Tuesday, July 27, 2021

सुख दुःख क्या है .....

                   सुख दुःख क्या है...

आज जहां जाओ तो सुख-दुख की चर्चा रहती है।
क्यों की वास्तव में जीवन को चलाने मे सुख-दुख का बहुत बड़ा साथ रहता है।

इसलिए आज हम सुख दुख के विषय मे कुछ चर्चा करते हैं।
एक बात तो सब को माननी पड़ेगी की सुख-दुख का तो जीवन के साथ बहुत पुराना रिश्ता रहा है।
जहा हम सुख की चाहना करते है 

वही, दुख बिन बुलाए मेहमान की तरह हमारे घर-परिवार, हमारे जीवन मे प्रवेश करता है।
 हमारा जीवन तराजू के दो पलड़ो की तरह है, एक पलड़ा भारी तो दूसरा खाली, और दूसरा पलड़ा भारी तो पहला खाली.

अर्थात दोनों एक समय मे बराबर नहीं रहते...
ठीक इसी तरह जीवन भी इनहि दो तराजू के पलड़ो की भांति उपर नीचे होते रहता है।
कभी दुख का पलड़ा भरी तो कभी सुख का पलड़ा भरी।

लोग कभी कहते हैं भगवान ने सुख बनाया ठीक लेकिन ये दुख नहीं बनना चाहिए था।
सवाल तो ठीक था लेकिन सोच मे फर्क।

आप स्वयम विचार करो यदि आप के जीवन मे केवल सुख-ही-सुख हैं लेकिन कोई दूसरा दुखी है क्या आप उसके दुख को महसूस कर सकते हो... ? नहीं ना.

“जा के उर उपजी नहीं भाई सो क्या जाने पीर पराई”।

जिसके उपर कभी आप बीती ना हुई हो वो जग बीती क्या जाने।
इसलिए जीवन के संतुलन को कायम रखने के लिए सुख-दुख का होना बहुत जरूरी है।

भगवान के नियम बहुत अच्छे हैं।
उनके नियमो को बाहर के मन से नहीं बल्कि अंदर की आत्मा से विचारो.!

अगर 12 महीने वर्षा ही होती रहे क्या जीवन जी सकते हैं।

उसी तरह जीवन मे सुख ही रहे तो क्या दूसरे के दुख को महसूस कर सकते हैं।
जैसे रात है वैसे ही दिन भी होता है...

ठीक ऐसे ही दुख है तो सुख भी होता है।
इसलिए जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए सुख और दुख बनाए गए हैं।

दुख रुलाने के लिए नहीं दुख तो किसी के दर्द को समझने के लिए होता है।
अगर वो दुखी है तो एक दिन हमको भी दुखी होना पड़ेगा...

इसलिए दूसरों के दुख मे साथ दो।
दुख दूसरों के साथ हमको जोड़ता है।
दुख हमे दूसरों के दिल का दर्द बताता है।

इसलिए दुख को दुख के नजरिए से नहीं बल्कि दुख को परमात्मा के नजरीए से देखने की कोशिस करो ...

अगर भगवान ने दुख बनया तो इसके पीछे क्या कारण है... तब आपको ये समझ मे आयेगा की दुख से ही संसार चलता है।

दुख ही है जो हमे दूसरों के लिए जीना सीखता है।
इसलिए प्यारे! सुख-दुख सदा के लिए नहीं रहते आज सुख है तो कल दुख है।
जैसे आज दिन हुआ तो रात जरूर होगी, और अगर रात हुई तो दिन जरूर होगा॥

बस ऐसे ही सुख दुख भी है।
बस इसीलिए अपने आप को सुख- दुख का मित्र बनालो ताकि आप को सुख-दुख से होसला मिलता रहे...

और यही विचार करते रहो की-----
सुख दुख ही हमारी जीवन गाड़ी को चालते हैं।
सुख-दुख ही हम सब को इंसान बनाते हैं,

संसार की नदियों के दो ही किनारे हैं,
सुख-भी मुझे प्यारे हैं, दुख भी मुहे प्यारे हैं,

इन्हे कैसे छोड़ दु प्रभु ये दोनों तो तुम्हारे हैं
इसलिए सुख-दुख को भगवान का आशीर्वाद समझ कर भोगो, सुख आए तो धन्यवाद करो और दुख आए तो उसका चिंतन करो।

ये ही जीवन को जीने का अच्छा तरीका है।
भगवान से अपने दुखों को दूर करने के लिए मत कहो बल्कि भगवान से उन दुखों से लड़ने की ताकत मांगो।
और ये महसूस करते रहो की प्रत्येक दिन एक सा नहीं रहता...

