रेम पूर्ण हो गया था ..अब बाबा इस पद का ध्यान बतायेंगे ....सबने वाणी जी बन्द करके रख दी है ।
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!! ध्यान !!
सुन्दर श्रीवृन्दावन है ... चारों ओर रस पूर्ण वातावरण है ...रसिकनी श्रीप्रिया जी सखियों के साथ हैं ....सब उनको रात्रि की बात पर छेड़ रही हैं ....अकेली पड़ गयीं प्रिया जी ...सखियाँ कुछ न कुछ बोल रही हैं ....तब श्रीराधा रानी चारों ओर देखती हैं ....तो उनको अपनी ओर आते हुए दिखाई देते हैं श्याम सुन्दर .....श्याम सुन्दर तेज गति से चलते हुए आरहे हैं ......आने में उनकी उत्सुकता इतनी दिखाई दे रही है कि मानों युगों से ये अपनी प्रिया से मिले ही नहीं हैं ।
सुन्दर सुन्दर सखियाँ ये देख लेती हैं ...अब प्रिया का ध्यान भी अपने प्यारे पर ही है ....सामने एक कुँज है ...बड़ा सुंदर कुँज है ...माधवी पुष्पों से निर्मित ये लता मन्दिर है ...इसमें सुगन्ध की वयार चल रही है ....मोर भीतर जा नही रहे उस लता मन्दिर के बाहर घूम रहे हैं ...मोर भी अनगिनत हैं ...तोता कोयल ये बीच बीच में बोल रहे हैं ...तो बड़ा ही मधुर लग रहा है ...सखियाँ चली गयीं .....क्यों की दोनों के मध्य में ये बाधक बनना नही चाहतीं ....किन्तु उसी लता कुँज के पीछे जाकर खडी हो गयीं ....सभी सखियाँ खड़ी हैं ...और शान्त भाव से वो देख रही हैं ....
श्याम सुन्दर नीली चुनरी कन्धे में डाले हुये हैं और पीताम्बरी श्रीकिशोरी जी ने । दोनों गले मिले ....बहुत देर तक मिलते ही रहे .....ये सखियाँ देख रही हैं और अपने नेत्रों से इस रस का पान कर रही हैं ....फिर धीरे धीरे लता मन्दिर में युगल सरकार पधारे ....पर उस समय उनकी जो शोभा थी वो एक प्रेम मत्तता की थी ।
ये देखकर लता रंध्र से हितसखी अन्य सखियों को बताती हैं ..........
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सखी ! देख आज तो प्रभात वेला में ही वर्षा हो रही है ....ये जो लता मन्दिर है ना ....इसमें सुख पूरा का पूरा बरस रहा है .....सुख की वर्षा हो रही है ....इन युगल को जो देख ले .... इस तरह प्रेम में डूबे हुए.....वो तो सुख के महासागर में गोता ही लगाता रहेगा ।
युगल को सब सखियाँ अपलक निहार रही हैं ......
अरे देखो , अभी तक तो प्रिया जू ही सुरत सुख के कारण झूम रही थीं पर ये लाल जू तो और उन्मत्त हो रहे हैं .....अभी तक सुरत सुख का आनन्द इनके हृदय से गया नही है ....रात्रि में पीया वो रस ....रसासव , वही इनकी चाल में दिखाई दे रही है ....देख तो , कैसे झूम झूम के ....लटक लटक के दोनों ही अपने पग इस श्रीवन की अवनि में रख रहे हैं .....आह ! हित सखी वर्णन कर रही है और मुग्ध है .....सब दर्शन कर रही हैं और रसासव अपने नयनों से पी रही हैं ।
माला देखो ....श्याम सुन्दर के कण्ठ में जो माला है ...उसे ध्यान से देखो .....हित सजनी कहती हैं .....क्यों सखी ! उस माला में ऐसा क्या है ? अन्य सखियों ने प्रश्न किया । सखी ! उस माला में केसर लगा हुआ है ...श्रीजी के वक्ष में जो केसर है ना उसमें ये माला मसली गयी है .... जब दोनों युगल मिले और सुरत संग्राम मचा तब ये माला भी धन्य हो गयी ...श्रीजी के वक्षस्थल की केसर प्रसादी इसे मिल गयी......और देखो देखो ...श्याम सुन्दर भी कितना प्रेम कर रहे हैं उस माला से ।
सब सखियाँ देखकर रोमांचित होती हैं .....वो सब कुछ भूल गयी हैं ......
तभी हित सजनी कहती हैं ......अब आगे देखो .....प्रिया जू के अंगों में सुन्दर चित्रावली बनाई है हमारे श्याम सुन्दर ने । हाँ ....सब सखियों ने देखे और मुस्कुराने लगीं ....नख से चित्र उकेरे हैं ...आहा ! इतना ही बोल सकीं सखियाँ .....तभी उस लता भवन के भँवरों ने गुंजार शुरू कर दिया ...उनके गुंजार से संगीतमय वातावरण का निर्माण हो गया था । भँवरों के गुंजार के साथ अब सखियों ने भी गीत गाने शुरू कर दिए .....श्याम सुन्दर सखियों को देखकर मुस्कुराए ...और उनके गायन की प्रसंसा करने लगे थे ....किन्तु श्रीजी शरमा रही थीं ।
अद्भुत झाँकी थी ये युगल और सखियों की ..........
पागल बाबा मौन हो गये ....अब बोलने के लिए कुछ था नही ......
गौरांगी ने फिर गायन किया श्रीहित चौरासी जी के पाँचवे इसी पद का ।
“आजु प्रभात लता मन्दिर में , सुख बरसत अति हरषि जुगल वर .......”
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - श्रीहित चौरासी !!
