जय जय श्री राधे राधे
✍️श्रीजी मंजरीदास
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आज के विचार
( जब उद्धव को श्रीकृष्ण में "वृन्दावन" के दर्शन हुये...)
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 101 !!
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श्रीकृष्ण का शरीर - रोम रोम पुलकित हो उठा था ।
वो कमल से नयन बराबर बहते ही जा रहे थे ..........
पर उद्धव, लाल लाल नेत्रों से घूर रहे थे श्रीकृष्ण को ।
फिर वही कठोरता वाणी में आचुकी थी उद्धव की .......बारबार श्रीराधारानी का वह विरह का रूप ........ललितादि सखियाँ ......वो बिलखती मैया, वो बाबा ..........रोते रोते खारा हो गया था वहाँ का जल भी ...............कैसे कहा था उस ग्वाल नें .........." कहना - दुबला हो गया है मनसुख ........माखन खिलाकर मोटा करनें तू आजा ।
कितनी आत्मीयता है वृन्दावन में ...........उद्धव के सामनें वृन्दावन का वो विरह का दृश्य घूम गया था .........इसलिये कठोर भर्त्सना कर उठे थे श्रीकृष्ण की ......
आप यहाँ क्यों हो ? चलिये ना वृन्दावन !
मुझे आश्चर्य होता है ......उन प्रेम की पावन रूपा गोपियों को छोड़कर आप यहाँ हो ? क्यों ?
आप प्रेम की साक्षात् मूर्ति श्रीराधा रानी को छोड़कर यहाँ हो ?
यहाँ ?
उद्धव आज मथुरा के नही हैं ..........उद्धव तो आज कृष्ण के भी नही हैं .....ये श्रीराधा के हो गए हैं ........ये वृन्दावन के हो गए हैं ।
क्यों आगये "तुम" दौड़े दौड़े मथुरा में ? बोलो ?
"आप" कहना भी अब भूल गए उद्धव ।
कोई प्रलय नही आरहा था कि तुम सब कुछ छोड़कर यहाँ आगये ?
अब चलो वहाँ !
उद्धव के नेत्र सजल हो उठे थे..........ओह ! कितनी खुश होंगीं तुम्हे देख कर मैया यशोदा ! कितनी खुश होंगीं गोपियाँ ! बाबा कितनें प्रसन्न होंगें..........और आपकी वो आल्हादिनी , मेरी गुरु श्रीराधारानी कितनी आनन्दित हो उठेंगीं..........उद्धव कृष्ण का हाथ पकड़ कर बोले ........चलो ! अभी चलो ।
तुम मथुरा में हो ? यहाँ कौन है जो तुमसे इतना प्रेम करता है ?
और रही वहाँ के प्रेम की बात ! तो हे गोविन्द ! इस उद्धव में वहाँ के विरह का एक अंश भी आपाता ना ......तो ये उद्धव मर गया होता ।
विचार करो वो कैसे जीती होंगीं .........कितनी पीढ़ा होती होगी ..........वो हर समय तुम्हारी याद में तड़फती हैं यार !
चिल्ला पड़े थे उद्धव !
वो तेरी पगली मैया कहती है - मेरा कन्हाई आएगा ..........
मैने लाख समझाया कि - वो नही आएगा.......अब नही आएगा ।
पर मानती ही नही हैं ।
तू नही जानता उद्धव ! देखना मेरे प्रियतम श्याम आवेंगें ।
उधर वो उन्मादिनी श्रीराधारानी ये कहकर बैठी हैं ।
अरे ! आज नही तो कल तो आएगा ! सखाओं का कहना है ।
बृज के जन जन में ये विश्वास जमा है .......और जमानें वाले तो तुम्हीं थे ना ............क्यों सच बात नही बोल सके तुम भी !
अब चलो ! हे गोविन्द ! चलो !
फिर हाथ पकड़ कर जब उठानें लगे कृष्ण को उद्धव .......
जो हो जाए ....हो जाए मथुरा में ......आजानें दो प्रलय मथुरा में ......पर तुम चलो..........वो आस लगाएं बैठे हैं ।
तभी -
उद्धव ! मेरे भाई !
श्रीकृष्ण का मेघगम्भीर स्वर गूँजा ।
कहाँ चलो ?
कहाँ चलूँ तुम्हारे साथ , किसके पास चलूँ ? बोलो उद्धव !
"श्रीराधा के पास".........उद्धव नें हाथ जोड़कर कहा ।
मुस्कुराये कृष्ण .............राधा ! लम्बी साँस ली ।
राधा, कृष्ण से दूर होती तो ये कृष्ण रहता ही नही - होता ही नहीं ।
राधा है तभी कृष्ण का आस्तित्व है उद्धव ।
वो मुझ से दूर हैं, जो यहाँ आएं? मैं उनसे दूर हूँ जो उनके पास जाऊँ ?
नही उद्धव ! नही .........कोई दूर नही है .......
मैं समझा नही गोविन्द ! उद्धव नें हाथ जोड़ कर पूछा ।
उद्धव के कन्धे में हाथ रखा कृष्ण नें.......और बड़े सहज ढंग से बोले !
गुरु तो बना लिया मेरी राधा को .......पर उद्धव ! तुमनें कुछ चीजें ध्यान से नही देखीं ? दिव्य तेज़युक्त मुखमण्डल हो गया था कृष्ण का ......उद्धव कुछ समझ नही पा रहे थे ।
तुमनें श्रीराधा के हृदय में नही देखा ......तुमनें श्रीराधा के रोम रोम में नही देखा .......गोपियों के , ग्वालों के .......मैया यशोदा बाबा नन्द के ......अंग को भी ध्यान से देख लेते ......तो उद्धव ! तुम्हे मैं दीख जाता .......सच कह रहा हूँ उद्धव ! वृन्दावन के कण कण में, मैं हूँ.......मैं हूँ .....मैं ही हूँ ......गम्भीर वाणी गूँज रही थी श्रीकृष्ण की ।
अगर नही देख पाये वृन्दावन में ये सब ............तो मैं खड़ा हूँ तुम्हारे सामनें उद्धव ........देखो मेरे अंग अंग में ........देखो उद्धव ! मेरे रोम रोम में मेरी राधा है .......मेरे ग्वाल हैं ....मेरी मैया है ..........सम्पूर्ण वृन्दावन का दर्शन करो उद्धव ! ये वृन्दावन मेरे साथ है .......मैं इससे दूर नही होता .....और न ये मुझ से दूर है ।
उद्धव नें देखा ..........श्रीकृष्ण का दिव्य देह आकाश की तरह है ......नीला रँग है .....अद्भुत !
पर एकाएक गौर वर्ण उभर आता है ..........दिव्य तेज़ युक्त गौर वर्ण ।
ऐसा लगता है उद्धव को .....नीले आकाश में चन्द्रमा प्रकट हो गया हो ।
श्रीराधा रानी और कृष्ण दोनों मिल रहे हैं .....................
तभी एक गम्भीर ध्वनि - उद्धव ! देख !
जिस ओर से ये ध्वनि आयी थी उधर ही देखा उद्धव नें ............
दिव्य लोक है .....गोलोक.......गौ चारण करनें के लिये सखाओं के साथ कन्हाई निकले हैं .......सब सखाएं हैं ... .....खेलते कूदते जा रहे हैं ।
उद्धव चकित हो गए ये सब देखकर ........
उद्धव ! देख ! गम्भीर ध्वनि फिर ।
दूसरी ओर देखा ........तो यशोदा मैया की गोद में बैठे हैं कन्हाई .........और खेल रहे हैं .....अपनें नन्हें नन्हें चरण फेंक रहे हैं ।
उद्धव आनन्दित हो उठे ।
उद्धव ! देख ! फिर वही ध्वनि , गम्भीर ध्वनि ।
उद्धव नें देखा - दिव्य निकुञ्ज है........युगलवर झुला झूल रहे हैं ....
