Wednesday, March 30, 2022

श्री राधारानी की कृपा प्राप्त करने के लिए क्या साधना करनी होगी ?

पुस्तक :- प्रश्नोत्तरी ???
         °°°°° भाग _३
            प्रश्न:- श्री राधारानी की कृपा प्राप्त करने के लिये क्या साधना करनी होगी ?

उत्तर :- अरे ! ये ही तो साधना है कि वो बिना कारण के कृपा करती हैं ये फेथ(faith) करो । यही साधना है। जो कीर्तन करते हो तुम यही तो साधना करते हो न। उस कीर्तन का मतलब क्या ? रोकर उनको पुकारो कि तुम कृपा करो। यही साधना है। इसी से अन्तःकरण शुद्ध होता है। मन को शुद्ध करने के लिये साधना होती है। फिर उसके बाद वो कृपा से प्रेम देती हैं। उनका लाभ तो कृपा से मिलता है। तुम्हारा काम तो मन को शुद्ध करना है। और मन शुद्ध करने के लिये उनको पुकारना है। बस यही साधना है। और साधना कोई मूल्य थोड़े ही है कृपा का।
साधना तुम करते हो गन्दे मन से और कृपा से तो दिव्य वस्तु मिलेगी। तो तुम्हारा रोना कोई दाम थोड़े ही है। तुम जाओ किसी दुकानदार के आगे रोओ कि हमको कार दे दो पैसा नहीं है हमारे पास। तो वो कहेगा भाग जाओ , पागल है तू । तो उसी प्रकार अगर हम रोवें भी भगवान् के आगे , वो कहें भाग जाओ पहले दाम दो हम जो दे रहे हैं तुमको सामान उसका। तो हमारे पास दाम है ही नहीं क्या देंगे ? वो दिव्य प्रेम है भगवान् का। हमारी इन्द्रियाँ , हमारा मन , हमारी बुद्धि , हमारा शरीर सब गन्दा। हम क्या दे करके वो दिव्य प्रेम लेंगे ? इसलिये साधना मूल्य नहीं है। साधना तो केवल बर्तन बनाना है। मन का बर्तन शुद्ध कर लो तो उसमें दिव्य सामान कृपा से मिलेगा ।

 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज...!
          राधे राधे 🙏
 join with on Facebook श्रीजी मंजरीदास 
Www.brajbhav.com
Whatsapp only +91 9711592529

Monday, March 21, 2022

यात्रा एक व्रतांत

🙏*जय श्रीकृष्ण*🙏

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के उपरांत धर्मराज युधिष्ठिर ने तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया। साथ में चारों भाई_भीम,अर्जुन,नकुल, सहदेव समेत द्रौपदी भी थीं।

प्रस्थान करने से पूर्व वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए और उनसे साथ चलने का आग्रह किया। श्रीकृष्ण को उस समय कुछ आवश्यक कार्य थे, अतः उन्होंने अपनी विवशता बताते हुए तीर्थयात्रा में साथ न जा सकने की बात कही। सुखद यात्रा की कामना करते हुए उन्होंने अपना कमंडल युधिष्ठिर को सौंपते हुए कहा 'बड़े भैया! जहाँ-जहाँ तीर्थस्थानों, नदियों और सरोवरों में स्नान करने का आपको अवसर मिले, वहाँ-वहाँ इस कमंडल को भी उनमें अवश्य ही डुबा लीजिएगा।" युधिष्ठिर कमंडल लेकर सपरिवार तीर्थयात्रा को चल पड़े। 

काफी दिनों के बाद वापस लौटे और श्रीकृष्ण को उनका कमंडल देते हुए कहा- "आपकी आज्ञानुसार जहाँ मैंने स्नान किया, वहाँ इसे भी पानी में डुबाया है।" यही तो मैं चाहता था इतना कहकर श्रीकृष्ण ने उस कमंडल को जमीन में पटककर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और प्रसाद रूप में एक-एक टुकड़ा वहाँ उपस्थित सभी लोगों में वितरित कर दिया।

जिसने भी यह प्रसाद चखा, उसका मुँह खराब हो गया। लोगों को थूकते हुए तथा मुँह बनाते हुए देखकर श्रीकृष्ण ने धर्मराज से पूछा- "यह इतने तीर्थों में घूमकर आ रहा है और अनेक स्थानों पर इसने स्नान भी किया है, फिर भी इसका कड़वापन दूर क्यों नहीं हुआ ?" युधिष्ठिर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहने लगे 'आप भी कैसी अजीब बात करते हैं श्रीकृष्ण, कहीं धोने मात्र से कमंडल का कड़वापन निकल सकता है?'" अपनी स्वयं की पहेली सुलझाते श्रीकृष्ण कहने लगे- "यदि ऐसा है तो तीर्थस्नान का बाह्योपचार मात्र करने से अंतः का परिष्कार, धुलाई-मार्जन कैसे हो सकता है?" धर्मराज ने आत्मशोधन किया, अंतर्मुखी होकर आत्मपर्यवेक्षण की गरिमा को जाना व उसमें तत्परता से जुट गए।

सखि नामावली