( रसिक अनन्य श्याम - “कौन चतुर जुवती प्रिया” )
24, 5, 2023
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गतांक से आगे -
हे कृष्ण ! तुम पूर्ण प्रेमी नही हो सकते ..क्यों की पूर्ण प्रेमी के लिए “अनन्य” होना आवश्यक है ।
रास लीला के मध्य में श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान हो गये थे ...गोपी गीत सुनाकर इन्हें प्रकट किया गोपियों ने...बहुत बातें हुईं ...दोनों के मध्य शास्त्रार्थ भी हुए. ..हार गये श्रीकृष्ण ...वो बोले ...सच्ची प्रेमिन तो तुम लोग हो ...प्रेम क्या है ये तुमने ही जाना है ।
“तुम प्रेम में पूर्णता पा भी नही सकते” ...दो टूक कह दिया था गोपियों ने ।
सिर झुका लिया श्रीकृष्ण ने ...तो गोपियाँ बोलीं ...प्रेम के लिए अनन्य होना आवश्यक है ...बिना अनन्यता के कोई प्रेमी बन ही नही सकता ...बन तो सकता है किन्तु अपूर्ण ही रहेगा ।
श्रीकृष्ण क्या बोलते ...वो चुप रहे ...क्यों की बात सही थी गोपियों की ।
हम हैं प्रेमिन ...हमने प्रेम के लिए सब कुछ त्याग दिया है ...सब कुछ । हमारे जीवन में सिर्फ तुम हो ...पर तुम्हारे जीवन में ? नाना भक्त हैं ....सबकी तुम्हें सुननी पड़ती है ....क्यों की तुम ईश्वर हो । हम लाख कहें तुमसे ....कि हम सिर्फ तुम्हारी है ....पर तुम नही कह सकते कि ....हम भी सिर्फ तुम्हारे हैं ।
हाँ रसिक हो तुम , तुम भ्रमर हो ....पर भ्रमर होना कोई बड़ी बात नही है ....जहाँ फूलों का पराग देखा वहीं बैठ गये ...पी लिया रस ...फिर उड़ चले । भक्तों का हृदय कमल है उसमें प्रेम का पराग देखा तो वहीं रुक गये ....फिर दूसरा भक्त ....अनन्त भक्त हैं सृष्टि में तुम्हारे ...देखो कृष्ण ! बड़ी बात है अनन्य होना । प्रेम राज्य में आदर भ्रमर का नही होता ...मछली का होता है चातक का होता है ....क्यों की ये अनन्य हैं ।
गोपियाँ बोलती जा रही थीं ,श्रीकृष्ण बैठ गये ...हाथ जोड़ लिये और कहा ..मुझे अनन्य बनना है ।
“इसके लिए तो ईश्वरत्व से मुक्ति पानी होगी”....आगे आकर ललिता सखी ने कहा ।
हाँ , मुझे ईश्वरत्व से ही मुक्ति चाहिये ...और तभी ललिता सखी ने श्रीराधा रानी के चरणों में लगी महावर अपनी उँगली में ली और श्याम सुन्दर के मस्तक में लगा दिया ...बस ये तभी से मुक्त हो गये ईश्वरत्व से ...ये निकुँज के श्याम सुन्दर ...रसिक तो थे ही अब अनन्य भी हो गये ।
अब ये श्रीराधा रानी के सिवाय किसी को नही देखते ...उन्हीं के रस में मत्त रहते हैं ...उन्हीं में मत्त रहते हैं ...तो ये विरोधाभास रसिक और अनन्य ...ये सिर्फ श्याम सुन्दर में हैं , अवतारी कृष्ण में नहीं ...निकुँज विलासी श्याम सुन्दर में ।
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आज वर्षा हुई ...अच्छी वर्षा हुई ....राधा बाग के वृक्ष लतायें ये भी नहा धोकर श्रीहित चौरासी जी के इस उत्सव के लिए तैयार हो गये ....रज की भीनी भीनी सुगन्ध आरही थी ...जो वातावरण को मन मोहक बना रही थी । गुलाब के फूल आज मथुरा से किसी ने भेजें हैं .....ढेर है ....किसने भेजे ये पता नही ....बस एक गाड़ी आई और फूलों से भरी चार बोरी डाल गयी ।
पागल बाबा बाग में ही हैं आज ....वो श्रीजी मन्दिर भी नही गये ...ध्यान में थे ....जब गौरांगी और शाश्वत फूलों के विषय में आपस में बातें कर रहे थे तो बाबा बोले ...फूल आगये ? अब इनको चारों ओर सजा दो ....वृक्षों की क्वाँरी बना दो ...और रंगोली भी ।
गौरांगी ने वही किया ......शाश्वत ने भी साथ दिया ....मैं तो बाबा के साथ ध्यान में ही था .....हाँ सजाते हुए देखने वाले दर्शक राधा बाग के मोर पक्षी आदि ही मात्र थे ।
लोग आये समय हो गया था .....सब आकर बैठ गये .....यहाँ कोई सट कर नही बैठता ....जिसको जहां रुचिकर लगे ....कोई कदम्ब के नीचे तो कोई तमाल के ....कोई मोरछली के नीचे तो कोई पारिजात के । सब उच्च स्थिति के हैं .....इस रस के जानकार है ।
बाबा को बाँसुरी अच्छी लगती है ....वो कल बोले भी थे ...वीणा और सारंगी दोनों तार के वाद्य हो गये ...एक बाँसुरी होती तो ! बस बाबा का कहना था कल ...तो आज एक लड़का आगया ...सुन्दर छोटी आयु का था ...केश घुंघराले ...शान्त गम्भीर । मैं बाँसुरी बजाऊँगा ...बाबा को प्रणाम करते हुए वो बैठ गया और सारंगी वाले से कहने लगा ...बाँसुरी निकाली ...बाबा की ओर देखकर मैं मुस्कुराया ... बाबा भी मुस्कुराये ....”श्रीजी सब व्यवस्था कर देती हैं” ..गौरांगी बोली ...और श्रीहित चौरासी जी का गायन प्रारम्भ हो गया । आज तो चौरासी जी के गायन के समय मन्द मन्द वर्षा भी होने लगी थी .....वो बड़ा सुखद लग रहा था...और दिव्य लग रहा था ।
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कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैंन ।
दुरवत क्यों अब दूरैं सुनी प्यारे , रंग में गहले चैंन में नैंन ।।
उर नख चंद विराने पट , अटपटे से बैंन ।
श्री हित हरिवंश रसिक , राधा पति प्रमथित मैंन ।6।
श्रीहित चौरासी जी के छटे पद का गायन था आज ...गायन हुआ ...सबने वाणी जी बन्द करके रख दी ...बाबा अब इसी पद का ध्यान करायेंगे ...सबने नेत्र बन्द कर लिये हैं ।
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!! ध्यान !!