जैसे की एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा –“ बीरबल कोई ऐसा शब्द लिखो की जिसको पड़ने से खुशी भी हो और दुख भी...

तो बीरबल ने लिखा “ये वक़्त गुजर जाएगा” इस को पड़ने के बाद अकबर के चहरे से खुशी मानो हट सी गयी और सोचने लगा आज जो मेरे जीवन मे सुख है

 वो कभी भी जा सकता है, पर दूसरे ही पल खुशी हुई की कोई बात नहीं यदि दुख आएगा भी तो उसके पीछे सुख भी जरूर आयेगा।
राधे राधे...

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Monday, July 19, 2021

भगवान को पड़े नन्हे भक्त की थप्पड़

(((( नन्हे बालक-भक्त का थप्पड़ ))))
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गोवर्धन बड़ा सुन्दर गाँव है। गाँव के बीच में एक मन्दिर है, जिसमें श्रीनाथजी महाराज की बड़ी सुन्दर मूर्ति विराजमान है। 
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उनके चरणों में नूपुर, गले में मनोहर वनमाला और मस्तक पर मोरमुकुट शोभित हो रहा है। 
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घुँघराले बाल हैं, नेत्रों की बनावट मनोहारिणी है और पीताम्बर पहने हुए हैं।
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मूर्ति में इतनी सुन्दरता है कि देखने वालों का मन ही नहीं भरता।
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मन्दिर के पास ही एक गरीब ब्राह्मण का घर था। ब्राह्मण था गरीब, परन्तु उसका हृदय भगवद्भक्ति के रंग में रँगा हुआ था।
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ब्राह्मणी भी अपने पति और पति के परमात्मा के प्रेम में रत थी। उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और मिलनसार था।
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कभी किसी ने उसके मुख से कड़ा शब्द नहीं सुना। पिता-माता के अनुसार ही प्राय: पुत्र का स्वभाव हुआ करता है।
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इसी न्याय से ब्राह्मण- दम्पत्ति का पुत्र गोविन्द भी बड़े सुन्दर स्वभाव का बालक था।
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उसकी उम्र दस वर्ष की थी। गोविन्द के शरीर की बनावट इतनी सुन्दर थी कि लोग उसे कामदेव का अवतार कहने में भी नहीं सकुचाते थे।
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गोविन्द गाँव के बाहर अपने साथी सदानन्द और रामदास के साथ खेला करता था।
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एक दिन खेलते- खेलते संध्या हो गयी। गोविन्द घर लौट रहा था तो उसने मन्दिर में आरती का शब्द सुना।
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शंख, घण्टा, घड़ियाल और झाँझ की आवाज सुनकर गोविन्द की भी मन्दिर में जाकर तमाशा देखने की इच्छा हुई और उसी क्षण वह दौड़कर नाथजी की आरती देखने के लिये मन्दिर में चला गया।
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नाथजी के दर्शन कर बालक का मन उन्हीं में रम गया। गोविन्द इस बात को नहीं समझ सका कि यह कोई पाषाण की मूर्ति है। 
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उसने प्रत्यक्ष देखा कि एक जीता-जागता मनोहर बालक खड़ा हँस रहा है।
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गोविन्द नाथ जी की मधुर मुस्कान पर मोहित हो गया। उसने सोचा, ‘यदि यह बालक मेरा मित्र बन जाय और मेरे साथ खेले तो बड़ा आनन्द हो।’
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इतने में आरती समाप्त हो गयी। लोग अपने-अपने घर चले गये।
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एक गोविन्द रह गया, जो मन्दिर के बाहर अँधेरे में खड़ा नाथजी की बाट देखता था।
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गोविन्द ने जब चारों और देखकर यह जान लिया कि कहीं कोई नहीं है, तब उसने किवाड़ों के छेद से अंदर की ओर झाँककर अकेले खड़े हुए श्रीनाथजी को हृदय की बड़ी गहरी आवाज से गद्गद्- कण्ठ हो प्रेमपूर्वक पुकारकर कहा-
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‘नाथजी ! भैया ! क्या तुम मेरे साथ नहीं खेलोगे ? मेरा मन तुम्हारे साथ खेलने के लिये बहुत छटपटा रहा है।
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भाई ! आओ, देखो, कैसी चाँदनी रात है, चलो, दोनों मिलकर मैदान में गुल्ली- डंडा खेलें।
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मैं सच कहता हूँ, भाई ! तुमसे कभी झगड़ा या मारपीट नहीं करूँगा।’
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सरल हृदय बालक के अन्त:करण पर आरती के समय जो भाव पड़ा, उससे वह उन्मत्त हो गया।
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परमात्मा के मधुर और अनन्त प्रेम की अमृतमयी मलयवायु से गोविन्द प्रेममग्न होकर मन्दिर के अंदर खड़े हुए उस भक्त-प्राण-धन गोविन्द को रो-रोकर पुकारने लगा।