साथ में अष्ट सखियाँ हैं ..........सब झूला झुला रही हैं ।
ललिता सखी नें उद्धव को देखा .........मुस्कुराईँ ..........और ले गयीं ..........हाथ खींच कर ले गयीं..........सखियों नें जब उद्धव को देखा तब सब हँसीं .........श्रीराधा रानी भी मुस्कुराईं ............
सखियों नें उद्धव को पकड़कर लहंगा पहना दिया था .....चूनर ओढ़ा दी थी.......और नचा रही थी.......उद्धव सब कुछ भूले, नाच रहे थे ।
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" कोई मुझ से भिन्न नही है .......कोई मुझ से दूर नही है "
गम्भीर स्वर फिर गुंजा उद्धव के कानों में............
सामनें श्रीकृष्ण खड़े हैं ....मुस्कुरा रहे हैं.......तभी देखते देखते .....वाम भाग से आल्हादिनी का प्राकट्य हुआ .....श्रीराधारानी के दर्शन करते ही .....उद्धव प्रसन्नता से उछल पड़े थे ......नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले ......और युगलवर के चरणों में साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे ।
शेष चरित्र कल -
जय जय श्री राधे
प्यारो राधावल्लभ लाल
मेरे प्रभु श्री हितहरिवंश
आज के विचार
✍️श्रीजी मंजरीदास
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( जब ललिता सखी नें देखा..... )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 103 !!
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विशोक गोप की कन्या हूँ मैं......फिर भी इतनी शोकग्रस्त क्यों हूँ ?
दुःख - सुख मेरा अपना कहाँ है ? मुझे स्वयं के लिये कभी कुछ चाहिये ही नही था ..........मेरी मैया शारदा का कीर्तिरानी से मित्रवत् व्यवहार था.........बस मेरा जब जन्म हुआ ..........भानु बाबा और कीर्तिरानी नें आकर मेरे घर में आनन्द कर दिया था ।
मेरे बगल में ही लाकर सुला दिया था लाडिली को........बस , उसी दिन से मेरी अपनी स्वामिनी हो गयीं थीं वो ..............
फिर तो उन्हीं के महल में खेलना .......उन्हीं के वस्त्रों को पहनना .........उन्हीं को खिलाकर खाना ...............जीवन का लक्ष्य ही यही हो गया था मेरा तो .......विवाह करनें की सोची नही......श्याम सुन्दर प्राण थे मेरे भी ........पर वो तो मेरी स्वामिनी श्रीराधा को चाहते थे ........तो मैने भी अपनी कामना श्रीजी के चरणों में ही चढ़ा दी थी ।
श्रीराधा की जो कामना है.....वही मेरी भी कामना बनती जारही थी ।
मेरे बाबा नें अच्छे अच्छे रिश्ते खोजे .............पर मुझे तो करनी ही नही थी शादी ................
पर क्यों ? कारण बताना ही पड़ेगा तुम्हे ललिता !
मेरी मैया नें मुझे डाँटते हुए पूछा था ।
मेरी लाडिली का क्या होगा ? मैं नही रहूँगी तो मेरी श्रीराधा को कौन संभालेगा ...........ये कैसा तर्क था ...........कन्याओं को तो विवाह करके पराये घर जाना ही पड़ता है ना !
मैया ! श्याम सुन्दर चले गए हैं मथुरा ........अब शायद ही आवें........
स्थिति बिगड़ रही है दिन प्रतिदिन श्रीराधा की ..............उनका उन्माद बढ़ता ही जा रहा है ..................उनके साथ किसी को हर समय रहना ही पड़ेगा ........नही तो क्या पता वो अपनें जीवन लीला को ही समाप्त कर दें ।
मैया और बाबा को समझा दिया मैने ......स्पष्टता से समझा दिया था ।
अब नही कहते मुझ से विवाह करनें के लिये ...........पर दुःखी होते रहते हैं ........किन्तु मैं तो दुःख के अपार सागर में ही डूबी पड़ी हूँ.......मेरी श्रीराधा ठीक हो जाएँ ..........बस हर देवस्थान में मैने यही माँगा है ............मेरी श्रीराधा पहले की तरह मुस्कुराये .........ब्राह्मणों को प्रणाम करते हुए उनसे यही आशीर्वाद मांगती हूँ ।
गण्डा तावीज़ तन्त्र मन्त्र क्या नही करवाया मैने ...........
क्या चाहती हो ललिते ?
हर महिनें, मैं चली जाती हूँ महर्षि शाण्डिल्य के पास .........और उनके पास जाकर पूछती रहती हूँ ................
श्याम आएगा ?
लाल लाल मेरी आँखों में महर्षि तक देख नही पाते थे ......फिर मैं ये प्रश्न भी तो बड़े आक्रामक होकर पूछती हूँ ...........
महर्षि कुछ नही कहते ........आँखें बन्दकर के बैठ जाते .........और जब आँखें उनकी खुलती ......तब अश्रु बिन्दु लुढ़क पड़ते थे ........वो सजल नयनों से मुझे देखते ..........अश्रु बहाते हुए मुझ से कहते .........हाथ जोड़ते हुए मुझ से कहते .......
नही आएगा श्यामसुन्दर !
क्या ! मेरी आँखें क्रोध से लाल हो जातीं ..............मुझे क्रोध आता था ...........क्यों की मेरी श्रीराधारानी की इस स्थिति के लिये जिम्मेवार कौन था ?
मेरे साँसों की बढ़ती गति ............और मेरा क्रोध देखकर महर्षि मेरे सामनें हाथ जोड़ते थे ...........और कहते ......मेरे शिष्य श्यामसुन्दर को तुम श्राप मत देना ........तुम भगवती ललिताम्बा हो .......तुम ही त्रिपुर सुन्दरी हो जो सदैव शिव के हृदय में ही विराजमान रहती हो .........पर यहाँ वृन्दावन में आल्हादिनी की सखी बनकर तुम उनकी सेवा में ही लगी हो ।
महर्षि नें मेरे सामनें हाथ जोड़ दिए थे .........मैं क्या कहती उनसे ।
मैं शान्त होती.....अपनें आपको सम्भालती......फिर कहती - महर्षि ! मिलन कब होगा हमारी सखी श्रीराधा और श्याम सुन्दर का ?
कुछ वर्ष और !
कितनें वर्ष और महर्षि ! श्याम के गए हुए ........पाँच वर्ष तो बीत चुके हैं ......और कितनें ?
ललिते ! अभी तो बहुत समय बाकी है ........करीब ९५ वर्ष और ।
मेरा हृदय धक्क बोलकर रह गया......ओह ! अभी ९५ वर्ष और ?
हाँ ....ललिते ! सम्भालना होगा अपनी श्रीराधारानी को ।
मैं उठ गयी .........पर जाते जाते बोली ............महर्षि ! तुम्हारे यज्ञ कुण्ड की भस्म ले जाऊँ ? लगा दूंगी माथे में अपनी लाडिली के ....कुछ तो शान्ति मिलेगी ....................मैं कुछ भी करनें के लिये तैयार थी अपनी स्वामिनी के लिये ........।
महर्षि स्वयं रो पड़े थे मेरी भस्म ले जानें की बात सुनकर ........कुछ नही होगा इन सब से ललिता !
क्यों नही होगा ? प्रभावती गोपी को भूत लगा था.........ऊँची पहाड़ी के तांत्रिक बाबा नें भस्म दी और वो ठीक हो गयी ।
क्या कहें मुझ पगली को .............महर्षि इतना ही कहते ..........ये भूत-प्रेत की बाधा नही है ललिता ! तुम भी समझती हो ..........