लता मन्दिर अद्भुत है ....उसमें माधवी के जो पुष्प लगे हैं उसकी सुगन्ध वातावरण में फैल रही है ....अभी सूर्य उदित नही हुए हैं ....निकुँज के सूर्य और चन्द्रमा भी यही हैं ...भू पर उदित होने वाले सूर्य यहाँ के नही है ...ये दिव्य धाम है ...यहाँ सब दिव्य और चिन्मय है ...तो सूर्य अभी उदित नही हुये हैं ...जब तक सखियाँ नही चाहेंगी यहाँ कुछ नही होगा ...और सखियाँ भी तब चाहेंगी जब ये युगल चाहेंगे । दिव्य अद्भुत । सखियों ने लता मन्दिर के भीतर युगल को देखा ...लता रंध्रों से देखा ....रति सुख के चिन्ह इनके अंग पर देख ये सब आनन्द विभोर हो गयीं थीं ...पर भ्रमरों ने गान किया तो सखियों ने भी उनके गान में साथ दिया ...सखियों को गाता श्याम सुन्दर ने देख लिया उस रंध्र से ...जहां से सखियाँ निहार रही थीं ...मुस्कुराते हुये श्याम सुन्दर उस लता मन्दिर से बाहर आगये ...किन्तु श्रीजी नही आईं ....वो रात्रि के सुरत सुख का चिन्तन करते हुए मत्त थीं ....तुरन्त ललिता सखी लता मन्दिर में गयीं और श्रीराधा जू को सम्भाल लिया ।
किन्तु हित सखी श्याम सुन्दर के पीछे चली गयी...आज ये श्याम सुन्दर को छेड़ना चाहती है ....श्याम सुन्दर में अभी भी वही मत्तता है ...वो झूमते हुये चल रहे हैं .....उनके अंग में जो नीलांबर है वो अवनी पर गिर रहा है .....उनके गले की माला उनके कानों के कुण्डल में उलझ कर उसके फूल नीचे झर रहे हैं ...उनका वो नीला श्रीअंग ....जिसमें से सुगन्ध प्रकट हो रही है ....पर इनके अंग की सुगन्ध नही है .....इनके अंग से प्रिया जू के अंग की सुगन्ध आरही है ।
अब वो पीछे आने वाली हित सखी श्याम सुन्दर को छेड़ती है ........
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सुनो ! सुनो लालन !
एक सखी दौड़ती हुई श्याम सुन्दर के पास आती है ..वो मुस्कुरा रही है उसकी मुस्कुराहट में व्यंग है ...कुछ कटाक्ष है ..रहस्य से भरी मुस्कान देखकर श्याम सुन्दर भी रुक जाते हैं ।
सखी पास में आती है ..श्याम सुन्दर उसे देख रहे हैं ..नयनों के संकेत से ही पूछते हैं ..क्या बात है ?
तब सखी नयनों को मटकाते हुए कहती है - लाल ! कौन है वो ?
कौन ? श्याम सुन्दर उसी से प्रतिप्रश्न करते हैं ।
अब छुपाओ मत ....कौन है वो चतुर प्रेयसी जिससे तुम रात में चोरी चोरी मिलते हो ?
ये सुनते ही श्याम सुन्दर कुछ शरमा गये ....उन्होंने अपना सिर थोड़ा झुका लिया ।
नही , बड़े भोलेपन से उन्होंने अपना सिर हिलाया ।
फिर ये आँखिन की रँगाई ? प्यारे ! आँखें सब बोल देती हैं ....तुम्हारी ये आँखें जो लाल हो रही हैं ...ये इस बात का सूचक हैं कि किसी सुन्दर युवती ने तुम्हारे आँखों को रंग दिया है । वो सुख , वो आनन्द जो तुमने लूटा है वो तुम्हारी आँखों में सब दीख रहा है .....श्याम सुन्दर सखी की बात सुनकर फिर शरमा गये । सखी कुछ नही बोली तो श्याम सुन्दर ने कहा ...कमल पराग का कण उड़कर मेरी आँखों में चला गया था ...मैं मलने लगा तो लाल हो गया होगा ।
सखी हंसते हुए बोली ....फिर ये चित्र आपके वक्षस्थल में किसने उकेरे ? और ऐसा दिव्य लग रहा है ......जैसे अर्ध चन्द्रमा को आकाश में ही उकेर दिया हो । श्याम सुन्दर तुरन्त अपने आपको श्रीजी की नीलाम्बरी से छुपाने लगते हैं ...तो आगे बढ़कर सखी फिर हटा देती है नीलाम्बरी को ...और श्याम सुन्दर के वक्षस्थल को ध्यान से देखती हुई कहती है ....आहा ! किसी चतुर नायिका ने अपने नख से ये चित्र उकेरा है ....सच में तुम रसिक हो तो वो भी कोई परम रसिकनी ही होगी ....ऐ ! बताओ ना कौन है वो ? सखी फिर छेड़ती है । पर श्याम सुन्दर अब बोल नही पाते ...उन्हें रात्रि के विलास का स्मरण हो आया है ..वो उसी रति केलि का स्मरण कर मौन हो गये हैं ।
बलैयाँ लेती है हित सखी ...कहती है ...मैं अब ज़्यादा आपको परेशान नही करूँगी ...हे मेरे राधा पति ! हे रसिक ! तुम ही हो जो राधा के पति हो तो अनन्य हो ...रस के पियासे हो तो रसिक हो .....तुम काम देव से मथे गये हो ...अच्छे से मथे गये हो । हे राधा पति ! इसलिये मेरे सामने तुम बोलने में असमर्थ हो । इतना कहकर मुस्कुराते हुए वो हित सखी वहाँ से अपनी श्रीराधा रानी के पास चली जाती है ।
आहा !