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बालक के अश्रुसिक्त शब्दों ने बड़ा काम किया। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता4/11) की प्रतिज्ञा के अनुसार नाथजी नहीं ठहर सके।
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भक्त के प्रेमावेश ने भगवान् को खींच लिया। गोविन्द ने सुना, मानो अंदर से आवाज आती है- ‘भाई ! चलो ! चलो आता हूँ, हम दोनों खेलेंगे !’
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सरल बालक का मधुर प्रेम भगवान् को बहुत शीघ्र खींचता है।
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बालक ध्रुव के लिये चतुर्भुज धारी होकर वन में जाना पड़ा।
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भक्त प्रह्लाद के लिये अनोखा नरसिंह वेषधारण किया और व्रज- बालकों के साथ तो आप गौ चराते हुए वन-वन घूमे।
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आज गोविन्द की मतवाली पुकार सुनकर उसके साथ खेलने के लिये मन्दिर से बाहर चले आये !
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धन्य प्रभु ! न मालुम तुम माया के साथ रमकर कितने खेल खेलते हो तुम्हारा मर्म कौन जान सकता है ?
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मामूली मायावी के खेल से लोग भ्रम में पड़ जाते हैं, फिर तुम तो मायावियों के सरदार ठहरे !
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बेचारी माया तो तुम्हारे भक्त चंचरीकसेवित चरण- कमलों की चेरी है, अतएव तुम्हारे खेल के रहस्य को कौन समझ सकता है ?
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इतना अवश्य कहा जा सकता है कि तुम्हें अपने भक्तों के साथ गायें दुहते फिरे थे और इसीलिये आज बालक गोविन्द के पुकारते ही उसके साथ खेलने को तैयार हो गये !
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गोविन्द ने बड़े प्रेम से उनका हाथ पकड़ लिया। आज गोविन्द के आनन्द का ठिकाना नहीं है, वह कभी उनके कर- कमलों का स्पर्श कर अपने को धन्य मानता है।
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कभी उनके नुकीले नेत्रों को निहार कर मोहित होता है, तो कभी उनके सुरीले शब्दों को सुनकर फिर सुनना चाहता है।
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गोविन्द के हृदय में आनन्द समाता नहीं। बात भी ऐसी है। जगत् का समस्त सौन्दर्य जिसकी सौन्दर्य- राशि का एक तुच्छ अंश है,
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उस अनन्त और असीम रूपराशि को प्रत्यक्ष प्राप्त कर ऐसा कौन है जो मुग्ध न हो !
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नये मित्र को साथ लेकर गोविन्द गाँव के बाहर आया। चन्द्रमा की चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी, प्रियतम की प्राप्ति से सरोवरों में कुमुदिनी हँस रही थी,
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पुष्पों की अर्धविकसित कलियों ने अपनी मन्द-मन्द सुगन्ध से समस्त वन को मधुमय बना रखा था। 
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मानो प्रकृति अपने नाथ की अभ्यर्थना करने के लिये सब तरह से सज-धजकर भक्ति पूरित पुष्पांजलि अर्पण करने के लिये पहले से तैयार थी।
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ऐसी मनोहर रात्रि में गोविन्द नाथजी को पाकर अपने घर-बार, पिता-माता और नींद-भूख को सर्वथा भूल गया।
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दोनों मित्र बड़े प्रेम से तरह-तरह के खेल खेलने लगे।
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गोविन्द ने कहा था कि मैं झगड़ा या मारपीट नहीं करूँगा; परन्तु विनोद प्रिय नाथजी की माया से मोहित होकर वह इस बात को भूल गया।
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खेलते-खेलते किसी बात को लेकर दोनों मित्र लड़ पड़े।
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गोविन्द ने क्रोध में आकर नाथ जी के गाल पर एक थप्पड़ जमा दिया और बोला कि ‘फिर मुझे कभी रिझाया तो याद रखना मारते-मारते पीठ लाल कर दूँगा।’
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सूर्य-चन्द्र और अनल-अनिल जिसके भय से अपने-अपने काम में लग रहे हैं, स्वयं देवराज इन्द्र जिसके भय से समय पर वृष्टि करने के लिये बाध्य होते हैं और भयाधिपति यमराज जिसके भय से पापियों को भय पहुँचाने में व्यस्त हैं,
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वही त्रिभुवननाथ आज नन्हें-से बालक भक्त के साथ खेलते हुए उसकी थप्पड़ खाकर भी कुछ नहीं बोलते।
धन्य है ! बाँके बिहारी धन्य है !
 ((((((( जय जय श्री राधे ))))))

Sunday, July 18, 2021

i janak nandini 1

I_janak_nandini .... 1️⃣ *


 میں وایدھی ہوں!  ................