हाँ ...मैं समझती हूँ ..........पर अभी कुछ नही समझ पा रही हूँ ।
मेरी स्वामिनी मूर्छित हैं अभी ..............अब जब उठेंगी तब उनकी उन्मादजन्य स्थिति ..........ओह ! मैं रो पड़ी थी ।
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नहीं नहीं .......ये झूठ है .......कह दो ना भैया ! ये झूठ है !
ऐसी सूचना क्यों देते हो तुम ! अब मैं ये बात अपनी स्वामिनी को कैसे बताऊँ ?
मत बताओ ! पर ललिता ! मैने तुम्हे बता दिया है .........सच्चाई यही है । श्रीदामा भैया ये क्या कह गए !
मैं शून्य में ताकती रह गयी ..........मेरे कुछ समझ में नही आरहा था कि ये दूसरा वज्रपात हमारे ऊपर क्यों ?
हमारा राजा अब जरासन्ध ! ओह !
श्यामसुन्दर अपनें परिवार, समाज के सहित मथुरा छोड़कर जा चुके थे...........कहाँ ? पर ये बात श्रीदामा भैया नें हमें नही बताया ।
मैं किंकर्तव्य विमूढ़ सी हो गयी थी ........क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?
किससे कहूँ ?
हिलकियों से रो पड़ी थी मैं ...............धरती में अपना सिर पटक रही थी मैं ..............हाय ! ये क्या हो गया ?
हम लोग वृन्दावन वाले कमसे कम ये सोचकर तो सन्तुष्ट थे कि .......मथुरा में हमारा श्याम सुन्दर है .....और मथुरा हमसे पास ही है .....हम न भी जाएँ तो क्या हुआ .......वृन्दावन के कुछ लोग हैं जो मथुरा जाते आते हैं ......उन्हीं से समाचार तो मिल जाता था कि "श्याम कैसा है" पर अब ?
हे श्याम ! हे श्याम सुन्दर ! हे प्रियतम ! हे प्राणेश !
ओह ! श्रीराधारानी की मूर्च्छा टूट गयी थी ।
मैं दौड़ी दौड़ी गयी ........जल पिलाया उन्हें ............
ललिते ! चन्द्रावली जीजी ! कहाँ हैं ?
स्वामिनी ! आपको क्यों चाहिये चन्द्रावली ?
ललिते ! वह कह रही थीं कि ..........मैं मथुरा जाऊँगी और श्याम सुन्दर से मिलकर आऊँगी .........कह तो मुझे भी रही थीं चलनें के लिए। .....पर मैं नही जारही मथुरा ..............
मेरी ललिते ! जा ना ! बुलाकर ला ना .......जीजी चन्द्रावली को ....और उनसे पूछ ..........कि मथुरा वो जाकर आईँ हैं ! .........तो हमारा श्याम सुन्दर कैसा है ? वो ठीक है ना ? पता नही क्यों ललिते ! आज मुझे घबराहट हो रही है ...........मेरे श्याम सुन्दर कुशल तो हैं ना मथुरा में ? जा ! चन्द्रावली जीजी से पूछ कर आ ।
मैं रो गयी ..........पर आँसुओं को छुपा लिया .........क्यों कि मेरे आँसू अगर लाडिली को दींखें .......तो वो और दुःखी हो जाती हैं ।
मैने तभी देखा ...........सैनिक बदल गए थे ..........सत्ता ही बदल गयी थी ...........बरसानें में सैनिकों की जो टुकड़ी आरही थी .........पर ।
हर ग्वाल बाल के मन में यही प्रश्न अब उठ रहा था कि ......क्या सत्ता बदल गयी ? सब डरे हुये से थे भोले भाले बृजवासी ।
ललिता ! तू जा ना चन्द्रावली जीजी के पास .........और सुन उनसे अच्छे से पूछियो ..........मेरे श्याम सुन्दर कैसे हैं ?
जा ! जा ललिता जा !
मैं चल रही थी .......पर कहाँ ? मैं आगे बढ़कर रो गयी ..........और वहीं बैठ गयी ।
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हे वज्रनाभ ! सत्ता बदल गयी थी मथुरा की ...........आक्रमण कर दिया था जरासन्ध नें ...........और इतना ही नहीं ..........विश्व का सबसे बड़ा आतंककारी "कालयवन" को अपनें साथ में करके ........ये और उग्र हो उठा था ............कृष्ण नें स्थापत्य कला की एक अद्भुत कृति सागर के बीचों बीच द्वारिका में बना ली थी .......रातों रात ........इसमें देव शिल्पी विश्वकर्मा नें अपनी सेवा दी थी कृष्ण को ।
और इधर मथुरा में आधिपत्य हो गया था जरासन्ध का .........
और वृन्दावन के ये प्रेमी लोग अभी भी प्रतीक्षा में हैं कि - "कन्हाई आएगा"..................अब इनको कौन समझाये कि .......जिस कन्हाई को तुम अपना मान कर खिलाते पिलाते नचाते थे ........वह अब द्वारिकाधीश बन चुका था ।
शेष चरित्र कल -
जय श्री हित हरिवंश<🙇🙇>
✍️श्रीजी मंजरीदास
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आज के विचार
( गहवर वन में जब "रात" ठहर गयी...)
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 104 !!
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गहवर वन.....बरसानें का गहवर वन.....यहीं मिलते थे युगलवर ।
यहाँ की वृक्ष लताएँ, मोर अन्य पक्षी सब साक्षी हैं.....प्रेम मिलन के ।
"मैं रंगदेवी"
प्रिय सखी श्रीराधारानी की ।
सारंग गोप और करुणा मैया की लाडिली बेटी .......रंगदेवी मैं ।
मेरे पिता सारंग गोप सरल और सहज स्वभाव के थे ...........मित्रता थी भानु बाबा से मेरे पिता जी की ..........और मेरी मैया करुणा, वो तो कीर्तिमैया की बचपन की सखी थीं.........मायका इन दोनों का एक ही है ........बचपन से ही मित्रता और विवाह भी एक ही गाँव बरसानें में हुआ.........कहते हैं ......मेरा जन्म भादौं शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था........तब सब नाचे थे .....कहते तो हैं कि मेरे जन्म के समय कीर्तिमैया भी खूब नाचीं थीं..........मैं एक नही जन्मी थी .......हम तो जुड़वा जन्में थे.........मेरी छोटी बहन का नाम है सुदेवी ।
हम दोनों बहनें हीं श्रीजी की सेवा में लग गयीं........और हमारी कोई इच्छा भी नही थी........विवाह तो करना ही नही था ..... श्याम सुन्दर और हमारी श्रीराधा रानी की प्रेम लीला प्रारम्भ हो चुकी थी........पता नही क्यों हम दोनों बहनों की बस यही कामना होती थी कि .....इन दोनों युगलवरों को मिलाया जाए......राधा और श्याम सुन्दर दोनों प्रसन्न रहें..........बस विधना से हमनें सदैव यही अचरा पसार के माँगा है ।
पर विधना भी हमारी लाडिली के लिये कितना कठोर हो गया था ।
असह्य विरह दे गया.......और कल तो ललिता सखी नें एक और हृदय विदारक बात बताई .......कि मथुरा भी छोड़ दिया श्यामसुन्दर नें ?
मत बताना स्वामिनी को ............यही कहा था ललिता सखी नें ।
मुझ से सहन नही होता अब ...........कैसे सम्भालूँ मैं इन्हें ।
आज ले आई थी गहवर वन.........मुझे लगा था कि थोडा घूमेंगीं तो मन कुछ तो शान्त होगा ........पर अब मुझे लग रहा है कि बेकार में लाई मैं इन्हें यहाँ..........यहाँ तो इनका उन्माद और बढ़ेगा ........क्यों कि यहीं तो मिलते थे श्याम सुन्दर और ये श्रीजी ।
वन के समस्त पक्षी एकाएक बोल उठे थे .........मैने इशारे में उन्हें चुप रहनें को कहा ..........पर मानें नहीं ........पूछनें लगे थे ..........कहाँ है श्याम ? कहाँ है श्याम ?