। साँची कहौ इन नैनन रंग की , दीन्ही कहाँ तुम लाल रँगाई ।
जय जय श्री राधे ! जय जय श्री राधे ! जय जय श्रीराधे !
पागल बाबा रसोन्मत्त हो गये ...
गौरांगी ने फिर इसी चौरासी जी के छटे पद का गायन किया ।
कौन चतुर जुवती प्रिया , जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैन........
आगे की चर्चा अब कल -
हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( अभूत जोरी - “आजु निकुँज मंजु में खेलत”)
25, 5, 2023
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गतांक से आगे -
कुछ पुराना नही है निकुँज में , ना , जहां काल की गति नही है वहाँ नित नूतन तो है ही । सब कुछ नया है ....श्रीवन नया , यहाँ के लता वन नये ...उन लताओं के पल्लव नये ...उनमें खिले फूल नये ...उनमें गुंजार कर रहे भँवरे नये ...यमुना नयी ...श्रीवन की भूमि नयी ....सखियाँ नयी ....उन सखियों के वस्त्र नये ...उनका हास परिहास सब नया । अब यहाँ ध्यान देने की बात है कि यहाँ ये नूतनता हर क्षण में है ....क्षण क्षण में नवीन ।
श्याम सुन्दर नये ...उनकी गोरी श्यामा जू नयी ....उनका सौन्दर्य क्षण क्षण नया ।
आप निकुँज में युगल के दर्शन कर रहे हैं तभी एक क्षण के लिए आपकी पलकें झपकीं कि तभी उनका पूर्व का सौन्दर्य अब नही रहा ....उससे भी अधिक है .....सौन्दर्य का सागर आपके सामने लहरा रहा है ....ये नवीनता बनी ही रहती है .....यही अद्भुत है इस रस में ....यही विलक्षणता है इस रस की । यहाँ सब कुछ चिद्विलास ....यहाँ जड़ की सत्ता ही नही है .....यहाँ तो सिर्फ - रस है रस ।
वही रस बह रहा है ...वही नाच रहा है ....वही चल रहा है ...वही हंस रहा है ......वही वही है सर्वत्र । उसके सिवा और कोई नही , कुछ नही है । अद्भुत अनुपम है ये सब ।
ये रस कहाँ से मिलेगा ? कल मुझे एक ने बड़े भावुक हृदय से पूछा ।
मैंने कहा ....इस रस के लिए अभूत भूमि ये श्रीवृन्दावन ही है ...ये यहाँ मिलेगा । ये रस यहीं मिलेगा । बाहर आपको प्रयास करना पड़ेगा ....वातावरण बनाना पड़ेगा ...रस ऐसे ही थोड़े मिल जायेगा ! किन्तु श्रीवृन्दावन में कुछ नही करना है ....बस पड़े रहो ..किन्तु भरोसा उसका हो ....बस ..फिर देखना वो रस का दरिया तुम्हारे पास बहता हुआ आयेगा । तुम इस रस में गोता लगाना चाहते हो ? तो आओ ! यहाँ आओ ....निहारो सखी ! उज्ज्वल नीलमणि को ....आहा ! उज्ज्वल श्रीराधा रानी हैं और नीलमणि हमारे श्याम । फिर रस ही रस होगा .....रस में ही डूबते उबरते रहोगे। जय जय ।
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शान्त बैठे हैं आज पागल बाबा । राधा बाग में श्रीजी के कुछ चरण चिन्ह बाबा को दिखाई दिए ....तो उनको भाव आगया ...वो भाव में डूबे हैं ....चार घण्टे तक ये “हा राधा, हा राधा” कहते रहे ...उसके बाद अब ये शान्त हैं ...शून्य में देख रहे हैं ...आज ये बोल पायेंगे या नही ? शाश्वत पूछता है । गौरांगी कहती है अभी तो दो घण्टे हैं ....दो घण्टे में तो बाबा भाव राज्य से बाहर आजायेंगे । पुष्पों की भरमार है आज भी ...आस पास लोग पुष्प भेज देते हैं ...कुछ माली भी हैं जो बाबा के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं । वो भी लेकर आए हैं पुष्प । पुष्पों को सजा दिया गया है ..आज तो एक भक्त जल का फुहारा भी ले आया ...फुहारे से गुलाब जल निकल रहा है जिसके कारण बाग गमक रहा है ।
बाबा अब ठीक है .....उन्होंने जल पीया है ....फिर गौरांगी से कहा - ये जो कलाकार हैं इनके लिए एक एक माला की व्यवस्था करो ....और ये बृजवासी भी हैं ...इनको कुछ दक्षिणा भी मिलनी चाहिये .....उसी समय एक सेठ जी ने सौ रुपये की गड्डी बाबा के सामने रख दी । बाबा सेठ को ही बोले ...तुम बाँट दो।