 شریویدھ راج کا محبوب… .شریراجادھیراج شری آرگوناتھ جی کا محبوب!


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  میں بابا والمیکی جی کے آشرم میں ہوں ۔میرے نام کو کسی کو نہیں بتایا جانا چاہئے ..... تب سے ہی مہارشی نے میرا نام "وان دیوی" رکھا ہے۔


 یہاں ہر کوئی مجھے "جنگل کی دیوی" کہتا ہے۔


 کیوں نہیں بتاتے؟  میں اپنا نام کیوں چھپاؤں؟


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  کیونکہ یہاں میری جان اور ہر چیز کی مذمت کی جائے گی ..... اور یہ توہین مذہب معاشرے میں پھیلتا ہی رہے گا ...... اور یہ ویدیی اسے کیسے چاہتے ہیں!


 کیا !  مجھے چھوڑ دیا ، میری زندگی؟


 کیا وہ مجھے چھوڑ سکتا ہے؟


 ہم دونوں ایک ہیں ............. رام اور سیتا ........ پھر میں کیسے کہہ سکتا ہوں کہ انہوں نے مجھے چھوڑ دیا ............ نہیں… …نہیں……….


 میں حاملہ ہوں...........  میں نے صرف اسے بتایا ....... کہ میں جنگل کے ساتوٹک ماحول میں اپنے ہی بچوں کو جنم دینا چاہتا ہوں ....... تو میری زندگی کی رقم نے میرے لئے انتظام کیا ہے۔


 کہاں سے آیا ہے؟  رخصتی کہاں سے آئی؟


 نہیں۔ جو لوگ ایسا کہتے ہیں ........ وہ میری جان اور مال کی محبت کو بھی نہیں جانتے ........ وہ مجھ سے بہت پیار کرتے ہیں ..... ہاں .... ........….… ..….… بہت….


 ہا ہا ہا ہا ہا ہا ............ میں کہاں ہوں اور وہ مختلف ہے؟


 (اسی لمحے میں قلم سیتا جی کے ہاتھوں سے پڑ گیا اور وہ بے ہوش ہوگئیں)


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 (کچھ عرصہ بعد ویدی کی خود دیکھ بھال اور دوبارہ لکھنا شروع کردے)


 وہ خوفناک جنگل! ............ جب لکشمن مجھے چھوڑ کر چلا گیا۔

 اچھا لکشمن بھی ....... میں لکشمن کا مجرم بھی ہوں ...


 ماریچ کے تناظر میں ....... جب لکشمنہ نے مجھے لاکھ سمجھایا تھا .... وہ ماں!  وہ خدا ہے …… ..کوئی اس کے ساتھ کیا کرے گا ……… وہ وقت کا بہت بڑا وقت بھی ہے ……… آپ فکر نہ کریں…. .... مجھ سے پوچھیں مت پوچھو ..... وہاں ہیں یہاں بہت سے شیطان ............ کچھ بھی ہوسکتا ہے۔


 پھر کیا میں نے لکشمنہ سنا .......؟

 راضی نہیں ہوا ....... اوہ!  میں نے لکشمن سے کتنا برا کہا۔

 ہائے افسوس!  میں لکشمن کا ............ کا مجرم ہوں۔


 شاباش لکشمن مجھے چھوڑ کر گنگا کے کنارے چلا گیا۔


 میں ................ رات کو تنہا تھا ........ میں حاملہ تھی .........

 تم کہاں جارہے ہو لکشمن۔  کیا میں یہاں ہوں


 پہاڑی چھوٹ گئی۔ ناقص لکشمنہ …… .. اسے کیا کرنا چاہئے …… وہ اپنے بڑے بھائی کا خادم ہے… جو کچھ بھی کہے گا ، بندہ کرے گا۔


 ماں!  ماں!


 میرے پیروں پر گر پڑا تھا ....... اور روتا رہا۔


 کیا ہوا ، کیوں روتے ہو لکھن بھیا!