ओह ! मेरी श्रीराधा तो जड़वत् खड़ी हो गयीं.......चारों और दृष्टि घुमाई ..........वन को देखा ............सरोवर में कमल खिले हुए थे ......कमलों को देखा........लताओं को छूआ ।
तुम को विरह नही व्यापता ? हे गहवर वन के वृक्षों ! क्या तुम्हे याद नही आती मेरे श्याम सुन्दर कि ........क्या तुम्हे याद नही आती ! वो मेरे श्याम तुम्हे छूते थे ......क्या उनके छुअन को तुम भूल गए ?
कैसे इतनें हरे हो ? कैसे ? हे गहवर वन कि लताओं ! तुम जरी नही ?
इतना कहते हुये विरहिणी श्रीराधा , हा श्याम ! हा प्राणेश ! कहते हुये मूर्छित हो गयीं थीं ।
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रंग देवी ! कहाँ हो तुम ? मैं यहाँ अकेले ? रात हो रही है !
ओह रंग देवी ! पता नही क्यों मुझे रात्रि से डर लगता है .....मैं डरती हूँ ........क्यों की रात्रि को मेरा उन्माद बढ़ जाता है ............और रात्रि का समय कटता भी नही है ...........काटे नही कटता ।
मैने अपना हाथ दिया..........मेरे हाथों को छूते हुए -
मेरी सखी रंगदेवी ! सुना ! तुमनें सुना ! मेरे श्याम कुछ कह रहे हैं !
आहा प्यारे ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो ................
मुझसे कह रहे हैं मेरे प्राणेश ........कि राधे ! बहुत दिनों से मैने वीणा नही सुनी है .......मुझे वीणा सुना दो ..............
रंगदेवी ! अपनें प्रिय कि बात न मानना ये तो अपराध होगा .......
जाओ ! मेरी वीणा ले आओ ...........आज मैं इस गहवर वन में फिर वीणा बजाऊंगी ...............मेरे पिय भी प्रसन्न होंगें और उनकी प्रसन्नता में मेरी ही तो प्रसन्नता है ।
देख रंगदेवी ! ये वृक्ष भी सुनना चाहते हैं मेरी वीणा को ........ये लताएँ.....और ये मोर भी.......जाओ रंगदेवी ! मेरी वीणा ले आओ ।
पर रात हो गयी है .......आप महल नही चलेंगीं ?
क्या रात यहीं बितानी है ?
हँसी श्रीराधारानी .............मुझे नींद आती कहाँ है ? मुझे तो लगता है कि ये रात होती क्यों है ! दिन ही हो तो ठीक है ।
अब तू जा .......और मेरी वीणा ले आ ...........आज रात भर मैं वीणा सुनाऊँगी अपनें श्याम सुन्दर को ।
मैं क्या करती ........श्रीजी की आज्ञा का पालन ही हमारा धर्म था ।
मैं वीणा लेनें चली गयी थी महल में ।
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गहवर वन..........घना वन है .....मध्य में सरोवर है ..........चाँद खिला है .........पूर्णता से खिला है.......मानों वह भी तैयार होकर आया है वीणा सुननें के लिये..........लताएँ झूम उठीं थीं तब, जब श्रीजी नें वीणा के तारों को झंकृत किया था ।
आह ! हृदय विदीर्ण हो जाए.......ऐसा राग छेड़ा था श्रीप्रिया जू नें ।
अपनें आपको भूल गयीं थीं वीणा बजाते हुये .........अश्रु बह रहे थे नयनों से ............बहते बहते कंचुकीपट को गीला करनें लगे थे ।
मोर शान्त होकर श्रीराधारानी के पीछे खड़े हो गए .........
कोई कोई मोर तो अश्रु बहानें लगे थे ...........पक्षी भी श्रीराधा की विरह वेदना को अनुभव कर रहे थे ..............
पर ये क्या ? वीणा बजाते बजाते रुक गयीं श्रीराधारानी .........
और अपनें बड़े बड़े नयनों से चन्द्रमा की ओर देखा था ।
हे स्वामिनी ! क्यों वीणा को रोक दिया ? बजाइये ना ?
रंगदेवी नें प्रार्थना की ।
चन्द्रमा रुक गया रंगदेवी ! मेरी वीणा सुनते हुए ये रुक क्यों गया ?
ये क्या कह रही थीं ? मैं चौंक गयी ......मुझे घबराहट होनें लगी ।
आपको क्या हो गया एकाएक ? मैने पूछा ।
मुझे क्या होगा रंगदेवी ! हुआ तो इस बाबरे चन्द्रमा को है ।
श्रीराधारानी नें रँगदेवी से कहा ............और फिर बड़े गौर से चन्द्रमा को देखनें लगीं ।
ओह ! चन्द्रमा नही रुका रंगदेवी ! अब मैं समझी...........चन्द्रमा को चलानें वाला जो हिरण है ना वो रुक गया है .......देख !
हाँ अब समझी मैं रंगदेवी ! हिरण को तो वीणा की ध्वनि मुग्ध कर देती है ना.......हाँ मेरी वीणा सुनकर ये चन्द्रमा में काला काला जो दिखता है यह हिरण ही तो है.......जो इस चन्द्रमा को खींचकर चलाता है ।
रंगदेवी ! चन्द्रमा रुक गया है.......
...उफ़ ! ये श्रीराधारानी का विचित्र उन्माद ।
इसका मतलब रात रुक गयी ? ओह ! और जब तक ये चन्द्रमा चलेगा नही ........रात आगे बढ़ेगी नही ..............
रंगदेवी ! पर चन्द्रमा को चलानें वाला हिरण रुक गया है .......इस हिरण को आगे बढ़ाना आवश्यक है .......नही तो रात रुकी रहेगी ....और दिन होगा नही.......और दिन नही होगा तो ?
अद्भुत स्थिति हो गयी थी श्रीराधारानी की ।
रंगदेवी ! रात में वो ज्यादा याद आते हैं.......वो रात ही बनकर आते हैं.......ये जल्दी जाए ना चन्द्रमा......
उठकर खड़ी हो गयीं श्रीराधारानी ............नही....इस हिरण को चलाना आवश्यक है .........जब हिरण चलेगा तभी चन्द्रमा आगे बढ़ेगा .......तब रात भी बढ़ेगी .........
सोचती हैं श्रीराधारानी ।
फिर एकाएक दौड़ पड़ती हैं ..............दाड़िम के पेड़ से दाड़िम की एक लकड़ी तोड़ती हैं ..........फिर भोजपत्र के वृक्ष से भोज पत्र .........सिन्दूर के वृक्ष से सिन्दूर .............
मैं कुछ समझ नही पा रही थी कि, क्या करूँ ?
वो इतनी शीघ्र कर रही थीं सबकुछ कि .........पर क्या कर रही हैं ?
भोजपत्र को धरती में रखा .........सिन्दूर के बीज निकाले उन्हें मसला ........फिर उसे दाड़िम की लकड़ी में लगाकर .............
कुछ चित्र बना रही हैं श्रीराधारानी ।
मैनें देखनें की कोशिश की ............तो वो बना चुकी थीं ।
उफ़ ! सिंह का चित्र बनाया था ...........और उस चित्र को चन्द्रमा को दिखा रही थीं .............फिर ताली बजाते हुए हँसीं .........रंगदेवी ! देखा - सिंह के भय से हिरण अब चल रहा है .......चन्द्रमा भी बढ़ रहा है .....और रात अब चल दी है ..........अब शीघ्र ही सुबह होगी ।
ये कहते हुए वीणा को फिर हाथों में लिया श्रीराधा रानी नें .........और बजानें लगीं वीणा ................
पर मैने अपनी स्वामिनी से प्रार्थना की - आप न बजाएं .......क्यों की वीणा सुनकर फिर रुक गया हिरण तो ?