लोग आरहे हैं ...सब मुस्कुराते हुए आते हैं ....सबके मुख पर श्रीहित चौरासी जी की चर्चा है । बैठ गये हैं सब लोग ....आज से कुछ राधा बाग से बाहर बैठेंगे ...क्यों की स्थान अब नही बचा है । सारंगी वीणा बाँसुरी पखावज में गौरांगी अब गायन करना आरम्भ कर देती है ...आज सातवें पद का गायन होगा और उसी पर चर्चा होगी ।
गौरांगी के मधुर कण्ठ के साथ कई कण्ठ गा उठे थे - श्रीहित चौरासी जी के सातवें पद को ।
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आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किशोर नवीन किशोरी ।
अति अनुपम अनुराग परस्पर , सुनि अभूत भूतल पर जोरी ।।
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर , नव कर्पूर पराग न थोरी ।
कोमल किशलय सैंन सुपेशल , तापर श्याम निवेसित गोरी ।।
मिथुन हास-परिहास परायन , पीक कपोल कमल पर झोरी ।
गौर श्याम भुज कलह मनोहर , नीवी बंधन मोचत डोरी ।।
हरि उर मुकुर विलोकि अपनपौ , विभ्रम विकल मान जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत , पिय प्रतिबिम्ब जनाइ निहोरि ।।
नेति नेति वचनामृत सुनि सुनि , ललितादिक देखत दुरी चोरी । श्री हित हरिवंश करत कर धूनन , प्रणय कोप मालावलि तोरी ।7 ।
इस पद में अद्भुत लीला है निकुँज की ...गौरांगी का प्रिय पद है ये ..इसने अतिउत्साह से इसका गायन किया है ।
अब बाबा इस पद का ध्यान बतायेंगे ....सब लोगों ने वाणी जी रख दी ...और नेत्र बन्द कर लिये ।
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।। ध्यान ।।
लता मन्दिर में ललिता सखी के साथ श्रीकिशोरी जी विराजी हैं ...उन्हें कुछ भान नही है ...पर बाहर जब अपने प्रियतम की आवाज सुनी तो वो तुरन्त उठ गयीं ...वो लता भवन से बाहर आकर देखने लगीं ...उस समय उनकी शोभा देखते ही बन रही थी ...स्वर्णमिश्रित गौर मुख कितना दमक रहा था उनका ....उनकी अलकें झूल रहीं थीं उनके गोरे कपोल में ....और उनकी वो नीली साड़ी का पल्लू श्रीवन की अवनी का स्पर्श कर रही थी ....उन्हें भान नही था....वो अपने प्यारे से अब मिलना चाहती हैं...कितना समय हो गया इनको मिले हुए ! ...यहाँ तो क्षण भी युग के समान लगता है ...वो बाहर आयीं ...तो देखा - हित सखी के साथ बतिया रहें हैं श्याम सुन्दर ...हित सखी उन्हें छेड़ रही है । श्याम सुन्दर को देखते ही ये दौड़ पड़ीं ....हित सखी ने देखा ...प्रिया दौड़ते हुए आरही हैं ...तो हित सखी वहाँ से हट गयी ।
दोनों युगल गले मिले ....प्रगाढ़ आलिंगन हुआ दोनों में । सब सखियां देख रही हैं ...वो अपने नयनों को धन्य बना रही हैं ...धीरे धीरे दोनों अलग हुए ...फिर सामने एक दिव्य कुँज है ....इसी कुँज में अपनी प्रिया को लेकर श्याम सुन्दर प्रवेश कर गये । पीछे से सखियां आयीं ....चलती हुयी लता छिद्रों के पास पहुँचीं....फिर वहाँ से ये सब देखने लगीं ....वो कुँज दिव्य था ...नाना प्रकार के पुष्प उसमें खिले थे ....कुँज की धरती स्फटिक मणि की थी ....कुँज में झालर झूल रहे थे ...कोई झालर तो कंचन मणि का था ...कोई झालर मोतियों के थे ...कोई पन्ना के थे ....एक मोतियों के झालर को श्याम सुन्दर पकड़ते हैं तो वो टूट जाते हैं और बिखर पड़ते हैं ...उस समय जो शोभा बनती है अवनी की ....वो अकथनीय है । भीतर ही एक सुन्दर फूलों की फुलबारी है ...उसमें सारे फूल हैं ....उन्हीं फूलों से सुगन्ध की वयार चल पड़ी है । मतवाले भ्रमर कहाँ पीछे रहने वाले थे ...वो गुन गुन करके , गायन करने लगे ....उनका साथ देने के लिए कोयली भी कुहुँ कुहुँ करने लगी .....मोर नृत्य कर उठे ....तभी युगल ने सामने देखा ...कमल दल से किसी ने आसन बना दिया है ....सज्जा उस आसन की देखने जैसी है ...युगल वहीं गये और जाकर बैठ गये .....बैठते ही इन दोनों ने एक दूसरे को देखना प्रारम्भ किया .....बस फिर क्या था .......
सखियाँ लता छिद्रों से देख रही हैं ......और हित सखी उसी का वर्णन कर रही हैं .........