 بہت دیر تک وہ بول بھی نہیں سکتا تھا۔


 پھر اپنا خیال رکھا ........ رتھ میں بیٹھا ہوا .........


 کیا ہوا  ؟  میں رتھ میں بیٹھنے والا تھا۔


 خداوند نے آپ کو ترک کردیا ہے۔


 لکشمن بڑی مشکل سے یہ الفاظ بول سکے۔


 کیا !  کیا !


 میں دنگ رہ گیا ……… ہوش کھو چکا تھا۔


 تم کیا کہ رہے ہو؟  میں کچھ اور کہہ سکتا تھا۔


 رات تھی ……… .. یہ ایک خوفناک جنگل تھا۔


 چاروں سمتوں سے جھنگور کی آواز آرہی تھی ........ سانپ میرے پاس سے گزر رہے تھے ....... سنگھ میرے سامنے سے گزر رہا تھا ....... مجھے ڈر لگتا تھا ………… .


 گنگا میں کودیں ....... ایک لمحے کے لئے یہ خیال میرے ذہن میں آیا۔


 میں اس جسم کو گنگا میں کود کر ختم کرنا چاہتا تھا ……… اسی وقت جب میں نے اپنا رحم دیکھا تھا ……….  اس میں ، میری زندگی رگھوناتھ جی کا حصہ ہے۔


 میں انہیں کیسے تباہ کروں؟


 بیٹھ گیا ........... خوف ....... بے حد غم ............


 مجھے اتنا درد محسوس نہیں ہوا ....... اس وقت بھی ....... جب راون مجھے چوری کر کے لے گیا ....... ارے!  میری "زندگی" نے تو مجھے بھی نہیں چھوڑا!


 لیکن آج ...؟  اوہ ، ایسا ہی ہے!  ..................


 اس وقت میرے لرزے بندھے ہوئے تھے ……….


 میں وایدھی ہوں!


 جب میں جنک پور میں چلتا تھا ، میرے والد ویدھ راج نے میرے لئے کمل کے پھول کی پنکھڑیوں کو بچھوایا تھا ........ کمل کے پھولوں کی جرگن ذہن میں پھیلی ہوئی تھی ...... مریم سکوماری سیyaا زمین پر چلیں گی ....... لیکن آج!  اوہ ، ایسا ہی ہے!


 میں کیا کروں؟


 درد اتنا تھا …… کہ میں ابھی زمین پر گر گیا تھا …….


 بیٹی!  بیٹی!  وہ محبت بھری آواز میرے کانوں تک گئی۔

 ڈبلیو ایچ او !  ڈبلیو ایچ او !  میں ڈر گیا ...... تم کون ہو!

 لیکن یہ بابا تھے ...... مہارشی والمیکی۔


 اس نے ....... مجھے ....... ہاں کا خیال رکھا میرے آنسوؤں کا خیال رکھا اور اسے اپنے کمندالو میں ڈال دیا ...... اور یہ کہا ...... سییا بیٹی!  اگر آپ کے آنسوؤں کا ایک قطرہ بھی اس زمین میں گر جائے ....... تو یہ زمین کھائی میں چلی جائے گی ....


 تباہی لائے گا ، تمہاری ماں ، یہ زمین ..................


 میں کیا کروں؟  نہیں کہیں ، مہارشی!  میں کیا کروں


 میں نے روتے ہوئے اسے بتایا۔


 بیٹی سیyaا!  میرے ساتھ او


 میں اپنا فرض کھو گیا .... مہارشی کا پیار مجھ سے بے حد تھا ..... مجھے اسے دیکھ کر محسوس ہوا ....... میری حالت دیکھ کر وہ بھی آنسو بہانا چاہتا تھا…. ........ .... .... وہ بھی دھاڑیں مار مار کر رونا چاہتے تھے ... "اوہ رام! آپ نے کیا کیا" ....... لیکن انہوں نے اپنے آنسو روک رکھے تھے۔ ... ہوسکتا ہے یہ آنسو ان کی "رامائن" نمودار ہوئے تھے۔


 میں اس کے پیچھے چل رہا تھا ............ اور وہ میرے والد کی حیثیت سے آگے بڑھتا رہا ............ مجھے کچھ پتہ نہیں تھا ... ..


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बृज रस मदिरा रसोपासन 1

आज  के  विचार 1 https://www.youtube.com/@brajrasmadira ( चलहुँ चलहुँ  चलिये निज देश....) !! रसोपासना - भाग 1 !!  ***************************...