तब तो चन्द्रमा भी रुक जाएगा .....और रात भी रुक जायेगी ?
ये कहते हुए श्रीराधारानी नें वीणा रख दी थी .........
प्यारे ! सुन ली ना वीणा तुमनें ?
बोलो ना ? कहो ना ? रंगदेवी ! श्यामसुन्दर कुछ बोलते क्यों नही हैं ?
श्रीराधारानी नें मुझ से पूछा था ।
इस प्रेमोन्माद का मैं क्या उत्तर देती ?
सो गए हैं आपके प्यारे ! मैने इतना ही कहा था ।
ओह ! मैं भी कैसा अपराध करती हूँ ना ? अपनें स्वार्थ के लिये प्यारे को रात भर जगाना चाहती हूँ ........छि ! ये पाप है .........
मुझ से ये क्या हो गया !
फिर रुदन ...........फिर विरह सागर में डूब जाना श्रीराधारानी का ।
उफ़ !
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हे वज्रनाभ ! मैं भी कभी कभी बरसाना हो आता था ...........और वहाँ की स्थिति देखता तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठता .........मुझे श्री कृष्ण से शिकायत होनें लगी थी........और दुखद तो ये भी था कि अब वो मथुरा में भी नही .....दूर दूर, वृन्दावन से बहुत दूर, खारे समुद्र में जाकर रहनें लगे थे ।............पर इन सबसे अनजान यहाँ के ये प्रेमिन लोग, बस उसी कन्हाई, श्याम, कन्हा , इन्हीं में अटके थे .........किन्तु वो ! वो तो द्वारिकाधीश महाराजाधिराज श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज बन बैठे थे ।
महर्षि शाण्डिल्य बताते हैं ।
शेष चरित्र कल -
जय श्री हरिवंश
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आज के विचार
( कोयला भई न राख )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 105 !!
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हे वज्रनाभ ! प्रेम जिन क्रमिक दशाओं को पार करता हुआ शुद्ध तत्व में प्रकट होता है ........उस रहस्य को "श्रीराधाचरित" के माध्यम से मैं तुम्हे बता रहा हूँ .......शायद पूर्व में भी मैने तुम्हे कहा हो ......पर सुनो -
स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव महाभाव ।
और श्रीराधारानी उसी "महाभाव" की एक दिव्य प्रतिमा हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य आज देहभान से परे हैं........उनके देह में शुद्ध सात्विक भावों का उदय हो रहा है.......उनके नेत्र बह रहे हैं ....।
हे वज्रनाभ ! श्रीराधा ज्वलन्त आस्तित्व है......श्रीराधा गति है , श्रीराधा यति है , श्रीराधा लय है , श्रीराधा परम संगीत है , श्रीराधा परम सौन्दर्य है , श्रीराधा एक रोमांचक अभिव्यंजना है, श्रीराधा समस्त साहित्य की अधिष्ठात्री है , श्रीराधा समस्त कलाओं की स्वामिनी हैं ।
श्रीराधा पूर्णतम हैं ......श्रीराधा ब्रह्म की आल्हादिनी हैं......श्रीराधा आनन्ददायिनी हैं ।
क्या क्या कहूँ हे वज्रनाभ ! श्रीराधा क्या हैं ?
मैं तो इतना ही कहूँगा ..........श्रीराधा क्या नही हैं ?
ये कहते हुए महर्षि शाण्डिल्य के मुखमण्डल में एक दिव्य तेज़ छा गया था ।
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आइये महर्षि ! बड़ी कृपा की आपनें जो हमारे महल में पधारे ।
मैं आज बरसानें निकल आया था..........फिर मन में विचार किया क्यों न बृषभान जी से भी मिल ही लिया जाए ...........
साधुपुरुष हैं वो तो............ऐसा विचार करते हुए मैं बृषभान जी के महल में चला गया.........सच ये है कि मेरे मन में लोभ था - उन महाभाव स्वरूपा श्रीराधारानी के दर्शन करनें का ।
आइये महर्षि ! बड़ी कृपा की आपनें जो हमारे ..............
मुझे देखते ही वो द्वार पर आगये थे ........और बड़े प्रेम से मेरे पाँव में अपनें सिर को रखकर प्रणाम किया था ।
बृषभान जी ! बस ऐसे ही आगया .......कोई विशेष कार्य नही था ।
मेरे सामनें फल फूल दुग्ध इत्यादि , बड़े आदर के साथ कीर्तिरानी नें रख दिए थे .......बृषभान जी हाथ जोड़कर प्रार्थना करनें लगे थे .....आहा ! कितना सरल और साधू स्वभाव है .......क्यों न हो श्रीराधारानी के पिता बननें का सौभाग्य ऐसे थोड़े ही मिलता है !
आप कुछ तो ग्रहण करें ! हमारे ऊपर आपकी बड़ी कृपा होगी ।
मैने दुग्ध लिया...........दोनों दम्पति प्रसन्न थे मेरा सत्कार करके ।
कृष्ण कहाँ गए ?
बहुत धीमे स्वर में कीर्ति रानी नें मुझ से ये प्रश्न किया था ।
आप को सब पता है महर्षि ! बताइये ना ! मेरा पुत्र श्रीदामा कह रहा था कि मथुरा छोड़ दिया नन्दनन्दन नें ?
हस्त प्रक्षालन करके महर्षि नें कीर्तिरानी को कहा -
हाँ मथुरा में अब जरासन्ध का शासन है ..............कृष्ण मथुरा को छोड़कर चले गए.........महर्षि नें इतना ही कहा ।
पर महर्षि ! वो गए कहाँ ? कहाँ रह रहे हैं यदुवंशी ? नन्दनन्दन नें अपना ठिकाना कहाँ बनाया है ? बृषभान जी नें अधीर होकर पूछा ।
मेरे मित्र नन्द कितनें दुःखी हैं........मुझ से उनकी दशा देखी नही जाती.......भीतर से रोते रहते हैं ..... बाहर से मुस्कुराते हैं .....और जब कृष्ण के बारे में पूछो तो कहते हैं........"वो खुश हैं ना तो हम भी खुश हैं.......वो जहाँ रहे खुश रहे ".........बस यही कहते हैं वो .......मैं उनके सामनें ज्यादा देर रुक नही सकता ......क्यों की फिर मेरा रोना शुरू हो जाता है .........ओह ! विधाता तूनें ये कैसा दुःख दे दिया ।
हे बृषभान जी ! आपका कहना सत्य है .........कृष्ण के प्रेम को भला कौन भुला सकता है ? कृष्ण हैं हीं ऐसे व्यक्तित्व की सब उनसे प्रेम करते हैं .........चराचर समस्त उनसे प्रेम करता है ।
द्वारिका जाकर रह रहे हैं समस्त यदुवंशी ? उनके नायक हैं श्रीकृष्ण ?
कीर्तिरानी नें आगे आकर ये और पूछा - द्वारिका कहाँ है ?
समुद्र के किनारे ये कृष्ण नें ही बसाया है.......महर्षि नें उत्तर दिया ।
दूर है ? कीर्तिरानी नें पूछा ।
हाँ देवी ! दूर तो है ..............बहुत दूर है ।
महर्षि की बातें सुनकर अत्यन्त पीढ़ा हुयी दोनों दम्पति को ।
लम्बी साँस ली बृषभान जी नें .......और कीर्तिरानी नें फिर पूछा ।
महर्षि ! विवाह ? क्या कृष्ण नें विवाह किया है ?
इस प्रश्न पर रुक गए महर्षि.....
....और दृष्टि उठाकर जब सामनें देखा तो !
बताइये महर्षि ! क्या मेरे प्राणधन नें विवाह किया ?
बताइये महर्षि ! क्या मेरे प्रियतम की कोई दुल्हन ?