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सखी ! आज प्यारी और प्यारे दोनों नवल निकुँज में खेल रहे हैं ....तो कुँज भी नवल है ....और खेल भी नवल है ....अजी ! खेलने वाले किशोर भी नवल हैं और खिलाने वाली किशोरी भी नवल है। देखो तो कितने सुन्दर लग रहे हैं दोनों खेलते हुए ....खेल रहे हैं ....अनुराग का खेल खेल रहे हैं । अनुराग भरा हुआ है दोनों में ...तो वो अनुपम है ...उसकी कोई उपमा नही है । और इसका दर्शन केवल श्रीवृन्दावन में ही होता है ..जहां अनुराग उन्मत्त होकर नाच उठता है ...सखी ! ऐसी भूमि कोई दूसरी है नही , इस भूतल पर ही नही है । हंसती है सखी और कहती है ...क्या कहूँ ! न श्रीवृन्दावन जैसी भूमि है कोई , न ऐसी जोरी है कोई ...ये दोनों हैं अभूत हैं ...हुए नही हैं । हित सखी देखकर आनंदित है । वो सबको गदगद होकर बता रही हैं ...सब सुन भी रही हैं और देख भी रही हैं ।
जिस पर ये विराजे हैं ना ...वो कोमल कोमल कमल दल से तैयार किया हुआ आसन है ...सखी ! देख तो कितने शोभायमान लग रहे हैं दोनों । इस कमल दल के आसन में बैठकर इनकी शोभा भी अद्वितीय लग रही है ।
ये कहते हुए हित सखी हंस दी ...अन्य सखियों ने पूछा ...आप हंस क्यों रही हो ? हित सखी बोली - इनके कपोल में देखो ...लाल लाल चिन्ह से बन गए हैं ना ...ये पान के पीक की लाली है । ये लाली कितनी अच्छी लग रही है ।
सखी ! देखो, अब दोनों हंस रहे हैं ...एक दूसरे को हंसा रहे हैं ...और हँसाते हुए एक दूसरे को छेड़ भी रहे हैं ...इस छेड़ने के कारण रस उन्मत्त हो गया है ....रति कलह मच गया है ...दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं ...जब श्याम सुन्दर अपना हाथ छुड़ाते हैं तब श्याम सुन्दर हंस पड़ते हैं ...जब प्रिया जू अपना हाथ छुड़ाती हैं तो वो खिलखिला पड़ती हैं ..इनके खिलखिलाने से निकुँज खिलखिला रहा है । श्याम सुन्दर बार बार कटि बन्धन खोलने का प्रयास करते हैं ...तो श्रीराधा जू उनका हाथ हटा देती हैं ...और रोष प्रकट करने का स्वाँग दिखाती हैं ।
श्याम सुन्दर के हृदय में स्फटिक की माला है ....उसमें श्रीराधा रानी को अपनी ही छवि दिखाई देती है ....बस फिर क्या था अपनी ही छवि देखकर ही श्रीराधा मानिनी हो उठती हैं....उन्हें मान हो गया । श्याम सुन्दर ने देखा ये क्या ! अभी तक तो सब ठीक था फिर एकाएक ये क्या हुआ ? प्रिया को मनाने लगे ...पर ये तो रूठ गयीं हैं ...अब श्याम सुन्दर परेशान हो उठे ....वो अपनी प्रिया के चिबुक को छूते हुए बोले ....कारण तो बताओ ? मुझ से अपराध क्या हुआ ? श्रीराधा जी बोलीं - तुम्हारे वक्षस्थल में ये सौत कौन है ? झूठ कहते थे तुम कि मैं ही तुम्हारे हृदय में हूँ ...अब बताओ , ये कौन है ? ये सुनते ही श्याम सुन्दर मुस्कुराए ....और बड़े प्रेम से अपने हृदय से लगाकर प्यारी को कहा ...आप ही हो ...आपने अपने आपको नही पहचाना ? किन्तु श्रीजी कहती हैं....नहीं , नहीं ...ये मैं नही हूँ । श्याम सुन्दर बारम्बार समझाते हैं पर श्रीराधिका जी नही मानतीं अब उनका कोप बढ़ता जा रहा है .....और इसी रोष में वो उस स्फटिक की माला तोड़ देती हैं .....माला के टूटते ही श्रीराधिका को स्व प्रतिबिम्ब दिखाई देना बन्द हो जाता है ....वो बिखरे फटिक को देखती हैं तब वो समझ जाती हैं ...और ,और मन्द मुस्कुराते हुए अपने प्यारे को हृदय से लगा लेती हैं ।
ये प्रेम की अद्भुत लीला है ......इतना कहकर पागल बाबा मौन हो गये थे ।
गौरांगी ने अन्तिम में श्रीहित चौरासी जी का सांतवा पद एक बार फिर गाया ।
“आजु निकुँज मंजु में खेलते , नवल किशोर नवीन किशोरी”
आगे की चर्चा कल -
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हरि शरणम् गाछामि ✍🏼श्रीजी मंजरी दास (श्याम प्रिया दास)
आज के विचार
!! राधा बाग में - “श्रीहित चौरासी” !!
( जब हितसखी ने कहा -“अति ही अरुण तेरे नैंन री” )
26, 5, 2023
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गतांक से आगे -
कौन है वो जो इस “अद्वैत”को भी द्वैत बनाने में तुला है ?
कौन है वो जो इस आत्माराम में भी दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा कर रहा है ?
कौन है वो जो इस पूर्णानन्द को भी अपूर्ण बनाने में लगा है ?
जी , इसका एक ही उत्तर है .....”हित सखी”।
साधकों ! परमात्मा की दो प्रकार की सृष्टि है ......एक जीवार्थ और एक आत्मार्थ ।
जीवार्थ - यानि जो जीव हैं उनके लिए परमात्मा की सृष्टि ...और दूसरी है आत्मार्थ ......यानि अपने लिए सृष्टि । श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं ...वो अपने लिए , अपने आनन्द के लिए सृष्टि करते हैं तो सबसे प्रथम “श्रीवृन्दावन” को प्रकट करते हैं ...भई ! आपको रस लेना है ...उसी रस को रास बनाना है तो स्थान तो चाहिये ...इसलिये वो प्रथम स्थान की सृष्टि करते हैं .....फिर उसके बाद वो अपनी आत्मा को प्रकट करते हैं .....वो श्रीराधा के रूप में होती हैं ....दोनों मिलते हैं ...आनन्द और रस का मिलन हुआ , सुख बरसा , पर जो सोचा था वो नही हुआ । प्रेम सिन्धु में जो तरंगे नित नवीन उठती रहें ....ये कैसे हो ?
रास , ये एक में तो असम्भव ही है ....दो में मिलन हो सकता है ....किन्तु रास तो दो में भी सम्भव नही है ...उसके लिए मण्डली चाहिये ...तो क्या किया जाए ! तब ब्रह्म ने अपने ही भीतर विराजमान “हित तत्व” को आकार दिया ...उन्हें प्रकट किया ।
“हित” का अर्थ प्रेम होता है ....हित - साधारण शब्दों में “भला” के लिए प्रयोग किया जाता है ....दूसरे की भलाई की भावना जो है - उसे “हित” कहते हैं ।
अब ये हिततत्व ऐसा प्रेमतत्व था ...जो सर्वभावेन अपने प्रिय के ही विषय में , उनके सुख में , उनके आनन्द की व्यवस्था में ही लगा रहता था । इनके बिना सम्भव ही नही है कि वो ब्रह्म और उनकी आल्हादिनी अपनी लीला को प्रस्तुत कर पाते । इसलिये ब्रह्म ने अपने रस को बढ़ाने के लिए अपने से ही इस हिततत्व को प्रकट किया था । और यही हिततत्व “हित सखी” के रूप में प्रकट हो गयीं । ये ब्रह्म और आल्हादिनी की प्रेरयिता हैं ....इन पूर्णानन्द में भी आकर्षण प्रकट करने वाली कोई हैं तो वो हैं - हित सखी । जो नाना रंगों को , जो नाना रसों को दिखाकर प्रेरित करती हैं कि ...मिलो , प्रेरित करती हैं कि विलसो...प्रेरित करती हैं कि तुम पूर्ण कहाँ हो ? उस पूर्णानन्द को विस्मृति करा देती हैं कि तुम अपूर्ण हो ...ये हिततत्व का चमत्कार है ।
प्रेम में अपने आपको भूलना ये भी आवश्यक है । अपनी महिमा को अगर तुम समझते रहे कि मैं ये हूँ , कि मैं वो हूँ ...तो प्रेम का पूर्ण होना सम्भव नही है ...प्रेम में तो स्व माहात्म्य की विस्मृति आवश्यक है । ये हितसखी दोनों को ही दोनों के स्वरूप को भुलवा देती है ...श्याम सुन्दर भूल जाते हैं कि मैं परब्रह्म हूँ और श्रीराधा भूल जाती हैं कि मैं सर्वोच्च सत्ता की परम शक्ति हूँ ...ये विस्मृति प्रेम राज्य में आवश्यक है ...ये विस्मृति नही होगी तो प्रेम का पुष्प खिलेगा नही । इसलिये इन युगल के विहार में “हित सखी” की प्रधानता है । ये विलास , रास , महारास ये सब हित सखी का ही सुन्दर प्रबन्ध है ....चलिये अब आनन्द लीजिये उस प्रेमराज्य का ...जहां श्याम सुन्दर हैं उनकी प्रिया हैं और मध्य में हित सखी है ...जो दोनों को मिलाना भी चाहती है और नही भी । ये अद्भुत रस केलि है । और स्मरण रहे - “यही सनातन है” ।
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आज पागलबाबा बहुत हंस रहे हैं .... ये हंसते हैं तो बालकों की तरह हंसते हैं ...खिलखिलाते हुये हंसते हैं । इनके साथ राधा बाग भी हंस रहा है ....गौरांगी मेरी ओर देखती है ...वो भी हंस रही थी ।
आज बड़े हंस रहे हैं बाबा ,आप तो ? शाश्वत गम्भीर है इसलिये ये प्रश्न भी उसी ने किया ।
बाबा के हंसते हुए अब अश्रु बहने लगे थे ...बाबा सामान्य बात या संसारी बात में हंसते नही हैं ...इनकी स्थिति बहुत ऊँची है ...पर ये अपनी स्थिति किसी को दिखाते भी तो नही है ।
“डर गये ...डर गये”.....बाबा स्वयं ही बोल उठे ।
कौन डरा ? क्यों डरा ? गौरांगी ने प्रश्न किया ।
“लालन डर गये”.....बाबा की आँखें मत्त हैं ।
लालन क्यों डर गये ? अब ये मेरा प्रश्न था ।
लालन दवे पाँव आरहे थे श्रीजी के पास ...श्रीजी पर्यंक में लेटी थीं ....श्रीजी को डराने के लिए आरहे थे ....किन्तु जब उन्होंने श्रीराधा रानी की चोटी पर्यंक से नीचे लटकी हुई देखी ....तो साँप समझ कर डर गये ...और भाग गये ...बाहर जाकर उन्होंने दूसरी साँस ली । ये कहते हुए पागल बाबा फिर हंस रहे थे ।
ओह ! तो ये लीला राज्य में थे .....और इनके सामने ये लीला आज प्रकट हुयी थी .....
हम बाबा को निहार रहे थे .....गदगद भाव से उन्हें देख रहे थे ...बाबा समझ गये कि अब ये लोग मुझे महिमामण्डित करेंगे ...इनके मन में “मैं” आजाऊँगा । ये सोचकर बाबा तुरन्त गम्भीर हो गये ...बोले ...श्रीहित चौरासी जी कहाँ हैं ? आज तो आठवाँ पद है ...गाओ ।
शाश्वत ने कहा ....बाबा ! अभी आधा घण्टा और है ...लोग आजाएँ ।
बाबा बोले ...लोग आते रहेंगे ...हम तो श्रीजी को सुना रहे हैं ना ? ले आओ वाणी जी और गान करो .....बाबा की आज्ञा , तुरन्त वाणी जी लाई गयी ....और आठवें पद का गायन गौरांगी ने जैसे ही आरम्भ किया ....रसिक जन दौड़े दौड़े आने लगे .....और राधा बाग में श्रीहित चौरासी जी का ये पद गूंज उठा । आठवाँ पद ।
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अति ही अरुण तेरे नैंन नलिन री !
आलस जुत इतरात रँगमगे , भये निशि जागर मषिन मलिन री ।।
सिथिल पलक में उठत गोलक गति , विधयौ मोहन मृग सकत चलि न री ।।
श्रीहित हरिवंश हंस कल गामिनी , सम्भ्रम देत भ्रमरनि अलिन री ।8 ।
अति ही अरुण तेरे ...............
( साधकों ! ये लीलाएं “कुछ समझने” के लिए नही हैं , कुछ ज्ञान, सन्देश आदि के लिए भी नही हैं ..ये सिर्फ ध्यान के लिए हैं ..चिन्तन के लिए हैं , उस लीला राज्य में आपकी गति हो इसलिए हैं )
अब बाबा सबको ध्यान कराते हैं ..........
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।। ध्यान ।।
सुन्दर चिद श्रीवृन्दावन है ...इसकी शोभा भी हर क्षण नवीनता को प्राप्त होती रहती है ....यमुना जी का आकार कंगन का है ...यमुना इस श्रीधाम की परिक्रमा लगाती हैं ....नवीन नवीन कुंजें हैं यहाँ ...जब जब सखियों की इच्छा होती है जैसे कुँज की , वैसा ही कुँज प्रकट हो जाता है ।
लताओं की डाली पुष्पों के भार से झुकी हुई हैं ...उन लताओं के पत्ते चमकीले हैं ...उनमें चमक है ...उन्हीं लताओं में पक्षी गण बैठे रहते हैं ...ये भी मधुर मधुर गान सुना रहे हैं प्रिया प्रियतम को ।
कमल दल के दिव्य आसन में युगल विराजे हैं ....दोनों में खूब बातें हुईं ...कलह भी हुआ ...कण्ठ में विराजित श्याम सुन्दर की मालावलि भी तोड़ दी प्रिया ने ।
पर अन्त में मिल गये ....श्याम सुन्दर देख रहे थे प्रिया की ओर ...तभी प्रिया ने अपने नयनों को थोड़ा ( अर्ध )मूँद लिया ...फिर मुस्कुराने लगीं ...श्याम सुन्दर प्रिया की इस छवि पर मुग्ध हो गये ...और प्रिया से फिर कहा ...एक बार और ...प्रिया फिर अपने नयनों को आधा मूँद कर मुस्कुरा दीं ....बस क्या था ! श्याम सुन्दर अपनी प्रिया की इस प्रेमपूर्ण झाँकी को देखकर मूर्छित ही हो गये ।
प्रिया अपने प्रियतम को उठाने ही जा रही थीं कि अवसर देखकर हितसखी कुँज में चली आई ।
श्रीराधा जी अपनी सखी को देखती हैं ...वो कुछ कहतीं कि सखी ही श्रीराधा रानी के निकट जाकर बैठ जाती है ....नयनों के संकेत से पूछती हैं ...हितू ! क्या है ? सखी श्रीजी का हाथ छूती है बड़े प्रेम से ...फिर मन्द मुस्कुराती हुई कहती है ....”शिकारी ने आखिर वाण चला ही दिया , बेचारा मृग मूर्छित हो गया “ ये कहते सखी हंसती है ...श्रीजी श्याम सुन्दर की ओर देख रही हैं ....फिर सखी की ओर देखती हैं तो सखी कहती है ........
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( इस आठवें पद में सखी का श्रीजी के प्रति शुद्ध सख्य भाव है )
अरी राधे ! तेरे नयन तो अरुण नलिनी के समान हैं .....लालिमा लिए कमल के समान ।
क्यों ? लाल क्यों हो रहे हैं तुम्हारे नेत्र ? और अलसाये हुये से भी हैं ....काजल भी पुछ गया हैं ।
“देखो ! यहाँ फैल गया है”......अपने हाथ से काजल पोंछते हुए सखी कहती है ।
श्रीराधा जी कुछ नही कहतीं ...वो कुछ शरमा सी गयीं हैं ।
मैं मैं समझ गयी ......सखी आह भरते हुए कहती है ....
बोल , बोल क्या समझी ? श्रीराधारानी पूछती हैं ।
यही कि रात भर के जागरण ने आपके नेत्र अरुण कर दिये हैं ....और ये नेत्र तो ऐसे लग रहे हैं ....
सखी इतना बोलकर फिर चुप हो जाती है ...तो श्रीराधा जी उससे तुरन्त पूछती हैं ....
मेरे नेत्र कैसे लग रहे हैं ?
तो सखी हंसती है ..ताली बजाकर हंसते हुए कहती ...ऐसे लग रहे हैं जैसे रात्रि में किसी ने इन्हें रँग दिया हो.....उफ़ ! रँगे हुए हैं ये नयन । और हाँ प्यारी जू ! ये रंगने के कारण इतरा भी रहे हैं ।
श्रीराधा जी कुछ नही बोलतीं और शरमाते हुए नयनों को झुका लेती हैं ।
हाँ , सच कह रही हूँ.....ये आपके नयन इतरा रहे हैं .....और इतरायें भी क्यों न ...सखी कहती है - मोहन रूपी मृग का इन्होंने शिकार किया है और देखो , मूर्छित कर दिया । तभी थक गयी हैं आपकी पलकें ..इसलिए झुकी हुयी हैं ...थकान हो गयी शिकार करते हुए.... इसलिये ये नयन लाल हो रहे हैं ...सखी गदगद होकर कहती है .....तभी कुँज के भ्रमर नाना पुष्पों को छोड़कर श्रीजी के ऊपर मँडराने लगते हैं .....तो सखी हंसते हुये कहती है ....लो , इन भ्रमरों को भी भ्रम हो गया है की ये नयन नही कमल ही हैं ...और प्रातः के समय का खिला कमल । आहा ! हे प्यारी जू ! अब उठाओ इस मृग को ....और अपने हृदय से रस पान का कराओ ..नही तो ये मृग तो गया ।
इतना कहकर खिलखिलाकर सखी हंस पड़ी ... श्रीराधा जी उस अपनी प्यारी सखी को हृदय से लगा लेती हैं ।
इतना ही बोले पागल बाबा आज । इसके आगे भी बोलने वाले थे पर इनकी भी वाणी पंगु हो गयी थी ...क्यों की ये दर्शन कर रहे थे प्रिया प्रियतम के , और बोल रहे थे ।
फिर गौरांगी ने इसी श्रीहित चौरासी जी के आठवें पद का गायन किया ....
“अति ही अरुण तेरे नैंन नलिन री .......”
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राधे राधे सभी वेष्णव जन ✍️श्री हरि शरण जी महाराज
शेष चर्चा कल 🙏श्रीजी मंजरीदास (श्रीजी श्याम प्रिया मंजरी) |
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