श्रीराधारानी आगयी थीं महल में ........ललिता सखी नें कह दिया था कि महर्षि शाण्डिल्य को महल में जाते देखा है ...........ये सुनकर श्रीराधारानी आगयी थीं ........पर बात कृष्ण की चली तो प्रेमोन्माद में जड़वत् हो गयीं थीं । अब बात विवाह की जब पूछी गयी .........तब महर्षि नें सामनें देखा .....तो खड़ी हैं आल्हादिनी श्रीराधा.....महर्षि चुप हो गए थे......पर श्रीराधा नें आगे बढ़कर पूछा -
आप मुझे बताइये मेरे "प्राण" नें विवाह किया ? .
हाँ .......कर लिया........आल्हादिनी के सामनें मैं झूठ कैसे बोलता ।
मानों वज्रपात हुआ बृषभान और कीर्तिरानी के ऊपर ............
महर्षि नें सोचा था मूर्छित हो जायेंगी श्रीराधा........पर ।
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महर्षि !
उछल पडीं थीं श्रीराधारानी ..........क्या सच में मेरे प्रियतम नें विवाह कर लिया ! ओह ! मैं कितनी खुश हूँ ...........मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ ..........सच ! मेरे प्राणधन नें विवाह कर लिया ।
अब ठीक है ............अब उनकी सेवा अच्छी होगी .............जब थके हारे मेरे प्रियतम शैया में जायेंगें.......तब उनके चरण चाँपनें वाली कोई तो चाहिये थी ना ! हँसी श्रीराधा रानी ......खूब हँसी ।
अच्छा बताओ महर्षि ! कैसी है मेरे प्रियतम की दुल्हन ?
अच्छा उनका नाम क्या है ? देखनें में सुन्दर है ?
मुझ से तो सुन्दर होगी ........है ना महर्षि ?
वो तो करुणा निधान हैं मेरे प्रियतम ...........सबको स्वीकार करते हैं .....सुन्दरता असुन्दरता वे देखते कहाँ है ?
मुझे ही देख लो ना महर्षि ! मैं सुन्दर हूँ ? अरे ! मेरे जैसी तो इस बृज में अनेकन थीं ............मेरे जैसी ? फिर हँसी श्रीराधा रानी ।
महर्षि ! क्षमा करना .......मुझे ये अहंकार देनें वाले भी वही मेरे प्रियतम ही हैं ................मुझे बारबार - राधे ! तू कितनी सुन्दर है ........राधे ! तुम्हारी जैसी सुन्दरी कहीं नही है ...........
मैं भी आगयी उनकी बातों में.....और माननें लगी अपनें आपको सुन्दरी ।
अच्छा छोडो मेरी बातों को ..............मुझे ये बताओ - सुन्दर है ?
मेरे "प्राण" की दुल्हन सुन्दर है ? बताओ ना महर्षि !
महर्षि रो पड़े !
....श्रीराधा का ये महाभाव देखकर महर्षि हिलकियों से रो पड़े थे ।
चलो ! अब ये राधा प्रसन्न है ...........बहुत प्रसन्न है ..........मैं सोचती थी कि उनकी सेवा कौन करता होगा ? सेवक और सेविकाओं की सेवा में और पत्नी की सेवा में, अंतर तो होता ही है ...........कितनें थक जाते होंगें .....उनके तो शत्रु भी बहुत हो गए हैं ना ?
चलो ! बहुत अच्छा, विवाह कर लिया मेरे "पिय" नें ।
श्रीराधारानी विलक्षण भाव से भर गयी थीं आज ।
राजकुमारी होगी .......है ना ? हाँ किसी राजकुमारी से विवाह किया होगा , महर्षि ! बताओ ना ?
हाँ ...........राजकुमारी हैं । महर्षि को कहना पड़ा ।
अट्टहास करनें लगीं श्रीराधारानी ...........
मैं तो ग्वालिन ........वन में वास करनें वाली .........जँगली असभ्य ......
फिर भी मुझ से इतना प्रेम किया उन्होंने.......मैं तो उनसे कहती थी .....मुझ में ऐसा क्या है ? तुम्हे तो स्वर्ग की सुन्दर कन्याएं भी मिल जायेंगी .......तुम्हे तो नाग लोक की सुन्दरी भी सहज प्राप्त हो जायेंगी .....कितना कहती थी मैं उन्हें ......पर वो बारबार राधे ! तेरो मुख नित नवीन सो लागे ......राधे ! तेरो मुख चन्दा है .....और मैं चकोर ।
बोलती जा रही थीं श्रीराधा ।
श्रीराधा की ये दशा देखकर बृषभानुजी और कीर्तिरानी रो रहे थे ।
"रुक्मणी"...........विदर्भ की राजकुमारी हैं .....रुक्मणि !
महर्षि शाण्डिल्य नें बताया ।
ठीक किया........अब मैं बहुत प्रसन्न हैं .......अब मुझे उनको लेकर कोई चिन्ता नही होगी । प्रसन्नता से भर गयीं थीं श्रीराधा ।
पर ये क्या ! एकाएक फिर अश्रु बहनें लगे थे आल्हादिनी के नेत्रों से ।
मैनें उन्हें बहुत कष्ट दिया.......मेरे "मान" नें उन्हें बहुत कष्ट दिया ।
वे मेरे सामनें कितना डरते थे ......कातर बने रहते मेरे "मान" से ।
मेरी सखियों के सामनें हाथ जोड़ते रहते थे ........मेरी प्यारी को मना दो ....मेरी प्यारी प्रसन्न हो जाए - उपाय बताओ ।
मेरे मनुहार में वे क्या क्या नही करते थे ........... ......मैने अपनें पाँव भी दववाए उनसे ......बस मेरी प्रसन्नता ही उनके लिये सबकुछ थी ।
इस गर्विता राधा में था ही क्या ! न रूप , न कोई गुण , बस था तो गर्व .......केवल गर्व में रहती थी मैं ।
पर रुक्मणि तो अच्छी होंगी ! सुन्दर होगी ! गुणवान होगी !
मेरी तरह तो नही ही होगी .............अच्छा हुआ विवाह कर लिया मेरे प्रिय नें .........अच्छा हुआ ! बहुत अच्छा हुआ ...........
ये कहते हुए श्रीराधारानी वहाँ से चली गयीं .......कीर्ति रानी दौड़ पडीं थीं श्रीराधा के पीछे .........सखियों से सम्भाला था कीर्ति मैया को ......पर श्रीराधा अपनें कुञ्ज में जाकर बैठ गयीं ......शान्त भाव से ..........आज इस भाव समुद्र में कोई तरंगें नही थीं ।
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क्या कहोगे वज्रनाभ ! ये प्रेम का महासागर है ............डूबनें वाला ही इसकी थाह पाता है .......पर वो भी बता नही पाता .....क्यों की शब्दों की सीमा है ...........और प्रेम असीम ।
शेष चर्चा कल -
Harisharan
आज के विचार
( जब वृन्दावन में दाऊ पधारे )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 106 !!
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उफ़ ! दस वर्षों से भी ज्यादा समय बीत गया है श्याम सुन्दर के मथुरा गए ..... दस वर्ष से ज्यादा होनें को आये हैं ......पर प्रतीक्षा सबकी अभी भी बनी हुयी है कि ........."श्याम आयेंगें" ।
मैं चन्द्रावली ..........हाँ कह सकते हैं .....राधा की सौत ।
बहुत चिढ़ती थी मैं राधा से ............क्यों की श्याम सुन्दर इसे ही ज्यादा मानते थे...............मुझ से छोटी है राधा ..........पर इस छोटी बहन से भी मैं ईर्श्या ही करती थी.....इसके बाद भी सदैव राधा नें मुझे "जीजी" कहकर ही आदर दिया..........सम्मान सदैव दिया मुझे इस प्रेम की पुजारन नें........हाँ गलत मैं थी.....मेरी कोई तुलना ही नही थी राधा से ......राधा, राधा थी और मैं विकार और दुर्गुणों से भरी चन्द्रावली .......हाँ अब लगता है कि श्याम राधा को इतना क्यों मानते थे ।
मैं अभी मिलकर आरही हूँ राधा से............ श्याम सुन्दर से कोई शिकायत नही है उसे ............वो तो मैं थी कि, राधा की दशा देखकर दो चार गालियां देनें की इच्छा हुयीं श्याम सुन्दर को ......और मैने तो दे भी दीं .........पर राधा ! "जीजी ! आप कुछ भी कह सकती हो उन्हें ......पर मेरी दृष्टि में तो वो परम दयालु हैं ..........द्वारिका में जाकर बस गए हैं ................कुछ ऐसी परिस्थिति बनी होगी .........मैं तो उन्हें किंचित् भी दोष नही देती............वो प्रसन्न रहें , भले ही वृन्दावन न आएं ......पर प्रसन्न रहें वे "
चन्द्रावली !
अब समझी तू कि श्यामसुन्दर राधा को क्यों चाहते थे ?
प्रेम का अद्भुत रूप , राधा में मुझे आज दिखाई दिया था ..........मैं उसे देखती रही थी .............वो नेत्रों से निरन्तर अश्रु प्रवाहित कर रही थी........पर बीच बीच में आँसुओं को पोंछते हुए कहतीं - ये दुःख के आँसू नही हैं ........पता है मेरे श्याम सुन्दर नें विवाह कर लिया !
हाँ जीजी ! सच कह रही हूँ .........श्याम सुन्दर द्वारिका गए और वहाँ जाकर किसी राजकुमारी से विवाह कर लिया ।
मुझे बता रही थी............हाँ "रूक्मणी" नाम है , मैने भी कह दिया ।
जीजी ! आपको पता है ? किसनें बताया ? राधा एक बच्ची की तरह पूछती है मुझ से ।
एक नही आठ विवाह किये हैं श्याम सुन्दर नें ।
ये सुनकर वो कितना हँसी थी ..............खिलखिलाकर हँसी थी ।
जीजी ! सच ! आठ विवाह किये हैं मेरे श्याम नें !
हूँ.................मैने इतना ही कहा ।
तुम्हारे मन में कभी ईर्श्या नही जागती ? कुछ देर बाद मैने राधा से पूछा था ..........क्यों की राधा ! मेरे हृदय में तो मात्र ईर्श्या ही है ।
मैं तुमसे भी तो कितना जलती थी .......... आठ विवाह किये श्याम नें ........तुम्हे जलन नही हो रही उन राजकुमारियों से ?
जीजी ! क्यों जलन हो ? हमारे प्राणेश को प्रिय लगी होंगीं वे राजकुमारियां तभी तो विवाह किये ना ! और प्राणेश की प्रियता क्या हमारी प्रियता नही है ?
नही, मुझे तो बहुत जलन होती है ........मेरा हृदय तो उन राजकुमारियों के बारे में सोच सोच कर जलता है ..........मैने कहा ........और उठ गयी थी .....हाँ उठते हुए राधा को मैने पहली बार प्रणाम किया था...... .......राधा ! आज चन्द्रावली कह रही है, तुम्हारे आगे ये चन्द्रावली कुछ नही है .............तुम्हारे पैर की धूल भी नही है ।
जीजी ! आप ऐसा मत बोलो ...........आप मुझ से बड़ी हैं ...........
मैं चन्द्रावली अब रुक नही सकती थी राधा के पास.......मेरे नेत्र बहनें के लिए आतुर थे ....और राधा के आगे मैं रोना नही चाहती थी ।
मैं चल दी ...........राधा से मिलकर मेरी दशा ही अलग हो चली थी ।
मेरे कदम कहाँ पड़ रहे हैं मुझे पता नही था.........मेरे शरीर में रोमांच हो रहा था.........कि तभी मैने सामनें देखा .....मथुरा के मार्ग में देखा -
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रथ आरहा है !
हे वज्रनाभ ! चन्द्रावली सखी नें देखा ..........वो रुक गयीं ।
कौन है रथ में ? ध्यान से देखनें की कोशिश की ।
रथ तीव्रता से दौड़ते हुए आरहा था ..............चन्द्रावली नें देखा ।
पर..............रथ तो वायु की गति से चल रहा था ........सामनें से निकल गया ........रथ में कौन ये देख नही पाई थी चन्द्रावली ।
रथ नन्दभवन में ही गया था ........और वहीं रुका ।
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गौर वर्ण का कोई सुन्दरपुरुष है............पहचाना सा लगता है ।
चन्द्रावली गयी थी नन्दभवन में देखनें की कौन आया ?
झुककर प्रणाम किया था मैया यशोदा को उस पुरुष नें ..............
कौन ? कन्हाई ?
मैया को कन्हाई के सिवा और कुछ स्मरण ही नही है ।
नहीं मैया ! मैं तेरा दाऊ ........बलराम !
ओह ! दाऊ..........चन्द्रावली ख़ुशी से झूम उठी थी ।
दाऊ ! मैया यशोदा के नेत्रों से अश्रु बह चले .........हृदय से लगा लिया ।
ओह ! कैसा है तू ? मेरा कन्हाई नही आया ?
"नही आया"....................दाऊ नें कहा ।
अच्छा ! आजाता तो ये बूढी आँखें उसे देख लेतीं .............
पर नही आया.....अच्छा , अच्छा एक बात बता दाऊ ! महर्षि शाण्डिल्य कह रहे थे कि .........तुम लोग मथुरा से चले गए हो ......पर कहाँ गए ?
"द्वारिका" बलराम नें कहा ।
दाऊ ! द्वारिका दूर है ?
आगे आगयी थी चन्द्रावली ..............और दाऊ से पूछनें लगी थी ।
दूर है .............समुद्र के मध्य है ।
मेरा कन्हाई समुद्र में रहता है .................मैया नें आश्चर्य से पूछा ।
नगरी बसाई है कृष्ण नें .......द्वारिका नाम की.........बलराम नें ये बातें बताईं ।
चल तू ! थक गया होगा ...............कुछ खा ले .........
अच्छा ! तेरी माँ रोहिणी कैसी है ?
माखन रोटी लाते हुए पूछा था मैया नें ।
देख, जल लाना भी भूल गयी........ चन्द्रावली नें कहा ......मैं ला देती हूँ मैया ! और जल लेनें रसोई में चली गयीं ।
सिर में हाथ फेरतीं हैं दाऊ के मैया यशोदा ...........फिर अतीत में खो जाती हैं .............
शादी की कन्हाई नें ? इस प्रश्न पर थोड़ी हँसीं थीं मैया ।
"हाँ कर ली".........दाऊ नें कहा ।
सुना तो है कि आठ विवाह किये हैं .........कन्हाई नें ?
दाऊ थोडा मुस्कुराये.........आठ नही मेरी मैया !
सोलह हजार एक सौ आठ ।
हा इतनें विवाह किये हैं ?
ओह ! इस प्रसंग पर तो मैया यशोदा खुल कर हँसीं ...........पर हँसी कुछ ही क्षण फिर आँसू में बदल गए थे ।
यही आँगन है ...........जहाँ एक दिन मचल गया था कन्हाई ........कहनें लगा .....माखन दे ......फिर कहने लगा था चन्दा दे, फिर तो रोते हुए धरती में लोट गया ।
ओह ! कितनें वर्षों बाद हँस रही थीं आज मैया ।
कहनें लगा था - ब्याह करा दे.........ब्याह करा दे....।
बलराम सुन रहे हैं .............उन संकर्षण को ये समझते देर न लगी थी कि ......कृष्ण के वियोग में बृज की क्या स्थिति हो गयी है !
चन्द्रावली ! चन्द्रावली ! जल लानें में इतनी देर ?
अरे ! मुझ बूढी को ही उठना पड़ेगा ..........कोई गोपी भी तो आजकल यहाँ नही आती ...........दाऊ ! बुलाती हूँ तो कहतीं हैं ......."कन्हाई ज्यादा याद आता है नन्दभवन में "।
आप बैठिये मैया ! मैं स्वयं जल पी लूँगा .........दाऊ उठे ।
नही बैठ तू ? मेरा दाऊ ! तुझे "दाऊ दादा" कहता था कन्हाई ........अब दाऊ दादा आया है तो.........कितना हँस रही थीं मैया ।
ओह ! चन्द्रावली ! मैया जोर से चिल्लाईं ..........
दाऊ भीतर गए ..........जब देखा तो चन्द्रावली मूर्छित पड़ी थी ।
"सोलह हजार विवाह" की बात सुन ली थी चन्द्रावली नें ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
( ग्वाल सखाओं के मध्य बलराम ..)
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 107 !!
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मैं श्रीदामा ...........
राधा का बड़ा भाई.............राधा मुझ से छोटी है ।
पता नही और कितना कष्ट लिखा है हम वृन्दावन वालों के भाग्य में !
और यही कष्ट शताधिक गुना बढ़ जाता है तब, जब मैं अपनी बहन राधा को देखता हूँ......वर्षों हो गए कन्हैया के गए हुए......मुझे याद नही है कि मेरी बहन कभी सोई भी हो ..........निरन्तर कन्हैया के लिये रोती रहती है ............मैं ज्यादा इसके पास जाता नही हूँ ........क्यों की उसे संकोच होता मुझे देखकर .....तुरन्त अपनें आँसुओं को पोंछ लेती है .....और मुस्कुरानें का जबरदस्ती प्रयास करती है .........श्रीदामा भैया ! उठ नही पाती फिर भी गिरते हुए उठती है ..............पर मैं ऐसे अपनी बहन को देख नही सकता ............तुरन्त चल देता हूँ ।
महर्षि भी क्या क्या कहते रहते हैं ...............महर्षि शाण्डिल्य कह रहे थे .......कि मैने ही श्राप दिया है अपनी बहन राधा को .......?
मैने उनसे पूछा तो कहनें लगे .........गोलोक की लीला है ........तभी ये कृष्णावतार हुआ है..........और ये लम्बा वियोग भी उसी शाश्वत लीला का ही एक भाग है ........मैने महर्षि से पूछा भी कि - महर्षि ! अपनें ही दिए गए श्राप को मैं ही काटता चाहता हूँ ...........क्या करूँ ?
ये लीला है श्रीदामा ! और उस अनन्त की लीला का पार आज तक किसनें पाया है ......लीला में ही तो संयोग वियोग चलता है ।
इससे ज्यादा कुछ बताते नही हैं महर्षि शाण्डिल्य ।
दाऊ आये हैं...........सूचना मिली है आज........चलो ! स्वयं नही आये अपनें अग्रज को ही भेज दिया..........नन्दभवन में सखाओं नें मुझे बुलाया है .........अब ज्यादा नन्दभवन में जानें की इच्छा भी नही होती ..........क्या जाएँ ? वहाँ की दीवारें कन्हैया की याद बहुत दिलाती हैं .........मैया यशोदा की तो हर समय मुझ से एक ही शिकायत रहती है .........श्रीदामा ! तू क्यों नही आता ।
पर ........................।
हे वज्रनाभ ! इस तरह अपनें सखा कन्हैया का स्मरण करते हुये ......नन्दभवन पहुँचे थे श्रीदामा ।
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दाऊ !
मन प्रफुल्लित हो उठा , बलराम भैया को देखते ही ।
मैं दौड़ पड़ा था .........ग्वालों के मध्य में बैठे थे दाऊ भैया ..............मुझे देखते ही वो भी उठकर खड़े हो गए ..........और अत्यधिक प्रसन्नता से मुझे अपनें हृदय से लगा लिया था ।
मनसुख, मधुमंगल, तोक, इत्यादि सब सखा थे वहाँ ।
मुझसे कुशलता पूछी दाऊ नें .........फिर मेरे पिता बृषभान जी और मेरी मैया के बारे में भी पूछा............"मैं कल आऊँगा बरसाना" ।
गम्भीर तो ये शुरू से ही थे ........चंचल तो वही हमारा सखा ही था ।
कहाँ खो गए श्रीदामा !
दाऊ नें मुझे कुछ सोचते हुए देखा तो पूछ लिया ।
दाऊ ! सुना है तुम लोग द्वारिका चले गए ? मैने पूछा ।
क्या द्वारिका में गैया हैं ? मनसुख बीच में ज्यादा बोलता है ।
क्या ऐसे वन, वृक्ष, पक्षी हैं द्वारिका में ?
अब तोक सखा नें भी पूछा ।
दाऊ ! बताओ ........द्वारिका कहाँ है ? मधुमंगल का प्रश्न था ।
समुद्र का द्वीप है द्वारिका ...............दाऊ नें बताया ।
यमुना नही हैं वहाँ ? मनसुख चुप नही रह सकता ।
मुस्कुराये दाऊ .........नही ......वहाँ यमुना नही है ।
फिर तुम लोग नहाते कहाँ हो ? मनसुख ही बोल रहा है ।
अरे पागल ! समुद्र में भी पानी होता है .......और समुद्र में यमुना से भी ज्यादा पानी होता है ...............पानी पानी होता है ......मधुमंगल नें समाधान किया ।
दाऊ ! फिर तो नहानें मत जाना समुद्र में ...............डूब गए तो !
मनसुख सजल नयन से बोला - दाऊ ! तू भले ही समुद्र नहा लियो .......क्यों की तू तो शक्तिशाली है ...........तू तो बड़ा है .......
पर हमारे कन्हैया को मत जानें देना समुद्र में ..............उसको पकड़ कर रखना ..........कहीं जिद्द में आकर कालीदह की तरह समुद्र में कूद गया तो .......हाँ .....दाऊ ! वो बड़ा चंचल है .........कूद भी जाएगा .......
तू चुप रह यार ! .....कितना बोलता है ......मैने मनसुख को कहा था ।
मैने गलत क्या कहा ..............क्या तुम लोगों को पता नही है .......कालीदह में कैसे कूद गया था ............अब ये तो वृन्दावन था ......तो बच गया .........पर वो तो समुद्र है ..............कहीं हमारा कन्हैया डूब गया तो .............रो गया मनसुख .......दाऊ ! मेरी तरफ से कहना .......वो समुद्र में नहानें न जाए ।
मनसुख ! क्या हुआ ? तू क्यों रो रहा है ?
मैया यशोदा आज थोड़ी ठीक लग रही हैं.....कन्हाई न सही ....बड़ा भाई तो है कन्हाई का.....मैया को अच्छा लग रहा है दाऊ को देखना ।
मनसुख नें कहा .....मैया ! समुद्र यमुना जी से बड़ा है......दाऊ को कह रहा था मैं ......कि अपनें कन्हैया को समुद्र में नहानें को मत कहना ।
वृन्दावन से समृद्ध है तेरी द्वारिका दाऊ ?
मैया पूछती है ।
तुम भी कैसी बात करती हो .......सुवर्ण की है द्वारिका ।
नन्द बाबा आगये थे.......दाऊ नें चरण वन्दन किया ।
अच्छा ! सोनें की द्वारिका है ? मनसुख चौंक गया ।
पर दरिद्र है इस वृन्दावन के आगे वो सुवर्ण की द्वारिका ।
हाँ .........मैं सच कह रहा हूँ........इस प्रेमभूमि के आगे द्वारिका का वो वैभव तुच्छ है.......इस दिव्य वृन्दावन के आगे ..........
बलराम जी नें बड़ी दृढ़ता से कहा था ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan